प्रश्न: "सत्य" शब्द से क्या आशय है?
उत्तर: सत्य को मैंने अनुभव किया है। सह-अस्तित्व रूप में सत्य को मैंने पहचाना। सह-अस्तित्व ही परम सत्य है। सह-अस्तित्व को मैंने ऐसा देखा है - व्यापक वस्तु में एक-एक वस्तुएं (जड़ और चैतन्य) डूबी हुई, भीगी हुई, और घिरी हुई हैं। भीगा होने से हर वस्तु का ऊर्जा संपन्न होना समझ में आया। यह मुख्य बात है। हर वस्तु ऊर्जा संपन्न है, इसकी गवाही है - उसकी क्रियाशीलता। हर वस्तु अपने परमाण्विक स्वरूप में स्वयं-स्फूर्त रूप में क्रियाशील है। चाहे वह भौतिक वस्तु हो, रासायनिक वस्तु हो, या जीवन वस्तु हो। जीवन को ही हम चैतन्य वस्तु कह रहे हैं। भौतिक और रासायनिक पदार्थों को हम जड़ वस्तु कह रहे हैं। भौतिक और रासायनिक वस्तुओं के मूल में परमाणु स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील हैं। जीवन भी अपने स्वरूप में एक परमाणु ही है। यह इस अनुसंधान की एक बहुत गरिमा-संपन्न उपलब्धि है - जो ईश्वर-वादी नहीं पहचान पाये, और भौतिकवादी भी नहीं पहचान पाए। परमाणु की चर्चा भौतिकवादियों ने बहुत किया। ईश्वर-वादियों के पास परमाणु का चर्चा करने का कोई माद्दा नहीं रहा - यह मैं मानता हूँ।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Sunday, October 19, 2008
Saturday, October 18, 2008
संदेश, सूचना, फ़िर अध्ययन
संदेश, सूचना, फ़िर अध्ययन। अध्ययन के बाद रुकता नहीं है। आप-हमारे बीच में संदेश और सूचना हो गयी है - अब अध्ययन की बारी है। अध्ययन में हम कितना गतिशील हो पायेंगे, यह सोचने का मुद्दा है। अध्ययन के बिना कोई व्यक्ति विद्वान हो गया, अच्छा-पन प्रमाणित हो गया - यह हो नहीं सकता। इसके अलावा "अच्छा-पन" को व्यक्त करने की दो जगह हैं - "सेवा" और "श्रम" के रूप में। ज्यादा से ज्यादा बढ़िया सेवा कर सकते हैं, या श्रम कर सकते हैं - इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। इसमें भी श्रमशीलता को लोगों ने अच्छा वास्तव में माना नहीं है। श्रम को अच्छा कहा भी होगा तो औपचारिक रूप में कहा होगा। यहाँ तक कि श्रम करने वाला भी यह तय नहीं कर पा रहा है कि श्रम करना अच्छा कार्य है, या बुरा। "समझदारी" का कुछ अता-पता नहीं है, इसलिए उसकी श्रेष्ठता की कोई बात ही नहीं है।
इसलिए समझदारी को जनमानस में डालने के लिए एक प्रयोग तो किया जाए! बर्बादी के लिए आदमी ने इतने प्रयोग किए हैं, एक प्रयोग आबादी के लिए भी किया जाए। यहाँ से हम शुरू किए। इसके लिए इस दशक में हम कुछ काम किए। करने पर पता चला - हमारे थोड़े करने पर ही ज्यादा फल होता है। आबादी का फल ज्यादा विस्तार होता है, बर्बादी का फल सीमित होता जाता है। यह धरती की ही महिमा है। आदमी धरती के साथ इतना बर्बादी किया - फ़िर भी धरती हर दुर्घटना को छोटा बना कर छोड़ देती है। इसलिए हर दुर्घटना सुधर सकता है, इस जगह में हम आते हैं। इससे मैं यह आशा करता हूँ - धरती में अभी भी सुधरने की ताकत किसी न किसी अंश में रखी है। इसलिए धरती की इस ताकत को बुलंद करने के लिए अपने आबादी के प्रयोगों को बुलंद किया जाए।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७)
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