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Friday, December 21, 2012

भ्रम पर्यन्त जीवन की शरीर यात्राओं का स्वरूप


शरीर यात्रा में "सीमित सुख" और "सीमित दुःख" को भोगा जा सकता है।  शरीर यात्रा में जितना भोगा जा सके, उससे ज्यादा "सुख" या "दुःख" का कारण मानव तैयार किया हो सकता है।  दो शरीर यात्राओं के बीच की अवधि का उपयोग जीवन उस शेष "सुख" या "दुःख" को भोगने के लिए करता है।  अपनी "प्रवृत्ति" के अनुकूल परिस्थिति को पहचानने की बात हर जीवन में रहती है, उसके अनुसार वह अगली शरीर-यात्रा शुरू करता है।

जागृति की ओर प्रवृत्ति होने के बाद पीढी से पीढी और अच्छा होने का क्रम बन जाता है।  अंततोगत्वा चेतना-विकास के दरवाजे में आ जाते हैं।  एक बार चेतना विकास की स्वीकृति होने पर अगली शरीर-यात्रा में वह और  पुष्ट होता है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

अनुभव शिविर 2007 - भाग 3


विगत के अध्ययन से जो सार्थक मिला है, उसको परंपरा में लाया जाए।  विगत की जो निरर्थकता है, उसकी कड़ी भाषा से समीक्षा हो।  

अनुभव शिविर 2007 - भाग 1


Friday, December 14, 2012

जीवन विद्या एक परिचय (ऑडियो)



"जीवन विद्या एक परिचय" (ऑडियो) प्रस्तुत है।  1997 में की गई यह रिकॉर्डिंग एक पुस्तक के स्वरूप में भी उपलब्ध है।

English Translation of "Jeevan Vidya - Ek Parichaya" is at the following link

Wednesday, December 12, 2012

पुनः अनुसन्धान की आवश्यकता क्यों ? (Important)



श्री नागराज के साथ जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, बांदा (अक्टूबर 2010) में आये लोगों के साथ संवाद।

Wednesday, December 5, 2012

अनुभव तभी होता है, जब बोध सही हो!


श्री नागराज के साथ  संवाद (दिसम्बर 2008, अमरकंटक)

Saturday, December 1, 2012

संयम काल में अध्ययन - (very important)



- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

कारण गुण गणित


- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

Friday, November 30, 2012

अमूर्त की चाहत में मानव जीता है।



- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

अस्तित्व दर्शन - 2



अस्तित्व दर्शन - 1



अनुभव


- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

जीवन और शरीर


- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

तदाकार-तद्रूप



अर्थ को समझना प्रतिबिम्ब है।


श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

Wednesday, November 28, 2012

ज्ञान अमूर्त वस्तु है

- श्री ए नागराज के साथ प्रवीण और आतिशी के संवाद पर आधारित (जुलाई 2010, अमरकंटक)

Friday, November 23, 2012


जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन - अभ्युदय संस्थान, अछोटी (16 से 19 नवम्बर, 2012) 

Thursday, November 22, 2012

अपराध मुक्ति

समझदारी से समाधान और श्रम से समृद्धि पूर्वक यदि हर परिवार जीता है तो अपराध मुक्ति का रास्ता बनता है।  हर व्यक्ति के अपराध मुक्त होने की यही विधि है।  दूसरी किसी विधि से मानव जाति अपराध मुक्त होगा ही नहीं।  चुप हो जाने से सारे मानव अपराध मुक्त होंगे नहीं।  एक व्यक्ति यदि चुप हो भी जाए तो उससे सर्वमानव अपराध मुक्त हो जाए, ऐसा होता नहीं है।

न्याय विधि से जीने का कोई स्वरूप और योजना आपके पास न हो तो अपराध मुक्ति कैसे होगा?  न्याय विधि से जीने का स्वरूप है - "अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था" सूत्र-व्याख्या।  इसके लिए योजना है - शिक्षा-संस्कार योजना, जीवन विद्या योजना, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना।  इसके लिए हर व्यक्ति के जागृत होने की ज़रुरत है।  एक व्यक्ति के जागृत होने भर से काम नहीं चलेगा।  हर व्यक्ति समझदार होने पर ही प्रमाणित होगा।  प्रमाण ही जागृति है।

यह प्रस्ताव सबके लिए सुगम है, सबकी जरूरत है, परिस्थितियां इस प्रस्ताव की आवश्यकता निर्मित कर रही हैं।  मानव के पुण्य वश ही यह घटित हो रहा है।  इसीलिये मैं भरोसा करता हूँ - मानव इसको स्वीकारेगा, सुखी हो जाएगा।  इस तरह मुझे सर्वशुभ का रास्ता साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा।  तब मैं इसमें जूझ पड़ा।  कब तक?  जब तक सांस चलेगा, तब तक!

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

समाधान प्रमाणित हो जाना शान्ति है।

चुप हो जाना शान्ति नहीं है।  समाधान प्रमाणित हो जाना शान्ति है।  दुःख है - हल्ला-गुल्ला मचाना, गुहार करना।   अब क्या किया जाए?  समाधान के लिए पूरा का पूरा व्यवस्था दिया जाए।  वह अध्ययन विधि से ही होगा।  अध्ययन अनुभवमूलक विधि और अनुभवगामी पद्दति के संयोग से ही होगा।  अनुभवमूलक विधि न हो और अनुभवगामी पद्दति निकल जाए - यह हो नहीं सकता।  अनुभवमूलक विधि प्रमाण के साथ ही होगी।  अनुभव ही प्रमाण परम है।  प्रमाण परम विधि से यदि हम अध्ययन करायें तो वह अनुभव तक पहुँचता ही है।

साक्षात्कार पूरा होते तक अध्ययन है।  साक्षात्कार होता है तो उसके बाद बोध और अनुभव होता ही है।  क्या साक्षात्कार होना है?  सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व साक्षात्कार होना है।  जीवन जागृति रुपी महिमा सहित साक्षात्कार होना है।  ये दो बिन्दुएँ साक्षात्कार होने पर अनुभव होता है।  इन दो बिन्दुओं को साक्षात्कार करने में किसको क्या तकलीफ है?  मैंने इस सार को पाने के लिए एक परमाणु अंश से लेकर धरती जैसी रचना तक, एक प्राणकोषा से लेकर अनंत रचनाओं तक, दो अंश के परमाणु से लेकर गठनपूर्ण परमाणु तक सब कुछ साक्षात्कार किया।  इतनी चीजों का साक्षात्कार किये बिना मैं अनुभव पूर्ण हुआ, यह स्वीकार ही नहीं सकता था।  अनुभव पूर्ण होना स्वीकारने से मैं इस जगह पहुँच गया कि इसको अनुभवगामी पद्धति से लोकव्यापीकरण करना सुगम है।  तब इस कार्यक्रम को शुरू किया।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक) 

Monday, November 19, 2012

अध्ययन का एक "उपदेश"

वस्तु वास्तविकता को व्यक्त करता है।  वास्तविकता "होने" और "रहने" के रूप में है।  वस्तु "होने" और "रहने" के रूप में पहचान लेना ही साक्षात्कार है।  अस्तित्व में कोई ऐसा भाग नहीं है जो "होने-रहने" के स्वरूप में न हो।

प्रत्येक एक अपने ढंग से क्रमिक रूप से जीवन में साक्षात्कार होता है।  सत्ता में संपृक्त चारों अवस्थाएं जब पूरा साक्षात्कार हो जाता है तो अनुभव होता है।  अनुभव सहअस्तित्व में, से, के लिए है।  बोध हो गया हो पर अनुभव न हो - ऐसा हो ही नहीं सकता।  बोध अपूर्ण नहीं होता।  बोध के बाद अनुभव होता ही है, उसमे कोई समय की बात नहीं है।    अध्ययन विधि में सम्पूर्ण सहअस्तित्व साक्षात्कार पूरा होने में जो समय लगना है, वह लगता है।

अनुभवगामी विधि से बोध होने पर यह प्रतीत होता है कि "मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। अनुभव पूर्ण होने पर बुद्धि में जो अनुभव-प्रमाण बोध होता है - उसका नाम है, ऋतंभरा।  सत्य को प्रमाणित करने की शक्ति (योग्यता) है ऋतंभरा।  अनुभवमूलक विधि से ही ऋतंभरा आता है, उससे पहले आता नहीं है।  

प्रमाणित करने के लिए चित्त में चिंतन होता है।  उसके बाद चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन और चयन विधि से प्रमाणित होना बन जाता है।  चयन मानव परंपरा में ही होता है, चारों अवस्थाओं के साथ ही होता है।  सह-अस्तित्व का वैभव ऐसा बना है।  प्रमाणित होने के क्रम में संबंधों का निर्वाह है, जिसमे मूल्यों की अभिव्यक्ति है।  संबंधों का निर्वाह नहीं हो पाना ही भ्रम है, जीव-चेतना है।

प्रश्न:  अध्ययन करने में "अनुभव की रोशनी" और "अनुभव के साक्षी" से क्या आशय है?

उत्तर:  अध्ययन करने वाले वाले की आत्मा में अनुभव करने की "क्षमता" रहता ही है - उसी को "अनुभव के साक्षी" कहा है.   दूसरे, अध्ययन कराने वाला अपने "अनुभव की रोशनी" में ही अध्ययन कराता है।  इस तरह - विद्यार्थी "अनुभव के साक्षी" में अध्ययन करता है, और अध्यापक "अनुभव की रोशनी" में अध्ययन कराता हैं।  परंपरा विधि से अध्ययन है।

प्रश्न: आप का एक "उपदेश" भी है - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो".  अध्ययन के लिए क्या  हमें आपको "मानना" होगा?

उत्तर:  यही एक उपदेश (उपाय सहित आदेश) है।  अध्यापक के जाने हुए को आप मान लेते हो, फिर उस माने हुए को अध्ययन के फल में अनुभवमूलक विधि से आप जान लेते हो।  अध्ययन कराने वाले व्यक्ति को स्वीकारे बिना अध्ययन कैसे होगा?

