सहअस्तित्ववादी भाषा की अवधारणा, भाषाई शिष्टतायें एवं विशेषताएं
- साधन भट्टाचार्य
सभी को नमस्ते!
आरम्भ करने से पहले मैं मध्यस्थ दर्शन के प्रणेता पूज्य नागराज जी को नमन
करता हूँ, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, इसके पश्चात इस कार्यक्रम
में उपस्थित सभी वक्ताओं का अभिवादन करता हूँ.
सहअस्तित्ववादी भाषा को लेकर जो मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसे मैं पूरी तरह
मध्यस्थ दर्शन के आधार पर ही बोलने का प्रयास करूंगा.
परिभाषा संहिता में “भाषा” शब्द की परिभाषा है:
(१) सत्य भास होने के लिए शब्द या शब्द समूह
(२) भास, आभास, प्रतीति को स्थापित करने हेतु प्रयुक्त सार्थक शब्द समूह
भाषा का प्रयोजन है – अर्थ भास जाए. अर्थ
सत्य स्वरूप है. भाषा शब्द या शब्द समूह
है. भाषा से कम से कम भास होना ही
चाहिए. भास के साथ आभास, प्रतीति तक की
सम्भावना भाषा द्वारा स्वीकारी जा रही है.
तो भाषा के द्वारा भास कराया जा सकता है, आभास कराया जा सकता है, प्रतीति
कराया जा सकता है. दो व्यक्तियों के बीच
व्यवहार में भाषा के प्रयोग से भास हो सकता है, आभास हो सकता है, प्रतीति हो सकता
है. इस सम्भावना को दर्शन में स्वीकारा
गया है.
“भास” की परिभाषा दी गयी है: -
(१) परम सत्य स्वरूपी सहअस्तित्व कल्पना में होना, वाचन में होना व श्रवण भाषा के अर्थ के रूप में स्वीकार होना
(२) सहअस्तित्व होने की सम्भावना सहज सूचना
(३) भाषा ध्वनि के आधार पर सत्य को स्वीकारना
ध्वनियों से ही भाषा
बनती है. ध्वनि से ही हम भाषा तक पहुँचते
हैं. इसका एक उदाहरण मैं प्रस्तुत करता
हूँ. एक बार पूज्य बाबाजी ने “राष्ट्र”
शब्द की परिभाषा बनाया. उसको उन्होंने
मुझे व अन्य अध्ययनशील लोगों को बताया, एक संस्कृत के विद्वान् को भी बताया. संस्कृत के विद्वान् बहुत खुश हुए. उन्होंने मुझसे भी पूछा – कैसा है? क्योंकि मुझे भाषा की इतनी समझ ही नहीं थी, ज्यादा
सूचना भी नहीं थी... इसलिए “अच्छा है, बहुत अच्छा है” – इसके अलावा मेरे पास कहने
को कुछ था नहीं...इस बीच कुछ किसान लोग भी उनसे मिलने आये, तो बाबाजी ने उनको भी
वह परिभाषा बताया और उनका फीडबैक लिया.
बाद में मैंने उनसे पूछा – आप विद्वानों से पूछते हैं वो तो मुझे समझ में
आता है कि विद्वानों का वक्तव्य महत्त्वपूर्ण है.
मेरे जैसे जो लोग समझना चाह रहे हैं, अध्ययन करना चाह रहे हैं – उनके
वक्तव्य को भी मैं बहुत महत्त्वपूर्ण मान सकता हूँ... लेकिन जो बिलकुल किसान हैं, जिनको इस प्रकार की
भाषा से ज्यादा सारोकार नहीं है – आप उन लोगों का मंतव्य क्यों पूछते हो? तब उन्होंने कहा कि जो ध्वनि है, उस ध्वनि को
सुन कर क्या “भास” हो रहा है, उसको मैं पहचानने की कोशिश करता हूँ. तो एक-एक परिभाषा को बनाने के लिए उन्होंने
काफी मेहनत किया है. शब्दों को रख कर एक
विन्यास बनाया है. आगे और पीछे के क्रम को
ध्यान रखा है. एक शब्द के अनेक पर्यायवाची होते हैं, इस प्रकार कई बार प्रयास
करके, शब्दों को, वाक्यों को आगे-पीछे करके वाक्य संरचना में परिवर्तन किया ताकि
उसकी निश्चित ध्वनि भी आये. तो मुझे यह
समझ में आता है कि उन्होंने परिभाषा में बहुत परिश्रम किया है और ध्वनि-संयोजन पर
भी उन्होंने कुछ गहरा काम किया हुआ है.
