जागृत मानव ज्ञान, विवेक और विज्ञान को अपने जीने में प्रमाणित करता है.
ज्ञान मानव में वास्तविकता या अस्तित्व की स्वीकृति के स्वरूप में होता है. दो तरह की वस्तुएँ हैं - सत्ता और प्रकृति। सत्ता और प्रकृति के सह-अस्तित्व (सम्पृक्तता) के ज्ञान को 'सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान" कहा है. यह ज्ञानगोचर ही है. इसमें इन्द्रियों से कुछ दिखने, सूंघने, चखने, छूने, सुनने की कोई बात नहीं है. यह केवल (भास, आभास, और प्रतीत होकर) अनुभव में आने वाली बात है. दूसरे चैतन्य वस्तु के स्वरूप का ज्ञान - या "जीवन ज्ञान"। जीवन को भी इन्द्रियों से देखा नहीं जा सकता, यह केवल ज्ञानगोचर वस्तु है, उसके ज्ञान की केवल स्वीकृति होती है. तीसरे, मानव के निश्चित आचरण के स्वरूप का ज्ञान - या "मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान"। मानवीयता पूर्ण आचरण इन्द्रियगोचर भी है और ज्ञानगोचर भी है. व्यवहार, चरित्र, सदुपयोग-सुरक्षा सम्बन्धी कार्यकलाप और व्यवस्था में भागीदारी इन्द्रियगोचर भी है, जिसको हम संवेदनाओं से भी पहचान सकते हैं. किन्तु "मानव का निश्चित आचरण" अस्तित्व में एक वास्तविकता है, इसकी केवल स्वीकृति या अनुभव ही होता है.
विवेक मानव में निश्चयन के स्वरूप में होता है. ज्ञान के आधार पर विवेचना होती है - क्या वस्तु नश्वर है, क्या वस्तु अमर है, और किस प्रकार जीने से ताल-मेल (समाधान) रहता है और किस प्रकार जीने से समस्या आती है. यह विवेचना ज्ञान को मानव द्वारा अपने जीने के लिए स्वीकारने के अर्थ में होती है. मेरे जीने में क्या "सही" है और क्या "गलत" है, यह निश्चयन हो जाना ही विवेक है. ज्ञान में अनुभव के बिना विवेक नहीं होता। विवेक का स्वरूप है - जीवन का अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व, और व्यवहार के नियम।
विज्ञान मानव के कार्य और व्यवहार में आता है. विवेक में जो सही के प्रति निश्चयन हुआ, उसको क्रियान्वित करने के लिए विज्ञान है. विज्ञान इस तरह देश-काल, प्रक्रिया और निर्णय लेने से सम्बंधित है. क्रियान्वित करने में समय का ज्ञान आवश्यक है - जिसको कहा "काल वादी ज्ञान". कार्य और व्यवहार अन्य मानवों और मनुष्येत्तर संसार की परस्परता में ही होता है. इसलिए भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया तथा इनके अंतर-संबंधों के प्रति स्पष्ट होना आवश्यक है - इसको "क्रिया वादी ज्ञान" कहा. मानव के जीने का मतलब सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना है, और उसमें हर क्षण निर्णय लेने की आवश्यकता है, क्योंकि जीने में हर क्षण अनेक विकल्प होते हैं, और उनमे से एक को करने का निर्णय लेना आवश्यक है - इसीको "निर्णय वादी ज्ञान" कहा.
काल वादी, क्रिया वादी और निर्णय वादी ज्ञान को जागृत मानव कारण-गुण-गणित विधि से अपने जीने में प्रमाणित करता है. कारण क्रिया की पृष्ठ-भूमि होती है. कोई भी क्रिया क्यों हो रही है या हुई, वह उसका कारण होता है. क्रिया और कारण अविभाज्य होता है. कारण क्रिया से अलग नहीं होता। जैसे - बीज का अंकुरित होना क्रिया है, उसका कारण उस बीज के स्वरूप में ही समाहित है. मानव का जागृत होना एक क्रिया है, यह मानव के स्वरूप में ही समाहित है. कारण ही धर्म है.
हर क्रिया का कुछ प्रभाव होता है. प्रभाव को ही गुण कहा है. क्रियाओं के परस्पर प्रभाव से वातावरण बनता है. वातावरण की अनुकूलता होने पर क्रिया में स्फुरण होता है. जैसे - बीज में अंकुरण होने का कारण होते हुए भी, जब तक उसका वातावरण उगने के अनुकूल नहीं बनता, तब तक उसमें अंकुरण प्रक्रिया नहीं शुरू होती। मानव में जागृति का कारण होते हुए भी, जब तक अध्ययन/शिक्षा या मानवीय परंपरा का वातावरण उसको उपलब्ध नहीं होता, उसमें साक्षात्कार पूर्वक बोध होने की शुरुआत नहीं होती।
हर क्रिया का फल-परिणाम होता है. कुछ फल-परिणाम को गिना भी जा सकता है. जैसे - एक वृक्ष में कितने फल लगे, उन फलों से कितने बीज मिले, उन बीजों से कितने नए पौधे बने - इसको गिना जा सकता है. गणित या गणना की कार्य और व्यवहार में आवश्यकता है. समय, लम्बाई, ताप, भार आदि को नापना होता है. इसको सूक्ष्म (micro) और स्थूल (macro) दोनों स्तरों पर किया जाता है.
इस तरह जागृत मानव में ज्ञान स्वीकृति के स्तर पर, विवेक निश्चयन के स्तर पर और विज्ञान कार्य-व्यवहार के स्तर पर प्रमाणित होता है. ये तीनों एक साथ होते हैं. "विवेक सम्मत विज्ञान" और "विज्ञान सम्मत विवेक" होने के लिए ज्ञान होना आवश्यक है. विवेक विज्ञान के साथ "व्यवहार के नियम" के साथ जुड़ता है. विज्ञान विवेक के साथ "निर्णयवादी ज्ञान" के साथ जुड़ता है. ज्ञान विवेक के साथ "मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान" के आधार पर जुड़ता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)