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)

ज्ञान और व्यापक वस्तु

ज्ञान और व्यापक वस्तु एक ही है।  जीवन संपृक्त रहने के आधार पर व्यापक वस्तु "ज्ञान" कहलाया।  जड़ प्रकृति को व्यापक वस्तु ऊर्जा के रूप में प्राप्त है।  ज्ञान जीवन में ही ज्ञात होता है।  जीवन ही "ज्ञाता", "दृष्टा" और "कर्ता" स्वरूप में है।  मानव, जो जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है, "भोक्ता" है।  भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की प्रतिक्रिया शरीर के साथ है।  ज्ञान संपन्न होने पर ही मानव वांछित फल-परिणाम को प्राप्त कर सकता है।  भ्रमित रहते तक मानव वांछित फल-परिणाम को प्राप्त नहीं कर सकता।  जैसे - मानव सुख चाहता है, पर भ्रमित रहते तक सुखी रहता नहीं है।

पदार्थ-अवस्था में परिणाम विधि से परंपरा है।  प्राण-अवस्था में बीज विधि से परंपरा है।  जीव-अवस्था में वंश विधि से परंपरा है।  परंपरा किसी अवस्था की आवर्तनशीलता विधि है।  यह ज्ञान मानव को होता है।  साथ ही मानव को यह भी ज्ञान होता है कि इन अवस्थाओं का क्रियाकलाप ऊर्जा-सम्पन्नता वश है।  ज्ञान-अवस्था में संस्कार विधि से परंपरा है।  मानव में न्याय, धर्म,  सत्य की आवर्तनशीलता है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2007, अमरकंटक)

एक आधारभूत बदलाव


मध्यस्थ दर्शन के सह-अस्तित्ववादी प्रस्ताव से हमारे बुजुर्गों ने “ज्ञान” के लिए जो अपेक्षा व्यक्त किया है – वह भी पूरा होता है.  दूसरे, विज्ञानियों ने “जीने की विधि” के लिए जो अपेक्षा व्यक्त किया है – वह भी पूरा होता है.  विज्ञानियों को परमाणु में पांच कोशों (अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, आनंदमय कोष, विज्ञानमय कोष) की इस प्रकार से पहचान करा दें, परमाणु में स्थिरता और निश्चयता के स्वरूप को समझा दें - तो वे कैसे इसे नकारेंगे?  आज की तारीख में हम नहीं कह सकते हैं, कि यह संयोग हो पायेगा या नहीं...  लेकिन इतना तो निश्चित है, यदि किसी विज्ञानी ने इस बात को सूंघ लिया तो वह इसको छोडेगा नहीं!  विज्ञान में “अस्थिरता-अनिश्चयता” के स्थान पर “स्थिरता-निश्चयता” का आना एक आधारभूत बदलाव होगा.

श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Saturday, November 17, 2012

बुद्धि

वस्तु है, तभी उसकी सूचना है।  सूचना चाहे गलत हो या सही - वस्तु है, तभी सूचना है।  देखने में वस्तु की आकृति गृहण का कार्य बुद्धि ही करता है, जो चित्त (चित्रण) में संग्रहित होता है।  बुद्धि यदि शामिल न हो तो कुछ दिखाई न दे!  बुद्धि देखने के क्रियाकलाप में शामिल तो रहता है, पर भ्रमित क्रियाकलापों को स्वीकारता नहीं है।  बुद्धि शाश्वत वस्तु को ही स्वीकारता है।  बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, इसीलिये उसको "अहंकार" भी कहा है।

बुद्धि अर्थ को ही ग्रहण करता है, शब्द को ग्रहण नहीं करता।  मानव द्वारा अपनी कल्पना से अर्थ निकाले अर्थ का जब प्रमाण होता नहीं है, तो वह बुद्धि को स्वीकार नहीं होता।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर 2010, अमरकंटक)

Wednesday, November 14, 2012

आचरण और व्यक्तित्व

आचरण ध्रुवीकृत होने से व्यक्तित्व स्थिर होता है।

आचरण ध्रुवीकृत होने का मतलब है - मूल्य, चरित्र, नैतिकता की प्रमाण परंपरा।

व्यक्तित्व है - आहार, विहार, व्यवहार।

आचरण व्यवस्था को छूता है।  व्यवस्था में जीने का स्वरूप व्यक्तित्व है।  निश्चित आचरण की प्रमाण परंपरा ही व्यक्तित्व में स्थिरता लाता है।  प्रमाण परंपरा में मानव का "आहार" निश्चित होता है।  "व्यवहार" निश्चित होता है।  और इसके पक्ष में "विहार" भी निश्चित होता है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

"सही" और "गलत"

मानव परंपरा में ही "सही" और "गलत" की बात है।  मनुष्येत्तर संसार में कोई अपराध होता ही नहीं है , वे कोई "गलती" करते नहीं हैं।   मनुष्येत्तर संसार का सारा क्रियाकलाप "संतुलन" और "प्रगटन" के अर्थ में है।  मानव ने जीवों के सदृश मार-काट करके संतुलित होने का प्रयत्न किया, वह "गलत" हो गया।  

मानव-चेतना "सही" है।  जीव-चेतना "गलत" है।   जीव-चेतना में कोई सुधार नहीं करना है।  जीव-चेतना के स्थान पर मानव-चेतना को आना है।  श्रेष्ठता की शुरुआत मानव-चेतना से है।  मानव चेतना आने के बाद उससे अधिक श्रेष्ठ देव-चेतना और दिव्य-चेतना के लिए प्रयास है।  

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

Friday, November 9, 2012

मानव का जीना

अभी तक मानव ने क्रमशः रूप, बल, धन और पद के अनुसार पहचान किया है.  इस तरह मानव का जीना “भद्दे” से “और भद्दा” होता गया है.  मानव में जानने-मानने के आधार पर पहचानने-निर्वाह करने की बात है.  इन चारों में से कुछ भी छोड़ कर, आधा काट कर, केवल एक बात को लेकर, क्या हम कुछ भी नेक कर पायेंगे?  अभी तक मानव जाति “मानने” के आधार पर चल रहा है.  यह उसमे नियति-प्रदत्त कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता पूर्वक हुआ.  मानव अभी “जानता” कुछ भी नहीं है – चाहे धर्म-गद्दी में बैठा हो या राज-गद्दी में बैठा हो. जानना-मानना प्राथमिक है.  यदि जानना-मानना प्राथमिक हो पाता है, तो उसके लिए क्या करना है – वह बात आती है.  जानने-मानने के लिए यह छोटा सा प्रस्ताव है.  यदि इससे कोई ठौर मिलता है तो बहुत अच्छा, नहीं तो अनुसंधान कर लेना!  मैंने जितना काम किया उसको प्रस्तुत कर दिया.  मैं क्यों ऐसा व्यर्थ में दावा करूँ कि इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता!  यदि इससे पूरा पड़ता है तो बहुत अच्छा, नहीं तो और शोध कर लेना.  इस प्रस्ताव से मानव-चेतना, देव-चेतना और दिव्य-चेतना पूर्वक जीने की संभावना तो स्पष्ट हो गया है.  इतना तो मैंने देख लिया है, उसको जी भी लिया है.  इससे ज्यादा क्या जीना होता है – वह आप आगे अनुसंधान कर लेना!  मेरे ऐसा देख लेने और जी लेने से संसार प्रमाणित हो गया, ऐसा कुछ नहीं है.  संसार का प्रमाणित होना अभी दूर ही है.  संसार अपने रंग में डूबा ही है!

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)

Monday, November 5, 2012

स्थिरता - निश्चयता

सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व स्थिर है.  अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है – इसलिए स्थिर है.  विकास और जागृति होना निश्चित है.  अस्तित्व में विकास रहता ही है, जागृति रहता ही है.  इस धरती पर भले ही मानव अजागृत हों, अस्तित्व में कहीं न कहीं जागृति प्रमाणित है ही.  जो है, वही होता है. जो था नहीं वह होता नहीं.  आबादी के आधार पर बर्बादी का गणना है.  भाव के आधार पर अभाव का गणना है.  न्याय के आधार पर अन्याय का गणना है.  पूर्णता के आधार पर ही अपूर्णता की समीक्षा है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)

प्रकाशमानता - प्रतिबिम्बन - पहचान


हर इकाई प्रकाशमान है.  प्रकाशमानता का स्वरूप है – रूप, गुण, स्वभाव, धर्म.  सभी इकाइयों का प्रतिबिम्बन सभी ओर रहता है.  इस सिद्धांत को हृदयंगम करने की आवश्यकता है.  प्रतिबिम्बन सभी ओर रहता है तभी इकाई सभी ओर से दिखाई पड़ता है.  प्रतिबिम्बन इकाइयों में परस्पर पहचान का आधार है.  परस्पर पहचान ही परस्परता में निर्वाह का आधार है.  मानव में जानना-मानना के आधार पर पहचानना-निर्वाह करना होता है.

लक्ष्य के लिए प्रकृति की इकाइयों में सारी पहचान है.  लक्ष्य-विहीन कोई पहचान नहीं है.  साम्य सत्ता में संपृक्त रहने से हर इकाई में “लक्ष्य सम्मत पहचान की अर्हता” है.  विकासक्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति – सह-अस्तित्व में “लक्ष्य” इतना ही है.  साम्य सत्ता अपने में यथावत रहते हुए, सभी उसमें भीगे रहने से यह वैभव हो गया.  “लक्ष्य सम्मत पहचान” की शुरुआत परमाणु-अंशों से है.  सभी परमाणु अंश एक सा होते हुए, परमाणु के गठन में उनकी मात्रा (संख्या) के आधार पर उनकी कार्य-शैली बदलता गया.
लक्ष्य सम्मत पहचान के साथ “प्रक्रिया” आ गयी.  सभी परमाणु-अंश एक सा होते हुए, परमाणु में उनकी मात्रा के आधार पर उनकी कार्य-शैली बदलता गया.  परमाणुओं की प्रजातियां उनमे समाहित अंशों की संख्या भेद से है.  ये परमानुएं प्रयोजनों के आधार पर एक दूसरे की पहचान करते हैं.  ये परमानुएं निश्चित अनुपात (मात्रा) में और बाकी सभी संयोगों के साथ मिलते हैं – तभी अग्रिम रचना और यौगिक संसार का प्रगटन होता है.  यह भी एक बात ध्यान देने की है.

जड़ संसार अपनी यथा-स्थिति में “सम्पूर्णता” के साथ काम करता है.  सम्पूर्णता का मतलब है – त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी.  जड़ प्रकृति में पहचानना और निर्वाह करना होता है.  परमानुएं सहवास विधि और यौगिक विधि से एक दूसरे के साथ पहचान-निर्वाह करते हैं.

पेड़-पौधे, वनस्पतियों के बीजों में उनकी रचना का सूत्र बना रहता है.  उसी के आधार पर धरती, हवा, पानी आदि को पहचान-निर्वाह करते हुए वृक्ष-रचना बनता है.  प्राण-अवस्था में पहचान और निर्वाह का आधार “बीज” है.  बीज में प्राण-कोशाएँ सूखे हुए रहते हैं, जो अनुकूल संयोग पाने पर स्पंदन क्रिया को व्यक्त करने लगते हैं, रचना क्रिया को करने लगते हैं.

