समाधान के इस प्रस्ताव में तर्क द्वारा छेद करने की कोई जगह नहीं है. समस्या की हर बात में छेद रहता ही है. तर्क का प्रतितर्क देने से समाधान नहीं होता। समाधान से तर्क संतुष्ट होता है. समाधान के आगे तर्क करने की ताकत ही समाप्त हो जाता है. प्रमाण सामने हो, अनुभव सामने हो तो फिर उससे क्या तर्क करेंगे? मैं स्वयं अनुभव संपन्न हो कर समाधान-समृद्धि का प्रमाण हूँ. समाधान के साथ तर्क होता ही नहीं है, कुतर्क भी नहीं होता.
अवधारणा होते तक तर्क है, अवधारणा के बाद कोई तर्क नहीं है. तर्क पुरुषार्थ के साथ है, वहाँ उसका प्रयोग होना भी चाहिए। किन्तु पुरुषार्थ के बाद परमार्थ में तर्क का प्रयोग नहीं है. परमार्थ में पुरुषार्थ विलय होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ में समावेश होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ का समर्थन देता ही है. यह नियम है, नियति-सम्मत है.
मानव जब से इस धरती पर प्रकट हुआ तभी से न्याय को स्वयंस्फूर्त चाहता है. न्याय की चाहत मानव में आदि काल से है, पर उसको न्याय मिला नहीं। मानव को न्याय मिला नहीं पर उसकी चाहना उसमें बरकरार रही. यह कैसे हो गया? आप भी न्याय चाहते हैं, मैं भी न्याय चाहता हूँ. चाहने में हम एक समान हैं. अब मैं जो पाया हूँ, उसको न्याय माना जाए तो उसको अनुकरण किया जा सकता है, फिर प्रमाणित करके देखा जा सकता है. अनुकरण करने पर प्रमाणित करने की इच्छा होता ही है. प्रमाणित करने पर परंपरा बनेगी। परंपरा की फिर पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतरता होती है. परंपरा के रूप में स्थापित हो जाना एक सौभाग्यशाली स्थिति होती है. न्याय के इस प्रस्ताव में कोई कमी हो तो बताओ? यदि कमी नहीं है तो प्रभावशील होने की बात है. उसके लिए एक व्यक्ति से शुरुआत हुई, उससे १००-२०० व्यक्ति प्रभावित हुए, आगे कैसे होगा इसको देखते हैं! प्रभावित होने का मतलब है, उसको समझने और प्रमाणित करने के लिए सही दिशा में प्रयत्नशील होना।
प्रश्न: न्याय के लिए हमारा प्रयत्नशील होना स्वयंस्फूर्त है या प्रभाववश है - इसको कैसे पहचानें?
उत्तर: न्याय की चाहत आपमें (हर मानव में) स्वयंस्फूर्त है. अध्ययन विधि से न्याय की प्रेरणा है. अध्ययन विधि से जागृति की ओर बढ़ते हुए पहला घाट है - साक्षात्कार। दूसरा घाट है - बोध. तीसरा घाट है -अनुभव। अनुभव फिर प्रमाण का स्त्रोत होता है. प्रमाण का फिर पुनः बोध, फिर चिंतन-चित्रण, फिर तुलन-विश्लेषण, फिर आस्वादन और चयन. अनुभवमूलक विधि से, इस प्रकार मानव के जीने में न्याय स्वयंस्फूर्त हो जाता है. इसको जितना भी चाहे मानव विश्लेषण कर सकता है, दूसरों को समझा सकता है. मानव समझदार होने के बाद उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलता विधि से स्वानुशासित होता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसंबर २००९, अमरकंटक)
अवधारणा होते तक तर्क है, अवधारणा के बाद कोई तर्क नहीं है. तर्क पुरुषार्थ के साथ है, वहाँ उसका प्रयोग होना भी चाहिए। किन्तु पुरुषार्थ के बाद परमार्थ में तर्क का प्रयोग नहीं है. परमार्थ में पुरुषार्थ विलय होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ में समावेश होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ का समर्थन देता ही है. यह नियम है, नियति-सम्मत है.
मानव जब से इस धरती पर प्रकट हुआ तभी से न्याय को स्वयंस्फूर्त चाहता है. न्याय की चाहत मानव में आदि काल से है, पर उसको न्याय मिला नहीं। मानव को न्याय मिला नहीं पर उसकी चाहना उसमें बरकरार रही. यह कैसे हो गया? आप भी न्याय चाहते हैं, मैं भी न्याय चाहता हूँ. चाहने में हम एक समान हैं. अब मैं जो पाया हूँ, उसको न्याय माना जाए तो उसको अनुकरण किया जा सकता है, फिर प्रमाणित करके देखा जा सकता है. अनुकरण करने पर प्रमाणित करने की इच्छा होता ही है. प्रमाणित करने पर परंपरा बनेगी। परंपरा की फिर पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतरता होती है. परंपरा के रूप में स्थापित हो जाना एक सौभाग्यशाली स्थिति होती है. न्याय के इस प्रस्ताव में कोई कमी हो तो बताओ? यदि कमी नहीं है तो प्रभावशील होने की बात है. उसके लिए एक व्यक्ति से शुरुआत हुई, उससे १००-२०० व्यक्ति प्रभावित हुए, आगे कैसे होगा इसको देखते हैं! प्रभावित होने का मतलब है, उसको समझने और प्रमाणित करने के लिए सही दिशा में प्रयत्नशील होना।
प्रश्न: न्याय के लिए हमारा प्रयत्नशील होना स्वयंस्फूर्त है या प्रभाववश है - इसको कैसे पहचानें?
उत्तर: न्याय की चाहत आपमें (हर मानव में) स्वयंस्फूर्त है. अध्ययन विधि से न्याय की प्रेरणा है. अध्ययन विधि से जागृति की ओर बढ़ते हुए पहला घाट है - साक्षात्कार। दूसरा घाट है - बोध. तीसरा घाट है -अनुभव। अनुभव फिर प्रमाण का स्त्रोत होता है. प्रमाण का फिर पुनः बोध, फिर चिंतन-चित्रण, फिर तुलन-विश्लेषण, फिर आस्वादन और चयन. अनुभवमूलक विधि से, इस प्रकार मानव के जीने में न्याय स्वयंस्फूर्त हो जाता है. इसको जितना भी चाहे मानव विश्लेषण कर सकता है, दूसरों को समझा सकता है. मानव समझदार होने के बाद उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलता विधि से स्वानुशासित होता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसंबर २००९, अमरकंटक)