This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
ज्ञान है - जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान. इसका सूचना आपको हो गया है, इसके अध्ययन में हम चल ही रहे हैं.
ज्ञान के सहमति में विवेक होता है, जो विवेचना है. विचार स्वरूप में विवेचना है. विश्लेषण के आधार पर विचार का निश्चयन होना विवेक है. तीन निश्चयन होते हैं - (१) शरीर का नश्वरत्व, (२) जीवन का अमरत्व, (३) व्यवहार के नियम
उसके बाद विज्ञान में कालवादी, क्रियावादी, निर्णयवादी ज्ञान है. काल नित्य वर्तमान ही है. भूत और भविष्य वर्तमान का ही नाम है. किसी क्रिया की अवधि के आधार पर हम भूत और भविष्य नाम देते हैं. क्रिया निरंतर है - इसलिए वर्तमान निरंतर है. जीवन मूल्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) और मानव लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व) के अर्थ में निर्णय लेने की क्रिया निर्णयवादी ज्ञान है. लक्ष्य के प्रति दिशा निर्धारण की क्रिया विज्ञान है.
आज जो भौतिकवादी विचार प्रचलित है, उससे यह कितना दूर है - आप सोच लो! विज्ञान को "सच्चाई" से कोई लेन-देन ही नहीं है, वह जो यंत्र बताता है उसको सच मानता है. भौतिकवादी विधि से अपराध प्रवृत्ति में जाने से सच्चाइयाँ दूर हो गए. आदर्शवादी विधि से वेद विचार में "सच्चाई" पास लगता था - हमको प्रयत्न करना है, साधना करना है, तो सच्चाई को पा लेंगे - यह सब बात थी. अब भौतिकवादी विचार के चलते सच्चाई की कल्पना ही दूर हो गयी! अब यही रास्ता बनता है कि सच्चाइयों को पूरा अध्ययनगम्य ही करा दिया जाए. साधना पूर्वक जो सच्चाई को पाना था, अध्ययन पूर्वक उसको पाने की बात कर दी. मानव लक्ष्य और जीवन मूल्य स्वाभाविक रूप से सर्वसम्मत हैं. सर्वसम्मत उपलब्धियों की "अपेक्षा" होना जीवन सहज है. यह अपेक्षा जीव-जानवरों में नहीं है, मानव में है - क्योंकि मानव ज्ञानावस्था में है. मानव लक्ष्य और जीवन मूल्य का पूरा होना ज्ञान का प्रमाण है.
समाधान = सुख
समाधान, समृद्धि = सुख, शान्ति
समाधान, समृद्धि, अभय = सुख, शान्ति, संतोष
समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व = सुख, शान्ति, संतोष, आनंद
जीवन में सुख-शांति-संतोष-आनंद मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व स्वरूप में प्रमाणित होता है. इस तरह आदमी जो व्यक्तिवाद के लिए जो shell बना कर छुपने की जगह बनाता रहता था, वह छुपने की जगह ख़त्म हो गयी. व्यक्ति का "वैभव" होता है. व्यक्ति के "वाद" की आवश्यकता नहीं है. व्यक्ति का वैभव सुख-शांति-संतोष-आनंद है, जिसका क्रिया रूप है - समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ सम्वाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
उत्तर: क्रिया नित्य वर्तमान है. सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ऊर्जा संपन्न, बल संपन्न और क्रियाशील है. यह आधार है. क्रिया समाप्त नहीं होता है, एक क्रिया से दूसरी क्रिया में बदल सकता है.
क्रिया की व्याख्या है - श्रम, गति, परिणाम. श्रम और गति के संयुक्त स्वरूप में परिणाम है. गति और परिणाम के संयुक्त रूप में श्रम है. श्रम और परिणाम के संयुक्त रूप में गति है.
