प्रश्न: मैं शरीर से भिन्न हूँ - इसको देखने की क्षमता को कैसे विकसित करें?
उत्तर: जीवन का अध्ययन पूर्वक। जीवन यदि अध्ययन गम्य होता है तो जीवन और शरीर अलग-अलग हैं, यह स्पष्ट हो जाता है। अनुभव-मूलक विधि से जो प्रबोधित करते हैं, उस पर विश्वास रखते हुए जीवन का अध्ययन होता है। जीवन जब अनुभव में आता है तो जीवन शरीर से कितना दूर रहता है, यह पता चलता है। जीवन समझ में आना ही स्व-स्वरूप ज्ञान है। स्व-स्वरूप ज्ञान होने के बाद मनुष्य मानव-चेतना के अलावा दूसरा किसी विधि से जीता ही नहीं। स्व-स्वरूप ज्ञान अनुभव के बिना होता भी नहीं है।
जिस बात को समझे बिना हम जी ही नहीं पायेंगे, वह जल्दी समझ में आता है। समझने के लिए तीव्र इच्छा ही जिज्ञासा है।
जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए शरीर को जीवंत बना कर रखता है।
जीव-चेतना में रहते हुए मनुष्य को मानव-चेतना रंगेगा नहीं! जीव-चेतना में रहने की व्यवस्था रखते हुए शोध नहीं होगा। जीव-चेतना को बरकरार रखते हुए मानव-चेतना प्रमाणित नहीं होगा। इस आधार पर हम मानव-चेतना में जीने की वरीयता को पहचान पाते हैं।
अध्ययन तात्विकता से लेकर व्यवहारिकता तक है। तात्विकता को छोड़ कर व्यवहारिकता या आचरण में निश्चयता आती नहीं है। मानव-चेतना समझ में आने के बाद मानव-चेतना के आधार पर जब हम जीते हैं तो आचरण स्थिर होता है।
प्रश्न: "मनन" क्या है?
उत्तर: मानव-चेतना पूर्वक जो जीता है, उसका अनुकरण करना। ज्ञान भाग को स्वीकारना, क्रिया भाग का आचरण करना।
भाषा में जो कहा गया है, उसको यथावत स्वीकारना। भाषा को बदलने में लगे रहते हैं तो परिभाषा भी बदलती है, फिर अर्थ वही इंगित नहीं होता। जैसा कहा है - वैसा ही उसको पचाने से समझ आता है। भाषा को परिवर्तित करते हैं तो वह पचता नहीं है।
अध्ययन कराने वाला व्यक्ति प्रमाणित है, यह मानने के बाद स्वीकारना शुरू होता है। उससे पहले होगा नहीं।
अध्ययन में वस्तु के साथ तदाकार होने को कहा है। समझाने वाले के साथ तदाकार होने को नहीं कहा है। समझाने वाले व्यक्ति का अनुकरण आचरण के अर्थ में होता है। पर समझने में वस्तु के साथ ही तदाकार होना होता है। इसका क्रम ऐसे है: -
(१) समझदार व्यक्ति के आचरण को पहचानना।
(२) भाषा को पहचानना।
(३) अर्थ को पहचानना - तदाकार होना।
(४) अनुभव होना।
(५) प्रमाणित होना।
स्वीकृत होने के बाद ही तदाकार होता है। साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद ही तदाकार होता है। साक्षात्कार को हम "समझ" मान लेते हैं, तो रुक जाते हैं। बुद्धि में साक्षात्कार जो हुआ, उसका परिशीलन होता है। बुद्धि में बोध होने के बाद, अनुभव होने के बाद, अनुभव-प्रमाण बोध पुनः बुद्धि में होता है। ऐसा बना हुआ है।
अनुभव तक केवल अध्ययन ही है। अनुभव होने तक, आपके जीने में समझने का पक्ष वरीय रहे - क्रिया पक्ष कम वरीय रहे।
प्रक्रिया के साथ तर्क जुड़ा है। ज्ञान के साथ तर्क नहीं है। ज्ञान के अनुरूप प्रक्रिया हुई या नहीं - उसके लिए तर्क है। ज्ञान है - सह-अस्तित्व को पहचानना, जीवन को पहचानना, मानवीयता पूर्ण आचरण को पहचानना। यह 'चेतना विकास' की मूल वस्तु है। उसकी जरूरत है या नहीं, यह पहले सोच लो। जरूरत है तो उसका अध्ययन करके देखा जाए!
प्रश्न: न्याय कैसे समझ में आता है?
