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Tuesday, September 18, 2018

मध्यस्थ दर्शन के लोकव्यापीकरण की तीन योजनायें

अनुसंधान पूर्वक श्रद्धेय ए नागराज जी  (बाबा जी) ने मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद (बनाम अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन) को आदर्शवाद और भौतिकवाद के “विकल्प” के स्वरूप में प्रस्तुत किया.  इस दर्शन के लोकव्यापीकरण के लिए तीन योजनाओं को भी प्रस्तुत किया, जिनके शीर्षक निम्न अनुसार हैं.

(१) जीवन विद्या योजना
(२) शिक्षा का मानवीयकरण योजना
(३) परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना

ये तीन योजनायें हैं, और यही तीन योजनायें हैं.  मध्यस्थ दर्शन से जुड़े सभी कार्यक्रम इन तीन योजनाओं से सम्बद्ध हैं.  इन योजनाओं के क्रियान्वयन का क्रम है - पहले जीवन विद्या योजना है, फिर शिक्षा का मानवीयकरण योजना है, फिर परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना है.  लेकिन इन योजनाओं के सूत्रपात का क्रम इससे उल्टा है. यह भेद समझना आवश्यक है.

बाबा जी साधना-समाधि-संयम पूर्वक अनुभव सम्पन्न हुए और मानवीयता पूर्ण आचरण में स्थित हुए, और इसके बाद समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने के स्वरूप में अपने परिवार को स्थापित किये – और अपने जीने को ही “प्रमाण” के स्वरूप में घोषित किया और प्रस्तुत किया.  इस तरह परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना का सूत्रपात सबसे पहले हुआ.  मानवीयता पूर्ण आचरण का ही विस्तार है - दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था.  बाबा जी ने स्वयं उसके सूत्र-व्याख्या स्वरूप में शरीर यात्रा पर्यंत जिया.  यह आधार या reference है - मध्यस्थ दर्शन पर आधारित स्वराज्य व्यवस्था के किसी भी कार्यक्रम का.

 उसके बाद उन्होंने अनुसंधान पूर्वक प्राप्त समझ/ज्ञान/जानकारी का भाषाकरण शुरू किया.  इस तरह मानवीयता पूर्ण आचरण के साथ भाषा/परिभाषा जुडी.  यह दूसरे लोगों के लिए अध्ययन की वस्तु बनी.  इस तरह उन्होंने अनुभवमूलक विधि से अनुभवगामी पद्दति को तैयार किया.  पूरा वांग्मय दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान को लिखा गया.  साथ में परिभाषा संहिता को जोड़ा गया – इसमें शब्द परंपरा से लिए गए लेकिन उनका अर्थ उन्होंने इस विकल्प के अनुसार परिभाषित किया.  इस पूरे वांग्मय को “चेतना विकास - मूल्य शिक्षा” की वस्तु कहा और बताया कि यह मध्यस्थ दर्शन पर आधारित विकल्पात्मक शिक्षा की मूल वस्तु है.  उनके साथ जिज्ञासु जो जुड़े उन्होंने उनको इसका अध्ययन कराना शुरू कर दिया.  इस तरह शिक्षा के मानवीयकरण योजना के स्वरूप का सूत्र-पात हुआ.  आगे चल के उन्होंने अभ्युदय संस्थान अछोटी में अध्ययन शिविरों की शुरुआत कर दी, जो बाद में अन्य स्थानों पर भी शुरू हो गए.  इस तरह यह आधार या reference बना - मध्यस्थ दर्शन पर आधारित किसी भी शिक्षा के कार्यक्रम का.

तीसरी स्थिति में उन्होंने अब जन संपर्क शुरू किया.   यह बात हर मानव, चाहे वह ज्ञानी हो, विज्ञानी हो, अज्ञानी हो – उसको संप्रेषित होती है या नहीं?  उन्होंने स्वयं जीवन विद्या शिविरों के प्रबोधन की शुरुआत की.  “जीवन विद्या – एक परिचय” पुस्तक उनके द्वारा प्रबोधित एक शिविर ही लिपिबद्ध है.  इस तरह उन्होंने जीवन विद्या योजना का सूत्रपात किया.  साथ ही उन्होंने “जीवन विद्या – अध्ययन बिंदु” नाम की पुस्तिका लिखी – जीवन विद्या के प्रबोधकों के मार्गदर्शन के लिए.   इस तरह यह आधार या reference बना - मध्यस्थ दर्शन पर आधारित किसी भी जन संपर्क कार्यक्रम का.

दर्शन के लोकव्यापीकरण के ये आधार या reference अनुभव मूलक विधि से स्थापित किये गए हैं.  इनकी उपेक्षा या अवहेलना करके हम यदि कुछ भी कार्यक्रम अपने मन से बनाते हैं तो उसका असफल होना निश्चित ही है.  दूसरी ओर यदि हम इन आधारों पर अपने कार्यक्रमों को खड़ा करते हैं तो अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था का साकार होना निश्चित ही है.

