ज्ञान और जीना अलग अलग नहीं है. जीने में चेतना के चार स्तर हैं. जीव चेतना = जीवों के सदृश ज्ञान। जीव चार विषयों ( आहार,निद्रा, भय, मैथुन) की सीमा में जीता है - मानव जब चार विषयों के साथ पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) की सीमा में जीने लगा तो उसने अपने को जीवों से अच्छा मान लिया। ऐसे में उसका ज्ञान और विचार (मानसिकता) जीवों जैसा ही रहा लेकिन 'वचन' जीवों से भिन्न हो गया. इसीलिये दोहरा व्यक्तित्व हो गया. जीव चेतना से मानव दोहरे व्यक्तित्व में जीता ही है. दोहरा व्यक्तित्व मानव को स्वीकार नहीं होता - पहला संकट यही है. इसीलिये छुपने वाली बात हो गयी. वचन अच्छा होना, सोच-विचार उसके अनुरूप न हो पाना।
प्रश्न: मैं देखूँ तो मेरी पीड़ा यही है. मेरे बोलने में सब ठीक है पर मेरी मानसिकता या विचार सदा मेरे बोलने के अनुरूप नहीं है..
उत्तर: आपका ही नहीं, सभी का यही हालत है. मैंने भी यहीं से शुरू किया था. यह "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" जो मैं कह रहा हूँ, मेरे वचन का मेरी समझ/मानसिकता से तालमेल कहाँ है? वहीं से मैंने शुरुआत किया। यह तालमेल न हो पाना दोहरे व्यक्तित्व का द्योतक है. वचन और मानसिकता में तालमेल न बैठा पाने का संकट सभी को होगा। यह मेरे अकेले का संकट नहीं है. सबके साथ वर्तने वाला संकट स्थली यही है.
दोहरे व्यक्तित्व से मुक्ति जागृति या मानव चेतना से ही हो पाता है - दूसरा कोई युक्ति नहीं है. जीव चेतना में तो होगा नहीं। हम स्वयं यदि मानव चेतना में परिवर्तित न हों तो हम आगे पीढ़ी को मार्गदर्शन नहीं दे पाएंगे। आगे पीढ़ी को यदि मार्गदर्शन करना है तो हमें मानव चेतना में प्रमाणित होना होगा। इससे कम में संतुष्टि की कोई जगह नहीं है. पिछली पीढ़ी भेड़चाल में जैसे चल दी वैसे चल दी, पर अगली पीढ़ी वैसी नहीं है. यह भी हमारे सामने एक धर्मसंकट है. आगे पीढ़ी को हम श्रेष्ठ देखना चाहते हैं और हम स्वयं श्रेष्ठता के लिए तैयार न हों तो कैसे होगा? हम स्वयं समाधानित होना चाहते हैं, जो मानवचेतना से कम में होता नहीं है. मानव चेतना से कम दर्जे में न हमारा स्वयं समाधानित होना बनता है, न अगली पीढ़ी को मार्गदर्शन करना बनता नहीं है. इस तरह दोनों तरीके से मानव चेतना में परिवर्तित होने के लिए हम बाध्य हैं. ये दोनों बातें हमारे व्यवहार और जीने से जुड़ी हैं. भले ही धरती का बीमार होना और अपना-पराया की दूरी बढ़ जाने के मुद्दों को स्थगित कर रखो.
इस आधार पर हम चाह रहे हैं कि हम अच्छे ढंग से जीएं, समाधान पूर्वक जियें, समृद्धि पूर्वक जियें, मानव चेतना को हम सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन विधि से प्रमाणित करें, आगे पीढ़ी का मार्गदर्शन करें।
संबंधों को हम पहचानते हैं, निर्वाह करते हैं तो आगे पीढ़ी के लिए हम प्रेरक होते हैं या नहीं? हम स्वयं न करें तो आगे पीढ़ी के लिए कैसे प्रेरक होंगे? यह धर्म संकट हर व्यक्ति के साथ है.
इस तरह हमारे स्वयं में संतुष्ट होने के लिए और हमारी संतान के लिए परंपरा में स्त्रोत बनने के लिए चेतना विकास की ज़रूरत हो गयी, मूल्य शिक्षा की ज़रुरत हो गयी. चेतना विकास और मूल्य शिक्षा में पारंगत होने पर हम अच्छी तरह आगे पीढ़ी के लिए प्रेरक हो पाते हैं.
- श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment