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Wednesday, December 1, 2010

संवाद

प्रश्न: मैं शरीर से भिन्न हूँ - इसको देखने की क्षमता को कैसे विकसित करें?

उत्तर: जीवन का अध्ययन पूर्वक। जीवन यदि अध्ययन गम्य होता है तो जीवन और शरीर अलग-अलग हैं, यह स्पष्ट हो जाता है। अनुभव-मूलक विधि से जो प्रबोधित करते हैं, उस पर विश्वास रखते हुए जीवन का अध्ययन होता है। जीवन जब अनुभव में आता है तो जीवन शरीर से कितना दूर रहता है, यह पता चलता है। जीवन समझ में आना ही स्व-स्वरूप ज्ञान है। स्व-स्वरूप ज्ञान होने के बाद मनुष्य मानव-चेतना के अलावा दूसरा किसी विधि से जीता ही नहीं। स्व-स्वरूप ज्ञान अनुभव के बिना होता भी नहीं है।

जिस बात को समझे बिना हम जी ही नहीं पायेंगे, वह जल्दी समझ में आता है। समझने के लिए तीव्र इच्छा ही जिज्ञासा है।

जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए शरीर को जीवंत बना कर रखता है।

जीव-चेतना में रहते हुए मनुष्य को मानव-चेतना रंगेगा नहीं! जीव-चेतना में रहने की व्यवस्था रखते हुए शोध नहीं होगा। जीव-चेतना को बरकरार रखते हुए मानव-चेतना प्रमाणित नहीं होगा। इस आधार पर हम मानव-चेतना में जीने की वरीयता को पहचान पाते हैं।

अध्ययन तात्विकता से लेकर व्यवहारिकता तक है। तात्विकता को छोड़ कर व्यवहारिकता या आचरण में निश्चयता आती नहीं है। मानव-चेतना समझ में आने के बाद मानव-चेतना के आधार पर जब हम जीते हैं तो आचरण स्थिर होता है।

प्रश्न: "मनन" क्या है?

उत्तर: मानव-चेतना पूर्वक जो जीता है, उसका अनुकरण करना। ज्ञान भाग को स्वीकारना, क्रिया भाग का आचरण करना।

भाषा में जो कहा गया है, उसको यथावत स्वीकारना। भाषा को बदलने में लगे रहते हैं तो परिभाषा भी बदलती है, फिर अर्थ वही इंगित नहीं होता। जैसा कहा है - वैसा ही उसको पचाने से समझ आता है। भाषा को परिवर्तित करते हैं तो वह पचता नहीं है।

अध्ययन कराने वाला व्यक्ति प्रमाणित है, यह मानने के बाद स्वीकारना शुरू होता है। उससे पहले होगा नहीं।

अध्ययन में वस्तु के साथ तदाकार होने को कहा है। समझाने वाले के साथ तदाकार होने को नहीं कहा है। समझाने वाले व्यक्ति का अनुकरण आचरण के अर्थ में होता है। पर समझने में वस्तु के साथ ही तदाकार होना होता है। इसका क्रम ऐसे है: -

(१) समझदार व्यक्ति के आचरण को पहचानना।
(२) भाषा को पहचानना।
(३) अर्थ को पहचानना - तदाकार होना।
(४) अनुभव होना।
(५) प्रमाणित होना।

स्वीकृत होने के बाद ही तदाकार होता है। साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद ही तदाकार होता है। साक्षात्कार को हम "समझ" मान लेते हैं, तो रुक जाते हैं। बुद्धि में साक्षात्कार जो हुआ, उसका परिशीलन होता है। बुद्धि में बोध होने के बाद, अनुभव होने के बाद, अनुभव-प्रमाण बोध पुनः बुद्धि में होता है। ऐसा बना हुआ है।

अनुभव तक केवल अध्ययन ही है। अनुभव होने तक, आपके जीने में समझने का पक्ष वरीय रहे - क्रिया पक्ष कम वरीय रहे।

प्रक्रिया के साथ तर्क जुड़ा है। ज्ञान के साथ तर्क नहीं है। ज्ञान के अनुरूप प्रक्रिया हुई या नहीं - उसके लिए तर्क है। ज्ञान है - सह-अस्तित्व को पहचानना, जीवन को पहचानना, मानवीयता पूर्ण आचरण को पहचानना। यह 'चेतना विकास' की मूल वस्तु है। उसकी जरूरत है या नहीं, यह पहले सोच लो। जरूरत है तो उसका अध्ययन करके देखा जाए!

प्रश्न: न्याय कैसे समझ में आता है?

उत्तर: सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान में व्यवस्था एक भाग है, व्यवहार एक भाग है। चारों अवस्थाओं का व्यवस्था में होना है - उसका सूत्र है: त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी। व्यवस्था का बोध होने पर व्यवस्था के अर्थ में संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति - यह न्याय है। सह-अस्तित्व सहज व्यवस्था का ज्ञान अध्ययन पूर्वक होता है। अनुभव के बाद बोध पूर्वक व्यवस्था के अर्थ में संबंधों को पहचानना बनता है। अनुभव के पहले व्यवस्था के अर्थ में संबंधों की पहचान नहीं होती। संबंधों का नाम भर जानते हैं। न्याय को समझ लिया, न्याय को प्रमाणित करने के लिए प्रयत्न किया, उसी विधि से न्याय का अनुभव होता है।

स्वयं में विश्वास होने पर ही संसार के साथ विश्वास करना बनता है। स्वयं में व्यतिरेक रहते हुए, संसार के साथ विश्वास होता ही नहीं है। समझने से स्वयं में विश्वास होता है। संसार पर विश्वास का स्वरूप है - संसार समझ सकता है। संसार समझ गया है तो संसार के साथ जीने का स्वरूप निकलता है। समझे हुए के साथ ही जी पाना बनता है। न समझे हुए के साथ जी पाना बनता नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)

इन्द्रियगोचर ज्ञानगोचर भाग ५

Sunday, November 21, 2010

समझने की प्रक्रिया

(1) समझना वस्तु है, शब्द नहीं है। अंततोगत्वा शब्दों से इंगित वस्तु को पहचानना है, या शब्द को पहचानना है? यह तय करना होगा। शब्दों को शब्दों से जोड़ते हुए शब्दों में ही हम फैलते जाते हैं। वस्तु पर ध्यान देते हैं तो शब्द कम होते जाते हैं, और वस्तु को पा जाते हैं।

(२) समझाने वाले व्यक्ति की पूरी बात को पूरा सही से सुनने के लिए, सुनने/समझने वाले को अपने पूर्व-विचार को स्थगित करने की आवश्यकता है।

(३) "सबके साथ समझदारी एक ही होगा" - यह स्वीकारने से "विशेषता" का भ्रम समाप्त होता है। "हम समझदार होंगे, बाकी सब मूर्ख रहेंगे" - इससे परेशानी बढ़ेगी। "सब समान रूप से समझदार होंगे" - इस बात पर हमको विश्वास रखना है।

(४) पवित्रता पूर्वक, संयमता पूर्वक रहने से जल्दी समझ में आता है। समझने के बाद पवित्रता में ही रहना होता है।

(५) अध्ययन विधि से क्रमिक रूप से साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होना = वस्तु के होने-रहने की स्वीकृति होना = वस्तु का दृष्टा बनना। वस्तु अपने रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म के साथ है। साक्षात्कार में ये चारों समाहित हैं। साक्षात्कार होने के फल-स्वरूप कल्पनाशीलता तदाकार होती है। कल्पनाशीलता तदाकार होना = प्रतीति होना। चित्त तदाकार होता है, जिसको बुद्धि स्वीकारता है। बुद्धि में स्वभाव और धर्म स्वीकृत होता है, जिसको अनुभव-गामी बोध कहा। बोध होने के फलस्वरूप अनुभव होता है। अनुभव होना = तद्रूप होना। अनुभव का प्रमाण फिर कार्य-व्यवहार में होता है। इस प्रकार जीने की विधि अनुभव-मूलक, जीवन-मूलक, और प्रमाण-मूलक हो जाती है।

(६) शरीर के साथ जब तक जीवन तदाकार रहता है, या जब तक जीवन स्वयं को शरीर माना रहता है, तब तक चार विषयों और पांच संवेदनाओं की सीमा में ही जीना बनता है। विषयों में और संवेदनाओं में सुख जैसा लगता है, पर सुख होता नहीं है। विषयों और संवेदनाओं में सुख यदि होता तो उनमें सुख की निरंतरता भी होती!