गाय गाय को पहचानती है, उसके साथ जीती है.  गाय बाघ को पहचानती है, उसके साथ जीती नहीं है.  इससे निकलता है – जीवों में पहचान और निर्वाह का आधार “वंश” है.

मानव में जानने मानने के आधार पर पहचानना और निर्वाह करना होता है.  मानव-चेतना विधि से ही मानव में यह संभव है.  जीव-चेतना विधि से ऐसा न हुआ, न हो सकता है.

अस्तित्व “होने” के रूप में है.  आचरण “रहने” के रूप में है.  “होना” और “रहना” अविभाज्य है.  मानव का “होना” प्राकृतिक है.  मानव ने अपने “रहने” की विधि को अपनाया नहीं है.  आचरण में, शिक्षा में, संविधान में, व्यवस्था में यह आया नहीं है.

सह-अस्तित्व ही नियति है.  सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व नित्य वर्तमान है.  सह-अस्तित्व में प्रत्येक वस्तु ऊर्जा-संपन्न है और क्रियाशील है.  क्रियाशीलता के फलस्वरूप प्रत्येक वस्तु सभी ओर अपनी यथास्थिति (रूप, गुण, स्वभाव, धर्म) के साथ प्रतिबिंबित रहता है.   प्रतिबिम्बन के फलस्वरूप हर परस्परता में “लक्ष्य” के आधार पर पहचानने का गुण है.  विकासक्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति लक्ष्य है.  जो वस्तु लक्ष्य के अर्थ में अनुकूल होता है, उसके साथ वह अपने रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के अनुसार “रहता” है.  जो वस्तु लक्ष्य के अर्थ में अनुकूल नहीं होता है, उसके साथ वह नहीं रहता है.  “रहने” की दो विधियाँ हैं – यौगिक विधि और सहवास विधि.


शब्द का अर्थ प्रतिबिम्बन है.  उस प्रतिबिम्ब के साथ तदाकार होना ही निष्ठा है.  तदाकार होने का औजार हमारे पास है, जो है – कल्पनाशीलता.  हमारी चाहत के अनुसार हमारी कल्पनाशीलता काम करती है.  हम तदाकार होना नहीं चाहें तो तदाकार नहीं होंगे.  हम तदाकार होना चाहेंगे तो तदाकार हो जायेंगे.  यही अड़चन भी है, यही सुगमता भी है, अधिकार भी यही है.  तदाकार हो जाते हैं तो हम वस्तु को समझने लग जाते हैं.  तदाकार हुए बिना सच्चाई को पाया नहीं जा सकता या सच्चाई को समझा ही नहीं जा सकता.  तदाकार नहीं हो पाते हैं तो आँखों की सीमा तक रह जाते हैं.  आँख कोई समझने वाली वस्तु नहीं है.  आँख से जो अधूरा दिखता है, उसको “समझ” मान करके ही आदमी भ्रमित है.  आँखों की सीमा से जो समझ में आता है, उसमे सिवाय धोखे के और कुछ भी नहीं है.  संवेदनाओं के आधार पर कुछ भी करें – धोखा ही होगा, कुंठा ही होगा, निराशा ही होगा, असफलता ही होगा.  अस्तित्व के प्रतिबिम्बन के साथ तदाकार होने पर हम प्रमाणित होते हैं.  प्रमाणित होने का मतलब है – संवेदनाएं नियंत्रित रहना, न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जीना, समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व पूर्वक जीना, सुख-शान्ति-संतोष-आनंद पूर्वक जीना.  मानव का लक्ष्य यही है.  मानव के लक्ष्य को जांचने की विधि भी यही है.  दूसरी कोई विधि भी नहीं है.


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)

Thursday, November 1, 2012

भ्रम की पीड़ा

प्रकृति ही जड़-चैतन्य स्वरूप में है तथा जड़-प्रकृति ही चैतन्य प्रकृति में संक्रमित होता है।  चैतन्य प्रकृति जब   तक जीने की आशा से सीमित रहती है, तब तक जीवनी क्रम के रूप में ही प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों का आंशिक प्रयोग करते हुए जीवनी क्रम की परम्पराओं को बनाये रखने के रूप में साक्षित है।  यही भ्रम का पहला चरण है।  इस चरण में भ्रम की पीड़ा या बंधन की पीड़ा प्रमाणित नहीं होती।

मानव शरीर रचना अन्य जीव परंपरा में से निष्पन्न होने के पश्चात मानव-परंपरा सहज शरीर रचनाएँ वंशानुक्रम विधि से स्थापित हुई।  मानव परंपरा में भ्रम की पीड़ा प्रमाणित हुई।  भ्रमात्मक क्रियाकलाप जीवन से ही निष्पन्न होता है।  मानव के भ्रमात्मक क्रियाकलाप से अव्यवस्था हुई और अव्यवस्था से पीड़ा हुई।  इस पीड़ा को जीवन ही स्वीकारता है।

जीवन जागृति-क्रम में भ्रम-बंधन को व्यक्त करता है, पीड़ित होता है - फलस्वरूप जागृत होने की आवश्यकता बनती है।  भ्रम-बंधन की पराकाष्ठा में कितनी पीड़ा हो सकती है - ऐसी सभी विधाओं से पीड़ित व्यक्ति को यह देखने को मिलता है - इस पीड़ा से मुक्ति का उपाय अतिआवश्यक है।   इसके लिए यत्न, प्रयत्न, अनुसंधान करने का फल ही है - जागृति का मार्ग प्रशस्त होना।

आशा, विचार, इच्छा बंधन को जागृति-क्रम में व्यक्त होना अति-आवश्यक रहा है, क्योंकि इनके परिणाम में पीड़ाओं का आंकलन होना आवश्यक रहा है।  अस्तित्व और नियति के अनुसार इतनी लम्बी मानव परंपरा को दिशा देने के लिए अथवा दिशा प्रेरित करने के लिए धरती का असंतुलन अवश्यम्भावी था, प्रदूषण की पीड़ा अवश्यम्भावी थी।  जनसंख्या की अधिकता का दबाव और पीड़ा बढ़ना ही था।  मानव में प्रलोभन की पराकाष्ठा का होना आवश्यक था।  भ्रम और बंधन की पीड़ा की पराकाष्ठा किसी न किसी व्यक्ति को होना आवश्यक था।  यह नियतिक्रम में विधिवत घटित हो ही जाता है - क्योंकि अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में परम लक्ष्य और स्थिति निश्चित और स्थिर है।  क्योंकि अस्तित्व स्थिर है और जागृति निश्चित है।

- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से।


Wednesday, October 31, 2012

उपयोगिता

उपयोगिता आचरण के रूप में पहचान में आती है।  हर इकाई अपनी उपयोगिता  को अपने आचरण द्वारा प्रकट करती है।  पानी अपनी प्यास बुझाने की उपयोगिता को अपने आचरण द्वारा प्रकट करता है।  जीव-जानवर अपनी उपयोगिता को अपने वंश के अनुरूप आचरण करके प्रकट करते हैं।  उसी प्रकार मानव अपनी उपयोगिता को ज्ञान के अनुरूप आचरण द्वारा प्रकट कर सकता है।  जैसे - मैं मानव-चेतना के ज्ञान के अनुरूप आचरण कर रहा हूँ और आप उसे अपनाने का प्रयास कर रहे हैं।  इससे मेरी उपयोगिता सिद्ध हुई या नहीं?

जागृति पूर्वक मानव मानव के लिए उपकार विधि से उपयोगी है और मनुष्येत्तर प्रकृति के लिए संरक्षण और नियंत्रण विधि से पूरक है।


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

प्रमाण का आवंटन

कल्पनाशीलता द्वारा वस्तु की पहचान होने पर शब्द और कल्पना दोनों पीछे छूट जाते हैं, वस्तु रह जाती है।  वस्तु का अनुभव होना स्वाभाविक हो जाता है।  वस्तु का अनुभव होने पर हम प्रमाणित हो जाते हैं।  प्रमाण संपन्न होने पर मानव प्रमाण का ही आवंटन करता है।  जिसके पास जो होता है, उसी को वह आवंटित करता है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर का संयुक्त स्वरूप

मानव इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर का संयुक्त स्वरूप है।  ज्ञान स्थिति में रहता है, इन्द्रियगोचर विधि से प्रमाण होता है।  ज्ञान मानव परंपरा में इन्द्रियगोचर विधि से ही प्रमाणित होता है।  इन्द्रियां न हो और ज्ञान एक से दूसरे व्यक्ति को संप्रेषित हो जाए, अभिव्यक्त हो जाए, प्रकाशित हो जाए - ऐसा होता नहीं है।   इन्द्रियों के माध्यम से ही ज्ञान प्रकाशित होता है।  हर मानव में जीवन क्रियाशील रहता है।  इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान जो झलकता है, उसके मूल में जाने की व्यवस्था जीवन में बनी हुई है - कल्पनाशीलता के रूप में।  ज्ञान वस्तु के रूप में साक्षात्कार होता है, फलतः बोध और अनुभव होता है और प्रमाणित होने की योग्यता आती है।

चैतन्य इकाई (जीवन) की महिमा इसमें मूल मुद्दा है।  इसी के आधार पर जीवन को पहचानने की कोशिश है, सह-अस्तित्व को पहचानने की कोशिश है, मानव को  पहचानने की कोशिश है, चारों अवस्थाओं को पहचानने की कोशिश है और इन सबके साथ जीने की कोशिश है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

Friday, October 12, 2012

एक संवाद



मानव कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता के चलते सच्चाई को तो चाहता ही है.  “सच्चाई” नाम तो पता है, साथ ही कहीं न कहीं सच्चाई का भास-आभास होना भी मानव के लिए सहज है.  इस आधार पर अध्ययन करने की प्रवृत्ति बनती है.

अध्ययन के लिए सूचना है – “सत्य है.  समाधान है.  न्याय है.”  यही तीन मुद्दे हैं अस्तित्व में.  इन प्रधान मुद्दों के आधार पर सारी सूचनाएं हैं. इन सूचनाओं से सत्य, समाधान और न्याय को लेकर भास-आभास होकर अनुमान बनता है. यहाँ प्रतिपादित कर रहे हैं – “सह-अस्तित्व ही परम सत्य है.”  सह-अस्तित्व होने के आधार पर मानव द्वारा उसके अध्ययन करने की संभावना बन गयी.

