प्रश्न: संयम काल में जो आपको दिख रहा था वह सत्य है, न कि आपकी कल्पना - इस पर आपकी निश्चितता कैसे बनी?
उत्तर: आप अनुभव करके देखलो, यह सत्य है कि नहीं! अनुभव होने पर ही इसको जांचने की परिस्थिति बनती है. जैसे मैं जांचता हूँ - सहअस्तित्व में जीने में कौनसी समस्या है? सार्वभौम व्यवस्था में जीने में कौनसी समस्या है? प्रमाण का प्रभाव यही है.
अनुभव को लेकर आनाकानी कर रहे हो. तर्क समय को खा रहा है. अनुभव के बाद तर्कसंगत होंगे या अनुभव के पहले तर्कसंगत होंगे? अध्ययन के लिए जो वस्तु है, वह अपने लिए ज़रुरत है या नहीं है? ज़रुरत है तो उसे अनुभव किया जाए. सीधा-सीधा लोक-भाषा तो इतना ही है.
इस बात को आदर्शवादियों ने कहा - शब्द से सत्य बोध होने वाला नहीं है. "प्रवचने न लभ्यते" - यह लिखा है. किन्तु विद्वता की अंतिम सीमा बताया - वेदों को रटना और बोलना। यह गलत हो गया. मेरा प्रश्न वहीं से है. इसको तूल देने के लिए मुझे मिला - सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो गया? इस आधार पर मैं तुल गया. तुलने पर जैसा मैं साधना किया वह आपको बताया। वह रास्ता रखा ही हुआ है. वह कहाँ ओझिल हुआ? यदि उस ढंग से सत्य को पाना चाहते हैं तो वह रास्ता तो रखा ही है. उस तरह नहीं तो अध्ययन विधि से समझ लो! अध्ययन विधि से समझना ज्यादा लोगों के लिए सुविधाजनक है. साधना विधि से समझना सभी के बलबूते का नहीं है.
साधना के फल को अपनाने में आपको तकलीफ क्या है? आपको यह समझ में आ गया है कि साधना का यह फल सार्वभौम रूप में सबके लिए आवश्यक है. अब इसको अपने में संजोने के लिए, स्वत्व बनाने के लिए, तर्क का प्रयोग एक सीमा तक ही है. इसके लिए अध्ययन विधि मैंने प्रस्तुत किया है. अध्ययन विधि आपको अनुकूल पड़ रहा है या नहीं? - यह आपको देखना है.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)