(७) तत-सान्निध्य = वास्तविकता के साथ हम प्रमाणित हों। तत-सान्निध्य तद्रूपता (अनुभव सम्पन्नता) के साथ है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सदा सान्निध्य रूप में रहे, हमारे अधिकार में रहे - उसी को तत-सान्निध्य कहा है। अध्ययन-क्रम में तत-सान्निध्य की अपेक्षा बना रहता है।

(८) तदाकार होने के लिए समझने की इच्छा, और प्रमाणित होने की इच्छा को बलवती बनाने की आवश्यकता है। प्रमाणित होने के लिए अर्थ के पास जाना ही पड़ता है। प्रमाणित नहीं होना है तो शब्द की सीमा में ही रहना बनता है। परिभाषा को याद करने से अर्थ तक नहीं पहुंचे। परिभाषा के अनुरूप जब जीना शुरू होता है, तब शब्द से इंगित अर्थ को समझे।

(९) अध्ययन-क्रम में जीने के उद्देश्य में गुणात्मक-परिवर्तन होता है। स्वयं में गुणात्मक-परिवर्तन अनुभव के बाद ही होता है।

(१०) अध्ययन-काल में मुख्य बात है, सामने वाला व्यक्ति जो अध्ययन कराता है, उसको प्रमाण मानना पड़ता है। प्रमाण मानने के बाद प्रमाण के स्वरूप - न्याय, धर्म, और सत्य - में क्या अड़चन हो सकता है, उसको शोध करना होता है। शोध करने का मूल मुद्दा है - न्याय, धर्म, सत्य को हम समझ रहे हैं, या नहीं समझ रहे हैं? प्रमाणित करने की विधि क्या होगी उसको यथावत सुनते हैं, समझते हैं, तो प्रमाणित करने की जगह तक पहुँचते हैं। यदि अपने मन मर्जी का तर्जुमा करके सुनते हैं, तो जहां पहले थे वहीं रह जाते हैं। सुनना समझना नहीं है। सुनने पर बोलना बनता है। समझने पर प्रमाणित करना बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)

जीवन की पहचान

हर व्यक्ति अपने जीवन को पहचान सकता है। हर व्यक्ति के साथ जीवन शरीर को जीवंत बनाने के रूप में है। शरीर की जीवन्तता जीवन का गुण है। जीवंत रहते हुए मनुष्य चार विषयों, पांच संवेदनाओं, तीन ईश्नाओं, और उपकार को पहचानता है, समझता है। पहचानने के ये चार स्तर हैं। फिर जो पहचाने हैं, समझे हैं, उसको प्रमाणित करने की बारी आती है। पांच संवेदनाओं को प्रमाणित करने में चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य समाहित रहता है। उसी तरह तीन ईश्नाओं को प्रमाणित करने में पांच संवेदनाओं और चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। उपकार को प्रमाणित करने में तीन ईश्नाओं, पांच संवेदनाओं, और चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। अभी तक मानव-जाति चार विषयों और पांच संवेदनाओं को प्रमाणित कर पाया। तीन ईश्नाओं और उपकार को प्रमाणित करना शेष रहा। समझदारी पूर्वक ही इनको प्रमाणित करना हो पाता है। समझदारी का स्वरूप है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। यह समझदारी अध्ययन गम्य है। अध्ययन पूर्वक समझ आने पर यह पूरा होता है।

जीव जानवरों में चार विषयों में वंश के अनुसार जीने की बात रहती है। जीव-जानवरों में पांच संवेदनाओं का ज्ञान नहीं रहता। जीवों में चार विषयों के अर्थ में पांच संवेदनाओं का व्यक्त होना देखा जाता है। मनुष्य पांच इन्द्रियों से सुखी होने के लिए प्रयत्न करता है। आदिकाल से अभी तक यही हाल है।

जीवन का स्वरूप-ज्ञान न होने के कारण जीवन शरीर के साथ तद्रूपता विधि से घनीभूत रहता है। जीवन के स्वरूप को अध्ययन-विधि से हम समझते हैं। मनुष्य सुख चाहता है। सुखी होने की अपेक्षा शरीर में कहीं नहीं है। जीवन में सुखी होने की प्यास है।

सच्चाई की प्यास आत्मा में सर्वोपरि है। उसके बाद बुद्धि में, उसके बाद चित्त में, वृत्ति में, फिर मन में। मनुष्य चाहत के रूप में शुभ ही चाहता है। यह जीवन की महिमा है। जीवन में शुभ की चाहत है। मनुष्य में संतुलन की चाहत बनी हुई है, पर करते समय असंतुलन का काम करता है। यही आत्म-वंचना है। अभी तक मनुष्य ने ऐसा ही किया, या और कुछ किया? - उसको सोच लीजिये!

मनुष्य में ज्ञानगोचर पक्ष अभी तक सुप्त रहा। ज्ञानगोचर पक्ष को अध्ययन द्वारा समझा जा सकता है, प्रमाणित किया जा सकता है - जीवन-तृप्ति के लिए। समझदारी के बिना समाधान हो नहीं सकता।

सच्चाई को मनुष्य चाहता है, इसलिए हर मनुष्य में न्याय-धर्म-सत्य के भास्-आभास होने की बात बनी हुई है। इसी आधार पर मनुष्य न्याय-धर्म-सत्य की प्रतीति, बोध, और अनुभूति के लिए प्रयास करता है। जीवन शरीर को जीवंत बनाने के फल-स्वरूप में सच्चाई को हम चाहते हैं, समाधान चाहते हैं, न्याय चाहते हैं - यह मनुष्य में बना है। हम जितना जीते हैं, उससे अधिक चाहते हैं। यह इच्छा में चित्रण स्वरूप में बना रहता है।

"समझे बिना मैं सुखी नहीं हो सकता" - यह स्वीकार होने पर अध्ययन में मन लगता है। सुखी होने के अर्थ में ही मन लगता है। कुछ छोड़ने के अर्थ में मन लगता नहीं है। सुखी होने की इच्छा "कमजोर" है, जब तक मनुष्य शरीर को केंद्र में रख कर सुखी होने की सोचता है। शरीर के आधार पर मनुष्य का सुखी होना नहीं बना। "समझदारी के आधार पर ही मैं सुखी हो सकता हूँ" - इस जगह पर आने के बाद ही मनुष्य अध्ययन करता है।

सुखी होने की चाहत मनुष्य में पहले से ही रहा। सुखी होने का रास्ता (अध्ययन) सुनने में आया। उस पर तुल कर चलना शुरू करता है। भास्-आभास पूर्वक हम सुनते हैं, प्रतीति को स्वीकारते हैं। स्वीकारने की विधि है - तदाकार विधि। शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है, वस्तु के साथ तदाकार होने से हमको प्रतीति होता है।

अध्ययन अनुभव के घाट तक पहुँचने के लिए है। अनुभव के बाद प्रमाण है। अनुभव हुआ, उसका प्रमाण। वह दूसरे व्यक्ति के लिए अध्ययन की वस्तु है। अभी मैं जो करा रहा हूँ, वही है। अध्ययन से तदाकार हो जाता है। तदाकार होना ही अध्ययन का लक्ष्य है। तदाकार होने के बाद तद्रूप होना शेष रहता है। तद्रूप होना = आत्मा में अनुभव। अनुभव का ही फिर व्यवहार में प्रमाण होता है। यह हर नर-नारी का अधिकार है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)

Wednesday, November 10, 2010

ज्ञान और प्रमाण


जितना हमें ज्ञान होता है वह पूरा प्रमाणित होता ही नहीं.  जैसे - समुद्र की एक बूँद का परीक्षण करके हम प्रमाणित करते हैं.  समुद्र का सारा पानी वैसा ही है, यह हमें ज्ञान रहता है.  समुद्र के सारे एक एक बूँद को निकाल करके परीक्षण करना/प्रमाणित करना नहीं बन पाता.  इसको "सिन्धु बिंदु न्याय" कहा.  

अनंत के प्रति ज्ञान होता है, आंशिक रूप में प्रमाण होता है.

सिन्धु रूप में ज्ञान, बिंदु रूप में प्रमाण

अनंत ज्ञान को थोडा सा ही प्रमाणित करते हैं तो सामने व्यक्ति में भी जीवन है, वो अनंत के अर्थ को पकड़ लेता है.  उसके वह अनुभव में आता ही है, ज्ञान होता ही है.  ज्ञान होने पर वह दूसरा व्यक्ति भी इस सिन्धु-बिंदु न्याय के साथ जीने लगता है.  इसको बताने के लिए सूत्र दिया:

"जो जितना जानता है, उतना चाह नहीं पाता
जितना चाह पाता है, उतना कर नहीं पाता
जितना कर पाता है, उतना भोग नहीं पाता"

इसलिए मानव द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु पैदा करना अस्तित्व सहज है.

जानना ही ज्ञान है, प्रमाणित करना जागृति है.

प्रमाणित करने की जगह छोटा है, ज्ञान की जगह बड़ा है.

ज्ञान से पहले प्रमाणित करना दुरूह लगता है.   ज्ञान के बाद प्रमाणित करना बायें हाथ का खेल लगता है.

अभी जहाँ आदमी फंसा है उससे छूटने का यह बहुत बढ़िया जुगाड़ है.  इसको हम बहुत अच्छे से निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

यथा-स्थिति से अनुभव तक (भाग २)

Wednesday, October 6, 2010

अमूर्त और मूर्त

मनुष्य-शरीर को जीवन चलाता है। ऐसे मनुष्य-शरीर को चलाते हुए जीवन 'अमूर्त' वस्तुओं की अपेक्षा में जीता है। सुख एक अमूर्त वस्तु है। सुख को मूर्त वस्तुओं (भौतिक-रासायनिक) में ढूढता है, तो वहां सुख मिलता नहीं है। मानव में सुखी होने की अपेक्षा है। यह यथास्थिति है। अमूर्त की चाहत में मनुष्य जीता है। अमूर्त की चाहत को प्रमाणित करने के लिए यह प्रस्ताव है। सारा प्रस्ताव मनुष्य के सुख पूर्वक जीने की चाहत के अर्थ में है। समाधान = सुख। मनुष्य ने अभी तक आँखों से जो दिखता है, केवल उसको सच्चाई माना - जिससे वह बुद्धू बना, अपराधी बना।

जो मनुष्य को दिखता है, और जो मनुष्य चाहता है - इन दोनों के योगफल में मनुष्य का अध्ययन किया जाए। इन दोनों के योगफल में ही हमको समाधान मिलता है।

समझदारी से समाधान होता है। समाधान हर व्यक्ति के "अधिकार" की चीज है। समाधान के "अधिकार" के आधार पर ही न्याय प्रकट होता है। न्याय की प्रक्रिया है - संबंधों को व्यवस्था के अर्थ में पहचानना, उसका निर्वाह करने के क्रम में मूल्यों का प्रकटन होना, मूल्यों का प्रकटन होने की स्थिति में मूल्याङ्कन होना। दो पक्षों के बिना न्याय की कोई बात नहीं है। दोनों पक्षों में यह मूल्याङ्कन होने की स्थिति बनना। मूल्याङ्कन पूर्वक उभय-तृप्ति होता है, तो न्याय है। अन्यथा न्याय नहीं है - समस्या है।

सह-अस्तित्व मूर्त और अमूर्त का अविभाज्य वर्तमान है। मानव सह-अस्तित्व का प्रतिरूप है। मानव सुख चाहता है - सुख अमूर्त है। समाधान मूर्त और अमूर्त दोनों है। व्यवहार में समाधान मूर्त रूप में रहता है, अनुभव में अमूर्त रूप में रहता है। समाधान जो अनुभव में अमूर्त रूप में है - वही सुख है। समझदारी अमूर्त है। कार्य-व्यवहार अमूर्त-मूर्त दोनों है।

अध्यात्मवादियों ने केवल अमूर्त वस्तु को सत्य माना। भौतिकवादियों ने केवल मूर्त वस्तु को सत्य माना। दोनों गड्ढे में गिरे! दोनों ने एक पैर पर खड़े होने का प्रयास किया। दोनों के पतन का कारण यही है। दोनों का परंपरा नहीं बना। दोनों से व्यवस्था का आधार नहीं बना।

जबकि सह-अस्तित्व मूर्त और अमूर्त का अविभाज्य संयुक्त स्वरूप है। मानव भी मूर्त और अमूर्त के अविभाज्य संयुक्त स्वरूप में ही जीता है। मूर्त और अमूर्त अविभाज्य हैं - ये अलग होते ही नहीं हैं! इनको अलग-अलग देख कर हम पार नहीं पायेंगे। इनको संयुक्त रूप में देख कर ही हम पार पायेंगे। अमूर्त और मूर्त अलग होते ही नहीं तो आप कैसे इनको अलग करोगे? इस दर्शन का पहला प्रतिपादन ही है - "सत्ता में प्रकृति 'अविभाज्य' है"। सत्ता से अलग करके प्रकृति को देखने की कोई जगह या स्थान ही नहीं है। सत्ता असीम है। प्रकृति सत्ता को व्यक्त करती है। इसमें सबसे विकसित प्रकृति को 'मानव स्वरूप' में पहचाना। मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन विकसित है। मनुष्य-शरीर सबसे विकसित रचना है। मनुष्य-शरीर जीवन-जागृति प्रकट होने योग्य है। सह-अस्तित्व सहज प्रकटन विधि से मनुष्य-शरीर का प्रकटन है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

व्यवस्था का मूल स्वरूप

परमाणु-अंश में आचरण निश्चित नहीं होता। किसी गठन से पृथक होने पर परमाणु-अंश किसी एक तरह का आचरण नहीं करता, उसका आचरण बदलता रहता है। गठन से पृथक परमाणु-अंश अस्तित्व में बहुत कम मिलते हैं।

परमाणु-अंश में व्यवस्था में होने की अपेक्षा है। परमाणु-अंश में व्यवस्था का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता।

व्यवस्था के स्वरूप की शुरुआत दो अंश के परमाणु से है। परमाणु व्यवस्था का आधार है - इसीलिये आगे अवस्था का भ्रूण तैयार कर दिया, स्वयं के यौगिक स्वरूप में प्रवृत्त होने के स्वरूप में। सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है, इसलिए यह प्रगटन है।

यौगिक-क्रियाओं के बाद प्राण-कोशाओं का प्रगटन है - जिनमे सांस लेने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। प्राण-कोशाओं में निहित प्राण-सूत्रों में रचना-विधि में उत्तरोत्तर विकास के आधार पर अनंत रचनाएं तैयार हो गयी। जिसके फलस्वरूप स्वेदज, अंडज, पिंडज संसार का प्रगटन हो गया। इस प्रकार अनंत रचनाओं को हम देख पाते हैं, उनमें से एक मनुष्य-शरीर रचना भी है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Tuesday, October 5, 2010

अनुसंधान के लोकव्यापीकरण की आवश्यकता

"अनुसन्धान पूर्वक हुई उपलब्धि के मूल में सम्पूर्ण मानव-जाति का पुण्य है" - ऐसा मैंने माना। मानव-जाति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मैंने इसके लोकव्यापीकरण को शुरू किया। नहीं तो क्या जरूरत थी? हम पा गए, हम संतुष्ट हैं - इतना ही रहना था! आदर्शवाद के स्वांत-सुख की तरह। "सर्व-शुभ में स्व-शुभ समाया है।" इसको लेकर हम चल गए। इससे किसी से टकराव या वाद-विवाद की बात ही नहीं रही।

"आदमी को मानवत्व स्वरूप में जीना है, या जीवत्व स्वरूप में जीना है?" - इस प्रश्न का कोई भी आदमी क्या उत्तर देगा? सकारात्मक बात को नकारना आदमी से बनता नहीं है। सकारात्मक को मनुष्य चाहता ही आया है। न्याय चाहिए! समाधान चाहिए! सच्चाई चाहिए! इस चाहत के पीछे कई लोगों ने अपने प्राणों को न्योछावर किया है। मानव-जाति में जीवन-सहज सुख की अपेक्षा है। शरीर-सहज विधि से मनमानी की स्वीकृति है। जब तक हम शरीर-सहज विधि से चलते हैं, तब तक जीवन की उम्मीद के लिए संलग्न होने के लिए हम प्रयत्न ही नहीं कर पाते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Monday, October 4, 2010

