आप लोग दूर-दूर से आकर निश्चित मुद्दों पर मेरे साथ विचारविमर्श किये और सहमति तक पहुंचे। मुख्यतः हम मानव मे होने वाले साक्षात्कार, बोध और अनुभव के बारे में बात किये। हम सभी इस बात पर सहमत हुए कि ये तीनों प्रक्रिया मानव मे कल्पनाशीलता के आधार पर ही होता है. कल्पनाशीलता सर्वमानव में नियति विधि से स्वत्व के रूप में है - यह हम सब स्वीकार चुके हैं. सच्चाइयाँ ही साक्षात्कार, बोध और अनुभव होती हैं. सच्चाई का प्रस्ताव मध्यस्थ दर्शन के रूप में मैंने आपके सम्मुख प्रस्तुत किया। अब इस प्रस्ताव को आत्मसात करना है या नहीं और उसके अनुसार जीना है या नहीं - इसमें आप की स्वतंत्रता है. इसमें किसी का कोई आग्रह नहीं है. अध्ययन तक ही सारा सन्देश, सूचना, ध्यानाकर्षण है. उसके बाद जीने का स्वरूप आपको अपने आप गढ़ना है. उसमें आप स्वतन्त्र हैं.
मैंने इस समझ के अनुसार अपने जीने के स्वरूप को जो गढ़ा, उसका अनुभव मैं आप को बताना चाहता हूँ.
सबसे पहली बात, ऐसे जीने में मुझसे सर्वमानव को मानव स्वरूप में स्वीकारना बन गया. अपने-पराये की दीवार ही खत्म हो गयी. चाहे दूसरा समझा हो, नहीं समझा हो, ज्ञानी हो, अज्ञानी हो, विज्ञानी हो - मैं सभी को मानव स्वरूप में स्वीकार सकता हूँ. सभी समझ सकते हैं, सभी समाधानित हो सकते हैं, सभी समृद्ध हो सकते हैं - इन तीन आधारों पर मैं सबको स्वीकारता हूँ. मुझको यह स्थिति बहुत सुखद लगती है. इसमें कोई व्यक्तिवाद या समुदायवाद नहीं है. ऐसा हल्कापन मेरे जीवन में अनुभव मे आया. इसकी आवश्यकता आपको है या नहीं, इस पर आप विचार कर सकते हैं.
दूसरी बात, जो इस समझ से मेरे जीने में आयी कि मुझ में यह विश्वास बना कि जो कुछ भी "वैध" है उसको मैं समझ सकता हूँ, सीख सकता हूँ और कर सकता हूँ. कोई सही (वैध) बात हो जिसको मैं नहीं समझ सकूँ, नहीं सीख सकूँ, नहीं कर सकूँ - ऐसा मुझे लगता ही नहीं है. मानव चेतना आने के बाद "वैध" क्या है - यह स्पष्ट हो जाता है. यह आत्म विश्वास ही आधार बना समृद्धि के लिए.
तीसरे, मैंने नर-नारी में समानता का अनुभव किया। नर-नारी में समानता घर-परिवार में संगीत का आधार बनता है.
चौथे, समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने से मैंने गरीबी-अमीरी में संतुलन बिन्दु का अनुभव किया। गरीब भी समाधान-समृद्धि में संतुलन को पाता है. अमीर भी समाधान-समृद्धि में संतुलन को पाता है.
क्रमशः
- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)