तो “सत्य भास हो जाए” –
उसके लिए यहाँ भाषा को बोला जा रहा है. जिससे
भाषा का अर्थ जो सहअस्तित्व के रूप में है, वो सुनने वाले की कल्पना में आ
जाए.
भाषा पर जो पूज्य बाबाजी
ने काम किया है, उन्होंने परिभाषा विधि से परम्परा के शब्दों को ही परिभाषित किया
है. शब्दों के मुख्य रूप से स्त्रोत वेद
ही हैं. इसके अलावा कुछ शब्दों को
फारसी/अरबी से भी लिया है – जैसे, समझदारी, ईमानदारी... उन्होंने किसी परम्परा विशेष से दूरी बना के
रखने का काम नहीं किया. जो प्रचलित भाषा
है उससे उन्होंने शब्द लिए, लेकिन प्रधानतः संस्कृत से लिए हुए शब्द हैं. जैसे – मन, वृत्ति, चित्त, विचार, इच्छा, शरीर
– ये शब्द वेद से आये हुए हैं. फिर
परम्परा में जो प्रचलित शब्द हैं, उनको उन्होंने लिया और परिभाषा विधि से उनके
अर्थ को दिया. परिभाषा विधि इसमें बहुत
प्रमुख है. शब्द परम्परा के ही हैं. परिभाषा
विधि में अलग-अलग सन्दर्भों में कई परिभाषा भी दिखती है. जैसे आप “न्याय” शब्द को देखेंगे तो उसकी कई सन्दर्भों में उसकी परिभाषाएं
मिलेंगी. तो सन्दर्भों को समझाने के लिए
भी उन्होंने यह प्रयास किया.
परिभाषाओं को लेकर जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो जब कहा जाता था बॉयल का नियम
लिखो – तो यह हमको स्पष्ट बताया जाता था कि परिभाषा में एक भी शब्द आगे-पीछे होता
है तो आपको शून्य नंबर मिलेंगे! इस तरह modern education में परिभाषा को बनाए रखना
अनिवार्य माना है. आदर्शवादी या पुरातन या वैदिक शिक्षा में भी
भाषा और परिभाषा को बनाए रखना एक बहुत बड़ा काम माना जाता है. परिभाषा को लेकर इस परम्परागत मान्यता और
आधुनिक मान्यता का समर्थन पूज्य बाबा जी ने भी किया है. तो एक बात मैं निवेदन करना चाहता हूँ – परिभाषा
विधि और परिभाषा विधि की पवित्रता को बनाए रखना मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के
अध्ययन में एक बहुत अनिवार्य काम है.
