ANNOUNCEMENTS



Tuesday, July 4, 2017

जानने का प्रमाण ही मानना है.


अनुभव की रौशनी और स्मरण - इन दोनों के बीच में वस्तु-बोध होता है.  इसी का नाम अध्ययन है.

मानव के करने, सोचने, बोलने और प्रमाणित करने में उसके तृप्त होने की स्थिति का नाम अनुभव है.

हम जो बोध किये और जो प्रमाणित किये इन दोनों में तृप्ति को पाना ही समाधान है.

कारण के अनुसार कार्य और कार्य के अनुसार कारण हो जाना तृप्ति है, वही समाधान है.

कार्य और कारण की परस्पर तृप्ति, विचार और कार्य की परापर तृप्ति, विचार और निर्णय की परस्पर तृप्ति, पाए हुए ज्ञान और उसके वितरण में तृप्ति - (अनुभव मूलक विधि से) ये तृप्तियाँ मिलती रहती हैं, इस तरह मानव के निरंतर तृप्ति का रास्ता बना हुआ है.  जबकि भ्रमवश हम अतृप्ति को अपने जीने का घर बना लिए हैं.

जीवन के दो अवयवों के बीच जो संगीत होता है, वही तृप्ति है.

जानना मानने के अनुसार हो, मानना जानने के अनुसार हो - वह तृप्ति है.  दूसरे - जानना मानने का विरोध न करे और मानना जानने का विरोध न करे - वह तृप्ति है.

जानने वाला भाग मानने वाले भाग को स्वीकार रहा है और मानने में जानना स्वीकार हो रहा है - यह तृप्ति बिंदु अनुभव है.  इसी तरह मानने और पहचानने में तृप्ति, पहचानने और निर्वाह करने में तृप्ति.

जो जाने-माने हैं उसी को हम पहचानने-निर्वाह करने में हम प्रमाणित करते हैं.

जानने की वस्तु है - सहअस्तित्व, विकास क्रम, विकास, जागृतिक्रम और जागृति.  जो हमने जाना उसको प्रमाणित करने के तरीके के साथ ही उसको 'मानना' होता है.  जानने और मानने के तृप्ति-बिंदु तक पहुँचते हैं तो हम प्रमाणित करने में सफल हो जाते हैं.

जानने की प्रक्रिया है अध्ययन.  अध्ययन करने के क्रम में हम इस स्थिति में आ जाते हैं कि "मैं प्रमाणित कर सकता हूँ" - तब हम "मान" लिए.

प्रश्न: "जानने" और "मानने" की बीच क्या दूरी है?

उत्तर:  जानने  और मानने के बीच दूरी हमारी बेवकूफी ही है!  यदि दूरी है तो जाने ही नहीं है.  जानने का प्रमाण ही मानना है.  यह आज के बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोगों पर बड़ा प्रहार लग सकता है.

जानने का प्रमाण मानना है. मानने का प्रमाण पहचानना है.  पहचानने का प्रमाण निर्वाह करना है.  निर्वाह करने का प्रमाण में प्रमाण को पुनः जानना है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९७) 

3 comments:

Roshani said...

"कारण के अनुसार कार्य और कार्य के अनुसार कारण हो जाना तृप्ति है, वही समाधान है."

नमस्ते भैया जी,
यहाँ कारण और कार्य में संबंध पकड़ में नहीं आ रहा है। यहाँ बाबा जी ने "कारण" शब्द से किसे इंगित किया है?

धन्यवाद
रोशनी

Rakesh Gupta said...

कार्य का मतलब है - जो हम करते हैं. कारण का मतलब है - हम जो करते हैं उसके मूल में हमारी अपेक्षा या इच्छा.


समझ के अभाव में शरीर मूलक विधि से कारण बन जाता है. क्योंकि शरीर परिवर्तनशील है, इसलिए इस कारण में स्थिरता नहीं रहती. इसलिए कार्य और कारण में सामरस्यता बन नहीं पाती है. उसमे समस्या होना स्वाभाविक है.

जाग्रति में "कारण" समझ या अनुभव से निर्धारित रहता है. कार्य उसके अनुसार ही होता है. कार्य और कारण में परस्पर अंतर्विरोध नहीं रहता. इसी को समाधान कह रहे हैं. जिससे तृप्ति है.

Roshani said...

जी धन्यवाद अब बात पकड़ में आई|
समझ के अभाव में हम साढ़े चार क्रियाओं से चालित होते हैं और समझ के उपरांत आत्मा द्वारा चालित (आत्मा के अनुशासन में सभी क्रियाएँ ) होते हैं| इसलिए समझ उपरांत कारण और कार्य में परस्पर तृप्ति बनी रहती है|
Confusion इसलिए हुआ भैया जी की जैसा मुझे पूर्व सूचना थी कि "शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध की जानकारी को स्थूल समझ; मन, वृत्ति, चित्त एवं सापेक्ष शक्तियों की जानकारी को सूक्ष्म समझ और निरपेक्ष शक्ति एवं उसको अनुभव करने वाली आत्मा और बोध करने वाली बुद्धि की समझ को कारणात्मक समझ की संज्ञा है (व्यवहार दर्शन)"|
इस पूर्व सूचना के आधार पर मैं कार्य और कारण में लिंक नहीं जोड़ पा रही थी|

बहुत बहुत धन्यवाद भैया जी कि आपने इतने व्यस्त कार्यक्रम में भी अपना बहुमूल्य समय निकाल कर उत्तर दिया|
प्रणाम
रोशनी