यह आपको पहले सूचित हुआ है - जीवन में दस क्रियाएं हैं, जिसमें चित्त भाग में चिंतन और चित्रण नाम से दो क्रियाएं संपादित होती हैं। चिंतन क्षेत्र में साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार क्या? भाषा से जो बताया, भाषा के अर्थ में जो वस्तु कल्पना में आई उसका साक्षात्कार होता है। वह साक्षात्कार हुए बिना अनुभव होता नही है।
साक्षात्कार होने के लिए न्याय, धर्म, सत्य को जीने में प्रमाणित करने की इच्छा समाहित रहना आवश्यक है। प्रमाणित करने की इच्छा नहीं हो, तो साक्षात्कार होता नहीं है। प्रमाणित करना जीने में कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित ९ भेदों से होता है। प्रमाणित होने की इच्छा को हटा करके हम साक्षात्कार कर लें, अनुभव कर लें - यह होने वाला नहीं है। किसी को ऐसे साक्षात्कार, अनुभव नहीं होगा इस धरती पर! एक भी आदमी को नहीं होगा!!
अभी थोड़ी अधिक आयु वालों के साथ ऐसा है, वे कसौटी में लाने में निष्णात हैं। जिम्मेदारी के लिए वे निष्णात नहीं रहते हैं। "हम कसौटी में कस कर ही अपना सर इसमें डालेंगे। साक्षात्कार होता है कि नहीं - देख लेते हैं, फ़िर देखेंगे! अनुभव होता है कि नहीं - देख लेते हैं। अनुभव होता है - तो उसके बाद में सोचेंगे!" जबकि प्रमाणित करने की अपेक्षा के बिना श्रवण मात्र से यह अनुभव तक पहुँचता ही नहीं है। श्रवण से कल्पना का projection तुलन तक हो सकता है, किंतु यदि इस तुलन के साथ हम प्रमाणित होने का उद्देश्य नहीं रखेंगे तो वह साक्षात्कार में पहुंचेगा ही नहीं!
श्रवण के साथ मनन होता है - जिससे वृत्ति में तुलन होता है। क्यों तुलन करें? - इस बात का स्पष्ट उत्तर होने पर ही तुलन सफल होता है, और साक्षात्कार होता है। प्रमाणित करने के लिए तुलन करें तो साक्षात्कार होता है। अन्यथा श्रवण केवल भाषा का ही होता है, अर्थ मिलता नहीं है। ऐसे में तुलन, केवल तुलन के लिए हो जाता है। इसमें समय व्य्यतीत हो जाता है। समय को यदि save करना है तो ऊपर जो बात बतायी गयी है, उस तरीके को अपनाने की आवश्यकता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)