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Wednesday, February 1, 2017

समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद



प्रश्न: आपके "समाधानात्मक भौतिकवाद" प्रस्तुत करने का क्या आधार रहा?

उत्तर:  भौतिकवादी विधि में बताते हैं (अस्तित्व में) हर जगह संघर्ष है.  संघर्ष समस्या का पुंज है, बर्बादी का रास्ता है.  जबकि मानव सहज अपेक्षा 'आबादी' के लिए है.  यह परीक्षण किया गया कि भौतिक संसार समाधान के अर्थ में है, न कि संघर्ष के अर्थ में.  उसको कैसे बताया?  दो परमाणु अंश गठित हो कर एक व्यवस्था को प्रमाणित करते है.  दो अंश के परमाणु का क्रियाकलाप और आचरण निश्चित है.  २०० अंश के परमाणु का भी क्रियाकलाप और आचरण निश्चित है.  यदि निश्चयता का यह स्वरूप समझ में आता है तो मानव स्वयं के आचरण के प्रति सतर्क हो सकता है.  इस आधार पर समाधानात्मक भौतिकवाद को प्रस्तुत किया।

प्रश्न: "व्यवहारात्मक जनवाद" का क्या आशय है?

उत्तर: जनचर्चा में "व्यव्हार" केंद्र  में रहने की आवश्यकता है.  व्यव्हार से आशय है - अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या।  इसी सन्दर्भ में ही हम चर्चा करें।  इस को जीवित रखते हुए हम चर्चा करें।  इस प्रकार की जनचर्चा से परंपरा में संस्कार सटीक स्थापित हो सकता है.  हम यदि चर्चा ही वितण्डावादी करते हैं तो आगे पीढ़ी में सही स्वीकृतियाँ कैसे बनेगा?  आगे पीढ़ी तक ज्ञान के पहुँचने के लिए चर्चा एक सेतु है.  प्रमाणित करने का प्रेरणा है.  व्यव्हार में निर्वाह तो सामयिक ही होता है पर चर्चा में ताजगी सदा-सदा बना रहता है कि हम ऐसा ही निर्वाह करेंगे।  इसका नाम है - "व्यवहारात्मक जनवाद".  अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या (या मानवीय व्यवहार) हमारे जीने में भी रहता है और उसको लेकर चर्चा आगे पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्वरूप में भी रहता है.  अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या जीने का भी सार है, प्रेरणा का भी सार है.





प्रश्न:  और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद?

उत्तर: अनुभवात्मक अध्यात्मवाद अनुभव को स्पष्ट करने हेतु है.  अनुभव व्यापक वस्तु में संपृक्तता का ही होता है.  व्यापक वस्तु मानव के अनुभव में ही आता है, चर्चा में यह पूरा नहीं होता, व्यापक वस्तु का साक्षात्कार नहीं होता।  अध्ययन पूर्वक एक-एक वस्तु (इकाइयों) का साक्षात्कार होता है.  नाम (शब्द) से वस्तु की पहचान होना साक्षात्कार है.  इकाइयों के रूप और गुण के साथ उनके स्वभाव और धर्म का साक्षात्कार होता है.  वस्तु की पहचान होने पर शब्द गौण हो जाता है. 

प्रश्न:  क्या व्यापक वस्तु का मानव को साक्षात्कार नहीं होता?

उत्तर:  नहीं।  इकाईत्व का सान्निध्य होकर उसका साक्षात्कार होता है.  जिस वस्तु का साक्षात्कार होना है उससे दूरी रखते हुए ही उसका साक्षात्कार हो सकता है.  व्यापक वस्तु में डूबे, भीगे, घिरे होने के कारण उससे दूरी की कोई बात ही नहीं है, वह प्राप्त वस्तु है उसका अनुभव ही होता है. 

व्यापक वस्तु में सभी वस्तुएं तद्रूपता में हैं.  उसी तरह मानव भी व्यापक वस्तु में तद्रूप है.  मानव में व्यापक वस्तु ज्ञान है जो चेतना स्वरूप में प्रकाशित है.  मानव में व्यापक वस्तु में तद्रूपता चेतना विधि से प्रकाशित है.  अभी मानव परंपरा पीढ़ियों से जीव चेतना में तद्रूप है.  जीवचेतना में कोई गम्य-स्थली नहीं मिला, इसलिए चेतना विधि में पुनर्विचार के लिए गए - जिससे मानव चेतना मिल गयी.  जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन एक संक्रमण है.  अपराध मुक्ति और अपने-पराये से मुक्ति इसके बिना होगा नहीं।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक) 

