This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
हज़ारों-लाखों वर्षों से अभी तक मानव द्वारा किये हुए कर्म को आंकलित करते हुए इसके विकल्प को खोजा गया है।
हज़ारों-लाखों वर्षों से अब तक मानव ने जो कार्य किया उसके फल-परिणाम में धरती का बीमार होना मुझे समझ में आया। हज़ारों-लाखों वर्षों से मानव ने जो कार्य किया, उसका आंकलन है - मानव ने जीव-चेतना वश सारे अपराधों को किया या अपराधों के साथ सहमत रहा। अपराधों के साथ सहमत रहने का उदाहरण है - अभी का हमारा संविधान। इस संविधान के साथ सभी सहमत हैं, जो मूलतः कहता है - "गलती को गलती से रोको, युद्ध को युद्ध से रोको, अपराध को अपराध से रोको". इन तीनो बातों के मूल में यह अपेक्षा (मान्यता) है - युद्ध से युद्ध रुकता है, अपराध से अपराध रुकता है, गलती से गलती रुकती है। इसके बाद पूछा तो क्या ऐसे युद्ध रुकता है? अपराध रुकता है? गलती रुकती है? तो उत्तर मिला - नहीं। हर देश की सीमाओं पर तैनात सेनायें या तो युद्द करेंगी या युद्ध के लिए तैयारी करेंगी। इससे युद्ध रुका कहाँ? दूसरे - न्याय पालिका ने अपराध से अपराध को रोकने को विधि माना है। इसका मतलब है, एक आदमी को अपराध करने से रोकने के लिए दस व्यक्ति अपराध करना सीखें, तभी वे अपराध को रोक पायेंगे। इस विधि से अपराध बढेगा या घटेगा? इसी तरह गलती को गलती से रोकने से गलतियाँ बढ़ी हैं। मानव के इन सारे कार्यों का फल-परिणाम धरती पर ही गुजरा , क्योंकि धरती पर ही तो मानव है।
- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)
मानव को अपने विकास की दृष्टि से स्वयं का मूल्यांकन करना प्राथमिक एवं महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है। स्वयं का मूल्यांकन यदि सही नहीं है तो उस स्थिति में अध्ययन के लिए आवश्यक सामर्थ्य को संजो लेना संभव नहीं है। - मानव व्यव्हार दर्शन, श्री ए. नागराज।
सर्व मानव में कल्पनाशीलता है.
भ्रमित अवस्था में कल्पनाशीलता आशा, विचार और इच्छा की “अस्पष्ट गति”
है. भ्रमित अवस्था में भी हम जो देखते
हैं, वह कल्पनाशीलता के द्वारा ही देखते हैं.
कल्पनाशीलता न हो तो यह सब कुछ नहीं दिखेगा. भ्रमित अवस्था में हम अपने कर्म-फल के प्रति
आश्वस्त नहीं रहते हैं. हम कुछ सोच के
करते हैं, उससे होता और ही कुछ है.
अध्ययन पूर्वक जागृति के लिए क्रमिक रूप से सच्चाइयों का साक्षात्कार हो
कर बोध होता है. यह आशा, विचार और इच्छा
की “स्पष्ट गति” है. स्पष्ट गति का अर्थ
है – कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में भी स्वतन्त्र. साक्षात्कार-बोध का यह क्रम सह-अस्तित्व में
पूर्ण होता है. सह-अस्तित्व में
साक्षात्कार-बोध पूर्ण होने का अर्थ है – मानव चारों अवस्थाओं के साथ अपने आचरण को
क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता के रूप में निश्चित कर पाता है. साक्षात्कार-बोध पूर्ण होने के फलस्वरूप आत्मा
में अनुभव होता है.
आँखें मूँद लेना या मौन होना अध्ययन विधि नहीं है. अध्ययन जागृत मानव के साथ सार्थक संवाद पूर्वक
है.
प्रश्न: कल्पनाशीलता के प्रयोग से मुझे क्या और कहाँ
देखना है?
उत्तर: आपकी कल्पनाशीलता आप के साथ ही रहता है. कल्पनाशीलता के क्रियाकलाप को ही देखना
है. कल्पनाशीलता ही दिखता है, और कुछ
दिखता ही नहीं है. अनुभव की रोशनी में
अध्ययन करने वाले को उसकी कल्पनाशीलता का क्रियाकलाप दिखता है. अनुभव की रोशनी अध्ययन कराने वाले के पास रहता
है. जिज्ञासा अध्ययन करने वाले के पास
रहता है. इसके आधार पर अध्ययन का
क्रियान्वयन होता है. जिज्ञासा में कमी हो
या अनुभव में कमी हो तो अध्ययन नहीं होगा.