सह-अस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में है.  सत्ता स्थितिपूर्ण है. स्थितिपूर्ण सत्ता में स्थितिशील प्रकृति संपृक्त है.  पूर्णता के अर्थ में संपृक्त है.  भौतिक-रासायनिक वस्तुएं अपनी स्थिति में “एक” होती हैं.  चाहे परमाणु अंश हो, परमाणु हो, अणु हो, अणु रचित रचना हो, प्राणकोषा हो, प्राण सूत्र हो – ये सभी “एक” की संज्ञा में आते हैं.  प्रत्येक “एक” अपने वातावरण सहित “सम्पूर्ण” है. इसका प्रमाण है – त्व सहित व्यवस्था होना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना.  प्रत्येक एक अपनी स्थिति में सम्पूर्णता सहित ही होता है.  कार्य और कारण अविभाज्य है, और फल-परिणाम निश्चित है. 

पदार्थावस्था से ही प्राणावस्था प्रकट होता है, प्राणावस्था से ही जीवावस्था प्रकट होता है, जीवावस्था से ही ज्ञानावस्था प्रकट होता है. पदार्थावस्था में ही प्राणावस्था का भ्रूण तैयार हुआ.  प्राणावस्था में जीवावस्था का भ्रूण तैयार हुआ.  जीवावस्था में ज्ञानावस्था का भ्रूण तैयार हुआ.  पिछली स्थिति में अगली स्थिति के लिए जो तैयारी होती है, उसको हम “भ्रूण” कह रहे हैं.  मानव प्रकट होने के बाद उसने चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित स्वरूप में जीने के लिए प्रयास नहीं किया, उसके विपरीत चारों अवस्थाओं को अपने भोग की वस्तु मान लिया.  भोगने के लिए संघर्ष भावी हो गया.  इस तरह संघर्ष के चलते हम सत्य को समझने में असमर्थ रहे. 

इस प्रस्ताव के आधार पर पता चला, मानव के इस प्रकार संघर्ष करने का मूल कारण उसका जीव-चेतना में जीना रहा.  साथ ही यह पता चला – मानव चेतना में मानव भ्रम मुक्त हो सकता है, अपराध मुक्त हो सकता है, अपना-पराये की दीवारों से मुक्त हो सकता है.  इस तरह मानव जाति अच्छी तरह सब बातों को समझने की जगह में आ गए, जो एक सौभाग्य है. 

यह जो हम समझते जा रहे हैं, उसे न भौतिकवादी विधि से समझा जा सकता था, न ईश्वरवादी विधि से समझा जा सकता था.  व्यापक सत्ता में संपृक्त प्रकृति बताने से न भौतिक तत्व की अवहेलना हुई, न ईश्वरीय तत्व की अवहेलना हुई.  इस तरह इस प्रस्ताव के आधार पर भौतिकवादी जो भूल किये, उसका सुधार हो सकता है.  ईश्वरवादी जिस बात को भुलावा दे कर चले, उससे होने वाला अनर्थ भी सुधर सकता है.  ईश्वरवाद एकांत या भक्ति-विरक्ति के लिए उपदेश दिया.  अध्ययन नहीं करा पाए.  उपदेश का मतलब है – “हम जो कहते हैं, उसको सुनो और करो!”  दूसरे शब्दों में – “करके समझो!”  भौतिकवादी भी “करके समझो” वाली जगह में ही हैं.  सह-अस्तित्ववादी विधि से हम “समझ के करने” वाली जगह में आ सकते हैं. 

ईश्वरवादी विधि में “जीवन मुक्ति” को लेकर जो लिखा है, वह गलत सिद्ध हो गया है.  जीवन का समाप्ति होता नहीं है.  आत्मा के रूप में ईश्वर जीवन में बंधक नहीं है.  ईश्वर (व्यापक वस्तु) में संपृक्त होने के आधार पर ऊर्जा-सम्पन्नता है और ज्ञान-सम्पन्नता है.  इस समझ के आधार पर “भ्रम मुक्त” होने की बात है.  भ्रम मुक्त होने की पहचान है – अपराध मुक्ति और अपने-पराये से मुक्ति.  भ्रम मुक्ति ही “मोक्ष” है.  इस समझ के साथ हम न्याय पूर्वक जीने में संलग्न हो सकते हैं.  स्वयं स्फूर्त विधि से!  जब पदार्थावस्था स्वयं-स्फूर्त विधि से काम कर सकता है, तो मानव को स्वयं-स्फूर्त विधि से काम करने में क्या तकलीफ है?  तकलीफ का कारण खोजने जाते हैं तो पता चलता है – मानव अपराध में फंस गया है.  अपराध में फंसाया है – भौतिकवाद और आदर्शवाद ने. 

प्रश्न: “स्वयं-स्फूर्तता” को कैसे समझें?

उत्तर:  जैसे आपने मोबाइल का एक डिजाईन बनाया.  उसके बाद मोबाइल बनाने का दूसरा डिजाईन आप में से अपने-आप उभर आता है.  मनाकार को साकार करने के पक्ष में मानव ने स्वयं-स्फूर्तता को प्रमाणित किया है.  मनःस्वस्थता के पक्ष में स्वयं-स्फूर्तता को प्रमाणित नहीं कर पाया है, जिससे अपराध में फंस गया है.

प्रश्न: मनाकार को साकार करना क्या “अपराध” है?

उत्तर: नहीं!  मनाकार को साकार करना कोई अपराध नहीं है.  मनाकार को साकार करना मानव का स्वयंस्फूर्त वैभव है.  मनाकार को साकार करने पर प्राप्त वस्तुओं के साथ व्यापार करने में अपराध है.  दूसरे, मनाकार को साकार करने के लिए जो कच्चामाल प्राप्त करते हैं, उसको प्राप्त करने में अपराध प्रवृत्ति है. 

प्रश्न: मनः स्वस्थता क्या है?

उत्तर: समझदारी से समाधान होता है.  सर्वतोमुखी समाधान (अभ्युदय) ही मनः स्वस्थता का प्रमाण है.
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-  श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Thursday, October 11, 2012

सच्चाई का शोध करने का स्त्रोत

भ्रमित जीवन में अन्तर्निहित अतृप्ति है।  इस कारण से किसी भी आवेश को भ्रमित मानव सतही मानसिकता में स्वीकार नहीं कर पाता है।  जैसे - लाभोंमादी आवेश, किसी जगह में इस आवेश के साथ चलते हुए, यह "सही" है - हम मान नहीं सकते।  कामोंमादी और भोगोंमादी आवेशों के साथ भी ऐसा ही है।  यह हमारे जीवन में छिपा हुआ सच्चाई का शोध करने का स्त्रोत बना हुआ है।  इस स्त्रोत के आधार पर अध्ययन पूर्वक हम इन प्रचलित उन्मादों से बच कर निकल सकते  हैं।

बुद्धि जीव चेतना के चित्रणों का दृष्टा बना रहता है, किन्तु उसको स्वीकारता नहीं है।  बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, वही पीड़ा है।  सर्व-मानव में पीड़ा वही है।

आदमी अपने में जो करता है, उसे कहीं न कहीं देखता ही रहता है।  क्या देखता है, क्या नहीं देखता है - उसे पता नहीं रहता किन्तु उसमे "उचित"/"अनुचित" को कहीं न कहीं ठहराता ही रहता है।  उसी में भ्रमवश हठ-धर्मियता शुरू होती है।  उसमे मानव फंस जाता है।

बुद्धि भ्रमित नहीं होती।  बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है।  बुद्धि की दृष्टि चित्रण की ओर रहता है और आत्मा से प्रामाणिकता की अपेक्षा में रहता है।  प्रामाणिकता न होने से स्वयं में रिक्तता या अतृप्ति बना ही रहता है।  जीव-चेतना की सीमा में कल्पनाशीलता में जो प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से जीना होता है, उससे बुद्धि में बोध की वस्तु कुछ जाता ही नहीं है।  शरीर संवेदना से सम्बंधित बातें बोध की वस्तु नहीं है, इसलिए वह चित्रण से ऊपर जाता नहीं है।  उसमे चिंतन की कोई वस्तु नहीं है।  उसमे संवेदना है और  संवेदनाओं को राजी रखने की प्रवृत्ति है।


- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

गठन-पूर्णता

परमाणु विकसित होकर अविकसित परमाणुओं को पहचानने की योग्यता से संपन्न होता है।  ऐसे परमाणु चैतन्य पद में होते हैं।  यही विकास की महिमा है। इसी क्रम में चैतन्य प्रकृति अर्थात गठनपूर्णता प्राप्त परमाणु में पाँचों बल अक्षय रूप में समाहित रहते हैं।  उसकी जागृति पूर्ण अभिव्यक्ति पर्यंत गुणात्मक विकास के लिए चैतन्य इकाई प्रवृत्त है।

नियंत्रण जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति के लिए समान रूप में वर्तमान है।  वर्तमान का तात्पर्य अस्तित्व सहित स्थिति और प्रभाव से है।

गठनपूर्णता प्राप्त परमाणु में ये विशेषताएं हैं कि वह अक्षय बल और अक्षय शक्ति संपन्न होता है।  अक्षय बल और शक्ति सम्पन्नता का तात्पर्य यह है कि गठनपूर्णता के अनंतर परमाणु में अमरत्व सिद्ध होने के फलस्वरूप उसमे श्रम और गति दोनों अक्षय हो जाते हैं।  यही स्वाभाविक स्थिति है।  इसी सत्यता वश गठनपूर्ण परमाणु में अभिव्यक्त होने वाले पाँचों बल, पाँचों शक्तियां अक्षय होती हैं।  अक्षयता का मतलब है - क्षय न होना, अर्थात अक्षुण्ण होना।  

Wednesday, October 10, 2012

आवर्तनशीलता: अनिवार्यता और उसका स्वरूप


  • संग्रह का तृप्ति बिंदु किसी भी देश काल में किसी एक व्यक्ति को भी नहीं मिल पाया।
  • समृद्धि सामान्य आकांक्षा और महत्त्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं  के आधार पर ही हो पाता है, न कि प्रतीक मुद्रा के आधार पर।
  • आवर्तनशील व्यवस्था में मानव सहज अपेक्षा रूपी समृद्धि सभी परिवारों के लिए सुलभ हो जाता है।
  • अर्थशास्त्र विधा में आवर्तनशीलता स्वयं में श्रम नियोजन और श्रम विनिमय प्रणाली, पद्दति, नीति है। 
  • समृद्धि का भाव परिवार में ही होता है।  एक परिवार समृद्ध होने के लिए एक से अधिक परिवार समृद्ध रहना अनिवार्य है।  इस क्रम में अकेले में समृद्ध होने की कल्पना और संग्रह विधि से समृद्धि की कल्पना  दोनों भ्रम सिद्ध हुआ।
  • अभाव का अभाव ही समृद्धि है।
- आवर्तनशील अर्थशास्त्र (अध्याय 4) 