क्रिया का प्रयोजन है - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरण पूर्णता. उसमे से गठनपूर्णता नियति विधि से हो चुकी. क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता की अर्हता जीवन में है. उसके प्रमाणित होने के लिए मानव परम्परा है. यही तो मध्यस्थ दर्शन का आत्मा है! कितना छोटा सा काम है, कितना बड़ा इससे उपकार है - आप सोच लो! मानव परम्परा में मानव शरीर रचना का प्रकटन नियति विधि से हुआ है - जिसमे मानव का कोई योगदान नहीं है. शरीर रचना की विधि प्राणकोशिकाओं में ही निहित है. उस आधार पर मानव शरीर रचना का प्रकटन हुआ, जो जीवन द्वारा कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता व्यक्त होने योग्य हुआ. इसके चलते मानव जीवों से अच्छा जीने की शुरुआत किया. इस क्रम में मानव मनाकार को साकार करने में सफल हुआ, लेकिन मनः स्वस्थता को प्रमाणित करना शेष रहा. मनः स्वस्थता की कमी से ही मानव द्वारा सभी अपराधों को वैध मानते हुए मानव के साथ और इस धरती के साथ अपराध करना हुआ. इन सबके चलते धरती ही बीमार हो गयी. यदि मनाकार को साकार करने और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने की गति साथ साथ होती तो शायद यह हाल नहीं होता, मानव अपराध ग्रस्त नहीं होता - ऐसा हम अनुमान कर सकते हैं. अब मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने के लिए मध्यस्थ दर्शन का प्रस्ताव पूरा है या नहीं - इसको जांचो!
सहअस्तित्व में क्रिया निरंतर है. हर क्रिया स्थिति-गति के रूप में होती है. कितने भी सूक्ष्म में जाओ - वो है तो स्थिति-गति ही. स्थिति के बिना गति होती नहीं. क्रिया कभी रुकता नहीं है - तो क्रिया में बल और शक्ति दोनों है. स्थिति में बल और गति में शक्ति की पहचान होती है. इसके मूल में है साम्य ऊर्जा में सम्पृक्त्ता. साम्य ऊर्जा में जड़ चैतन्य प्रकृति संपृक्त है इसी लिए स्थिति में बल रहता ही है, गति में शक्ति प्रकट होता ही है. स्थिति में प्रगति हुए बिना गति के परिवर्तित होने का पता ही नहीं चलता. स्थिति-गति अविभाज्य वर्तमान है.
क्रिया को इकाई भी कहा है. इकाई है - सभी ओर से सीमित होना. एक पर्वत, एक मानव, एक वृक्ष, एक परमाणु - ये सब अपने में सीमित हैं, इसीलिये "एक" कहलाते हैं. एक-एक के आधार पर क्रिया के होने का पता चलता है.
क्रिया की अवधि = काल. किसी क्रिया की अवधि को हम reference मान लेते हैं, उसको हम काल मानते हैं. उसका विखंडन करके हम काम करते हैं.
प्रश्न: क्रिया को जो हम अभी पहचान पाते हैं वह तो इन्द्रियों द्वारा स्थूल स्तर पर क्रिया की पहचान है. सूक्ष्म स्तर पर क्रिया की पहचान कैसे होती है?
उत्तर: जीवन शरीर को जीवंत बनाता है तो उससे संवेदनशील क्रिया होती है, जिससे स्थूल स्तर पर मानव देख पाता है, सुन पाता है, आदि. संवेदनशीलता का प्रभाव इन्द्रियों के द्वारा ही होता है. परमाणु सूक्ष्म है. परमाणु इन्द्रियों से समझ नहीं आता. मानव के साथ इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर दोनों होता है. कुछ चीजें हैं जिनको मानव पांच ज्ञानेन्द्रियों से देखता है, फिर उनको समझता है या उसको वह ज्ञानगोचर होता है. जैसे - पानी को मानव इन्द्रियों से पहचानता है (वो इन्द्रियगोचर है), उसके बाद पानी का स्वरूप एक जलने वाली वस्तु (hydrozen परमाणु) और एक जलाने वाली वस्तु (ऑक्सीजन परमाणु) के संयोग से है - यह जो उसको समझ में आता है, वो ज्ञानगोचर है. कुछ चीजों को वह समझता है, फिर उनको पांच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा व्यक्त करता है.
