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Monday, May 12, 2008

जीवन ही जीवन को कैसे देखता (समझता) है?

मन का दृष्टा वृत्ति होता है। मन में निरंतर जो आस्वादन की क्रिया चल रही है - उसको वृत्ति देखता है, मूल्यांकित करता है, विश्लेषित करता है। मनुष्य में कल्पनाशीलता के ज्ञान-सम्पन्नता को छूने का पहला घाट यही है। स्वयं में निरंतर आस्वादन क्रिया हो रही है - इसको देख पाना मनुष्य में ही सम्भव है। जीव-जानवर इस तरह नहीं देख पाते। इसीलिए जीव-जानवर अपने शरीर वंश की व्यवस्था के अनुसार विषयों में जीते रहते हैं।

वृत्ति का दृष्टा चित्त होता है। यह मनुष्य में कल्पनाशीलता के ज्ञान-सम्पन्नता को छूने का दूसरा घाट है। वृत्ति द्वारा मन का किया गया विश्लेषण कहाँ तक ठीक हुआ? कहाँ तक न्याय है? कहाँ तक धर्म है? कहाँ तक सत्य है? चित्त में उपरोक्त का मूल्यांकन होता है। यही अध्ययन है। न्याय, धर्म, और सत्य को अस्तित्व में वास्तविकताओं के रूप में पहचानने का प्रयास ही अध्ययन है।

इसी क्रम में बुद्धि चित्त का दृष्टा होता है। अर्थात बुद्धि चित्त के क्रियाकलाप का दृष्टा रहता है। सह-अस्तित्व सहज अध्ययन की स्वीकृति बुद्धि में ही होती है। बुद्धि में बोध होने के लिए सर्व-सुलभ विधि अध्ययन-विधि ही है। अध्ययन के लिए मन को लगा देना ही अभ्यास है।

आत्मा बुद्धि का दृष्टा होता है। अध्ययन पूर्वक बुद्धि में सत्य-बोध पूर्ण होने पर आत्मा का सह-अस्तित्व में अनुभव करना भावी हो जाता है। जीवन का मध्यांश (आत्मा) अनुभव करने के योग्य रहता ही है। बुद्धि में बोध के बाद आत्मा सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में अनुभव करता ही है। जब आत्मा अस्तित्व में अनुभव करता है तो सारा जीवन अनुभव में भीग जाता है। मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में, और आत्मा सह-अस्तित्व में अनुभव करता है।

- श्री नागराज शर्मा के साथ अगस्त २००६ में हुए संवाद पर आधारित

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