दूसरी बात, भाषा को लेकर कुछ चीजों को बाबाजी ने परम्परा से भिन्न भी लिखा
है. परम्परा में कई व्याकरणाचार्यों ने
कहा है – “शब्द में अर्थ होता है”. इस बात
से बाबाजी असहमत थे. उन्होंने कहा कि “अस्तित्व
में वस्तु है और वस्तु ही अर्थ है”. तो
वस्तु में अर्थ होता है, और उस वस्तु को इंगित कराने के लिए शब्दों का चुनाव किया
गया है. जिसमे वास्तविकता है, वही वस्तु
है. तो इकाई भी वस्तु है और व्यापक भी
वस्तु है. व्यापक को वस्तु होना स्वीकारा – उसके लिए शब्दों को दिया. और इकाइयों को भी वस्तु होना स्वीकारा, और उसके
लिए भी शब्दों को दिया. एक नयी चीज़ जो
मध्यस्थ दर्शन में आयी कि इकाई वस्तु जहाँ है, उसी स्थान पर व्यापक वस्तु भी
है. जहाँ इकाई नहीं है, वहाँ व्यापक है ही
और जहाँ इकाई है, वहाँ भी व्यापक है. इस
बात को समझाने के लिए उन्होंने कहा – “इकाई में व्यापक पारगामी है”. और जब इकाई की ओर से देख कर कहा – “इकाई व्यापक
में भीगी है”. भीगी के साथ डूबी और घिरी
भी है. डूबी, भीगी, घिरी होने को उन्होंने “सम्पृक्त्ता”
शब्द से इंगित कराने का प्रयास किया. “सम्पृक्त्ता”
परम्परा से एक शब्द है – लेकिन जितना मेरी सूचना है, उसका अर्थ “भीगा हुआ होना”
परम्परा में स्वीकार नहीं किया गया है. भीगा होने का अर्थ बनता है – जहाँ पर इकाई
है वहीं पर व्यापक वस्तु भी है. दोनों
साथ-साथ हैं, ऐसे भीगा होने के कारण सहअस्तित्व बन रहा है, नहीं तो सहअस्तित्व
नहीं बनेगा. सहअस्तित्व का मूल है – इकाई
और व्यापक का साथ-साथ होना. व्यापक हर
समय, हर स्थान पर है – इसलिए व्यापक को “स्थितिपूर्ण” कहा, क्योंकि इसकी स्थिति
में पूर्णता है, कहीं कमी नहीं है, उसकी स्थिति में परिवर्तन नहीं है. लेकिन इकाई की स्थिति में पूर्णता नहीं है. कई स्थान हैं जहाँ इकाई की स्थिति नहीं है,
केवल व्यापक की स्थिति है. और कई ऐसे
स्थान हैं जहाँ इकाई की भी स्थिति है और व्यापक की भी स्थिति है. इसलिए व्यापक को “स्थितिपूर्ण” कहा और इकाई को “स्थितिशील”
कहा. तो “स्थिति” के दो जगह हैं – व्यापक वस्तु में भी स्थिति है, इकाई में भी
स्थिति है. जहाँ पर इकाई की स्थिति है,
वहाँ व्यापक की स्थिति है ही. तो व्यापक
की स्थिति कभी समाप्त नहीं हो रही है. इकाई
की स्थिति भी निरंतर बनी हुई है, लेकिन जहाँ इकाई है – वहाँ! और इकाई में स्थिति के साथ गति भी पाई जाती
है. व्यापक में केवल स्थिति पाई जा रही
है, गति नहीं पाई जा रही है. इस प्रकार
स्थिति दो प्रकार से दिखता है – व्यापक की स्थितिपूर्णता के स्वरूप में और प्रकृति
की स्थितिशीलता के स्वरूप में. इसी को “स्थिति” कह रहे हैं. इकाई में जो अपने आप में “स्थितिशीलता” है,
उसके साथ “गतिशीलता” भी है. यह मध्यस्थ
दर्शन की मान्यता है कि इकाई स्थिति-गति के साथ ही है. स्थिति और गति अविभाज्य है. इसी को आगे बढाते हैं तो यह श्रम-गति-परिणाम
स्वरूप में है, जिसमे परमाणु के स्वरूप की व्याख्या है. इसको आगे बढाते हैं तो रूप-गुण-स्वभाव-धर्म ये
चार शब्दों को जोड़ा गया है – प्रकृति की चार अवस्थाओं को समझाने के लिए... और आगे,
मानव के स्वरूप की व्याख्या के क्रम में स्वभाव-धर्म के साथ न्याय, धर्म और सत्य शब्दों
को जोड़ा गया. इस तरह पांच स्तर पर मध्यस्थ
दर्शन में शब्द-अनुशासन को बना के रखा गया है.
