समझना जीवन में होता है. देखना जीवंत शरीर द्वारा होता है.
भौतिकवाद ने देखने को प्रमाण मानते हुए, यंत्र को प्रमाण मान लिया. यहाँ से भौतिकवादी भटक गए. उसको सुधारने के लिए मध्यस्थ-दर्शन ने प्रस्तावित किया – “देखने का मतलब है – समझना”. जीवन ही देखता और समझता है. जीवन समझने के लिए शरीर के द्वारा देखता है. जीवन के लिए शरीर एक साधन है, एक यंत्र है. शरीर में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियां हैं. इन्द्रियों को जीवंत बना कर रखने वाला तथा उनके उपयोग से देखने और समझने वाला जीवन है.
प्रश्न: मरने के बाद क्या जीवन “देख” पाता है?
उत्तर: मरने पर जीवन शरीर को छोड़ देता है. जीवन उस स्थिति में देख और सुन सकता है, किन्तु उस स्थिति में मानव परंपरा में वह प्रमाणित नहीं हो सकता है.
प्रश्न: शरीर छोड़ी हुई स्थिति में क्या जीवन “समझ” पाता है?
उत्तर: नहीं. शरीर को छोड़ने के समय तक जीवन जितना समझा रहता है, उतना ही समझ उसमे शरीर छोडी हुई स्थिति में रहता है. जीवन और मानव-शरीर के सह-अस्तित्व में ही समझ का प्रमाण होता है. मानव परंपरा में उपकार विधि से ही समझा जा सकता है.
जीवन “समझ” को दो विधियों से हासिल कर सकता है. (१) शोध, (२) अनुसंधान. परंपरा से जो मिलता है, उसको जांचना शोध है. परंपरा से जो नहीं मिलता है, उसके लिए अनुसंधान है.
- श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८).
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