जड़ और चैतन्य

जड़-प्रकृति और चैतन्य-प्रकृति दोनों गतिशील/क्रियाशील हैं - लेकिन दोनों की मौलिकताएं अलग-अलग हैं। चैतन्य-प्रकृति में परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों हैं, जबकि जड़ प्रकृति में केवल परावर्तन है। परावर्तन का मतलब है - व्यक्त होना। प्रत्यावर्तन का मतलब है - समझना, मूल्याङ्कन करना।

कम्पनात्मक गति की अधिकता से, गठन-पूर्ण होने से, भार-बंधन और अणु-बंधन से मुक्ति से चैतन्य पद प्रतिष्ठा है। जड़ से चैतन्य में संक्रमण स्वयं-स्फूर्त होता है। चैतन्य इकाई को कोई 'बनाता' नहीं है। यह आदर्शवाद से भिन्न बात है - जिसमें कहा है, कोई पैदा करने वाला है, कोई मारने वाला है, कोई रक्षा करने वाला है। उसके गुण-गायन करने में ही आदर्शवाद के सारे पुराण-पंचांग हैं।

जीवन शक्तियां अक्षय हैं। यह एक बहुत मौलिक बात है। अनुभव हो जाना वैसा ही है, जैसे किसी खजाने की चाबी मिल जाना! अनुभव होना एक 'उपलब्धि' है - अनुभव होने के बाद कोई ऐसी बात नहीं बची जो मुझे समझ में न आयी हो। अनुभव में सारी समझ समाया रहता है, फिर उसको केवल उपयोग करने की बात रहती है। हर व्यक्ति को ऐसा ही होना है।

अध्ययन-विधि में स्वयं की उपयोगिता सिद्ध करने के अर्थ में समझने के लिए जिज्ञासा बनती है। अनुसंधान विधि में अज्ञात को ज्ञात करने के अर्थ में जिज्ञासा बनती है। 'सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है" - इस जिज्ञासा को लेकर मैंने अनुसंधान किया।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Friday, September 24, 2010

अनुभव की आवश्यकता

प्रमाणित करने के लिए अनुभव आवश्यक है। भाषा से समृद्ध रहना पर्याप्त नहीं है। प्रमाणों से समृद्ध रहना आवश्यक है। श्रवण में तर्क-संगति है। समझ में आने पर प्रयोजन स्वीकार हुआ। फिर उसके आगे अनुभव है। अनुभव भाषा से बहुत ज्यादा है। अनुभव का प्रमाण प्रस्तुत करने जाते हैं, तो वह विपुल हो जाता है। कोई उसका अंत ही नहीं है। अनुभव में अस्तित्व स्पष्ट होता है, उसको प्रमाणित करने के क्रम में उसका विस्तार होता है।

पूरी बात अनुभव से पहले स्पष्ट नहीं होता, किसी व्यक्ति को नहीं होगा। अनुभव के लिए क्या समझना आवश्यक है, उसके लिए अनुभव किया हुआ व्यक्ति ही मार्ग-दर्शन करेगा। जो अध्ययन कर रहा है, वह अपने-आप से पता कर ले, कि अनुभव के लिए क्या समझना आवश्यक है - क्या आवश्यक नहीं है, ऐसा नहीं होता।

अनुभव के पहले कुछ भाग को हम 'मान' कर शुरू करते हैं। 'माने हुए को जानना' और 'जाने हुए को मानना' - इन दोनों के साथ हम पूरा पड़ते हैं। "सह-अस्तित्व है" - इसको हम पहले 'मानते' हैं। फिर सह-अस्तित्व क्यों है? और सह-अस्तित्व कैसा है? - उसको फिर समझना है। समझने के बाद उसको प्रमाणित करना है। समझने और प्रमाणित करने के बीच अनुभव होता ही है। अनुभव को व्यव्हार में प्रमाणित करने पर समाधान मिलता ही है। समाधान प्रमाणित होने में ही है। केवल स्वयं में समझ लेने मात्र से समाधान नहीं है। प्रमाणित करने की प्रवृत्ति स्वयं-स्फूर्त होती है। अनुभव होने के बाद उसको प्रमाणित किये बिना रहा ही नहीं जा सकता।

इस सारी प्रक्रिया में 'स्वयं-स्फूर्त' के विरुद्ध जो कदम है - वह है, "मानना"। अभी तक जो पहले मान कर, समझ कर हम चले हैं, 'सह-अस्तित्व को मानना' उससे भिन्न है - इसलिए उसमें श्रम लगता है। अध्ययन के लिए पहला चरण 'मानना' ही है। फिर थोडा सुनने के बाद, उसका महत्त्व थोडा समझ आने के बाद उसमें रूचि बनता है। रूचि बनने के बाद उसको स्वत्व बनाने के लिए हम स्वयम को लगाते हैं। स्वयं को लगाते हैं तो तदाकार होते हैं। तदाकार होने पर हम समझ जाते हैं। तद्रूप होने पर हम प्रमाणित होते हैं। तदाकार होते तक पुरुषार्थ है। उसके बाद परमार्थ है, जो स्वयं-स्फूर्त होता है।

आदर्शवाद ने कहा - "बिरले व्यक्ति को, हज़ारों-लाखों में किसी एक व्यक्ति को अनुभव होगा।" जबकि यहाँ शुरुआत ही ऐसे किये हैं - "हर व्यक्ति को अनुभव होगा।" इस तरह पासा ही पलट गया।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित। (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

सत्ता का स्वरूप

सत्ता का स्वरूप है: - पहला, सर्वत्र विद्यमानता या व्यापकता। दूसरा, पारदर्शीयता - हर परस्परता के बीच में, हर जर्रे-जर्रे के बीच में। तीसरे, पारगामियता।

प्रत्येक इकाई में, से, के लिए मध्यस्थ-सत्ता साम्य रूप से प्राप्त है। सत्ता जड़-प्रकृति को साम्य-ऊर्जा के रूप में प्राप्त है। सत्ता चैतन्य-प्रकृति को चेतना के रूप में प्राप्त है। यह सत्ता का वैभव है। सत्ता प्रकृति को नित्य प्राप्त है - इसलिए प्रकृति नित्य-वर्तमान है।

इकाई क्रियाशील है, इसलिए उसमें 'पूर्णता' की बात है। हर क्रियाशीलता 'सम्पूर्ण' है। प्रत्येक इकाई अपने वातावरण सहित 'सम्पूर्ण' है। सम्पूर्णता से पूर्णता तक विकास-क्रम है। पूर्णता है - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता। सम्पूर्णता के साथ ही पूर्णता का प्रमाण है।

हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता ही है। कितनी भी सूक्ष्म इकाई हो... कितनी भी स्थूल इकाई हो। एक समझने वाला, एक समझाने वाला - इनके मध्य में सत्ता रहता ही है। तभी समझ पाते हैं, तभी समझा पाते हैं। मध्य में सत्ता न हो, तो न समझ पायेंगे - न समझा पायेंगे। वैसे ही हर दो इकाइयों के बीच अवकाश रहता है, जिससे उनमें परस्पर पहचान होती है, निर्वाह होता है।

साधना के फल-स्वरूप मुझे समाधि हुआ। समाधि में गहरे पानी में डूब कर आँखे खोल कर देखने में मधुरिम प्रकाश जैसा दिखता है, वैसा मुझे दिखता रहा। समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप रही, यह आंकलित हो गया। इसमें 'ज्ञान' नहीं हुआ। फिर संयम में सत्ता में अनंत प्रकृति को भीगा हुआ देख लिया। समाधि में जो दिख रहा था, वह 'सत्ता' है - यह स्पष्ट हो गया। समाधि के बाद ही संयम होता है।

