"अनुसन्धान पूर्वक हुई उपलब्धि के मूल में सम्पूर्ण मानव-जाति का पुण्य है" - ऐसा मैंने माना। मानव-जाति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मैंने इसके लोकव्यापीकरण को शुरू किया। नहीं तो क्या जरूरत थी? हम पा गए, हम संतुष्ट हैं - इतना ही रहना था! आदर्शवाद के स्वांत-सुख की तरह। "सर्व-शुभ में स्व-शुभ समाया है।" इसको लेकर हम चल गए। इससे किसी से टकराव या वाद-विवाद की बात ही नहीं रही।
"आदमी को मानवत्व स्वरूप में जीना है, या जीवत्व स्वरूप में जीना है?" - इस प्रश्न का कोई भी आदमी क्या उत्तर देगा? सकारात्मक बात को नकारना आदमी से बनता नहीं है। सकारात्मक को मनुष्य चाहता ही आया है। न्याय चाहिए! समाधान चाहिए! सच्चाई चाहिए! इस चाहत के पीछे कई लोगों ने अपने प्राणों को न्योछावर किया है। मानव-जाति में जीवन-सहज सुख की अपेक्षा है। शरीर-सहज विधि से मनमानी की स्वीकृति है। जब तक हम शरीर-सहज विधि से चलते हैं, तब तक जीवन की उम्मीद के लिए संलग्न होने के लिए हम प्रयत्न ही नहीं कर पाते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)
"आदमी को मानवत्व स्वरूप में जीना है, या जीवत्व स्वरूप में जीना है?" - इस प्रश्न का कोई भी आदमी क्या उत्तर देगा? सकारात्मक बात को नकारना आदमी से बनता नहीं है। सकारात्मक को मनुष्य चाहता ही आया है। न्याय चाहिए! समाधान चाहिए! सच्चाई चाहिए! इस चाहत के पीछे कई लोगों ने अपने प्राणों को न्योछावर किया है। मानव-जाति में जीवन-सहज सुख की अपेक्षा है। शरीर-सहज विधि से मनमानी की स्वीकृति है। जब तक हम शरीर-सहज विधि से चलते हैं, तब तक जीवन की उम्मीद के लिए संलग्न होने के लिए हम प्रयत्न ही नहीं कर पाते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)
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