जीवन के कार्यक्रम का आधार ही अध्ययन है. अध्ययन श्रवण, मनन, निदिध्यासन की संयुक्त प्रक्रिया है. निश्चित अवधारणा की स्थापन प्रक्रिया ही निदिध्यासन है. अवधारणा ही अनुमान की पराकाष्ठा एवं अनुभव के लिए उन्मुखता है. अवधारणा के अनंतर ही अनुभव होता है. अनुभव एवं समाधान दोनों के ही न होने की स्थिति में अध्ययन नहीं है. वह केवल निराधार कल्पना है. जो अध्ययन नहीं है वह सब मानवीयता को प्रकट करने में समर्थ नहीं है. इसी सत्यतावश मानव समाधान एवं अनुभूति योग्य अध्ययन से परिपूर्ण होने के लिए बाध्य हुआ है. यह बाध्यता मानवीयता पूर्ण पद्दति से सफल अन्यथा असफल है.
योगाभ्यास जागृति के अर्थ में चरितार्थ होता है. यह मानवीयता पूर्ण जीवन के साथ आरम्भ होता है - जो श्रवण, मनन एवं निधिध्यास पूर्वक अथवा धारणा, ध्यान एवं समाधि पूर्वक चरितार्थ होता है. जीवन चरितार्थता ही पूर्णता है. योगाभ्यास शास्त्राध्ययन, उपदेश एवं स्वप्रेरणा का योगफल है. इन सब में प्रामाणिकता का होना अनिवार्य है. मानवीयता पूर्ण जीवन के अनंतर उसके सारभूत भाग में अथवा वांछित भाग में चित्त-वृत्ति का केंद्रीभूत होना पाया जाता है जो ध्यान का द्योतक है. ध्येय के अर्थ मात्र में अर्थात ध्येय के मूल्य में चित्त-वृत्ति एवं संकल्प का निमग्न होना ही समाधि है. यही सत्तामयता में अनुभूति है. यही योगाभ्यास की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है. इसी क्रम के अर्थ में श्रवण, मनन एवं निधिध्यास चरितार्थ होता है. श्रवण का तात्पर्य धारणा से है. मनन का तात्पर्य निष्ठा एवं ध्यान से है. निधिध्यास का तात्पर्य सहज निष्ठा एवं सहज समाधि है. सहज समाधि का तात्पर्य सत्ता में अनुभूतिमयता की निरंतरता या अक्षुन्नता है. अक्षुन्नता प्रत्येक क्रियाकलाप एवं कार्यक्रम में भी स्थिर रहने के अर्थ में है. यही भ्रम मुक्ति है. योगाभ्यास पूर्णतया सामाजिक एवं व्यवहारिक है. अव्यवहारिकता एवं असामाजिकता पूर्वक योगाभ्यास होना संभव नहीं है. मानवीयता के अनंतर ही अभ्युदय का उदय होता है. पूर्णता पर्यंत इस उदय का अभाव नहीं है. उदय एवं अभ्यास का योगफल ही गुणात्मक परिवर्तन है जो योगाभ्यास पूर्वक चरितार्थ होता है.
- मानव अभ्यास दर्शन से
1 comment:
बहुत सुन्दर सन्देश! आभार!
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