इस तरह संक्षेप में –

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना की शुरुआत = मानवीयता पूर्ण आचरण
शिक्षा का मानवीयकरण योजना की शुरुआत = मानवीयता पूर्ण आचरण + भाषा
जीवन विद्या योजना की शुरुआत = मानवीयता पूर्ण आचरण + भाषा + जनसंपर्क

लोकव्यापीकरण में तीनो योजनाओं का अपना महत्त्व है, और ये तीनो योजनायें साथ-साथ हैं, इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता है.  इसमें केंद्र में है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना.  इसी व्यवस्था के अंतर्गत या इस व्यवस्था के आश्रय में मानवीयकृत शिक्षा है, जहाँ शोध होगा और उस शोध की उपलब्धियां जीवन विद्या योजना द्वारा जनसंपर्क पूर्वक जन सामान्य तक पहुंचेगी.  जीवन विद्या योजना अपने में कोई स्वतन्त्र योजना नहीं है – यह अन्य दोनों योजनाओं के आश्रय में है.

व्यवस्था आचरण का ही फैलाव है.  व्यवस्था और शिक्षा अन्योन्याश्रित है.  व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा है, और शिक्षा व्यवस्था के लिए स्त्रोत है.  यहाँ इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यह विकल्पात्मक शिक्षा और विकल्पात्मक व्यवस्था की बात है न कि उसकी जो अभी संसार में व्यवस्था और शिक्षा के नाम पर चल रहा है.  दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के अंतर्गत ही इस विकल्पात्मक शिक्षा के सोपानों की भी पहचान है.  जीवन विद्या योजना एक तरह से इस विकल्पात्मक शिक्षा और व्यवस्था के लिए एक induction program है – जिसमे दर्शन की अवधारणाओं और इस विकल्पात्मक शिक्षा और व्यवस्था का एक परिचय है.  जीवन विद्या शिविर का प्रयोजन है – नए संपर्क में आये लोगों को मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन से जोड़ना.  मध्यस्थ दर्शन का अध्ययन इसके अनुरूप जीने के वातावरण में संभव है.  दस सोपानीय व्यवस्था के अंतर्गत जीने का अभ्यास करते हुए ही मध्यस्थ दर्शन का अध्ययन संभव है.

- राकेश गुप्ता (मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन क्रम में प्रस्तुत.  इसमें सुधार की सम्भावना है - आपके सुझाव अपेक्षित हैं)

Tuesday, September 4, 2018

सत्संग

सत्संग का प्रमाण होता ही है.  सत्य के प्रति जो जिज्ञासा तृप्त हो गया या समझ में आ गया तो सत्संग हुआ.  समझ में नहीं आया तो सत्संग नहीं हुआ, प्रयत्न हुआ.

सत्य के बारे में बातचीत करना सत्संग नहीं है.  सत्य को समझने की जिज्ञासा रखने वाला हो और सत्य को समझाने वाला हो - फिर समझने वाले को समझाया हुआ यदि समझ में आ जाता है तो सत्संग हुआ.  यदि नहीं समझ आया तो सत्संग शेष है, प्रयत्न है.

(१) शब्द के आधार पर सत्संग
(२) शब्द के अर्थ के आधार पर सत्संग
(३) अनुभव के आधार पर सत्संग

अनुभव के आधार पर सत्संग पूरा होता है.  शब्द के आधार पर सत्संग करने की बात आदिकाल से है.  शब्द के अर्थ पर हम गए नहीं.  पहली सीढ़ी हम चढ़ चुके हैं, बाकी दो सीढियाँ चढ़ना बचा हुआ है.

प्रश्न: सत्य को समझे होने का प्रमाण क्या होगा?

उत्तर: समाधान.  सत्य समझ में आ गया तो सर्वतोमुखी समाधान होता ही है.  इसको "अभ्युदय" नाम दिया.  अभ्युदय शब्द वैदिक परंपरा से है.  शब्द परंपरा से हैं, परिभाषा मैंने दी है.  जिसकी इच्छा है वह अध्ययन करेगा.  जिसकी इच्छा नहीं है वह अध्ययन नहीं करेगा.  अध्ययन करने की इच्छा और अध्ययन कराने की ताकत दोनों की आवश्यकता है.  इन दोनों के योगफल में ही अध्ययन है.

प्रश्न:  मानव में समझने की इच्छा का कारण क्या है?

उत्तर: मानव सुख की निरंतरता चाहता है.  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों में सुख भासता है.  इसकी निरंतरता चाहिए - लेकिन संवेदनाओं में सुख की निरंतरता नहीं है.  सुख की निरंतरता की चाहत और उसका प्रमाण केवल मानव में ही है.  सच्चाई में सुख की निरंतरता है, इस परिकल्पना के आधार पर सत्य को समझने की जिज्ञासा है.

प्रश्न: मानव अपनी जिज्ञासा को कैसे पहचान सकता है?