दोहरे व्यक्तित्व से मुक्ति



ज्ञान और जीना अलग अलग नहीं है.  जीने में चेतना के चार स्तर हैं.  जीव चेतना = जीवों के सदृश ज्ञान।  जीव चार विषयों ( आहार,निद्रा, भय, मैथुन) की सीमा में जीता है - मानव जब चार विषयों के साथ पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) की सीमा में जीने लगा तो उसने अपने को जीवों से अच्छा मान लिया।  ऐसे में उसका ज्ञान और विचार (मानसिकता) जीवों जैसा ही रहा लेकिन 'वचन' जीवों से भिन्न हो गया.  इसीलिये दोहरा व्यक्तित्व हो गया.  जीव चेतना से मानव दोहरे व्यक्तित्व में जीता ही है.  दोहरा व्यक्तित्व मानव को स्वीकार नहीं होता - पहला संकट यही है.  इसीलिये छुपने वाली बात हो गयी.  वचन अच्छा होना, सोच-विचार उसके अनुरूप न हो पाना। 

प्रश्न: मैं देखूँ तो मेरी पीड़ा यही है.  मेरे बोलने में सब ठीक है पर मेरी मानसिकता या विचार सदा मेरे बोलने के अनुरूप नहीं है..

उत्तर:  आपका ही नहीं, सभी का यही हालत है.  मैंने भी यहीं से शुरू किया था.  यह "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" जो मैं कह रहा हूँ, मेरे वचन का मेरी समझ/मानसिकता से तालमेल कहाँ है?  वहीं से मैंने शुरुआत किया।  यह तालमेल न हो पाना दोहरे व्यक्तित्व का द्योतक है.  वचन और मानसिकता में तालमेल न बैठा पाने का संकट सभी को होगा।  यह मेरे अकेले का संकट नहीं है.  सबके साथ वर्तने वाला संकट स्थली यही है. 

दोहरे व्यक्तित्व से मुक्ति जागृति या मानव चेतना से ही हो पाता है - दूसरा कोई युक्ति नहीं है.  जीव चेतना में तो होगा नहीं।  हम स्वयं यदि मानव चेतना में परिवर्तित न हों तो हम आगे पीढ़ी को मार्गदर्शन नहीं दे पाएंगे।  आगे पीढ़ी को यदि मार्गदर्शन करना है तो हमें मानव चेतना में प्रमाणित होना होगा।  इससे कम में संतुष्टि की कोई जगह नहीं है.  पिछली पीढ़ी भेड़चाल में जैसे चल दी वैसे चल दी, पर अगली पीढ़ी वैसी नहीं है.  यह भी हमारे सामने एक धर्मसंकट है.  आगे पीढ़ी को हम श्रेष्ठ देखना चाहते हैं और हम स्वयं श्रेष्ठता के लिए तैयार न हों तो कैसे होगा?  हम स्वयं समाधानित होना चाहते हैं, जो मानवचेतना से कम में होता नहीं है.  मानव चेतना से कम दर्जे में न हमारा स्वयं समाधानित होना बनता है, न अगली पीढ़ी को मार्गदर्शन करना बनता नहीं है.  इस तरह दोनों तरीके से मानव चेतना में परिवर्तित होने के लिए हम बाध्य हैं.  ये दोनों बातें हमारे व्यवहार और जीने से जुड़ी हैं.  भले ही धरती का बीमार होना और अपना-पराया की दूरी बढ़ जाने के मुद्दों को स्थगित कर रखो. 

इस आधार पर हम चाह रहे हैं कि हम अच्छे ढंग से जीएं, समाधान पूर्वक जियें, समृद्धि पूर्वक जियें, मानव चेतना को हम सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन विधि से प्रमाणित करें, आगे पीढ़ी का मार्गदर्शन करें। 

संबंधों को हम पहचानते हैं, निर्वाह करते हैं तो आगे पीढ़ी के लिए हम प्रेरक होते हैं या नहीं?  हम स्वयं न करें तो आगे पीढ़ी के लिए कैसे प्रेरक होंगे?  यह धर्म संकट हर व्यक्ति के साथ है. 

इस तरह हमारे स्वयं में संतुष्ट होने के लिए और हमारी संतान के लिए परंपरा में स्त्रोत बनने के लिए चेतना विकास की ज़रूरत हो गयी, मूल्य शिक्षा की ज़रुरत हो गयी.  चेतना विकास और मूल्य शिक्षा में पारंगत होने पर हम अच्छी तरह आगे पीढ़ी के लिए प्रेरक हो पाते हैं.

- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)