Monday, October 8, 2012

आवर्तनशील अर्थशास्त्र : दार्शनिक आधार

मनुष्य ही सर्वशुभ की अपेक्षा करता है। अर्थशास्त्र का अध्ययन समाधान, समृद्धि, अभय और सह-अस्तित्व क्रम में है। समृद्धि का धारक-वाहक एक परिवार होता है। परंपरा में लाभ के बाद लाभ और भोग के बाद भोग का सम्मोहन बढ़ता आया है। इस सम्मोहन को समीक्षित करने योग्य जागृति को सुलभ करना ही इस आवर्तनशील अर्थचिंतन विचार और शास्त्र की महिमा है। आवर्तनशील अर्थव्यवस्था की क्रियाप्रणाली मनुष्य संबंधों में संतुलन के उपरान्त ही सार्थक हो पाता है। जहां-जहां तक सम्बन्ध में संतुलन नहीं है, वहां-वहां तक भ्रमवश लाभोन्माद छाया ही रहता है।

- आवर्तनशील अर्थशास्त्र 

Thursday, September 27, 2012

अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था




"मैं इस बात का सत्यापन करता हूँ कि संवेदनाओं के संयमित होने से पहले धरती पर एक भी व्यक्ति "अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था" को सोच नहीं पायेगा।  यदि यह बात गले से उतरता है तो संज्ञानीयता में पारंगत होने की इच्छा स्वयं में बनता है।"

- श्री  नागराज का उद्बोधन  (अक्टूबर 2006, कानपूर)

Saturday, September 22, 2012

अध्ययन ही एक मात्र रास्ता

ज्ञान का धारक-वाहक जीवन है, जो मानव परंपरा में प्रमाणित होता है।  भ्रमित रहते तक जीवन, शरीर को जीवन मानते हुए, आशा, विचार और इच्छा को प्रमाणित करता है।  जागृत होने पर अनुभव मूलक विधि से दसों क्रियाओं को प्रमाणित करता है।

जीवन व्यापक में संपृक्त होने से ज्ञान-संपन्न है।  ज्ञान-सम्पन्नता के कारण ही जीवन मानव परंपरा में अभी तक आशा, विचार और इच्छा (साढ़े चार क्रिया) को प्रमाणित कर दिया।  इस तरह "जीने की आशा" के अर्थ में ही आशा, विचार, इच्छा प्रोत्साहित रहे।  साढ़े पांच क्रियाएं प्रमाणित होना अभी शेष है।  जिसके लिए अनुभव होना आवश्यक है।  अनुभव के लिए अध्ययन ही एक मात्र रास्ता है।  अनुभव के लिए अध्ययन विधि से साक्षात्कार होना और अवधारणा बोध होना आवश्यक है।  जिसका मतलब है - सह-अस्तित्व को समझना और प्रमाणित करना, जीवन को समझना और प्रमाणित करना, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना और प्रमाणित करना।  समझना जीवन में होता है।  प्रमाणित करना मानव परंपरा में होता है।

अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु के माध्यम से प्रकट होता है।  यह एक सिद्धांत है।  जीवन अधिक बल और शक्ति संपन्न वस्तु है।  शरीर (भौतिक रासायनिक रचना) कम बल और शक्ति संपन्न वस्तु है।

जीवन अक्षय बल और शक्ति संपन्न है।  जीवन गठन पूर्ण परमाणु है। इसमें कम या ज्यादा हो जाने की कोई बात ही नहीं है।  केवल सटीक होने की बात है।  जिसको गुणात्मक विकास होना कहा।  गुणात्मक विकास का मतलब है - जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन, मानव चेतना से देव चेतना में परिवर्तन, देव चेतना से दिव्य चेतना में परिवर्तन।  गुणात्मक विकास का यह क्रम है।

प्रश्न: जीवन अपने आप को कैसे पहचानता है?  

उत्तर: जीवन का अपने आप को पहचानने का मतलब है - जीवन में होने वाली क्रियाओं की पहचान होना।  उसके लिए जीवन में "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" है।  मन का मूल्यांकन वृत्ति करता है, वृत्ति का मूल्यांकन चित्त करता है, चित्त का मूल्यांकन बुद्धि करता है, बुद्धि का मूल्यांकन आत्मा करता है।  मूल्यांकन   का मतलब है - सम्पूर्णतया पहचान लेना।  जैसे - मन शरीर का मूल्यांकन  करता है।  शरीर की पूरी हैसियत को पहचानता है मन!  ऐसे मन को पहचान कर स्वीकार लेता है - वृत्ति।  ऐसी वृत्ति को चित्त पहचान कर, चित्रण क्रिया उससे सहमत हो जाता है।  यहीं तक रुका है अभी तक।

प्रश्न: ऐसे में मन शरीर का क्या मूल्यांकन करता है और जीवन कैसे भ्रमित हो जाता है?

उत्तर: जीवंत शरीर में संवेदनाएं होती हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध।  मन में वह बल है जिससे वह शरीर संवेदनाओं को पहचानता है।  इसको वह ऐसा मूल्यांकन कर लेता है कि "मैं शरीर हूँ", बजाय के यह मूल्यांकन करने के कि "शरीर में संवेदनाएं हैं, मैं (जीवन) उनका दृष्टा हूँ".  मन की इस मान्यता के अनुमोदन में ही वृत्ति में विश्लेषण और चित्त में इसी मान्यता के अनुमोदन में चित्रण हो जाता है।  इस तरह वृत्ति में प्रिय-हित-लाभात्मक विचार और चित्त में प्रिय-हित-लाभात्मक चित्रण बन जाते हैं।  यह भ्रम का आधार बन जाता है।

इस तरह भ्रमित स्थिति में मन शरीर का अधिमूल्यन किया रहता है।  वृत्ति ऐसे मन का शरीर मूलक  (प्रिय-हित-लाभ) दृष्टियों से ही मूल्यांकन करती है।  चित्त ऐसी वृत्ति का शरीर मूलक चित्रणों के आधार पर ही मूल्यांकन करता है।  शरीर मूलक विधि या शरीर का प्रभाव आत्मा तक पहुँचता ही नहीं है। शरीर मूलक विधि से जीवन में चित्रण तक ही मूल्यांकन हो पाता है, अनुभव नहीं हो पाता है।

प्रश्न: जागृत स्थिति में क्या होता है?

उत्तर: जागृत स्थिति में जीवन का सारा क्रियाकलाप अनुभव से शुरू होता है, न कि मन से।  अनुभव मूलक विधि में आत्मा के अनुरूप में बुद्धि, बुद्धि के अनुरूप में चित्त, चित्त के अनुरूप में वृत्ति, और वृत्ति के अनुरूप में मन होता है।  आत्मा सह-अस्तित्व में, बुद्धि आत्मा में, चित्त बुद्धि में, वृत्ति चित्त में, और मन वृत्ति में अनुभव करता है।  शरीर मन में अनुभव नहीं करता है।  यहीं से शरीर और जीवन का भेद स्पष्ट होता है।  सम्पूर्ण जीवन में अनुभव पहुँचता है।  यही "अनुभव प्रणाली" है।  ऐसे मन के क्रियाकलाप में शरीर संवेदनाएं स्वयं स्फूर्त नियंत्रित होती हैं।  इस प्रकार शरीर के द्वारा जीवन प्रमाणित होता है।  ऐसे में वृत्ति में प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के स्थान पर न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों से तुलन होता है।  चित्त में (चिंतन क्रिया में) न्याय-धर्म-सत्य को प्रकाशित करने की विधि आ गयी। बुद्धि में न्याय-धर्म-सत्य की बोध के रूप में स्वीकृति हो गयी।  यह होने पर जीवन की दसों क्रियाएं प्रमाणित हो गयी।

जागृति पूर्वक मन शरीर का मूल्यांकन करता है कि इस शरीर के द्वारा मैं क्या कर सकता हूँ?  इसी प्रकार वृत्ति मन का, चित्त वृत्ति का, बुद्धि चित्त का, और आत्मा बुद्धि का मूल्यांकन करता है।  इस तरह "मूल्यांकन प्रणाली" और "अनुभव प्रणाली" होने पर जीवन ज्ञान पूर्ण होता है।

इस तरह "भ्रम" शरीर मूलक जीने को कहते हैं और "जागृति" जीवन मूलक जीने को कहते हैं।

ज्ञान में सभी अवस्थाओं का "स्वभाव" और "धर्म" निहित होता है।  क्रिया में "रूप" और "गुण" रहता है।  ज्ञान दृष्टि से समग्रता में देखना बनता है।

प्रश्न: ज्ञान-दृष्टि से आप क्या/कैसे  देखते हो?

उत्तर: देखने के दो भाग हैं - ज्ञान-दृष्टि से और चक्षु-दृष्टि से।  ज्ञान-दृष्टि और चक्षु-दृष्टि के संयुक्त रूप में मानव है।  ज्ञान-दृष्टि सूक्ष्म है, चक्षु-दृष्टि स्थूल है।  नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य को पहचानना ज्ञान-दृष्टि है।  इसको ज्ञानगोचर कहते हैं।  ज्ञानगोचर से समझ ही इंगित है।  समझ का अर्थ स्वभाव और धर्म स्वरूप में सब वस्तुओं मे है।  स्वभाव और धर्म समझ में आने के बाद मानव का सह-अस्तित्व में बोध  होना बन जाता है।  उसी को हम अध्ययन विधि से ले जा रहे हैं।  अध्ययन विधि से चारों अवस्थाओं का स्वभाव और धर्म को समझाना बन गया।

ज्ञान पूर्वक ही जीवन तृप्ति हो सकती है।  जीवन तृप्ति का पहना खेप है समाधान।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल 2008, अमरकंटक)

Friday, September 21, 2012

अध्ययन का नया आधार

अस्तित्व को समझने के लिए आधार (reference) को मानव ही प्रस्तुत करेगा।  अभी तक जिनको भी आधार  (reference) मानते हैं, वे मानव द्वारा ही प्रस्तुत किये गए हैं। उन आधारों पर चलने से तथ्य कुछ मिला नहीं।  प्रचलित आधारों को छोड़ करके यह प्रस्ताव है।  मैं इस नए आधार (reference) का प्रणेता हूँ।   इसको जांचने की आवश्यकता है कि यह पूरा पड़ता है या नहीं।  जांचने का अधिकार सभी के पास है।

प्रश्न: अध्ययन का यह नया आधार क्यों आया?