प्रकृति की वस्तु में अपने में कोई ताकत नहीं है। ताकत सत्ता है। यदि प्रकृति की इकाई स्वयं में ताकतवर होता, तो उसे सत्ता से अलग होना था! लेकिन सत्ता सब जगह है, सत्ता से इकाई बाहर जा ही नहीं सकती। प्रकृति की इकाई कहीं भी जाए, रहती सत्ता में ही है। इसलिए इकाई ऊर्जामय है। इकाई ऊर्जा-सम्पन्नता के आधार पर क्रियाशील है।

ऊर्जा की प्यास वस्तु को है। वस्तु को ऊर्जा की प्यास है। ऊर्जा वस्तु को छोड़ नहीं सकती। वस्तु ऊर्जा को छोड़ नहीं सकती। चैतन्य-प्रकृति चेतना के बिना नहीं रह सकती। जड़-प्रकृति ऊर्जा के बिना नहीं रह सकती। चेतना और ऊर्जा सत्ता ही है। सत्ता के प्रगटन के लिए प्रकृति है। प्रकृति की क्रियाशीलता के लिए सत्ता है। इसके आधार पर दोनों निरंतर अविभाज्य साथ-साथ हैं। जिसको हम "सह-अस्तित्व" नाम दे रहे हैं।

सत्ता में प्रकृति की वस्तु को मिटाने या बनाने की कोई "चाहत" नहीं है। चाहत निश्चित दायरे में होती है। सत्ता निश्चित दायरे में नहीं है। इसलिए उसमें चाहत नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Thursday, September 16, 2010

ज्ञान-वाही और क्रिया-वाही तंत्र

जैसे पेड़-पौधों में क्रिया होती है, वैसे ही शरीर में क्रियावाही तंत्र का कार्य-कलाप होता है। जीवन क्रिया-वाही तंत्र को जीवंत रख कर संरक्षित रखता है, तभी जीवन उसको चला पाता है। जब तक क्रियावाही तंत्र जीवंत कार्यकलाप करता है, तब तक ज्ञान-वाही तंत्र द्वारा जीवन उसको चला पाता है। क्रियावाही तंत्र का अपना कार्य-कलाप बंद कर देना ही 'मृत्यु' के रूप में पहचाना जाता है। जीवन सारे शरीर में, हर प्राण-कोशा तक जो भ्रमण करता है, उससे जीवंत बनाने का कार्य होता है। जीवंत बनाना = ज्ञान-वाही तंत्र द्वारा व्यक्त होने योग्य बनाना। जीवन शरीर को जीवंत बनाने के लिए कितना काम करता है, उसका मूल्याङ्कन होने की आवश्यकता है।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध - ये पांच ज्ञान-इन्द्रियां हैं। इन्द्रियों से मेधस, मेधस से जीवन तक संकेत प्रसारण और जीवन से मेधस, मेधस से कर्मेन्द्रियाँ तक संकेत प्रसारण - यह ज्ञान-वाही तंत्र के माध्यम से है।

जीवन शरीर के उपयोग से "देखता" है, और शरीर का उपयोग करके "करता" है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव है।

प्रश्न: समाधि-संयम की स्थिति में जीवन-शरीर की क्या स्थिति होती है?

उत्तर: समाधि-संयम की स्थिति में जीवन शरीर का उपयोग नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन अपने कार्य को स्वयं देखता है, और स्वयं करता है - शरीर का उपयोग नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन शरीर को जीवंत बनाने का कार्य नहीं करता। समाधि की स्थिति में जीवन मेधस से, शरीर से असंलग्न रहता है। समाधि-काल में जीवन शरीर संवेदनाओं को ग्रहण नहीं करता। जीवन शरीर के आस-पास ही रहता है। इस तरह समाधि की स्थिति में मेधस का कोई रोल नहीं है।

अध्ययन-विधि जीवंत शरीर के साथ है। अनुसन्धान पूर्वक समाधि-संयम करना हर किसी के वश का रोग नहीं है, इसीलिये अध्ययन-विधि प्रस्तावित है। अनुसंधान करने के लिए 'तीव्र जिज्ञासा' का होना आवश्यक है। 'तीव्र जिज्ञासा' होने के लिए प्रचलित परंपरा (चाहे भौतिकवादी या आदर्शवादी) पर पूरा चलने के बाद उसके किसी मुद्दे पर उत्तर न मिल पाने की घोर-पीड़ा होनी आवश्यक है। यदि प्रचलित परंपरा से चलते हुए कोई अटकाव, निराशा नहीं है - तो जिज्ञासा कहाँ हुई? बिना जिज्ञासा के अनुसंधान के लिए निष्ठा कैसे होगी?

यह प्रस्ताव भौतिकवाद और आदर्शवाद दोनों परम्पराओं से जुड़ता नहीं है। इसीलिये इस प्रस्ताव को 'विकल्प' कहा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Saturday, September 4, 2010

तदाकार-तद्रूप

अध्ययन पूर्वक हम हर वस्तु के साथ तदाकार-तद्रूप होते हैं। समझदारी के लिए तदाकार-तद्रूप होना है। प्रकृति की इकाइयों के साथ भी, और व्यापक के साथ भी तदाकार-तद्रूप होते हैं। आप हमारे बीच जो खाली स्थली है, वह अपने में एक रूप है - वही व्यापक-वस्तु है, इसके साथ तदाकार-तद्रूप होना है। सर्वत्र एक सा विद्यमान रहना ही व्यापकता का स्वरूप है।

तदाकार होना = 'वस्तु है' इसका विश्वास स्वयं में होना = साक्षात्कार = अध्ययन
तद्रूप होना = इस समझ के 'स्वत्व' हो जाने में विश्वास = अनुभव = जीने में प्रमाण

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

अनुभव की बात

जड़-वस्तुओं को व्यापक-वस्तु ऊर्जा के रूप में प्राप्त है - जिससे वे क्रियाशील हैं। चैतन्य वस्तुओं को व्यापक वस्तु चेतना के रूप में प्राप्त है। चेतना ही ज्ञान है। चेतना-विधि से ही जीवन कार्य करता है। उसी प्रकार ऊर्जा-विधि से जड़-प्रकृति कार्य करता है, जिससे कार्य-ऊर्जा तैयार होता है।

मूल-ऊर्जा (व्यापक) साम्य रूप में सभी वस्तुओं के साथ बना हुआ है, यही अनुभव में आता है। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं को व्यापक-वस्तु में भीगे होने से ऊर्जा प्राप्त है - यह अनुभव होना है। अनुभव के बिना यह आता नहीं है।

मानव में कल्पनाशीलता है, उसी की बदौलत तदाकार-तद्रूप विधि से प्रमाण होता है। कल्पना में प्रमाण होता नहीं है। अनुभव में प्रमाण होता है।

अनुमान गलत होगा तो फल-परिणाम भी गलत होगा। अनुमान सही है या नहीं है - इसका निर्णय फल-परिणाम के आधार पर ही है। फल-परिणाम है - 'अखंड-समाज सार्वभौम-व्यवस्था' होना। सह-अस्तित्व का मतलब ही है - मानव द्वारा 'अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था' प्रमाणित होना, और जड़-प्रकृति में नियम-नियंत्रण-संतुलन प्रमाणित रहना। इन दोनों का दायित्व मानव पर ही है - क्योंकि मानव ज्ञान-अवस्था की इकाई है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

संक्रमण

पहला संक्रमण है - गठन-पूर्णता। जिससे चेतना को व्यक्त करने के लिए प्रकृति तैयार हो गया।

दूसरा संक्रमण है - मानव चेतना में संक्रमण। मानव-चेतना में संक्रमण के बाद स्वयं से गलती-अपराध होना समाप्त हो गया।

मानव-चेतना में उपकार की शुरुआत हुआ, देव-चेतना में उपकार और अधिक हो गया। दिव्य-चेतना में पूर्ण-उपकार हो गया, जो तीसरा संक्रमण है।

मानव-चेतना के लिए संक्रमण ही दुष्कर है। मानव-चेतना में संक्रमण होने के बाद कोई परेशानी नहीं है - फिर तो परंपरा है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

व्यापक-वस्तु का प्रतिरूप

सत्ता अमूर्त है। ज्ञान अमूर्त है। अस्तित्व में अमूर्त वस्तु एक ही है। ज्ञान व्यापक-वस्तु का प्रतिरूप है। व्यापक वस्तु ही ज्ञान स्वरूप में मानव को प्राप्त है। प्रबुद्धता पूर्वक अमूर्त-वस्तु (ज्ञान) के आधार पर मनुष्य का जीना बन जाता है। प्रबुद्धता = अनुभव मूलक अभिव्यक्ति। व्यक्ति प्रमाणित होने के अर्थ में प्रबुद्धता है। अभी भ्रमित-स्थिति में मनुष्य क्रिया के आधार पर जीता है, या भाषा के आधार पर जीता है, या कल्पना के आधार पर जीता है।

प्रश्न: "ज्ञान व्यापक-वस्तु का प्रतिरूप है" - इससे क्या आशय है?