मध्यस्थ दर्शन में प्रतिपादित है - “सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है”. यहाँ मूलतः व्यापक और इकाई में सहअस्तित्व
निर्देशित है. व्यापक और इकाई में सहअस्तित्व
होने के कारण हर इकाई में भी सहअस्तित्व है और इकाइयों की परस्परता में भी सहअस्तित्व
है – जिसको “व्यवस्था” शब्द से इंगित कराया गया है. चूँकि हर इकाई में सहअस्तित्व है, इसलिए मानव
में भी सहअस्तित्व है. मानव में सहअस्तित्व
होते हुए भी मानव अपनी अजागृति या भ्रम के कारण इसको नहीं पहचान पाता, प्रमाणित
नहीं कर पाता. पहचान नहीं पाने की स्थिति
को “अन्याय” कह रहे हैं. पहचान पाने की
स्थिति को “न्याय” कह रहे हैं. दो मानवों
के बीच सहअस्तित्व को भी “न्याय” शब्द से निर्देशित किया है.
परम्परा में जो भाषा है और मध्यस्थ दर्शन में जो भाषा है, उनमे कुछ मौलिक
भिन्नताएं दिखाई देती हैं. उनमे से कुछ इस
प्रकार हैं.
[१] परम्परागत हिंदी व्याकरण से मध्यस्थ दर्शन की भाषा में भिन्नता दिखती है. प्रचलित हिंदी व्याकरण में कर्ता, कर्म, करण,
सम्प्रदान आदि को निम्न प्रकार से बताया गया है.
इसमें कर्ता को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया
है और क्रिया को करने वाले को कर्ता कहा गया है.
क्रिया के मूल शब्द को धातु कहा है.
जिसके ऊपर क्रिया की जाती है, उसको कर्म कहा है. जैसे – “राम ने रावण को धनुष-बाण से मारा.” इस
वाक्य में राम = कर्ता, रावण = कर्म, मारा = क्रिया, धनुष-बाण = करण. यह परम्परागत हिंदी भाषा का basic structure है. भाषा आदर्शवाद की देन है. आदर्शवादी विधि में ईश्वर को “कर्ता” माना है. व्याकरण
में ईश्वर को कर्ता मान कर भाषा का रचना किया है.
मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के अनुसार ईश्वर
कर्ता नहीं है. ईश्वर अधिकरण स्वरूप में
निर्देशित हुआ है. जैसे – “ईश्वर में
प्रकृति संपृक्त है”, “व्यापक में इकाइयां हैं” तो व्यापक वस्तु, चेतना, ज्ञान, ऊर्जा
को बताने के लिए भाषा में कर्ता के स्थान पर अधिकरण का प्रयोग है. आदर्शवादी भाषा
से मध्यस्थ दर्शन की भाषा की इस बहुत बड़ी भिन्नता को हमे पहचानना चाहिए. खासकर जब हम कोई लिखित पुस्तक बना रहे हैं, छोटे
बच्चों के लिए पुस्तकें लिख रहे हैं, तो इसमें इस बात का ध्यान रखें – यह निवेदन
है.
[२] कर्म के बारे में मध्यस्थ दर्शन और
आदर्शवाद में एक मौलिक अंतर है. क्रिया और
कर्म को यहाँ पहले से भिन्न बताया गया है.
सभी इकाइयां क्रियाशील हैं. व्यापक
क्रियाशून्य है. इकाइयों में जहाँ से मानव आया वहाँ से “कर्म”
की शुरुआत है, क्योंकि वहीं से कर्म-स्वतंत्रता है. जीवावस्था, प्राणावस्था, पदार्थावस्था में कर्मस्वतंत्रता
नहीं है – वहाँ क्रिया है, कर्म नहीं है. ज्ञानावस्था
(मानव) में क्रिया भी है, कर्म भी है. मानव
क्रियाशील है और कर्म भी करता है. कर्म को
हम “इच्छा” से जोड़ रहे हैं. जहाँ से इच्छा
है, वहाँ से कल्पनाशीलता व कर्मस्वतंत्रता है.
