इकाइयों की परस्परता में खाली स्थली जैसे जो दिखती है - वह खाली नहीं है, ऊर्जा है। यह ऊर्जा सब में पारगामी है - परमाणु अंश से धरती तक में। पारगामी होने का गवाही है - इकाइयों की ऊर्जा सम्पन्नता। मानव में ऊर्जा सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है।
मानव में ज्ञान १३ स्वरूपों में करने के रूप में प्रकट होता है।
चार विषयों का ज्ञान (आहार, निद्रा, भय, मैथुन)
पाँच संवेदनाओं का ज्ञान (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध)
तीन ईषणाओं का ज्ञान (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, और लोकेष्णा)
और उपकार का ज्ञान (समझे हुए को समझाना, सीखे हुए को सिखाना, किए हुए को कराना )
ज्ञान के बिना मानव में यह सब नहीं होता। चार विषयों को समझे बिना हम उनको उपयोग नहीं कर सकते। पाँच संवेदनाओं को समझे हुए बिना हम उनका उपयोग नहीं कर सकते। उसी तरह ईषणाओं और उपकार को समझे बिना हम उनको नहीं कर सकते। वह समझना ही ज्ञान है।
मानव में व्यापक ज्ञान के रूप में काम कर रहा है। उपरोक्त १३ स्वरूपों में जो भी मानव काम करता है - उसके मूल में ज्ञान रहता है। इनमें से चार विषयों को पहचानने की बात जीव-संसार में भी है। जीव जानवर चार विषयों में जीने के अर्थ में पाँच संवेदनाओं का उपयोग करते हैं। (जैसे - जीव जानवर गंध को इस्तेमाल करके अपने आहार को खोजते हैं।) जबकि मनुष्य पाँच संवेदनाओं को राजी रखने के लिए विषयों को पहचानता है। (जैसे - मनुष्य अपनी रस-इन्द्रियों को राजी रखने के लिए आहार ढूँढता है। ) यह संवेदनाओं को राजी रखने की बात मनुष्य में है, जो जीवों में नहीं है। यह मनुष्य और जीवों में मौलिक अन्तर है।
मनुष्य जो कुछ भी करता है - उसके मूल में "अच्छा लगने" की इच्छा है। सबसे पहले मनुष्य को संवेदनाओं में ही अच्छा लगता है। यही मानव की कल्पना-शीलता और कर्म-स्वतंत्रता का पहला प्रभाव है। इसी आधार पर मानव को ज्ञान-अवस्था में कहा है। मनुष्य का सारा क्रिया-कलाप सुख की अपेक्षा में है - यहीं से मानव का अध्ययन शुरू होता है। इस विधि से जब हम मानव का अध्ययन करने जाते हैं - तो यह विगत के इतिहास में जो कुछ भी हुआ, उससे जुड़ता नहीं है। इसके साथ विगत का सारा screen ख़त्म। मानव के अध्ययन का reference-point यह हुआ, न की विगत की कोई भी चीज़।
- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६ में)
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Sunday, May 18, 2008
Monday, May 12, 2008
प्रश्न, शंका, और जिज्ञासा में भेद क्या है?
प्रश्न = वस्तु क्यों और कैसा है? (जैसे मैं क्यों हूँ, और मुझे कैसे रहना है? जैसे - यह अस्तित्व क्यों है, और कैसा है?)
शंका = जो हमको समझ में नहीं आया, उसके प्रति हम शंका करते हैं।
जिज्ञासा = जो अस्पष्ट है, उसको स्पष्ट करने के अर्थ में जिज्ञासा है।
- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६ में)
जीवन ही जीवन को कैसे देखता (समझता) है?