उत्तर: सह-अस्तित्व सहज प्रगटन-क्रम में व्यापक-वस्तु ज्ञान स्वरूप में मनुष्य द्वारा प्रगट होता है। ज्ञान व्यापक का ही स्वरूप है। प्रतिरूप इसे ही कहा है।

व्यापक-वस्तु चेतना के रूप में चैतन्य-वस्तु को प्राप्त है। चेतना ही ज्ञान है। मानव में ज्ञान स्वरूप में व्यापक-वस्तु दिखता है। तात्विक रूप में व्यापक, चेतना, ज्ञान, साम्य-ऊर्जा - एक ही वस्तु है। अमूर्त-वस्तु एक ही है - जो जड़-प्रकृति को ऊर्जा रूप में प्राप्त है और चैतन्य प्रकृति (जीवन) को चेतना और ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है।

व्यापक वस्तु (ज्ञान) मानव द्वारा व्यवहार में प्रकाशित होता है। प्रकाशित होने का स्वरूप है - न्याय, धर्म, सत्य। व्यापक-वस्तु ही मनुष्य द्बारा मूल्यों के रूप में प्रमाणित होता है। मूल्यों का अर्थ अमूर्त ही होता है। सभी मूल्य ज्ञान का ही प्रकाशन हैं। मूल्यों का प्रकाशन क्रिया के साथ है, फल-परिणाम के साथ है।

अमूर्त-वस्तु (व्यापक) और मूर्त-वस्तु (प्रकृति) दोनों अस्तित्व में अविभाज्य स्वरूप में हैं, और अध्ययन-गम्य हैं। अमूर्त-वस्तु मूर्त-वस्तु के द्वारा ही प्रमाणित होगी। सह-अस्तित्व का मतलब यही है। अमूर्त और मूर्त का सह-अस्तित्व नित्य-वर्तमान है।

मूर्त-वस्तु के बिना अमूर्त-वस्तु का प्रगटन नहीं होता है। जैसे - मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन भी मूर्त है। शरीर भी मूर्त है। ज्ञान अमूर्त है। जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है। शरीर ऊर्जा का धारक-वाहक है। कार्य-ऊर्जा द्वारा जो काम होना है, वह शरीर द्वारा होता रहता है। अमूर्त-वस्तु (ज्ञान) का मूर्त-परम्परा (मानव = जीवन + शरीर) में प्रमाणित होना है। मानव ही इसका धारक-वाहक है। इस तरह मानव के प्रमाणित हुए बिना सह-अस्तित्व प्रमाणित होगा ही नहीं! बहुत अच्छे मन से इस बात को समझने की ज़रुरत है, अनुभव करने की ज़रुरत है, प्रमाणित करने की ज़रुरत है।

जागृत-मानव ही सह-अस्तित्व प्रमाण का धारक वाहक है। मानव का प्रगटन होते तक शरीर-रचना में परिवर्तन होता रहा। झाड से लेकर मानव-शरीर रचना तैयार होते तक प्राण-कोशों में निहित रचना विधि में परिवर्तन होता रहा। उसी प्रकार जीव-चेतना से मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना तक "चेतना-विकास" की व्यवस्था दे दिया। समाधान और अभय स्वरूप में सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है। समृद्धि शरीर के लिए हो जाता है। अभी तक परंपरा में समाधान-समृद्धि के योग को पहचाना नहीं गया था।

आप इस पूरी बात को समझने का अपने में पूरा धैर्य संजोइए, स्वयं पूरा पड़ने के बाद आज यह बात जिस स्तर तक पहुँची है, उससे अगले स्तर तक पहुंचाइये। आगे की पीढी आगे!

प्रश्न: आपसे हमे इस पूरी बात की सूचना मिली, अब इसको अध्ययन करके अनुभव करने की आवश्यकता है। क्या इस क्रम में ऐसा हो सकता है कि मुझे भ्रम हो जाए कि मुझे 'अनुभव' हो गया है, 'पूरा समझ' आ गया है - जबकि वास्तव में ऐसा न हुआ हो?

उत्तर: अनुभव होता है तो वह जीने में समाधान-समृद्धि पूर्वक प्रमाणित होता है। वही तो कसौटी है। सूचना देना समाधान देना नहीं है। समाधान जी कर ही प्रमाणित होता है। समाधान का वितरण करना शुरू करते हैं, तो सभी स्तरों पर समझा पाते हैं। आप मुझे देखिये - किसी भी बारे में समाधान प्रस्तुत करने में मुझ पर कोई दबाव नहीं पड़ता है। मैं अपने गुरु जी से पूछ के बताऊंगा, कोई किताब को पढ़ कर बताऊंगा - ऐसा कहने की कोई जरूरत मुझे नहीं है। समाधान की कसौटी में उतरे बिना एक भी व्यक्ति प्रमाणित नहीं होगा। "मैं प्रमाणित हूँ" - यह कहने के लिए जाँचिये, क्या आप समाधान-समृद्धि पूर्वक जीते हैं? शरीर की आवश्यकता के लिए समृद्धि, जीवन की आवश्यकता के लिए समाधान।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

अनुक्रम से अनुभव

प्रश्न: "अनुक्रम से अनुभव होता है" - इसको समझाइये।

उत्तर: पहले - शब्द; दूसरे -शब्द का अर्थ; तीसरे - शब्द के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु; चौथे - अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना; पांचवे - अनुभव होना। इस तरह अनुभव होता है। अनुभवगामी विधि में ये पांच हैं। अनुक्रम की वस्तु है - पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, फिर प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, फिर जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था का प्रगटन। अनुक्रम सहज अनुभव होता है। अनुक्रम पूर्वक अनुभव होता है। ज्ञान-अवस्था अनुभव-मूलक विधि से प्रमाणित होती है।

इस प्रस्ताव को और सुगम बनाने की युक्ति मेरे पास अभी तक आया नहीं है। आप लोग इसको अनुभव करो फिर सोचो, कैसे इसको और सुगम बनाया जा सकता है!

अध्ययन प्रक्रिया में अध्ययन करने वाले और अध्यापन करने वाले दोनों की भागीदारी है। अनुभव यदि एक व्यक्ति से दूसरे में अंतरित होना है तो - अध्यापन कराने वाले में प्रामाणिकता पूरा होना चाहिए, और अध्ययन करने वाले में जिज्ञासा पूरा होना चाहिए। दोनों हुए बिना अध्ययन-प्रक्रिया सफल नहीं होगा।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Thursday, August 5, 2010

जांचना

न्याय, धर्म, और सत्य का प्रयोजन आपको तर्क से समझ में आता है। यह अध्ययन विधि से पूरा हो जाता है। इसको 'पुरुषार्थ' नाम दिया। पुरुषार्थ तर्क के साथ है। उसके बाद साक्षात्कार, बोध, संकल्प, और अनुभव कोई पुरुषार्थ या तर्क नहीं है। वह जीवन की स्वयं-स्फूर्त प्यास से हो जाता है।

प्रश्न: जो आप हमको अस्तित्व के बारे में सूचना दिए हैं, उसको हम कैसे जांचे?

उत्तर: अनुभव के बाद ही जांचना होता है। अनुभव से पहले जांचना होता ही नहीं है। किसी से भी नहीं हुआ है, न किसी से होगा। न्याय, धर्म, सत्य की जीवन में स्वयं स्फूर्त प्यास है। इसके साथ जड़-प्रकृति में नियम, नियंत्रण, संतुलन है। इनको जांचना अनुभव के बाद ही होता है। अध्ययन पूर्वक साक्षात्कार, बोध किये बिना अनुभव होता नहीं है।

प्रश्न: जैसे आपने हमे सूचना दी - "सत्ता ही ज्ञान है"। इसको हम कैसे जांचें?

