प्रश्न: अभी जो हम कुछ गलत करते हैं तो हमको अपनी "गलती" का एहसास होता है, वो कैसे होता है?
उत्तर: बुद्धि और आत्मा का प्रभाव जीवन में रहता ही है, इसी आधार पर "गलती" का स्वीकृति होता है कि यह हमसे कुछ गलत हो गया. यह न हो तो आदमी में गलती का स्वीकृति ही न हो.
प्रश्न: इस प्रभाव का क्या स्वरूप है?
उत्तर: यह तटस्थ प्रभाव है. आत्मा और बुद्धि जीवन की दस क्रियाओं में अविभाज्य हैं. मन, वृत्ति और चित्त में जो अभी तक संपादित हुआ वह बुद्धि के योग्य हुआ नहीं. बुद्धि उसको नकार देता है वह चित्रण में स्मृति क्षेत्र तक रह जाता है. तटस्थ बुद्धि और आत्मा के प्रभाव के आधार पर कल्पना में अच्छाई की चाहत बन जाती है. मानव में अच्छाई की चाहत जो है वह आत्मा और बुद्धि का ही प्रभाव है.
प्रश्न: इससे तो ऐसे लगता है कि आत्मा और बुद्धि को पहले से ही सही और गलत का पता है?
उत्तर: सही लगना और गलत लगना यह मानव के साथ है, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है. भ्रमित रहते तक "सही लगना" और "गलत लगना" यह होता है. पर सही क्या है - यह पता नहीं चलता. गलत क्या है यह किसी किसी परिस्थिति में पता चलता है, पर सही क्या है यह पता न होने से किसी गलत को ही अपना के वह चल देता है.
जैसे - मार्क्स ने कहा, सुविधा-संग्रह ठीक नहीं है. किन्तु वो जो रास्ता निकाला उसमे राष्ट्र के नाम पर सुविधा-संग्रह को छोड़ नहीं पाया.
इस तरह भ्रमित अवस्था में "गलत" की स्वीकृति कहीं कहीं है, पर "सही" का पता नहीं है. अभी तक मानव में पायी जाने वाली शुभकामना का आधार इतना ही है.
आदर्शवादी इस "गलत" के विरोध में चल दिए, पर "सही" क्या है - वे बता नहीं पाए.
प्रश्न: आदर्शवाद ने कुछ कृत्यों को "गलत" किस आधार पर और किस प्रकार कहा?
उत्तर: कल्पना के आधार पर. जैसे पाप-पुण्य की व्याख्या करते हुए यह करो, यह मत करो - इस प्रकार की बात किये. पर वह आचरण तक पहुंचा नहीं, न व्यवस्था तक पहुंचा.
परंपरा में शुभ को, अच्छाई को चाहा है. लेकिन अच्छाई का स्वरूप स्पष्ट न होने के कारण "अवैध" को "वैध" मानते गए. इस तरह धरती के बीमार होने तक पहुँच गए. अब पुनर्विचार की ज़रुरत है. पुनर्विचार के लिए यह सही के स्वरूप का प्रस्ताव है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
उत्तर: बुद्धि और आत्मा का प्रभाव जीवन में रहता ही है, इसी आधार पर "गलती" का स्वीकृति होता है कि यह हमसे कुछ गलत हो गया. यह न हो तो आदमी में गलती का स्वीकृति ही न हो.
प्रश्न: इस प्रभाव का क्या स्वरूप है?
उत्तर: यह तटस्थ प्रभाव है. आत्मा और बुद्धि जीवन की दस क्रियाओं में अविभाज्य हैं. मन, वृत्ति और चित्त में जो अभी तक संपादित हुआ वह बुद्धि के योग्य हुआ नहीं. बुद्धि उसको नकार देता है वह चित्रण में स्मृति क्षेत्र तक रह जाता है. तटस्थ बुद्धि और आत्मा के प्रभाव के आधार पर कल्पना में अच्छाई की चाहत बन जाती है. मानव में अच्छाई की चाहत जो है वह आत्मा और बुद्धि का ही प्रभाव है.
प्रश्न: इससे तो ऐसे लगता है कि आत्मा और बुद्धि को पहले से ही सही और गलत का पता है?
उत्तर: सही लगना और गलत लगना यह मानव के साथ है, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है. भ्रमित रहते तक "सही लगना" और "गलत लगना" यह होता है. पर सही क्या है - यह पता नहीं चलता. गलत क्या है यह किसी किसी परिस्थिति में पता चलता है, पर सही क्या है यह पता न होने से किसी गलत को ही अपना के वह चल देता है.
जैसे - मार्क्स ने कहा, सुविधा-संग्रह ठीक नहीं है. किन्तु वो जो रास्ता निकाला उसमे राष्ट्र के नाम पर सुविधा-संग्रह को छोड़ नहीं पाया.
इस तरह भ्रमित अवस्था में "गलत" की स्वीकृति कहीं कहीं है, पर "सही" का पता नहीं है. अभी तक मानव में पायी जाने वाली शुभकामना का आधार इतना ही है.
आदर्शवादी इस "गलत" के विरोध में चल दिए, पर "सही" क्या है - वे बता नहीं पाए.
प्रश्न: आदर्शवाद ने कुछ कृत्यों को "गलत" किस आधार पर और किस प्रकार कहा?
उत्तर: कल्पना के आधार पर. जैसे पाप-पुण्य की व्याख्या करते हुए यह करो, यह मत करो - इस प्रकार की बात किये. पर वह आचरण तक पहुंचा नहीं, न व्यवस्था तक पहुंचा.
परंपरा में शुभ को, अच्छाई को चाहा है. लेकिन अच्छाई का स्वरूप स्पष्ट न होने के कारण "अवैध" को "वैध" मानते गए. इस तरह धरती के बीमार होने तक पहुँच गए. अब पुनर्विचार की ज़रुरत है. पुनर्विचार के लिए यह सही के स्वरूप का प्रस्ताव है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
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