This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Sunday, July 30, 2017
Tuesday, July 4, 2017
जानने का प्रमाण ही मानना है.
अनुभव की रौशनी और स्मरण - इन दोनों के बीच में वस्तु-बोध होता है. इसी का नाम अध्ययन है.
मानव के करने, सोचने, बोलने और प्रमाणित करने में उसके तृप्त होने की स्थिति का नाम अनुभव है.
हम जो बोध किये और जो प्रमाणित किये इन दोनों में तृप्ति को पाना ही समाधान है.
कारण के अनुसार कार्य और कार्य के अनुसार कारण हो जाना तृप्ति है, वही समाधान है.
कार्य और कारण की परस्पर तृप्ति, विचार और कार्य की परापर तृप्ति, विचार और निर्णय की परस्पर तृप्ति, पाए हुए ज्ञान और उसके वितरण में तृप्ति - (अनुभव मूलक विधि से) ये तृप्तियाँ मिलती रहती हैं, इस तरह मानव के निरंतर तृप्ति का रास्ता बना हुआ है. जबकि भ्रमवश हम अतृप्ति को अपने जीने का घर बना लिए हैं.
जीवन के दो अवयवों के बीच जो संगीत होता है, वही तृप्ति है.
जानना मानने के अनुसार हो, मानना जानने के अनुसार हो - वह तृप्ति है. दूसरे - जानना मानने का विरोध न करे और मानना जानने का विरोध न करे - वह तृप्ति है.
जानने वाला भाग मानने वाले भाग को स्वीकार रहा है और मानने में जानना स्वीकार हो रहा है - यह तृप्ति बिंदु अनुभव है. इसी तरह मानने और पहचानने में तृप्ति, पहचानने और निर्वाह करने में तृप्ति.
जो जाने-माने हैं उसी को हम पहचानने-निर्वाह करने में हम प्रमाणित करते हैं.
जानने की वस्तु है - सहअस्तित्व, विकास क्रम, विकास, जागृतिक्रम और जागृति. जो हमने जाना उसको प्रमाणित करने के तरीके के साथ ही उसको 'मानना' होता है. जानने और मानने के तृप्ति-बिंदु तक पहुँचते हैं तो हम प्रमाणित करने में सफल हो जाते हैं.
जानने की प्रक्रिया है अध्ययन. अध्ययन करने के क्रम में हम इस स्थिति में आ जाते हैं कि "मैं प्रमाणित कर सकता हूँ" - तब हम "मान" लिए.
प्रश्न: "जानने" और "मानने" की बीच क्या दूरी है?
उत्तर: जानने और मानने के बीच दूरी हमारी बेवकूफी ही है! यदि दूरी है तो जाने ही नहीं है. जानने का प्रमाण ही मानना है. यह आज के बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोगों पर बड़ा प्रहार लग सकता है.
जानने का प्रमाण मानना है. मानने का प्रमाण पहचानना है. पहचानने का प्रमाण निर्वाह करना है. निर्वाह करने का प्रमाण में प्रमाण को पुनः जानना है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९७)
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