चारों अवस्थाओं की उपयोग विधि, कार्य विधि और होने की विधि है. उपयोग और कार्य विधि रूप और गुण की सीमा तक है, जो साक्षात्कार, बोध और अनुभव की वस्तु नहीं है. होने की विधि अनुक्रम है, स्वभाव और धर्म है, जो साक्षात्कार, बोध और अनुभव की वस्तु है. पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था का होना कैसे हुआ? प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था का होना कैसे हुआ? जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था का होना कैसे हुआ? भ्रमित ज्ञान अवस्था से जागृत ज्ञान अवस्था का होना कैसे हुआ? यह होने का कड़ी से कड़ी जुड़ा होना अनुक्रम है.
रूप, गुण, स्वभाव और धर्म चारों सत्य हैं. अस्तित्व में रूप है ही, गुण है ही, स्वभाव है ही, धर्म है ही. रूप और गुण चित्रण तक रहता है, जो स्वभाव और धर्म से सम्मत होता है. स्वभाव और धर्म आगे साक्षात्कार होकर बुद्धि तक जाता है. फिर केवल धर्म अनुभव में जाता है. समझने से आशय साक्षात्कार, बोध और अनुभव ही है. अनुभव होने पर रूप, गुण, स्वभाव और धर्म को संयुक्त रूप में पहचानने और निर्वाह करने की अर्हता आ जाती है. इससे मानव के जीने में (अनुभव, विचार और कार्य-व्यव्हार में) प्रमाण प्रवाहित होता है.
होना समग्र का है. अस्तित्व धर्म सभी अवस्थाओं में साम्य है. इसलिए होने को समग्रता में ही समझा जाता है. होने को टुकड़ों में समझा नहीं जाता। समग्र का होना एक साथ ही समझ आता है. पानी अनुभव में आ जाए, मानव अनुभव में न आये - ऐसा होता नहीं है. मानव होने के केंद्र में है. मानव के होने के अर्थ में मनुष्येत्तर प्रकृति का होना है. इसलिए समझ के टुकड़े नहीं होते। मानव अभी पानी को उपयोग और कार्य के अर्थ में ही पहचानता है, उसके "होने" के अर्थ में नहीं।
साक्षात्कार, बोध और अनुभव में कोई काल और तर्क नहीं होता। तर्क रूप और गुण की सीमा में है. सारी देर साक्षात्कार तक पहुँचने में ही है. कल्पनाशीलता में समझने के लिए प्राथमिकता बनने में ही जो समय लगता है, वह लगता है. साक्षात्कार होने पर बोध और अनुभव तत्काल होता है. या तो "समझे" या "नहीं समझे" - ऐसा ही है.
उपयोग विधि और कार्य विधि इन्द्रियगोचर है. होने की विधि ज्ञानगोचर है. होने की विधि को समझने के लिए अध्ययन है. इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में मानव अस्तित्व में देखता है, करता है और भोगता है.
प्रश्न: हम अभी जहां खड़े हैं, वहाँ से समझने के लिए प्राथमिकता बनाने के लिए क्या करें?
उत्तर: हम जहाँ हैं, वहीं से आगे का रास्ता बना सकते हैं. समझदारी के इस प्रस्ताव से सहमति तो हो ही जाती है. न्याय, समाधान और सत्य को नकारना किसी से बनता नहीं है. सहमति के साथ अध्ययन में निष्ठा जोड़ने की आवश्यकता है. अपने जीने के लक्ष्य को परिवर्तित करने की आवश्यकता है. लक्ष्य को सुविधा-संग्रह के स्थान पर समाधान-समृद्धि में स्थिर करने पर हम अभी जो रोटी-पानी के लिए करते हैं उसको साधन मानें न कि साध्य। मानवीयता पूर्ण आचरण को विचार में अपनाने से इस समझ के प्रति हम ईमानदार होते हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
रूप, गुण, स्वभाव और धर्म चारों सत्य हैं. अस्तित्व में रूप है ही, गुण है ही, स्वभाव है ही, धर्म है ही. रूप और गुण चित्रण तक रहता है, जो स्वभाव और धर्म से सम्मत होता है. स्वभाव और धर्म आगे साक्षात्कार होकर बुद्धि तक जाता है. फिर केवल धर्म अनुभव में जाता है. समझने से आशय साक्षात्कार, बोध और अनुभव ही है. अनुभव होने पर रूप, गुण, स्वभाव और धर्म को संयुक्त रूप में पहचानने और निर्वाह करने की अर्हता आ जाती है. इससे मानव के जीने में (अनुभव, विचार और कार्य-व्यव्हार में) प्रमाण प्रवाहित होता है.
होना समग्र का है. अस्तित्व धर्म सभी अवस्थाओं में साम्य है. इसलिए होने को समग्रता में ही समझा जाता है. होने को टुकड़ों में समझा नहीं जाता। समग्र का होना एक साथ ही समझ आता है. पानी अनुभव में आ जाए, मानव अनुभव में न आये - ऐसा होता नहीं है. मानव होने के केंद्र में है. मानव के होने के अर्थ में मनुष्येत्तर प्रकृति का होना है. इसलिए समझ के टुकड़े नहीं होते। मानव अभी पानी को उपयोग और कार्य के अर्थ में ही पहचानता है, उसके "होने" के अर्थ में नहीं।
साक्षात्कार, बोध और अनुभव में कोई काल और तर्क नहीं होता। तर्क रूप और गुण की सीमा में है. सारी देर साक्षात्कार तक पहुँचने में ही है. कल्पनाशीलता में समझने के लिए प्राथमिकता बनने में ही जो समय लगता है, वह लगता है. साक्षात्कार होने पर बोध और अनुभव तत्काल होता है. या तो "समझे" या "नहीं समझे" - ऐसा ही है.
उपयोग विधि और कार्य विधि इन्द्रियगोचर है. होने की विधि ज्ञानगोचर है. होने की विधि को समझने के लिए अध्ययन है. इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में मानव अस्तित्व में देखता है, करता है और भोगता है.
प्रश्न: हम अभी जहां खड़े हैं, वहाँ से समझने के लिए प्राथमिकता बनाने के लिए क्या करें?
उत्तर: हम जहाँ हैं, वहीं से आगे का रास्ता बना सकते हैं. समझदारी के इस प्रस्ताव से सहमति तो हो ही जाती है. न्याय, समाधान और सत्य को नकारना किसी से बनता नहीं है. सहमति के साथ अध्ययन में निष्ठा जोड़ने की आवश्यकता है. अपने जीने के लक्ष्य को परिवर्तित करने की आवश्यकता है. लक्ष्य को सुविधा-संग्रह के स्थान पर समाधान-समृद्धि में स्थिर करने पर हम अभी जो रोटी-पानी के लिए करते हैं उसको साधन मानें न कि साध्य। मानवीयता पूर्ण आचरण को विचार में अपनाने से इस समझ के प्रति हम ईमानदार होते हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)