प्रश्न: अकेलापन क्या है? अकेलापन कैसे दूर हो?
उत्तर: अकेलेपन के मूल में यह मान्यता है - "मैं तो सही हूँ, लेकिन संसार ग़लत है और सही करने योग्य नहीं है।" अकेलापन असहअस्तित्ववादी है। अकेलापन सहज नहीं है। इस बात की सच्चाई को अपने में जांचने की ज़रूरत है।
अकेलेपन को दूर करने का इलाज है, इस बात की सच्चाई को स्वीकार लेना कि - "संसार सही (अच्छाई) को ही चाहता है।" "मैं अच्छा चाहता हूँ" - यह स्वीकृति हम में होती ही है। संसार को भी जब अच्छाई के लगावदार के रूप में जब हम स्वीकार लेते हैं - तो हमारा अकेलापन भाग जाता है। संसार से विश्वास करने का सूत्र मिल जाता है।
समझने के क्रम में विद्यार्थियों के बीच में विश्वास का सूत्र - "समझ" लक्ष्य की समानता है। "बाकी विद्यार्थीजन भी मेरी तरह समझना, और समझ कर जीना चाहते हैं, और उसी के लिए प्रयासरत हैं।" - यह स्वीकारने पर ही साथियों के बीच विश्वास और स्नेह का सूत्र निकलता है। यह प्रतिस्पर्धा से बिल्कुल भिन्न स्थिति है - इसमें परस्पर पूरकता है।
स्वयम समझे होने पर संसार को समझ सकने योग्य मानने पर ही हम संसार के साथ व्यवहार कर सकते हैं। संसार को पापी, अज्ञानी, स्वार्थी मान कर हम किसी को कुछ समझा नहीं पायेंगे। "समझाने की जिम्मेदारी " को हम संसार के साथ इस तरह विश्वास करने के बाद ही स्वीकार सकते हैं। यही दया, कृपा, और करुणा का सूत्र है।
- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (२००८)
उत्तर: अकेलेपन के मूल में यह मान्यता है - "मैं तो सही हूँ, लेकिन संसार ग़लत है और सही करने योग्य नहीं है।" अकेलापन असहअस्तित्ववादी है। अकेलापन सहज नहीं है। इस बात की सच्चाई को अपने में जांचने की ज़रूरत है।
अकेलेपन को दूर करने का इलाज है, इस बात की सच्चाई को स्वीकार लेना कि - "संसार सही (अच्छाई) को ही चाहता है।" "मैं अच्छा चाहता हूँ" - यह स्वीकृति हम में होती ही है। संसार को भी जब अच्छाई के लगावदार के रूप में जब हम स्वीकार लेते हैं - तो हमारा अकेलापन भाग जाता है। संसार से विश्वास करने का सूत्र मिल जाता है।
समझने के क्रम में विद्यार्थियों के बीच में विश्वास का सूत्र - "समझ" लक्ष्य की समानता है। "बाकी विद्यार्थीजन भी मेरी तरह समझना, और समझ कर जीना चाहते हैं, और उसी के लिए प्रयासरत हैं।" - यह स्वीकारने पर ही साथियों के बीच विश्वास और स्नेह का सूत्र निकलता है। यह प्रतिस्पर्धा से बिल्कुल भिन्न स्थिति है - इसमें परस्पर पूरकता है।
स्वयम समझे होने पर संसार को समझ सकने योग्य मानने पर ही हम संसार के साथ व्यवहार कर सकते हैं। संसार को पापी, अज्ञानी, स्वार्थी मान कर हम किसी को कुछ समझा नहीं पायेंगे। "समझाने की जिम्मेदारी " को हम संसार के साथ इस तरह विश्वास करने के बाद ही स्वीकार सकते हैं। यही दया, कृपा, और करुणा का सूत्र है।
- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (२००८)
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