उत्तर: परंपरागत आधारों पर चलने से अपराध-मुक्ति का कोई स्वरूप निकला नहीं.  परंपरागत आधार न्याय, धर्म, सत्य का लोकव्यापीकरण कर नहीं पाए.  न्याय, धर्म, सत्य के लोकव्यापीकरण और अपराध-मुक्ति के लिए यह अध्ययन का नया आधार आया है. 

- -    श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Thursday, September 20, 2012

सुख, शान्ति, संतोष, आनंद

सुख, शान्ति, संतोष और आनंद चार स्थितियां हैं।   अनुभव ही इन चारों स्थितियों का आधार है।  अनुभव प्रणाली से यह होता है।  मन वृत्ति में अनुभव किया - फलतः सुख।  वृत्ति चित्त में अनुभव किया - फलतः शान्ति।  चित्त बुद्धि में अनुभव किया - फलतः संतोष।  बुद्धि आत्मा में अनुभव किया - फलतः आनंद।  सुख, शान्ति, संतोष, आनंद को "जीवन मूल्य" कहा - क्योंकि जीवन में जीवन के अनुभव होने के क्रम में ये निकल गए।

आत्मा सह-अस्तित्व में जो अनुभव करता है,  उसको "परमानंद" नाम दिया।  सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद परमानंद की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।  परमानंद व्यक्त होता नहीं है, पर सुख, शान्ति, संतोष और आनंद व्यक्त होता है।  इसमें से सुख समाधान से सम्बद्ध है।   व्यवहार में समाधान प्रमाणित होता है।  शान्ति समाधान-समृद्धि से सम्बद्ध है।  संतोष समाधान-समृद्धि-अभय से सम्बद्ध है।  आनंद दूसरे व्यक्ति को सत्य (सह-अस्तित्व) बोध कराने में व्यक्त होता है।

- श्री ए नागराज के  साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल 2008, अमरकंटक)

सहज और कृत्रिम


प्रश्न: “सहज” शब्द से क्या आशय है?

उत्तर: सहज से आशय है – मानव को जिसे बनाना नहीं है.  सभी व्यवस्था सहज है.  नियम सहज है.  जीवन सहज है.  शरीर सहज है.  क्या सहज है, यह समझे बिना मानव ने अपने को “बनाने वाला” मान कर ही तो सब कुछ को बर्बाद किया है.  मानव ही सारी कृत्रिमता का आधार है, और कोई भी नहीं है.  मानव सहजता का आधार अभी तक बना नहीं.  मानव को सहज को पहचानने की आवश्यकता है.  सहजता विधि से मानव के बने रहने की व्यवस्था है.  कृत्रिमता विधि से कहीं न कहीं कुंठित होता है.  सहज की ही निरंतरता होती है.  अक्षुण्णता की अपेक्षा मानव सदा से ही रखे हुए है.  उस अपेक्षा के अनुसार काम नहीं किया तो क्या वह झूठ नहीं हो गया?

प्रश्न: आदमी घर बनाता है, सड़क बनाता है, यातायात के साधन बनाता है –  ये सब पहले से तो उपलब्ध नहीं हैं. उनको वह बनाए या नहीं?

उत्तर: आदमी इनको बनाए, पर नियम की समझ के साथ बनाए.  सभी सुविधाओं को बनाने के लिए नियति विधि का अनुसरण किया जाए, न कि कृत्रिम विधि को.  कृत्रिम विधि है – नियति विरोधी सिद्धांतों को अपनाना.  प्रचलित विज्ञान कृत्रिम विधि है.  

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Wednesday, September 19, 2012

कल्पनातीत उपलब्धि


मैंने जो उपलब्धि पायी वह कल्पनातीत है.  ऐसी कल्पना कोई कर नहीं पाया कि ऐसा कोई उपलब्धि होगा जिसमे सबके लिए जवाब होगा, जिसमे सबके लिए समाधान होगा, जिसमे सबके लिए शिक्षा का स्वरूप होगा, जिसमे सारी मानव जाति का एक संविधान होगा.  इसको क्या कोई सोचा भी है?  यह “चाहत” कुछ पुण्यशील व्यक्तियों में होगा.  किन्तु इस चाहत के पूरा होने के लिए “प्रस्ताव” किसी के पास नहीं है.  यह उपलब्धि इससे पहले किसी को मिला हो, और उसने आँखें मूँद ली – तो उस का क्या प्रयोजन निकला?  इस उपलब्धि को पाने के बाद मैं सोचने लगा, यदि मानव-जाति को सौंपे बिना मैं आँखे मूँद लेता हूँ तो पुनः अपराध हो गया!  मानव जाति को इसे पकडाने के लिए मैंने अपने जीने का डिजाईन समाधान-समृद्धि के स्वरूप में बनाया.  यदि मानव जाति को पकडाने की बात नहीं होती तो मैं विरक्ति विधि से ही जीता रहता.  समाधान-समृद्धि का यह न्यूनतम मॉडल लोकव्यापीकरण हो सकता है.

प्रश्न: तो क्या जागृत होने के बाद भी कोई ऐसा सोच सकता है कि मानव-जाति को इस उपलब्धि को देना है या नहीं?

उत्तर: नहीं. यह जागृति के पहले दृष्टा पद की स्थिति है. जैसे ही मुझ को समझ में आया कि यह सम्पूर्ण मानव जाति की सम्पदा है, और यह मेरे अकेले की सम्पदा नहीं है – तो मैंने उसके साथ ईमानदारी को जोड़ दिया.  मेरे स्वयं के समाधान-समृद्धि पूर्वक जिए बिना कोई मेरी बात सुनेगा नहीं.  अनुभव पूर्वक समाधान तो मेरे पास हो गया था.  उसके साथ समृद्धि को जोड़ दिया.

प्रश्न: तो क्या आप भी साक्षात्कार-बोध-अनुभव के क्रम से गुजरे और उसके बाद अपने जीने के क्रम को सजाये?

उत्तर: हाँ.  अनुभव संपन्न होने के बाद समाधान-समृद्धि के डिजाईन को बनाने में मुझे पांच वर्ष का समय लगा.

प्रश्न: आपके अनुभव प्राप्त करने और हमारे अध्ययन पूर्वक अनुभव प्राप्त करने में क्या फर्क है?

उत्तर: मैंने भी अध्ययन पूर्वक ही अनुभव को प्राप्त किया है.  आपको अध्ययन मैं कराता हूँ, मुझको प्रकृति से सीधा अध्ययन करने का मौका मिला.  २५ वर्ष की जो मैंने साधना की थी, उससे प्रकृति से सीधा अध्ययन करने की मेरी स्थिति बनी.  वस्तु का बोध होने के बाद उसको व्यवहार में प्रमाणित होने के क्रम को मैं स्वयं में जोड़ता गया.  वस्तु को शब्द से जोड़ने की अर्हता मेरे पास था ही.  यह अर्हता हर व्यक्ति के पास है.  किसी भी वस्तु को देखता है तो उसको नाम देना उससे बन जाता है.  वस्तु से अनुभव, अनुभव से विचार, विचार से शब्द तक जोड़ दिया.  आप ही बताओ – इतनी बात की आवश्यकता थी या नहीं?

मानव जाति “अनुभव प्रमाण” को छोड़ करके, सभी को बोध होने वाली विधि को छोड़ करके, उपदेश विधि में पहुँच गया.  उपदेश विधि से रूढी बन सकती है, अध्ययन नहीं हो पायेगा.  इसलिए अध्ययन विधि के योग्य शब्दों को मैं जोड़ता गया.  भाषा से वस्तु तक जोड़ने के लिए परिभाषा दे दिया.  यहाँ कह रहे हैं – हम अपने अनुभव को प्रमाण रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं, दूसरा व्यक्ति उसको स्वीकार सकता है, वह अपने में उसको प्रमाणित करने के क्रम में जांच सकता है.  इस तरह अनुभव एक से दूसरे में अंतरित होने की बात आयी.

इस प्रस्ताव के आने से पहले किसी भी परंपरा ने अनुभव के एक से दूसरे में अंतरित होने की बात को माना नहीं है.  आज मैं एक जैन साध्वी से मिला तो उनसे मैंने पूछा – यह जो आप साधना करते हैं, क्या उसका कोई “फल” होता है या नहीं?  उन्होंने कहा – होता है.  फिर मैंने पूछा – क्या वह फल मानव जाति को छुआ है या नहीं?  उन्होंने कहा – नहीं.  यदि हमारी साधना का फल संसार को नहीं मिलता है तो साधना से हमे कोई फल मिला या नहीं, यह कैसे कहा जाए?  उसके बाद उन्होंने पूछा – आपका इस बारे में क्या सोच है?  मैंने उनको बताया – मैंने जो साधना किया, समाधि को प्राप्त किया, उसके बाद संयम किया – उसके फल में पता चला, जीव-चेतना भ्रम है, मानव-चेतना जागृति है.  मानव-चेतना का अध्ययन हो सकता है.  उस अध्ययन विधि को मैंने मानव के सम्मुख रखा है.  भ्रम से जागृति की ओर गमन के लिए ये सारा अध्ययन है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, भिलाई)

Monday, September 17, 2012

मणि

प्रश्न: मणि क्या वस्तु है?

उत्तर: प्रत्येक परमाणु में चुम्बकीय बल-सम्पन्नता बना ही रहता है.  परमाण्विक क्रिया के कारण से ताप, ध्वनि और विद्युत निर्मित होता है.  हरेक परमाणु में ये चारों सामान्य रूप में विद्यमान हैं.  मणि के गठन में शामिल परमाणुओं से निर्मित ताप को किरण के रूप में प्रसारित करने वाली मणियों को किरण-श्रावी कहा है.  ऐसी किरणों को ग्रहण करने वाली मणियों को किरण-ग्राही कहा है.  कुछ मणियाँ किरण-ग्राही और किरण-श्रावी दोनों होती हैं.  इस तरह तीन प्रजाति की मणियाँ हैं.

प्रश्न: मणि के गठन में शामिल होने वाले परमाणुओं में क्या विशेषता है?