उत्तर: इसको पहले "मानना" होता है। फिर "स्वीकारना" होता है। फिर "अनुभव" करना होता है। स्वीकारने के फलस्वरूप में अनुभव होता है। अनुभव के फलस्वरूप "जांचना" होता है।

प्रश्न: "स्वीकारने" का क्या अर्थ है?

उत्तर: स्वीकारने का मतलब है - यह ठीक बात है, यह मुझको चाहिए! चाहत के अर्थ में ही स्वीकृत होता है। न्याय हमको चाहिए - इसीलिये न्याय स्वीकार होता है। समाधान (सुख) हमको चाहिए - इसीलिये समाधान (सुख) हमको स्वीकार होता है। सुख नहीं चाहिए, न्याय नहीं चाहिए - ऐसा कहना मनुष्य से संभव ही नहीं है।

प्रश्न: भ्रमित स्थिति में "चाहत" तो मनोरंजन-व्यसन आदि की भी रहती है। यहाँ तक उसको "आवश्यकता" भी माना जाता है...

उत्तर: उसके मूल में भी चाहना सुख की ही है। मनोरंजन-व्यसन आदि से सुख की मूल-चाहना निरंतर पूरी होती हो - तो वही किया जाए! पर उस तरह सुख की चाहना पूरी नहीं होती। यह निर्णय तर्क से आ जाता है।

सारा मनोरंजन-व्यसन आदि सुख की अपेक्षा में ही है। इन कृत्यों में सुख भासता है, पर सुख मिलता नहीं है। सुख जैसा लगता है, पर सुख होता नहीं है।

प्रश्न: तो अपनी मूल-चाहत को पहचानना, उस मूल-चाहत के अर्थ में इस प्रस्ताव को स्वीकारना, फिर उसको अनुभव करना, फिर उसको जांचना। अनुभव करने के लिए क्या किया जाए?

उत्तर: शब्द से सूचना होती है। अर्थ समझ में आता है। अर्थ में तदाकार होना समझने के लिए निष्ठा है। उसके बाद अनुभव होता ही है। अनुभव हर जीवन की प्यास है - इसीलिये अनुभव होता है। अनुभव से प्रमाण होता है। अनुभव होने के बाद, जीने के बाद, प्रमाणित होने के बाद - जांचने की बारी आती है। अनुभव के पहले जांचना न आज तक किसी से हुआ, न आगे किसी से होगा।

आपको इस बात की "आवश्यकता" है या नहीं - पहले इसका निर्णय कीजिये। यदि आवश्यकता स्वीकार होती है, तो इस आवश्यकता को अनुभव से पूरा करो! तर्क-विधि से इसकी आवश्यकता है या नहीं - यह निष्कर्ष आप निकाल सकते हैं। चर्चा का उद्देश्य केवल आवश्यकता का निष्कर्ष निकालना ही है। उसके बाद पारंगत होने के लिए अध्ययन है। अध्ययन के फलस्वरूप अनुभव है। उसके बाद जाँचिये - यह पूरा पड़ता है या नहीं? फिर जाँचिये - संसार के लिए यह पूरा पड़ता है या नहीं? मैंने भी वैसे ही किया। अनुभव होने के बाद मैंने जांचा और पाया - यह मेरे लिए पूरा पड़ता है। फिर मैंने जांचा और पाया - यह संसार के लिए पूरा पड़ता है। जो भी लोग जीवन-विद्या का प्रबोधन करते हैं, वे मानते हैं - संसार को इसकी आवश्यकता है।

तर्क-विधि से "यह ठीक बात है" - ऐसा लगता है। "मैं प्रमाणित हूँ" - ऐसा नहीं लगता है। क्योंकि प्रमाणित होने का ज्ञान नहीं हुआ रहता है। "मैं प्रमाणित हूँ" - इस स्थिति तक पहुँचने के लिए अनुभव है। पहले - "यह बात ठीक लगती है", फिर दूसरे - "यह बात ठीक है", फिर तीसरे - "यह ठीक हो गया"। दूसरे स्थिति तक तर्क है। तर्क प्रमाण नहीं होता। तर्क-विधि से "अच्छा लगने" की स्थिति बन सकती है, "अच्छा होने" की स्थिति नहीं बनती। अनुभव पूर्वक "अच्छा होने" की स्थिति बनती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Tuesday, August 3, 2010

ज्ञान और प्रक्रिया

मनुष्य को जो समझ में आता है - वही ज्ञान है। ज्ञान के चार स्तर हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। ज्ञान जीवन-संतुष्टि की वस्तु है। चार विषयों का ज्ञान और पांच संवेदनाओं का ज्ञान शरीर से सम्बंधित है, प्रक्रिया से सम्बंधित है। ज्ञान रूप में हम संतुष्ट होते हैं, प्रक्रिया पूर्वक उसको हम प्रमाणित करते हैं।

मनुष्य ने सर्व-प्रथम चार विषयों के ज्ञान से शुरू किया, फिर पांच संवेदनाओं के ज्ञान को अपनाया। आज तक उसी में जूझ रहा है। चार विषयों और पांच संवेदनाओं का ज्ञान जीव-चेतना के स्तर का है। जीव-चेतना का यह ज्ञान मानव के लिए भ्रमात्मक है। प्रमाणात्मक ज्ञान मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना में होता है।

ज्ञान का स्त्रोत सत्ता है। ज्ञान सत्ता स्वरूप में है। ज्ञान अमूर्त या अरूपात्मक है। अस्तित्व में अमूर्त वस्तु केवल सत्ता ही है। मानव में ज्ञान अमूर्त स्वरूप में है। इसको हर व्यक्ति अनुभव कर सकता है।

यह तर्क जो मैंने प्रस्तुत किया, वह "अमूर्त ज्ञान" के लिए आप में ध्यानाकर्षण करने के लिए किया, आशा पैदा करने के लिए किया। आप में सुख की आशा है ही।

तर्क ज्ञान नहीं है। प्रक्रिया तर्क-संगत है। ज्ञान को कैसे पाया जाए, क्यों पाया जाए - इसके लिए तर्क हो सकता है। मनुष्य व्यवहार में न्याय की अपेक्षा रखता है। विचार में समाधान की अपेक्षा रखता है। जीने में व्यवस्था की अपेक्षा रखता है। इस सब अपेक्षा को ज्ञान से ही पूरा किया जा सकता है।

मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। ज्ञान जीवन तृप्ति के लिए है। प्रक्रिया शरीर के साथ है। जीवन मूल्य और मानव-लक्ष्य साथ-साथ पूरे होते हैं। समाधान ही ज्ञान और प्रक्रिया को जोड़ता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जुलाई २०१०, अमरकंटक)

Monday, July 12, 2010

मानव की परिभाषा

मानव की परिभाषा है - मनाकार को साकार करने वाला, और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला।

प्रश्न: "मनाकार को साकार करने" से क्या आशय है? क्या साकार करने में विचार और चित्रण शामिल नहीं हैं?
उत्तर: कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर मनाकार होता है। जिस डिजाईन को साकार करना है, उसको मन स्वीकार लेता है। आशा, विचार, इच्छा तीनो क्रियाओं के आधार पर डिजाईन तैयार होता है, उसको मन स्वीकार लेता है। फिर उसको सफल बनाने के लिए शरीर द्वारा प्रयत्न होता है। मन जब स्वीकार लेता है तब उसको करने में प्रवृत्त होता है। मन ही शरीर द्वारा क्रियान्वित करता है, इसलिए उसको "मनाकार को साकार करना" कहा है।

प्रश्न: "मनः स्वस्थता" से क्या आशय है? क्या पूरे जीवन का स्वस्थ होना आवश्यक नहीं है?