प्रत्येक मानव में कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता है, जिससे वह समझने की
क्षमता से संपन्न है. इसीलिये किसी भी
मानव की कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को रोक देना न्याय नहीं होगा. दया पूर्ण कार्य व्यवहार या जीने देने से आशय
है – किसी के कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता को नहीं रोकना. कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता में परिमार्जन
करना भाषा की मर्यादा होती है, कार्यक्रम होता है, उद्देश्य होता है. किसी भी सामाजिक या बौद्धिक कार्यक्रम का
उद्देश्य होता है – प्रत्येक मनुष्य में जो कल्पनाशीलता-कर्मस्वतंत्रता है, वह
व्यवस्था के अर्थ से सूत्रित हो जाए.
[३] परम्परा में जो काव्य के ९ रस बताये गए हैं (जैसे – श्रृंगार रस,
भक्ति रस, वीभत्स रस आदि) – और मध्यस्थ दर्शन में जो ९ मूल्य बताये गए हैं, ये
दोनों एक नहीं हैं. मध्यस्थ दर्शन के
अनुसार वीभत्स, घृणा आदि कोई रस नहीं हैं.
यहाँ मूल्य और भाव की बात की गयी है.
भाव को स्थिति-गति में स्थापित मूल्य और शिष्ट मूल्य के स्वरूप में बताया
है.
[४] परम्परा में अलंकार और उपमा को दे पाना भाषाई लालित्य या कौशल
मानते हैं. इस तरह की भाषा के प्रयोग से
यदि वास्तविकता छिप जाए तो भाषा का उद्देश्य पूरा नहीं होगा. वास्तविकता को अच्छे से व्यक्त करने के लिए
अलंकार और उपमा का कितना महत्त्व है – यह शोध का विषय होगा. आजकल आधुनिक विज्ञान और शिक्षा में अलंकार का
उपयोग कम से कम हो गया है. सीधी-सपाट भाषा
का ज्यादा प्रयोग अब होता है.
[५] आदर्शवादी परम्परा में “मैं कर रहा हूँ” – इस प्रकार की भाषा के
प्रयोग को अहंकार माना गया और अहंकार को बहुत ही बुरी चीज़ माना गया. यहाँ तक कहा गया कि यदि कोई कहता है कि “मैं
जानता हूँ” तो वह अहंकारी है, मिथ्यावादी है.
इसलिए जिम्मेदारी रहित भाषा एक तरह बनती गयी – क्योंकि आदर्शवाद में मूलतः
ईश्वर को ही जिम्मेदार माना गया है. मध्यस्थ
दर्शन में कहा गया – अनुभव ही एक ऐसी चीज़ है जिसको सबसे ज्यादा ठोक-बजा कर बोला जा
सकता है. अनुभव ही पूर्णतः व्यक्त हो सकता
है. जिस व्यक्ति को अनुभव हुआ वो कह सकता
है कि मैंने यह किया. इस तरह अहंकार की भाषा
और प्रामाणिकता की भाषा के भेद को हमे पहचानना होगा. व्यक्तिवादी भाषा और प्रामाणिकतावादी भाषा के
अंतर को स्पष्ट कर सके – यह भाषा की मर्यादा होनी चाहिए.
अंत में मैं मानव व्यव्हार दर्शन के पृष्ठ ३४ पर दिए सूत्र को उद्धृत
करना चाहता हूँ.
“भाषा के मूल में भाव, भाव के मूल में मौलिकता, मौलिकता के मूल में
मूल्यांकन, मूल्यांकन में मूल में दर्शन, दर्हन के मूल में दर्शक, दर्शक के मूल
में क्षमता-योग्यता-पात्रता, क्षमता-योग्यता-पात्रता के मूल में सत्य भास-आभास-प्रतीति,
सत्य भास-आभास-प्रतीति के मूल में भाषा.”
तो भास, आभास, प्रतीति सहित यदि कुछ बोला जाता है, तभी दूसरे को भास होगा.
मुझे आपने अवसर दिया, इसके लिए धन्यवाद!
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सुंदर व्याख्या
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