क्रिया तीन प्रकार की हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया.
अभी विज्ञानी रासायनिक क्रिया और भौतिक क्रिया के अंतर को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं. जबकि हम (मध्यस्थ दर्शन में) रासायनिक क्रिया को भौतिक क्रिया से भिन्न मानते हैं. परमाणु की क्रियाशीलता दोनों में है, किन्तु रासायनिक क्रिया यौगिक विधि का फलन है. यौगिक विधि में एक से अधिक प्रजाति के परमाणु मिलके अपने-अपने आचरणों को त्याग करके "सम्मिलित आचरण" को स्वीकार लेते हैं. जैसे पानी... पानी में एक जलने वाला और एक जलाने वाला वस्तु है. ये दोनों प्रजाति के परमाणु अपने-अपने आचरण को त्याग कर प्यास बुझाने वाले स्वरूप में आ गए. जलने वाली वस्तु में भी प्यास बुझाने का गुण नहीं है, जलाने वाली वस्तु में भी प्यास बुझाने का गुण नहीं है - दोनों ने सम्मिलित रूप में जो आचरण को प्रस्तुत किया वह प्यास बुझाने वाला हो गया. यौगिक विधि से अपने आचरण में गुणात्मक परिवर्तन लाने की बात हुई. परस्पर मिलन से यह उपलब्धि हुई.
प्रचलित-विज्ञान योग को इस प्रकार से समझाने में sincere नहीं है. इस तरह विज्ञान अपनी प्रस्तुति को व्यव्हार और प्रयोजन से जोड़ नहीं पाया.
आदर्शवादी विधि से मानव परम्परा में "योग" की कब से बात हो रही है? पर क्या उस योग से मानव में कोई गुणात्मक परिवर्तन हुआ?
प्रश्न: आप स्वयं आदर्शवादी विधि से समाधि तक पहुंचे थे. उस मार्ग के बारे में कुछ बताइये...
पतंजलि ने (योग दर्शन में) योग की परिभाषा दिया - "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" (अध्याय १, सूत्र २) अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध होने का नाम योग है.
योग के तीन चरण बताया - धारणा, ध्यान, और समाधि.
"धारणा" में किसी एक क्षेत्र में चित्त-वृत्ति निरोध होने की बात होती है. जैसे किसी चित्र में, दीवार में, अपने स्वयं में... इसका सूत्र योग दर्शन में दिया है - "देशबन्धश्चित्तस्य धारणा" (अध्याय ३, सूत्र १). इस तरह आशा, विचार, इच्छा एक जगह में arrest हो गए...
"ध्यान" का मतलब है - जिसमे धारणा हुई है, उसके निश्चित बिंदु में चित्त-वृत्ति निरोध होना. इसका सूत्र योग दर्शन में दिया है - "तत्र प्रत्येकतान्ता ध्यानं" (अध्याय ३, सूत्र २). धारणा क्षेत्र में अनेक बिन्दुएँ हैं, उनमे से किसी एक बिंदु में आशा-विचार-इच्छा का arrest हो जाना ध्यान है.
फिर उसका अर्थ भर रह जाए, स्वरूप कुछ भी न रहे - उसका नाम "समाधि" है. इसका सूत्र योग दर्शन में दिया है - "तदेवार्थमात्रनिर्भासम स्वरूपशून्यमिव समाधिः" (अध्याय ३, सूत्र ३).
इस स्थिति तक पहुँचने में कितना परिश्रम लगा होगा - ज़रा सोच के देखो! बहुत पसीना निकला है यहाँ तक पहुँचने में, आप ऐसा मानो!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)