मन का दृष्टा वृत्ति होता है। मन में निरंतर जो आस्वादन की क्रिया चल रही है - उसको वृत्ति देखता है, मूल्यांकित करता है, विश्लेषित करता है। मनुष्य में कल्पनाशीलता के ज्ञान-सम्पन्नता को छूने का पहला घाट यही है। स्वयं में निरंतर आस्वादन क्रिया हो रही है - इसको देख पाना मनुष्य में ही सम्भव है। जीव-जानवर इस तरह नहीं देख पाते। इसीलिए जीव-जानवर अपने शरीर वंश की व्यवस्था के अनुसार विषयों में जीते रहते हैं।
वृत्ति का दृष्टा चित्त होता है। यह मनुष्य में कल्पनाशीलता के ज्ञान-सम्पन्नता को छूने का दूसरा घाट है। वृत्ति द्वारा मन का किया गया विश्लेषण कहाँ तक ठीक हुआ? कहाँ तक न्याय है? कहाँ तक धर्म है? कहाँ तक सत्य है? चित्त में उपरोक्त का मूल्यांकन होता है। यही अध्ययन है। न्याय, धर्म, और सत्य को अस्तित्व में वास्तविकताओं के रूप में पहचानने का प्रयास ही अध्ययन है।
इसी क्रम में बुद्धि चित्त का दृष्टा होता है। अर्थात बुद्धि चित्त के क्रियाकलाप का दृष्टा रहता है। सह-अस्तित्व सहज अध्ययन की स्वीकृति बुद्धि में ही होती है। बुद्धि में बोध होने के लिए सर्व-सुलभ विधि अध्ययन-विधि ही है। अध्ययन के लिए मन को लगा देना ही अभ्यास है।
आत्मा बुद्धि का दृष्टा होता है। अध्ययन पूर्वक बुद्धि में सत्य-बोध पूर्ण होने पर आत्मा का सह-अस्तित्व में अनुभव करना भावी हो जाता है। जीवन का मध्यांश (आत्मा) अनुभव करने के योग्य रहता ही है। बुद्धि में बोध के बाद आत्मा सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में अनुभव करता ही है। जब आत्मा अस्तित्व में अनुभव करता है तो सारा जीवन अनुभव में भीग जाता है। मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में, और आत्मा सह-अस्तित्व में अनुभव करता है।
- श्री नागराज शर्मा के साथ अगस्त २००६ में हुए संवाद पर आधारित
वृत्ति का दृष्टा चित्त होता है। यह मनुष्य में कल्पनाशीलता के ज्ञान-सम्पन्नता को छूने का दूसरा घाट है। वृत्ति द्वारा मन का किया गया विश्लेषण कहाँ तक ठीक हुआ? कहाँ तक न्याय है? कहाँ तक धर्म है? कहाँ तक सत्य है? चित्त में उपरोक्त का मूल्यांकन होता है। यही अध्ययन है। न्याय, धर्म, और सत्य को अस्तित्व में वास्तविकताओं के रूप में पहचानने का प्रयास ही अध्ययन है।
इसी क्रम में बुद्धि चित्त का दृष्टा होता है। अर्थात बुद्धि चित्त के क्रियाकलाप का दृष्टा रहता है। सह-अस्तित्व सहज अध्ययन की स्वीकृति बुद्धि में ही होती है। बुद्धि में बोध होने के लिए सर्व-सुलभ विधि अध्ययन-विधि ही है। अध्ययन के लिए मन को लगा देना ही अभ्यास है।
आत्मा बुद्धि का दृष्टा होता है। अध्ययन पूर्वक बुद्धि में सत्य-बोध पूर्ण होने पर आत्मा का सह-अस्तित्व में अनुभव करना भावी हो जाता है। जीवन का मध्यांश (आत्मा) अनुभव करने के योग्य रहता ही है। बुद्धि में बोध के बाद आत्मा सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में अनुभव करता ही है। जब आत्मा अस्तित्व में अनुभव करता है तो सारा जीवन अनुभव में भीग जाता है। मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में, और आत्मा सह-अस्तित्व में अनुभव करता है।
- श्री नागराज शर्मा के साथ अगस्त २००६ में हुए संवाद पर आधारित
अकेलापन हमारा दूसरों को ग़लत चाहने वाला मान लेने के कारण होता है.
