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Tuesday, March 25, 2014

ज्ञान और सुख की सहज अपेक्षा

४ विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान जीवों में "करने" के रूप में है.  जीव-जानवर विषयों को पहचानते हैं, तभी तो उनको करते हैं.  उसके बाद ५ संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) में राजी होने की बात मानव में आ गयी.  मानव संवेदनाओं के आधार पर विषयों को पहचानता है, जबकि जीव-जानवर विषयों के लिए संवेदनाओं का उपयोग करते हैं.  जीवों और मानवों में यह महत्त्वपूर्ण अंतर है.  यह मानव में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का पहला प्रभाव है, इसी आधार पर मानव को ज्ञानावस्था में बताया।

सर्वप्रथम मानव ने संवेदनाओं के आधार पर ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  इसके पहले शब्द होता है, स्पर्श होता है, गंध होता है, रस होता है, रूप होता है - यह उपयोग में था ही.  जैसे - जीव-जानवर अपने आहार को पहचानने के लिए गंध का उपयोग करते हैं, उससे पहले पेड़ पौधों की जड़ों में अपने पोषक तत्वों को पहचानने के लिए गंध का उपयोग है.  मानव ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए इनके ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  क्यों? क्योंकि मानव में सुख की सहज अपेक्षा है.  इसी बिंदु से मानव का अध्ययन शुरू होता है.

मानव को ज्ञान की आवश्यकता केवल सुख के लिए है, और किसी अर्थ में नहीं है.  ज्ञान को लेकर मानव ने अब तक के इतिहास में आदर्शवादी और भौतिकवादी तरीके से सोचा है.  आदर्शवादी तरीके से मानव को शब्द ज्ञान मिला।  भौतिकवादी तरीके से मानव को स्थूल और सूक्ष्म नापदंड मिले।  इन दोनों विधियों से सुख मानव के हाथ नहीं लगा.  शब्द से तृप्ति मिलती नहीं है.  नाप तौल से तृप्ति मिलती नहीं है - कितना भी सूक्ष्म नाप लें, और सूक्ष्म नापने की जगह बनी ही रहती है.  कितना भी विशाल नाप लें - और विशाल नापने की जगह बनी ही रहती है.  उल्टे इन आधारों पर जो भी किया उससे धरती ही बीमार हो गयी.  मानव को कुछ और समझने की आवश्यकता है - यह बात उजागर हो गयी.  इस आवश्यकता की भरपाई करने के लिये मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है.

- श्री ए नागराज (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, March 23, 2014

कार्य ज्ञान और ज्ञान

"इकाइयों की परस्परता में जो खाली  स्थली है - वह स्वयं सत्ता है.  आँखों में यह सत्ता खाली स्थली जैसी प्रतिबिम्बित होती है.  यह खाली नहीं है, ऊर्जा है.  यह ऊर्जा सब में पारगामी है - पत्थर में, मिट्टी में, पानी में... एक परमाणु अंश से लेकर धरती में - सब में पारगामी है.  इकाइयों में इसके पारगामी होने की गवाही है, उनमें ऊर्जा सम्पन्नता।  मानव में यह ऊर्जा सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है.  मानव में 'कार्य ज्ञान' होता है, यह बात परंपरा में आ चुकी है.   कार्य ज्ञान के मूल में ज्ञान है, वह सत्ता है.  जिस तरह 'कार्य ऊर्जा' और 'साम्य ऊर्जा' भौतिक संसार में है, उसी तरह 'कार्य ज्ञान' और 'ज्ञान' मानव में है.  'रहने' के रूप में कार्य ज्ञान, 'होने' के रूप में ज्ञान।  'रहने' के रूप में कार्य ऊर्जा, 'होने' के रूप में साम्य ऊर्जा। 'होने' के रूप में कारण की पहचान है.  'रहने' के रूप में कार्य की पहचान है.  होना और रहना अविभाज्य है." - श्री ए नागराज