स्थूल स्वरूप में जो वस्तुएं हैं, वो इन्द्रियगोचर हैं.
सूक्ष्म स्वरूप में जो वस्तुएं हैं, वो ज्ञानगोचर हैं.
संवेदनशीलता की सीमा में इन्द्रियगोचर है.
संवेदनशीलता से जो परे है - वो ज्ञानगोचर है.
कई चीजें स्थूल स्वरूप भी हैं, सूक्ष्म स्वरूप भी हैं और कारण स्वरूप में भी हैं. (भौतिक रासायनिक संसार की वस्तुएं)
कई चीजें सूक्ष्म स्वरूप और कारण स्वरूप में है. (जीवन परमाणु सूक्ष्म और कारण के अविभाज्य स्वरूप में है)
एक ऐसा वस्तु है - जो केवल कारण स्वरूप में है. व्यापक वस्तु कारण स्वरूप में अपरिवर्तनीय यथास्थिति है, वही साम्य ऊर्जा है.
साम्य ऊर्जा में सम्पूर्ण एक-एक क्रियाएं हैं. साम्य ऊर्जा में भीगे होने से सभी एक-एक वस्तुओं को ऊर्जा प्राप्त है. साम्य ऊर्जा प्राप्त होने के आधार पर ही एक-एक वस्तु में ऊर्जा सम्पन्नता, बल सम्पन्नता, क्रियाशीलता है. जैसे - धरती क्रियाशील है, चंद्रमा क्रियाशील है, हर ग्रह-गोल नक्षत्र क्रियाशील है, फिर धरती पर हर खनिज, हर वनस्पति, हर जीव, हर मानव इसी प्रकार क्रियाशील है.
तो हर वस्तु ऊर्जा संपन्न है इसीलिये क्रियाशील है. क्रिया से जो ऊर्जा तैयार होता है, वह कार्य ऊर्जा है. बिजली आदि जो है वह क्रिया से पैदा होने वाली ऊर्जा है. जैसे मैं अपने दोनों हाथों को रगड़ता हूँ तो उससे गर्मी पैदा होती है, यह क्रिया से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा है. मेरे दोनों हाथ साम्य ऊर्जा संपन्न हैं ही. क्रिया करने से साम्य ऊर्जा व्यय होता ही नहीं है, वह बना ही रहता है. क्रिया तीन ही प्रकार की है - भौतिक क्रिया, रसायन क्रिया और जीवन क्रिया. ये तीनों क्रियाएं अपार संख्या में हैं. सर्वाधिक संख्या में भौतिक, उससे कम रासायनिक और उससे कम जीवन वस्तुएं हैं. इनके permutation-combination में चार अवस्थाएं हैं. चारों अवस्थाएं इन्द्रियगोचर हैं, उनके ज्ञानगोचर पक्ष की हम बात कर रहे हैं. साम्य ऊर्जा में सभी वस्तुएं भीगा है, डूबा है, घिरा है - यह समझ में आना ज्ञानगोचर है. ज्ञानगोचर जीवन में ही होता है, दृष्टिगोचर जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में होता है. जीवन न रहे, हमको कोई चीज़ दृष्टिगोचर हो जाए - ऐसा होगा नहीं.
प्रश्न: ज्ञानगोचर और दृष्टिगोचर को उदाहरण के साथ समझाइये.
उत्तर: अनुभव सूक्ष्म से सूक्ष्म तक है. करना एक सीमा तक ही होता है. ज्ञान (अनुभव) -> विचार -> करना. करना मतलब (दूसरी इकाइयों के साथ) योग-संयोग करने वाली क्रिया, जैसे यंत्र बनाना, सड़क बनाना.
यंत्र बनाने का पहले हममे ज्ञान होता है, कौनसा पुर्जा कहाँ फिट होता है, क्या करता है आदि - यह ज्ञानगोचर है. फिर पुर्जा बनाने का काम इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में होता है. फिर पुर्जों को assemble करने से यंत्र बन जाता है. इस विधि से मनाकार को साकार करना होता है.