उत्तर: अनुभव मूलक विधि से जीता हुआ व्यक्ति सामने व्यक्ति की जिज्ञासा को समझ सकता है.  सामने व्यक्ति को जब समझ में आता है तब उसको पता चलता है उसकी जिज्ञासा क्या थी और उस जिज्ञासा का उत्तर क्या था.  यही एक छोटी से दीवार है जिसको नाकना है.  जिज्ञासा ही पात्रता है, उसी के आधार पर ग्रहण होता है.  अभी अभिभावक बच्चों की जिज्ञासा को पहचान नहीं पाते हैं, उसको समझ से भर नहीं पाते हैं - इसीलिये बच्चे जैसे ही बड़े होते हैं माँ-बाप से दूर हो जाते हैं. 

हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है.  बचपन में यह जो जिज्ञासा रहता है वह बड़े होते होते कम हो जाता है.  परंपरा से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य के प्रभाव से यह कम हो जाता है.

प्रश्न: क्या सभी बच्चों में जिज्ञासा समान रहती है या हरेक में उनके प्रारब्ध के अनुसार जिज्ञासा होती है?

उत्तर: पहले सत्य को समझने के लिए जो परिश्रम किया वो तो रहेगा ही.  फिर सत्य को समझाने के लिए पूरी बात यहाँ है.

प्रश्न: अनुभव होते तक विद्यार्थी जो कुछ भी "करता है", क्या वह गुरु के प्रभाव में करता है या अपनी स्वीकृति से करता है?

उत्तर: अपनी स्वीकृति से.  गुरु का प्रभाव समझाने तक ही है.  समझ के अनुसार आदमी अपना कार्यक्रम बनाता है.  इससे न ये कम होता है, न ज्यादा होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

Saturday, September 1, 2018

अध्यास और शक्तियों का अंतर्नियोजन

आपने लिखा है -"जो चैतन्य है वह पहले जड़ था, चैतन्य में जो कुछ भी अध्यास की रेखाएं हैं वे अंकित हैं ही.  यही कारण है कि चैतन्य इकाई अग्रिम विकास चाहती है."  इसको और स्पष्ट कीजिये.

उत्तर: अंकित रहने का मतलब है - जड़ प्रकृति को चैतन्य प्रकृति (जीवन) पहचान सकता है.  चैतन्य द्वारा जड़ को पहचान सकने की ताकत को अध्यास नाम दिया है.

जड़ ही विकसित हो कर चैतन्य पद में संक्रमित हुआ है.  जैसे - जड़ परमाणु अंशों से गठित हैं वैसे ही चैतन्य (जीवन) परमाणु भी अंशों से गठित हैं.  चैतन्य (जीवन) में गठन की तृप्ति है.  जड़ से चैतन्य तो हो गया, पर चैतन्य होने का प्रमाण नहीं हुआ.  यही चैतन्य में अतृप्ति है.  चैतन्य तृप्ति का स्वरूप है - क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता.  इसीलिये चैतन्य (जीवन) अग्रिम विकास के लिए प्रयत्नशील है.

अध्यास की परिभाषा आपने दी है - "मानसिक स्वीकृति सहित संवेदनाओं के अनुकूलता में शारीरिक क्रिया से जो प्रक्रियाएं संपन्न होती हैं उसकी अध्यास संज्ञा है".  इस परिभाषा को समझाइये.

उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने पर संवेदनाएं शरीर द्वारा व्यक्त हुई.  जिससे जीवन ने शरीर को ही जीवन मान लिया.  यही मतलब है इस परिभाषा का.  जीवन में अध्यास से अग्रिम विकास के लिए उसका प्रवृत्त होना हो गया.  अब अग्रिम विकास के लिए आगे जो प्रयास होगा उसका आगे फल मिलेगा.

आपने आगे लिखा है - "जागृति के मूल में मानव कुल के हर इकाई में अपने शक्ति का अंतर्नियोजन आवश्यक है, क्योंकि इकाई की ऊर्जा के बहिर्गमन होने पर ह्रास परिलक्षित होता है तथा ऊर्जा के अन्तर्निहित होने पर जागृति परिलक्षित होती है.  अंतर्नियोजन का तात्पर्य स्वनिरीक्षण-परीक्षण पूर्वक निष्कर्ष निकालना और प्रमाणित करना ही है."  इसको और स्पष्ट कीजिये.

उत्तर: जीवन शक्तियां आशा, विचार, इच्छा, संकल्प स्वरूप में प्रवाहित हो रहे हैं.  तृप्ति के पहले ये शक्तियां यदि बहिर्गमन होती हैं तो वह तृप्ति के पक्ष को ह्रास करता है.  तृप्ति के लिए मानव प्रयत्नशील नहीं होता है, निष्ठा नहीं बनता है.  शक्तियों का अंतर्नियोजन = अध्ययन.  स्वयं का अध्ययन, जीवन का अध्ययन, शरीर का अध्ययन, मानव का अध्ययन, इसके मूल में सहअस्तित्व का अध्ययन, और इसके प्रयोजन रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण का अध्ययन है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)