उत्तर: सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान में व्यवस्था एक भाग है, व्यवहार एक भाग है। चारों अवस्थाओं का व्यवस्था में होना है - उसका सूत्र है: त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी। व्यवस्था का बोध होने पर व्यवस्था के अर्थ में संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति - यह न्याय है। सह-अस्तित्व सहज व्यवस्था का ज्ञान अध्ययन पूर्वक होता है। अनुभव के बाद बोध पूर्वक व्यवस्था के अर्थ में संबंधों को पहचानना बनता है। अनुभव के पहले व्यवस्था के अर्थ में संबंधों की पहचान नहीं होती। संबंधों का नाम भर जानते हैं। न्याय को समझ लिया, न्याय को प्रमाणित करने के लिए प्रयत्न किया, उसी विधि से न्याय का अनुभव होता है।
स्वयं में विश्वास होने पर ही संसार के साथ विश्वास करना बनता है। स्वयं में व्यतिरेक रहते हुए, संसार के साथ विश्वास होता ही नहीं है। समझने से स्वयं में विश्वास होता है। संसार पर विश्वास का स्वरूप है - संसार समझ सकता है। संसार समझ गया है तो संसार के साथ जीने का स्वरूप निकलता है। समझे हुए के साथ ही जी पाना बनता है। न समझे हुए के साथ जी पाना बनता नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)
उत्तर: जीवन का अध्ययन पूर्वक। जीवन यदि अध्ययन गम्य होता है तो जीवन और शरीर अलग-अलग हैं, यह स्पष्ट हो जाता है। अनुभव-मूलक विधि से जो प्रबोधित करते हैं, उस पर विश्वास रखते हुए जीवन का अध्ययन होता है। जीवन जब अनुभव में आता है तो जीवन शरीर से कितना दूर रहता है, यह पता चलता है। जीवन समझ में आना ही स्व-स्वरूप ज्ञान है। स्व-स्वरूप ज्ञान होने के बाद मनुष्य मानव-चेतना के अलावा दूसरा किसी विधि से जीता ही नहीं। स्व-स्वरूप ज्ञान अनुभव के बिना होता भी नहीं है।
जिस बात को समझे बिना हम जी ही नहीं पायेंगे, वह जल्दी समझ में आता है। समझने के लिए तीव्र इच्छा ही जिज्ञासा है।
जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए शरीर को जीवंत बना कर रखता है।
जीव-चेतना में रहते हुए मनुष्य को मानव-चेतना रंगेगा नहीं! जीव-चेतना में रहने की व्यवस्था रखते हुए शोध नहीं होगा। जीव-चेतना को बरकरार रखते हुए मानव-चेतना प्रमाणित नहीं होगा। इस आधार पर हम मानव-चेतना में जीने की वरीयता को पहचान पाते हैं।
अध्ययन तात्विकता से लेकर व्यवहारिकता तक है। तात्विकता को छोड़ कर व्यवहारिकता या आचरण में निश्चयता आती नहीं है। मानव-चेतना समझ में आने के बाद मानव-चेतना के आधार पर जब हम जीते हैं तो आचरण स्थिर होता है।
प्रश्न: "मनन" क्या है?
उत्तर: मानव-चेतना पूर्वक जो जीता है, उसका अनुकरण करना। ज्ञान भाग को स्वीकारना, क्रिया भाग का आचरण करना।
भाषा में जो कहा गया है, उसको यथावत स्वीकारना। भाषा को बदलने में लगे रहते हैं तो परिभाषा भी बदलती है, फिर अर्थ वही इंगित नहीं होता। जैसा कहा है - वैसा ही उसको पचाने से समझ आता है। भाषा को परिवर्तित करते हैं तो वह पचता नहीं है।
अध्ययन कराने वाला व्यक्ति प्रमाणित है, यह मानने के बाद स्वीकारना शुरू होता है। उससे पहले होगा नहीं।
अध्ययन में वस्तु के साथ तदाकार होने को कहा है। समझाने वाले के साथ तदाकार होने को नहीं कहा है। समझाने वाले व्यक्ति का अनुकरण आचरण के अर्थ में होता है। पर समझने में वस्तु के साथ ही तदाकार होना होता है। इसका क्रम ऐसे है: -
(१) समझदार व्यक्ति के आचरण को पहचानना।
(२) भाषा को पहचानना।
(३) अर्थ को पहचानना - तदाकार होना।
(४) अनुभव होना।
(५) प्रमाणित होना।
स्वीकृत होने के बाद ही तदाकार होता है। साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद ही तदाकार होता है। साक्षात्कार को हम "समझ" मान लेते हैं, तो रुक जाते हैं। बुद्धि में साक्षात्कार जो हुआ, उसका परिशीलन होता है। बुद्धि में बोध होने के बाद, अनुभव होने के बाद, अनुभव-प्रमाण बोध पुनः बुद्धि में होता है। ऐसा बना हुआ है।
अनुभव तक केवल अध्ययन ही है। अनुभव होने तक, आपके जीने में समझने का पक्ष वरीय रहे - क्रिया पक्ष कम वरीय रहे।
प्रक्रिया के साथ तर्क जुड़ा है। ज्ञान के साथ तर्क नहीं है। ज्ञान के अनुरूप प्रक्रिया हुई या नहीं - उसके लिए तर्क है। ज्ञान है - सह-अस्तित्व को पहचानना, जीवन को पहचानना, मानवीयता पूर्ण आचरण को पहचानना। यह 'चेतना विकास' की मूल वस्तु है। उसकी जरूरत है या नहीं, यह पहले सोच लो। जरूरत है तो उसका अध्ययन करके देखा जाए!
प्रश्न: न्याय कैसे समझ में आता है?
उत्तर: सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान में व्यवस्था एक भाग है, व्यवहार एक भाग है। चारों अवस्थाओं का व्यवस्था में होना है - उसका सूत्र है: त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी। व्यवस्था का बोध होने पर व्यवस्था के अर्थ में संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति - यह न्याय है। सह-अस्तित्व सहज व्यवस्था का ज्ञान अध्ययन पूर्वक होता है। अनुभव के बाद बोध पूर्वक व्यवस्था के अर्थ में संबंधों को पहचानना बनता है। अनुभव के पहले व्यवस्था के अर्थ में संबंधों की पहचान नहीं होती। संबंधों का नाम भर जानते हैं। न्याय को समझ लिया, न्याय को प्रमाणित करने के लिए प्रयत्न किया, उसी विधि से न्याय का अनुभव होता है।
स्वयं में विश्वास होने पर ही संसार के साथ विश्वास करना बनता है। स्वयं में व्यतिरेक रहते हुए, संसार के साथ विश्वास होता ही नहीं है। समझने से स्वयं में विश्वास होता है। संसार पर विश्वास का स्वरूप है - संसार समझ सकता है। संसार समझ गया है तो संसार के साथ जीने का स्वरूप निकलता है। समझे हुए के साथ ही जी पाना बनता है। न समझे हुए के साथ जी पाना बनता नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)
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