कई वस्तुएं केवल ज्ञानगोचर हैं, जिनको मानव अपने आचरण में संवेदनशीलता द्वारा प्रमाणित करता है. जैसे सत्य केवल ज्ञानगोचर है. सत्य में अनुभव को मानव संवेदनशीलता द्वारा प्रमाणित करता है. जिससे दूसरों को पता चलता है - यह सत्य है. इसी तरह समाधान ज्ञानगोचर है, नियम ज्ञानगोचर है, न्याय ज्ञानगोचर है.
पेड़ पौधे पत्तों से सांस लेते हैं, यह बात इन्द्रियगोचर नहीं है, ज्ञानगोचर है. भौतिक वस्तुएं साम्य ऊर्जा में संपृक्त होने से ऊर्जा संपन्न हैं - यह बात ज्ञानगोचर है.
हर परमाणु स्वयंस्फूर्त क्रियाशील है. स्वयंस्फूर्त क्रियाशीलता होने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता है. व्यापक स्वयं पारगामी होने के कारण हर वस्तु ऊर्जा संपन्न है. ऊर्जा सम्पन्नता ही ज्ञान स्वरूप में मानव में व्यक्त है.
हर मानव में कल्पनाशीलता प्रभावशील है. कल्पनाशीलता इन्द्रियगोचर नहीं है. इन्द्रियों के द्वारा इन्द्रियों की सीमा में ही संवेदनशीलता के रूप में कल्पनाएँ प्रभावित होते हैं. कल्पनाशीलता जीवन से है. जीवन समझ में नहीं आने से शरीर से ही कल्पना होता है यह भौतिकवाद में मान लेते हैं. structure के अनुसार function होता है - ऐसा वो कहते हैं.
आदर्शवादियों के अनुसार ज्ञानगोचर रहस्य हो गया. भौतिकवादियों के अनुसार ज्ञानगोचर अनावश्यक हो गया.
प्रश्न: क्या ज्ञानगोचर का चित्रण होता है?
उत्तर: ज्ञानगोचर और दृष्टिगोचर दोनों का चित्रण होता है.
प्रश्न: स्थिति-क्रिया और गति-क्रिया में क्या भेद है?
उत्तर: स्थिति-गति की समझ ज्ञानगोचर है. इन्द्रियों से स्थिति-गति का पता नहीं चलता. स्थिति-क्रिया बल सम्पन्नता है. गति-क्रिया शक्ति सम्पन्नता है. होना स्थिति है, रहना गति है. स्थिति और गति दोनों क्रिया है. गति क्रिया स्थानांतरण और परिवर्तन का आधार है. स्थिति क्रिया इकाई के रूप में होने का आधार है. अपनी लम्बाई चौड़ाई ऊंचाई के अनुसार हर भौतिक रासायनिक वस्तु का स्थिति बना रहता है.
प्रश्न: आप जो कहते हैं कि "क्रियाशीलता के मूल में ऊर्जा सम्पन्नता आवश्यक है" - यह एक तर्क है न?
उत्तर: इस तर्क को मैं (अनुभव सम्पन्नता के साथ) प्रस्तुत करता हूँ, वह आपके लिए दृष्टिगोचर विधि से ज्ञानगोचर तक पहुँचने का रास्ता है. आप इसको स्वीकार कर सारे बात को सोचते हो, अनुमान करते हो कि इस समझ के साथ मानव अपराध मुक्ति तक आता है या नहीं. क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता होता है तो अपराध मुक्ति होता ही है.
मानव परम्परा में कार्य करता हुआ हर जीवन ज्ञानी है या ज्ञानी होने योग्य है. ज्ञान के परम्परा में होने पर उसको ग्रहण करने की जीवन पात्रता रखता है. जीवन ज्ञान ग्रहण करता है, शरीर के साथ उसको प्रमाणित करता है. शरीर क्रिया के लिए प्रेरणा जीवन से है.
ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर के अंतर को समझने की आवश्यकता है. सारी समझ प्रमाणित होने के लिए है. समझने के बाद प्रमाण होता ही है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)