मनुष्य-शरीर को जीवन चलाता है। ऐसे मनुष्य-शरीर को चलाते हुए जीवन 'अमूर्त' वस्तुओं की अपेक्षा में जीता है। सुख एक अमूर्त वस्तु है। सुख को मूर्त वस्तुओं (भौतिक-रासायनिक) में ढूढता है, तो वहां सुख मिलता नहीं है। मानव में सुखी होने की अपेक्षा है। यह यथास्थिति है। अमूर्त की चाहत में मनुष्य जीता है। अमूर्त की चाहत को प्रमाणित करने के लिए यह प्रस्ताव है। सारा प्रस्ताव मनुष्य के सुख पूर्वक जीने की चाहत के अर्थ में है। समाधान = सुख। मनुष्य ने अभी तक आँखों से जो दिखता है, केवल उसको सच्चाई माना - जिससे वह बुद्धू बना, अपराधी बना।
जो मनुष्य को दिखता है, और जो मनुष्य चाहता है - इन दोनों के योगफल में मनुष्य का अध्ययन किया जाए। इन दोनों के योगफल में ही हमको समाधान मिलता है।
समझदारी से समाधान होता है। समाधान हर व्यक्ति के "अधिकार" की चीज है। समाधान के "अधिकार" के आधार पर ही न्याय प्रकट होता है। न्याय की प्रक्रिया है - संबंधों को व्यवस्था के अर्थ में पहचानना, उसका निर्वाह करने के क्रम में मूल्यों का प्रकटन होना, मूल्यों का प्रकटन होने की स्थिति में मूल्याङ्कन होना। दो पक्षों के बिना न्याय की कोई बात नहीं है। दोनों पक्षों में यह मूल्याङ्कन होने की स्थिति बनना। मूल्याङ्कन पूर्वक उभय-तृप्ति होता है, तो न्याय है। अन्यथा न्याय नहीं है - समस्या है।
सह-अस्तित्व मूर्त और अमूर्त का अविभाज्य वर्तमान है। मानव सह-अस्तित्व का प्रतिरूप है। मानव सुख चाहता है - सुख अमूर्त है। समाधान मूर्त और अमूर्त दोनों है। व्यवहार में समाधान मूर्त रूप में रहता है, अनुभव में अमूर्त रूप में रहता है। समाधान जो अनुभव में अमूर्त रूप में है - वही सुख है। समझदारी अमूर्त है। कार्य-व्यवहार अमूर्त-मूर्त दोनों है।
अध्यात्मवादियों ने केवल अमूर्त वस्तु को सत्य माना। भौतिकवादियों ने केवल मूर्त वस्तु को सत्य माना। दोनों गड्ढे में गिरे! दोनों ने एक पैर पर खड़े होने का प्रयास किया। दोनों के पतन का कारण यही है। दोनों का परंपरा नहीं बना। दोनों से व्यवस्था का आधार नहीं बना।
जबकि सह-अस्तित्व मूर्त और अमूर्त का अविभाज्य संयुक्त स्वरूप है। मानव भी मूर्त और अमूर्त के अविभाज्य संयुक्त स्वरूप में ही जीता है। मूर्त और अमूर्त अविभाज्य हैं - ये अलग होते ही नहीं हैं! इनको अलग-अलग देख कर हम पार नहीं पायेंगे। इनको संयुक्त रूप में देख कर ही हम पार पायेंगे। अमूर्त और मूर्त अलग होते ही नहीं तो आप कैसे इनको अलग करोगे? इस दर्शन का पहला प्रतिपादन ही है - "सत्ता में प्रकृति 'अविभाज्य' है"। सत्ता से अलग करके प्रकृति को देखने की कोई जगह या स्थान ही नहीं है। सत्ता असीम है। प्रकृति सत्ता को व्यक्त करती है। इसमें सबसे विकसित प्रकृति को 'मानव स्वरूप' में पहचाना। मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन विकसित है। मनुष्य-शरीर सबसे विकसित रचना है। मनुष्य-शरीर जीवन-जागृति प्रकट होने योग्य है। सह-अस्तित्व सहज प्रकटन विधि से मनुष्य-शरीर का प्रकटन है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)
जो मनुष्य को दिखता है, और जो मनुष्य चाहता है - इन दोनों के योगफल में मनुष्य का अध्ययन किया जाए। इन दोनों के योगफल में ही हमको समाधान मिलता है।
समझदारी से समाधान होता है। समाधान हर व्यक्ति के "अधिकार" की चीज है। समाधान के "अधिकार" के आधार पर ही न्याय प्रकट होता है। न्याय की प्रक्रिया है - संबंधों को व्यवस्था के अर्थ में पहचानना, उसका निर्वाह करने के क्रम में मूल्यों का प्रकटन होना, मूल्यों का प्रकटन होने की स्थिति में मूल्याङ्कन होना। दो पक्षों के बिना न्याय की कोई बात नहीं है। दोनों पक्षों में यह मूल्याङ्कन होने की स्थिति बनना। मूल्याङ्कन पूर्वक उभय-तृप्ति होता है, तो न्याय है। अन्यथा न्याय नहीं है - समस्या है।
सह-अस्तित्व मूर्त और अमूर्त का अविभाज्य वर्तमान है। मानव सह-अस्तित्व का प्रतिरूप है। मानव सुख चाहता है - सुख अमूर्त है। समाधान मूर्त और अमूर्त दोनों है। व्यवहार में समाधान मूर्त रूप में रहता है, अनुभव में अमूर्त रूप में रहता है। समाधान जो अनुभव में अमूर्त रूप में है - वही सुख है। समझदारी अमूर्त है। कार्य-व्यवहार अमूर्त-मूर्त दोनों है।
अध्यात्मवादियों ने केवल अमूर्त वस्तु को सत्य माना। भौतिकवादियों ने केवल मूर्त वस्तु को सत्य माना। दोनों गड्ढे में गिरे! दोनों ने एक पैर पर खड़े होने का प्रयास किया। दोनों के पतन का कारण यही है। दोनों का परंपरा नहीं बना। दोनों से व्यवस्था का आधार नहीं बना।
जबकि सह-अस्तित्व मूर्त और अमूर्त का अविभाज्य संयुक्त स्वरूप है। मानव भी मूर्त और अमूर्त के अविभाज्य संयुक्त स्वरूप में ही जीता है। मूर्त और अमूर्त अविभाज्य हैं - ये अलग होते ही नहीं हैं! इनको अलग-अलग देख कर हम पार नहीं पायेंगे। इनको संयुक्त रूप में देख कर ही हम पार पायेंगे। अमूर्त और मूर्त अलग होते ही नहीं तो आप कैसे इनको अलग करोगे? इस दर्शन का पहला प्रतिपादन ही है - "सत्ता में प्रकृति 'अविभाज्य' है"। सत्ता से अलग करके प्रकृति को देखने की कोई जगह या स्थान ही नहीं है। सत्ता असीम है। प्रकृति सत्ता को व्यक्त करती है। इसमें सबसे विकसित प्रकृति को 'मानव स्वरूप' में पहचाना। मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन विकसित है। मनुष्य-शरीर सबसे विकसित रचना है। मनुष्य-शरीर जीवन-जागृति प्रकट होने योग्य है। सह-अस्तित्व सहज प्रकटन विधि से मनुष्य-शरीर का प्रकटन है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)
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