प्रश्न: अकेलापन क्या है? अकेलापन कैसे दूर हो?
उत्तर: अकेलेपन के मूल में यह मान्यता है - "मैं तो सही हूँ, लेकिन संसार ग़लत है और सही करने योग्य नहीं है।" अकेलापन असहअस्तित्ववादी है। अकेलापन सहज नहीं है। इस बात की सच्चाई को अपने में जांचने की ज़रूरत है।
अकेलेपन को दूर करने का इलाज है, इस बात की सच्चाई को स्वीकार लेना कि - "संसार सही (अच्छाई) को ही चाहता है।" "मैं अच्छा चाहता हूँ" - यह स्वीकृति हम में होती ही है। संसार को भी जब अच्छाई के लगावदार के रूप में जब हम स्वीकार लेते हैं - तो हमारा अकेलापन भाग जाता है। संसार से विश्वास करने का सूत्र मिल जाता है।
समझने के क्रम में विद्यार्थियों के बीच में विश्वास का सूत्र - "समझ" लक्ष्य की समानता है। "बाकी विद्यार्थीजन भी मेरी तरह समझना, और समझ कर जीना चाहते हैं, और उसी के लिए प्रयासरत हैं।" - यह स्वीकारने पर ही साथियों के बीच विश्वास और स्नेह का सूत्र निकलता है। यह प्रतिस्पर्धा से बिल्कुल भिन्न स्थिति है - इसमें परस्पर पूरकता है।
स्वयम समझे होने पर संसार को समझ सकने योग्य मानने पर ही हम संसार के साथ व्यवहार कर सकते हैं। संसार को पापी, अज्ञानी, स्वार्थी मान कर हम किसी को कुछ समझा नहीं पायेंगे। "समझाने की जिम्मेदारी " को हम संसार के साथ इस तरह विश्वास करने के बाद ही स्वीकार सकते हैं। यही दया, कृपा, और करुणा का सूत्र है।
- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (२००८)
उत्तर: अकेलेपन के मूल में यह मान्यता है - "मैं तो सही हूँ, लेकिन संसार ग़लत है और सही करने योग्य नहीं है।" अकेलापन असहअस्तित्ववादी है। अकेलापन सहज नहीं है। इस बात की सच्चाई को अपने में जांचने की ज़रूरत है।
अकेलेपन को दूर करने का इलाज है, इस बात की सच्चाई को स्वीकार लेना कि - "संसार सही (अच्छाई) को ही चाहता है।" "मैं अच्छा चाहता हूँ" - यह स्वीकृति हम में होती ही है। संसार को भी जब अच्छाई के लगावदार के रूप में जब हम स्वीकार लेते हैं - तो हमारा अकेलापन भाग जाता है। संसार से विश्वास करने का सूत्र मिल जाता है।
समझने के क्रम में विद्यार्थियों के बीच में विश्वास का सूत्र - "समझ" लक्ष्य की समानता है। "बाकी विद्यार्थीजन भी मेरी तरह समझना, और समझ कर जीना चाहते हैं, और उसी के लिए प्रयासरत हैं।" - यह स्वीकारने पर ही साथियों के बीच विश्वास और स्नेह का सूत्र निकलता है। यह प्रतिस्पर्धा से बिल्कुल भिन्न स्थिति है - इसमें परस्पर पूरकता है।
स्वयम समझे होने पर संसार को समझ सकने योग्य मानने पर ही हम संसार के साथ व्यवहार कर सकते हैं। संसार को पापी, अज्ञानी, स्वार्थी मान कर हम किसी को कुछ समझा नहीं पायेंगे। "समझाने की जिम्मेदारी " को हम संसार के साथ इस तरह विश्वास करने के बाद ही स्वीकार सकते हैं। यही दया, कृपा, और करुणा का सूत्र है।
- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (२००८)
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