अध्ययन करने वाला प्रभावित होता है, अध्ययन कराने वाला प्रभावित करता
है.
अध्ययन करने वाले के अधिष्ठान (आत्मा) के साक्षी में अध्ययन होता
है. अध्ययन कराने वाले पर अध्ययन करने
वाला विश्वास करता है. अधिकार अध्ययन
कराने वाले के पास रहता है. अध्ययन पूर्ण
होने पर अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने वाले में समानता हो जाता है.
प्रश्न: साक्षात्कार की वस्तु क्या है?
उत्तर: साक्षात्कार की वस्तु है – सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में
विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम और सह-अस्तित्व
में जागृति. इतना साक्षात्कार हो कर बोध
होने के फलस्वरूप अनुभव होता है. रूप,
गुण, स्वभाव, धर्म का साक्षात्कार होता है.
स्वभाव-धर्म का बुद्धि में बोध होता है.
अनुभव में केवल धर्म जाता है. इस
विधि से सूत्रित होता है.
प्रश्न:
क्या मूल्यों का साक्षात्कार और बोध होता है?
उत्तर: मूल्य गुणों में गण्य हैं.
जागृति-क्रम और जागृति के साक्षात्कार में मूल्यों की समझ बीज रूप में रहती
है. अनुभव में सब कुछ बीज रूप में ही रहता
है. अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा और प्रकाशन
क्रम में वह विस्तृत होता जाता है.
संक्षिप्त हो कर अनुभव होता है.
विस्तृत हो कर प्रमाण होता है.
अनुभव के बाद मानव की कल्पनाशीलता अनुभव मूलक हो जाता है. अनुभव की रोशनी में हर बात को स्पष्ट करने का
अधिकार बन जाता है. बीज रूप में “होना”
समझ में आ जाता है. “रहना” उस समझ की
व्याख्या है.
प्रश्न: क्या मूल्य मानव-जीवन में “स्वभाव” नहीं
हैं?
उत्तर: - स्वभाव अनुभव और मूल्यों का संयुक्त रूप है. स्वभाव के एक ओर अनुभव का सार है, दूसरी तरफ
प्रकाशित होने के लिए मूल्य हैं. अध्ययन
क्रम में मूल्यों को लेकर सूचना स्वीकार हो जाता है, और वही संक्षिप्त हो कर अनुभव
में बीज रूप में अवस्थित होता है.
प्रश्न: साक्षात्कार क्रमिक रूप से होता है, क्या
बोध भी क्रमिक रूप से होता है?
उत्तर: हाँ. साक्षात्कार हो
कर बुद्धि में बोध जमा होता जाता है.
प्रश्न: अध्ययन क्रम में रहते हुए स्वयं की गणना
जीव-चेतना में की जाए या मानव-चेतना में की जाए?
उत्तर: अध्ययन क्रम में जीव-चेतना से छूटने की स्वीकृति और मानव चेतना
को अपनाने की स्वीकृति हो जाती है. यह उस
बीच की स्थिति है.
प्रश्न: क्रमिक रूप में साक्षात्कार होते हुए,
मुझे किन पक्षों का साक्षात्कार हो चुका है, और किनका नहीं हुआ है – इसकी पहचान
कैसे की जाए?
उत्तर: अनुभव से पहले उसका कुछ पता नहीं चलता. अनुभव के बाद प्रमाणित कर पाए या नहीं कर पाए –
उससे पता चलता है. प्रमाणित कर पाए तो
अनुभव किये हैं, प्रमाणित नहीं कर पाए तो अनुभव नहीं किये हैं. इसमें कोई छिपाव दुराव नहीं है. चारों अवस्थाओं के साथ प्रमाणित होने के लिए
अनुभव आवश्यक है. अनुभव स्थिति में सूत्र
है, जीने में व्याख्या है.
साक्षात्कार कल्पनाशीलता में गुणात्मक विकास है. कल्पनाशीलता का साधन
हर व्यक्ति के पास है, जिसका उपयोग करने की आवश्यकता है.
-श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)