उत्तर: मणि मूलतः हल्के परमाणुओं (एक निश्चित संख्या के अंशों से गठित)  का गठन है.  ऐसे अनेक परमाणुओं के गठन से एक अणु, और ऐसे अनेक अणुओं के गठन से एक मणि.  इन परमाणुओं से केवल ताप ही प्रसारित होता है, विद्युत और ध्वनि को अन्तर्निहित किया रहता है. हीरा एक मणि है, जिससे सर्वाधिक ताप प्रसारित होता है.

प्रश्न: सूर्य से निकलने वाली किरणे और मणि से निकलने या समाने वाली किरणे क्या भिन्न है?

उत्तर: हाँ. मणि से निकलने या समाने वाली किरणों की प्रक्रिया सूर्य से निकलने वाली किरणों की प्रक्रिया से अलग है. धरती की सभी मणियाँ सूर्य की किरणों (उसके ताप और प्रतिबिम्ब) से संबद्ध हैं.  सूर्य के साथ संबद्ध धरती पर पाई जाने वाली मणियों में यह किरण-श्रावी या किरण-ग्राही गुण होता है.  मणियाँ सूर्य का ताप पचा कर किरण-श्रावी या किरण-ग्राही गुण को प्रकाशित करती हैं.

प्रश्न: जब सूर्य नहीं रहेगा, या ठंडा हो जाएगा – तब क्या होगा?

उत्तर: तब ये मणियाँ धरती के ताप (अन्तर्निहित अग्नि) से संबद्ध हो जायेंगी.  जैसे – बच्चे गर्भ में रहते तक नाभि से आहार ग्रहण करते हैं, पैदा होने के बाद मुख से आहार ग्रहण करने लगते हैं. सूर्य के ताप से संबद्ध होने के कारण या धरती के ताप से संबद्ध होने के कारण मणियों में किरण-ग्राही या किरण-स्रावी गुण है.  मणियों के गुण मानव-शरीर के लिए अनुकूल या प्रतिकूल होते हैं.  ज्योतिष विज्ञान में इन प्रभावों को काफी परीक्षण किया गया है.

प्रश्न: मणि से निकलने वाली किरणों में यदि ताप नहीं है तो मणि की किरणे क्या है?

उत्तर: मणि की किरणे मणि की पहचान हैं.  जो वस्तु मणि से प्रभावित होती है, उसके लिए पहचान का आधार है.

प्रश्न: किरण-ग्राही मणि और मिट्टी में क्या अंतर है?

उत्तर: किरण-ग्राही मणियाँ जीव-संसार के लिए उपकारी हैं.  दूसरे ये पत्थर, धातु और मिट्टी में परिनितियों के कारण बनते हैं.  जैसे – पत्थर में कठोरता, धातु में विद्युत-ग्राहिता, और मिट्टी में उर्वरकता.  मिट्टी और मणि का रूप या बनावट अलग-अलग है. 

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2008, अमरकंटक)

Tuesday, September 11, 2012

ज्ञान-दृष्टि


अन्तःकरण में इस बात की आवश्यकता महसूस होनी चाहिए कि जीव-चेतना में जीते हुए मानव का सार्थक जीने का स्वरूप नहीं बनेगा. पहला मुद्दा यही है.  यह निष्कर्ष यदि निकलता है तो मध्यस्थ दर्शन के सन्दर्भ में मैंने जो कुछ भी लिख कर दिया है, बोल कर दिया है – वह सब सहायक है.  यदि यह निष्कर्ष आपमें नहीं निकलता है तो इसको आपने लिख दिया, पढ़ लिया, बोल दिया – उससे काम नहीं चलता.  अनुभव से ही काम चलेगा.  अनुभव ज्ञान दृष्टि से ही होगा.  ज्ञान-दृष्टि चक्षु-दृष्टि में आता नहीं है.  वस्तु के आकार, आयतन और घन में से घन आँखों में आता नहीं है.  चक्षु-दृष्टि के दृष्टि-पाट में आधा भाग ही आता है,  आधा भाग ओझिल ही रहता है.  ज्ञान-दृष्टि से “जीना” होता है, व्यवहार के लिए चक्षु का प्रयोग किया जाता है.  ज्ञान-दृष्टि का मानव ने अभी तक उपयोग किया नहीं है.  जितना भी मैंने मानवीयता के पक्ष में लिखा है वह आँखों में कहाँ आता है?  वह सब ज्ञान में गण्य होता है.  आदर्शवादी विधि में ज्ञान को व्यवहार में गण्य माना ही नहीं गया.  यदि ज्ञान व्यवहार में नहीं आता है तो उसका क्या मतलब है?  इसीलिये प्रमाणित होना बहुत आवश्यक है. 

अनुभव ज्ञान-दृष्टि से ही होगा.  अनुभव चर्म-दृष्टि से नहीं होगा.  अभी जीव-चेतना में हम जो कुछ भी कहते हैं, सोचते हैं, करते हैं – चर्म-दृष्टि से ही कहते हैं, सोचते हैं, करते हैं.  आँखों से सच्चाई दिखती नहीं है, जबकि जीव-चेतना में जीता हुआ मानव आँखों से दिखे हुए को सच्चाई मानता है.  आँखों से जितना दिखता है उसकी सीमा है, शरीर को पुष्ट रखना.  उसके अलावा कुछ नहीं!  जीव-चेतना में शरीर को पुष्ट बनाए रखने का क्या फायदा होगा?  केवल दूसरों को मारना-पीटना, धोखा-धडी करना.  वही करता है आदमी. 

प्रश्न: चर्म-दृष्टि सीमित है, यह मुझे स्पष्ट हो गया.  लेकिन ज्ञान-दृष्टि क्या है, यह मुझे स्पष्ट नहीं है.

उत्तर: भार एक ज्ञान है. आँखों से सामने रखा हुआ वस्तु आधा दिखता है, लेकिन यह पूरा है – यह ज्ञान दृष्टि से समझ में आता है. यहाँ से शुरुआत होता है.  इसी प्रकार हर मुद्दे में है. सह-अस्तित्व आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  समाधान आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  न्याय आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  नियम, नियंत्रण, संतुलन आँखों से दिखता नहीं है, पर समझ में आता है.  ऐसा दृश्य मानव के सम्मुख प्रस्तुत है.  यह सब ज्ञान दृष्टि से ही समझ में आता है.  मानव को ही समझ में आता है.  जानवर को समझ में नहीं आएगा.  मानव में नर-नारी दोनों गण्य हैं. 

-    - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१२, अमरकंटक)

Sunday, September 9, 2012

उपसंहार


मैंने जो सब प्रस्तुत किया है – चार भाग में दर्शन, तीन भाग में वाद, तीन भाग में शास्त्र, उसके साथ संविधान – उस पूरी बात का मतलब मैं बताना चाहता हूँ.  इस बात का प्रयोजन है – विकसित चेतना (मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना) को समझना, प्रमाणित करना और प्रमाणित स्वरूप में पीढ़ी दर पीढ़ी रहना.  इस पूरी बात को जीव-जानवर नहीं समझेगा, इसको जीव चेतना को पूजने वाला मानव नहीं समझेगा.  इसको जीव चेतना से छूटना जो मानव चाहते हैं, वही समझेंगे. हर व्यक्ति के पास यह तय करने का अधिकार है कि उसे जीव चेतना से छूटना है या नहीं?   विकसित चेतना स्वरूप में मानव के जीने में प्रमाण प्रवाहित होता है.  प्रमाण के तीन स्तर हैं – अनुभव प्रमाण, व्यवहार प्रमाण और प्रयोग प्रमाण.  इन तीनो स्तरों पर प्रमाण प्रवाहित होता है.  अनुभव के बिना कोई प्रमाणित करेगा ही नहीं.  अनुभव अध्ययन से होता है, या फिर अनुसन्धान से होता है.  इस प्रस्तुति को करने का अधिकार मुझ में अनुसंधान विधि से आया.  अनुसंधान पूर्वक इस अधिकार को पाने पर हर व्यक्ति में इसको समझने का स्त्रोत कल्पनाशीलता के रूप में देखा गया, इसी लिए इसको प्रस्तुत कर दिया.  संवाद का मूल तत्व इतना ही है.

मानव इस प्रस्तुति को अध्ययन करके अपना स्वत्व बना सकता है.  अध्ययन किये बिना इसको स्वत्व नहीं बनाया जा सकता.  हम अभी बहुत से आयामों को नज़र अंदाज करके चलने में अभ्यस्त हैं, वह नहीं चलेगा!  इस प्रस्तुति में कोई भी ऐसा अंग नहीं है, जिसे आप न समझें फिर भी यह प्रस्ताव आपका स्वत्व बन जाए.  व्यर्थ की बातों को तो इसमें लिखा ही नहीं है.  सार्थक बातों को लिखा है और हर मुद्दे पर निष्कर्षों को लिखा है, वह आवश्यक है या नहीं – इसी को आपको देखना है.  इसमें जितने भी निष्कर्षों को लिखा है वे तर्क-संगत, विचार-संगत, व्यव्हार-संगत और अनुभव-संगत हैं.  इन चारों भागों को सोच करके इसे प्रस्तुत किया है.  मानव जाति इन निष्कर्षों को आवश्यक पायेंगे तो उसे अपनाएंगे, आवश्यक नहीं पायेंगे तो नहीं अपनाएंगे.

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

ए नागराज,
प्रणेता, मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद,
श्री भजनाश्रम, नर्मदांचल,
अमरकंटक, जिला अनुपपुर, मध्य प्रदेश, भारत.

