जीवन-ज्ञान और सह-अस्तित्व ज्ञान संपन्न होने पर हम "समझदार" हुए। समझदारी के साथ मानवीयता पूर्ण आचरण को जोड़ने से हम "ईमानदार" हुए। इस तरह ईमानदारी जोड़ने पर "जिम्मेदारी" और "भागीदारी" आती ही है।
हम शरीर से श्रम कुछ भी न करें, और सुविधा-संग्रह की बहुत सी चीजें इकठ्ठा कर लें - इसका नाम है "बुद्धि-जीविता"। बुद्धि-जीवियों को समझदारी के अनुरूप ईमानदारी स्थापित करने में ही सारी देर लगती है। ईमानदारी के बिना समझदारी पूरा होता नहीं है।
"समझदारी" यदि स्वीकृत होती है, तो उसका प्रमाण "आचरण" में ही होगा। और कहीं होना नहीं है। यदि आचरण में समझदारी आ जाती है तो हम ईमानदार हुए।
प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जीना मनुष्य में "चेतना" का एक स्तर है। जिसको "जीव-चेतना" कहा। न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जीना मनुष्य में "चेतना" का दूसरा स्तर है - जिसको "मानव-चेतना" कहा है। इन दोनों के बीच में कुछ नहीं है। जीव-चेतना से मानव-चेतना में shift होने की बात है। जीव-चेतना में संवेदनशीलता पूर्वक जीना होता है। मानव-चेतना में संज्ञानीयता पूर्वक जीना होता है। संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं।
प्रश्न: जीव-चेतना से मानव-चेतना में shift होने के लिए link क्या हो?
उत्तर: प्रिय-हित-लाभ पूर्वक जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य का लक्ष्य "सुविधा-संग्रह" रहता है। उसके स्थान पर "समाधान-समृद्धि" को लक्ष्य बनाया जाए। आप जो बताये थे - सह-अस्तित्व ज्ञान और जीवन-ज्ञान हमको स्वीकार होते हुए भी हम क्यों नहीं आगे बढ़ पा रहे हैं? यह सोचने पर पता चलता है, इसका कारण है - हम मानवीयता पूर्ण आचरण को जोड़ नहीं पा रहे हैं। विचार-विधि से समाधान-समृद्धि को लक्ष्य बनाने से आचरण का जोड़ बैठ जाता है।
हमें जो पता लगता है - "हम समझे तो हैं, पर प्रमाणित भी नहीं हैं"। इस खाई को भरने की विधि एक ही है - मानवीयता पूर्ण आचरण को वैचारिक रूप में स्वयं में जोड़ पाना। इतना सूक्ष्म है यह! वैचारिक रूप में "मानवीयता पूर्ण आचरण" को इस प्रकार जोड़ने से हम तत्काल ईमानदारी के पक्ष में हो जाते हैं। इसका विधि यही है - सुविधा-संग्रह लक्ष्य के स्थान पर समाधान-समृद्धि लक्ष्य को स्वयं में स्थापित कर लेना। जहाँ मानवीयता पूर्ण आचरण विचार में जुड़ता है - हम उसे प्रमाणित करने लगते हैं।
ईमानदारी के साथ ही समझदारी पूरी होती है। समझदारी और ईमानदारी आने पर जिम्मेदारी और भागीदारी आने में देर नहीं लगती।
हर वस्तु का आचरण ही उसके मौलिक रूप में "होने" का प्रमाण है। उसी तरह मानवीयता पूर्ण आचरण ही मानव के मौलिक रूप में होने का प्रमाण है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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