Thursday, July 12, 2012

अनुभवगामी विधि


ज्ञान और प्रमाण

ज्ञान स्थिति में रहता है, इन्द्रियगोचर विधि से प्रमाण होता है। मानव परंपरा में ज्ञान इन्द्रियगोचर विधि से ही प्रमाणित होता है। इन्द्रियां न हो, और ज्ञान एक से दूसरे को संप्रेषित हो जाए - ऐसा होता नहीं है। हर मनुष्य में जीवन क्रियाशील रहता है। इन्द्रियों से जो सूचना मिलती है उसके मूल तक जाने की व्यवस्था जीवन में बनी हुई है। उसके लिए पहले कल्पनाशीलता प्रयोग होता है। साक्षात्कार होने तक कल्पनाशीलता का सहयोग रहता है। वस्तु का साक्षात्कार होने के फलस्वरूप बोध और अनुभव होता है, फिर प्रमाणित होने की व्यवस्था आती है। यह इसका पूरा स्वरूप है - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

Wednesday, July 11, 2012

अपराध-मुक्ति का रास्ता



सह-अस्तित्व साक्षात्कार हो जाए, जीवन साक्षात्कार हो जाए, जीवन जागृति साक्षात्कार हो जाए - इन तीन चीजों के स्पष्ट होने पर अपराध-मुक्ति का रास्ता बना है।

- श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

अनुक्रम से अनुभव


ज्ञानगोचर वस्तुओं का जीने में ही परीक्षण होता है।  इन्द्रियगोचर सभी वस्तुएं प्रयोग में आ जाते हैं।  प्रयोग सभी यांत्रिक है, जीना प्रयोग नहीं है। प्रयोग सामयिक होते हैं, जीना निरंतर होता है।  इन्द्रियगोचर जो है, उसका कुछ भाग जीने से जुड़ता है।

सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान - यह ज्ञानगोचर है।  जीवन का स्वरूप ज्ञान - यह ज्ञानगोचर है।  मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - यह ज्ञानगोचर है।  इन तीनो ज्ञान को जब हम व्यवहार में लाते हैं तो अनुभव का प्रमाण मिलता है।

एक से एक जुड़ करके "होने" के स्वरूप का नाम है अनुक्रम।  विकासक्रम-विकास, जागृतिक्रम-जागृति, और सह-अस्तित्व - ये तीन मुद्दे अनुक्रम हैं।  ये मुद्दे ज्ञानगोचर हैं - जो एक दूसरे से जुड़े हैं।  अनुक्रम से अनुभव होता है।  अनुभव शाश्वत होने के स्वरूप में है।

- श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक) 

ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर


ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर के संयुक्त रूप में मानव की पहचान है।  सह-अस्तित्व अपने में ज्ञानगोचर है।  सह-अस्तित्व समझे बिना मानव अपने में ज्ञानगोचर पक्ष को पहचान ही नहीं सकता.  सह-अस्तित्व समझना, सह-अस्तित्व में जीवन को समझना, सह-अस्तित्व में शरीर को समझना और फिर शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव को समझना।  

मानव में ज्ञानगोचर विधि से हर निश्चयन है।  मानव का हर कार्य और हर व्यवहार इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में होता है।  ज्ञान के बिना न हम कोई उत्पादन कर सकते हैं, न व्यवहार कर सकते हैं।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

Saturday, July 7, 2012

व्यवस्था को पहचानने का आधार





सामान्य बातें ही व्यवस्था को पहचानने का आधार है. असामान्य कुछ भी व्यवस्था को पहचानने का विधि नहीं है. व्यवस्था में जीने से परस्पर विश्वास होना स्वाभाविक हो जाता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Friday, July 6, 2012

निष्ठा का प्रमाण



इस बात में सहमति होना भर पर्याप्त नहीं है.  सहमति के साथ निष्ठा जोड़ने पर अध्ययन होता है.  अध्ययन होने के फलस्वरूप सच्चाई को पहचान लिया.  सच्चाई की पहचान होने के फलस्वरूप हमारा जीने के लिए सरल मार्ग निकल गया.  उसके बाद आदमी रुकता नहीं है.  अभी सहमति होने के बाद निष्ठा होने में ही सारी रुकावट है.  
अध्ययन में लगना ही आपकी इस बात में सहमति के प्रति निष्ठा का प्रमाण है.  प्रमाणित होने के लिए अध्ययन आवश्यक है.  अध्ययन के बिना प्रमाणित नहीं हो सकते हैं.  अध्ययन है - अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन.  यह अध्ययन यदि पूरा होता है तो ज्ञानगोचर वस्तु मानव के हाथ लगती है.  जीवन में ही ज्ञानगोचर प्रक्रिया है.  जीवन ही जीवन को पहचानता है.  जीवन ही सहअस्तित्व को पहचानता है.  जीवन ही उपयोगिता-पूरकता को पहचानता है.  मानव में ज्ञान के स्वरूप का निर्धारण जीवन ही करता है.  जीवन ही शरीर के साथ जीता है तो शरीर में  संवेदनाएं प्रकट होते हैं.  संवेदनाओं को जीवन मान लेता है.  यही जीवन का भ्रम है.  शरीर संवेदनाओं को जीवन मान लेने के बाद उसी को राजी करने के लिए चले गए.  उसमे जो अनुकूलता हुई उसमे सुख जैसा भासता है, पर सुख रहता नहीं है.  पूरा मानव जाति इतने में ही भ्रमित है.  

परिभाषा विधि से शब्द के द्वारा वस्तु का कल्पना होता है.  उसको अस्तित्व में वस्तु के रूप में यदि हमने पहचान लिया तो ज्ञानगोचर वस्तु पकड़ में आयी.  यही अध्ययन है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

ज्ञानगोचर वस्तु पहचानने की आवश्यकता


ज्ञानगोचर सभी वस्तु पहचानने में आ जाए और प्रमाणित हो जाए - इसका नाम है अध्ययन.  अनुभव की रोशनी में, स्मरण पूर्वक किये गए प्रयास को अध्ययन कहा.  अनुभव शाश्वत रूप में प्रमाण है.  ज्ञानगोचर वस्तु को पूरा समझना, उसकी उपयोगिता को पूरा अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित कर पाना - यह अनुभव-बल के आधार पर ही होता है.  दूसरा कोई विधि से यह होगा नहीं.  इसीलिये अनुभव तक पहुँचने के लिए, हर अध्ययन करने वाले व्यक्ति को इन्द्रियगोचर वस्तु और ज्ञानगोचर वस्तु पहचानने की आवश्यकता है.  अभी तक के हज़ारों वर्ष के मानव इतिहास में इन्द्रियगोचर वस्तुओं को पहचानने की व्यवस्था दिया.  अब हम कह रहे हैं - इस धरती पर मानवों को अगले कुछ दशकों में ज्ञानगोचर वस्तुओं को पहचानने योग्य होना चाहिए, क्योंकि धरती बीमार हो गयी है, धरती के साथ अपराध कृत्यों से मुक्ति पाने की आवश्यकता है.  उसी के साथ अपने-पराये की दीवारों से भी मुक्ति पाना है.  इसका नाम दिया - "भ्रम मुक्ति".  भ्रम मुक्ति ही मोक्ष है।

- श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)

Thursday, July 5, 2012

ज्ञानगोचर




ज्ञानगोचर वस्तु पहचानने में आ जाए और प्रमाणित हो जाए - इसका नाम है अध्ययन।  ज्ञान का आरंभिक स्वरूप है - कल्पना।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007, अमरकंटक)


यश का स्वरूप

जागृतिक्रम में यश एक सहज घटना है।  यश का भ्रूण रूप मानवीयता है।  प्रौढ़ रूप देव मानवीयता। यश का नित्य रूप ही दिव्य मानवीयता है।


हरेक व्यक्ति स्वयं में व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह यश का व्यवहारिक स्वरूप है। संबंधों को पहचानना एवं उनमे निहित मूल्यों का निर्वाह करना - यह मानव कुल का यश है।

- श्री ए. नागराज (परिवार मानव, मई 2006)


न्याय, धर्म, सत्य

 

(समझ पूर्ण होने से पहले) न्याय, धर्म, सत्य के अनुसार तुलन करने के लिए वृत्ति में वस्तु नहीं है, शब्द है। शब्द है - तभी मनुष्य यह कह पाता है कि यह "न्याय" है, यह "अन्याय" है; यह "धर्म" है, यह "अधर्म" है; यह "सत्य" है, यह "असत्य" है। शब्द से इतना तो उपकार हुआ कि सत्य "होने" के रूप में वृत्ति में स्वीकार हो जाता है. लेकिन शब्द पर्याप्त नहीं हुआ। अब "रहने" के रूप में सत्य को स्वीकार करने की बात आयी। शरीर मूलक विधि से न्याय, धर्म, सत्य समझ में आता नहीं है। विगत में कहा गया - "सत्य अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - इसको समाधि में देखना होगा।" समाधि में कोई सत्य मिला नहीं। सत्य संयम करने पर मिला। उस सत्य तक शिक्षा विधि से कैसे पहुँचते हैं - वह सीढ़ी यहाँ बता रहे हैं। "

"सत्य" शब्द से सह-अस्तित्व इंगित है। इसको परिशीलन करने पर चित्त में ही "सह-अस्तित्व" शब्द से इंगित अर्थ साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होने के बाद बोध होता ही है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। अनुभव ही प्रमाण है। अनुभव होने पर बुद्धि में पुनः अनुभव-प्रमाण बोध होता है। जिसको बुद्धि चिंतन के लिए परावर्तित कर देती है, फलस्वरूप उसके अनुरूप चित्त में चित्रण होना शुरू हो गया। इससे वृत्ति में न्याय, धर्म, सत्य वस्तु समाहित हो गयी। जिसके अनुसार मन में मूल्यों का आस्वादन होने लगा, जिसको प्रमाणित करने के लिए हम चयन करने लगे। प्रमाणित करने के लिए एक ओर बुद्धि में संकल्प, दूसरी और मन में चयन - ये दोनों मिल करके प्रमाण परंपरा बनती है।

 - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

Wednesday, July 4, 2012

तृप्ति के लिए उपाय


सह-अस्तित्व के प्रस्ताव से सहमति होने से रोमांचकता तो होती है - पर उतने भर से तृप्ति नहीं है। तृप्ति के लिए क्या किया जाए? तृप्ति के लिए तुलन में प्रिय, हित, लाभ के स्थान पर न्याय, धर्म, सत्य को प्रधान माना जाए। न्याय, धर्म और सत्य को हम चाहते तो हैं ही। हम में कोई ऐसा क्षण नहीं है, जब हम न्याय, धर्म, सत्य को न चाहते हों। हम जितना भी न्याय, धर्म और सत्य को समझते हैं उसके आधार पर जब यह सोचना शुरू करते हैं - कहाँ तक यह न्याय है या अन्याय है? कहाँ तक यह समाधान है या समस्या है? कहाँ तक हम सत्य को यहाँ प्रमाणित कर पाए? इस तरह तुलन करने पर हम अपनी जिज्ञासा की वरीयता को न्याय, धर्म और सत्य में स्थिर कर लेते हैं।

 - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

देखना और समझना



गणित आँखों से अधिक है, लेकिन समझ से कम है।  गणित द्वारा वस्तु का सम और विषम गुण समझ आता है, किन्तु मध्यस्थ को गणित द्वारा नहीं समझा जा सकता।  कारणात्मक भाषा से ही मध्यस्थ समझ में आता है।  मध्यस्थ दर्शन का मतलब है - वर्तमान को समझना।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)