उत्तर: मनः-स्वस्थता = सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित करना। पूरे जीवन में संगीत होने पर ही मनः स्वस्थता होती है। दूसरा कोई विधि नहीं है। आत्मा में अनुभव से ले कर मन तक सामरस्यता होने पर ही मनः स्वस्थता है। मनुष्य-परंपरा में प्रमाणित करना मन के द्वारा ही होता है, इसलिए इस स्थिति को मनः-स्वस्थता कहा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित

अध्ययन के लिए उत्साह

मैंने जब अध्ययन किया तो मेरे पास अस्तित्व को पढने के लिए पहले से सूचना उपलब्ध नहीं था। जो मैंने समझा उसकी सूचना आपके अध्ययन के लिए मैंने प्रस्तुत किया है। मैंने बिना सूचना के ही जो अध्ययन कर लिया, उसको सूचना के साथ अध्ययन करके अनुभव करने में आपको क्या तकलीफ है?

प्रश्न: हम अभी अध्ययन-क्रम में हैं। जितना समझे हैं, उसको अनुकरण-अनुसरण पूर्वक जीने का प्रयास भी कर रहे हैं। फिर भी उत्साह कभी कभी ऊपर-नीचे होता रहता है। उत्साह को कैसे बनाए रखें?

उत्तर: अनुभव के लिए उत्साह को बनाए रखिये - सूचना के आधार पर। आगे चलकर इसको अनुभव करेंगे... इस तरह। सौ हथौड़े की चोटों के बाद एक विशाल पत्थर टूटता है। ९९ चोटें रही, तभी १००वी चोट पर पत्थर टूटता है। जितनी सीमा तक समझ को जी पाते हैं, उससे खुशी भी मिलती है - जिससे आगे के लिए उत्साह बना रहता है। प्रमाण अनुभव के बाद ही है।

विरक्ति विधि से मैंने साधना किया था। साधना-काल में हम हर समय खुश-हाली ही मनाते रहे। कभी अभावग्रस्त या पीड़ा-ग्रस्त नहीं हुए। जबकि साधना में हम सूखते ही रहे! आपके लिए अध्ययन का मार्ग कोई विरक्ति-विधि नहीं है। इसीलिये मैं मानता हूँ, सर्व-मानव के लिए सुलभ अध्ययन-विधि ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)


Saturday, July 10, 2010

सर्व-शुभ का राज-मार्ग

प्रश्न: अस्तित्व का डिजाईन इतना दुरूह क्यों है? देखते ही समझ क्यों नहीं आ जाता?

उत्तर: देखने का मतलब है - समझना। नहीं समझा तो देखा भी नहीं है। अस्तित्व मनुष्य के लिए इन्द्रियगोचर और ज्ञान-गोचर है। इन्द्रिय-गोचर भाग भौतिक-रासायनिक संसार है। जीवन क्रियाकलाप ज्ञान-गोचर है। समाधान आँखों से नहीं दिखता, पर समाधान होता है। ज्ञान-गोचर भाग स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि मनुष्य-परंपरा में जागृति प्रावधानित नहीं है। मनुष्य-परंपरा भ्रमित है, इसीलिये मनुष्य के लिए ज्ञान-गोचर भाग सुगम नहीं है। मनुष्य-परंपरा जीवन-बोध कराने योग्य नहीं रहा है, सह-अस्तित्व बोध कराने योग्य नहीं रहा है। और इन दोनों का बोध न होने के कारण मानवीयता-पूर्ण आचरण को बोध कराने योग्य नहीं रहा है। अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूपी है। उसको समझना दुरूह नहीं है।

प्रश्न: मनुष्य जाति ने अपने इतिहास में इतना पसीना तो बहाया है, अस्तित्व को समझने के लिए। यदि अस्तित्व का डिजाईन सरल है, तो लोगों को जल्दी से, और सीधे-सीधे समझ आ जाना चाहिए था?

उत्तर: लोगों ने पसीना बहाया है, यह बात सही है। लेकिन अपनी condition के आधार पर पसीना बहाया है। उसी से वे असफल हुए। condition को छोड़ कर किसी ने पसीना नहीं बहाया। सारी असफलता वहीं से है।

प्रश्न: condition से आपका क्या आशय है?

उत्तर: condition का मतलब है - अपना अपना लक्ष्य। जिसने जिस बात को अपना लक्ष्य मान लिया, उसके लिए पसीना बहाया। "सार्वभौम लक्ष्य" के लिए पसीना नहीं बहाया। मनुष्य के "सार्वभौम लक्ष्य" के बारे में मध्यस्थ-दर्शन को छोड़ कर कहीं क्या आप पढ़े हो? सर्व-मानव का लक्ष्य एक होने के बारे में क्या कोई सोचा भी है? ऐसा "चाहने" की बात आपको मिल जायेगी, पर ऐसी "विचार-धारा" नहीं मिलेगी। जीने में प्रमाणित करने की बात आपको नहीं मिलेगी। उपनिषदों में "शुभ" चाहा गया है, साथ ही में उसी में लिखा है - "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या"। जब जगत मिथ्या है, तो किसका शुभ?

प्रश्न: क्या आपके अनुसंधान में कोई condition नहीं था?

उत्तर: "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - इस जिज्ञासा का उत्तर पाने के लिए मैं तुल गया। उसको आप condition नाम दो, या non-condition नाम दो। इस जिज्ञासा का कोई वेदज्ञ, कोई महात्मा, कोई ऋषि उत्तर नहीं दे पाया। तब मैंने अनुसन्धान किया, जिसमें मैं सफल हो गया। इस अनुसन्धान के सफल होने में किसका "दोष" माना जाए?

सफल होने का प्रभाव ही है कि लोगों को स्वीकार होता है - यह "ठीक बात" है। प्रभावित होने के बाद प्रमाणित होने के प्रयासों में कुछ लोग लगे हैं, कुछ लोग नहीं लगे हैं। जो नहीं लगे हैं, वे आगे चल कर लगेंगे। जो लोग लगे हैं, उनमें से कुछ पहले सफल होंगे, कुछ बाद में सफल होंगे। लगने वालों की संख्या बढ़ता जा रहा है। सफल होने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। ऐसा मैं मान कर चल रहा हूँ। क्या इसमें कुछ गलत है?

मानव जाति के पास सार्वभौमता का कोई मार्ग नहीं था, वह बन गया है। मानव जाति चाहेगा तो उसका उपयोग करेगा, नहीं चाहेगा तो नहीं करेगा। हमारा किसी से कोई आग्रह नहीं है - आप यही करो! यह निर्देश अवश्य है - "यह राज-मार्ग है। सबके शुभ के लिए मार्ग यही है।" इतना तक घोषणा करेंगे, बाकी स्वेच्छा पर है।

प्रभाव प्रभावित करने से नहीं, प्रभाव को स्वीकार करने से है। मेरे ही परिवार में इतने पीढ़ियों से हर पीढी में सन्यासी होते रहे, पर उनको "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" परेशान नहीं किया - पर मुझे किया। ऐसा क्यों? मैंने स्वीकार किया, इसलिए इसको लेकर मैं प्रभावित हुआ। परेशान नहीं होता, तो अनुसंधान क्यों करता। अनुसंधान करने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुआ, किसी भी बात से मैं घबराया नहीं। उसका श्रेय मैं अपने परिवार को देता हूँ। हम ढाई वर्ष तक पत्ते खा कर जिए, पर हमको लगा नहीं कुछ "कमी" है, क्योंकि विश्वास था - यदि जरूरत हुआ तो पुनः कुछ कर लेंगे। पूरा समझते आते तक मुझे परेशानी हुआ नहीं, अभाव हुआ नहीं, कुंठा हुआ नहीं, भय हुआ नहीं, न मैं प्रताड़ित हुआ। इसको परंपरा का देन कहा जाए, मानव का पुण्य कहा जाए, मेरा परिश्रम कहा जाए, मेरा अज्ञान कहा जाए - क्या कहा जाए?

इससे जो राज-मार्ग निकला है, वह सर्व-मानव के लिए उपयोगी है। अब इसमें कोई शंका नहीं है। सर्व-मानव तक इसको पहुंचाने की विधि पर हम तुले हैं। कुछ अभी कर रहे हैं, कुछ आगे करेंगे। आगे की पीढी और अच्छा करेगी।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Tuesday, July 6, 2010

मध्यस्थ क्रिया

जड़-चैतन्य प्रकृति में पूर्णता की प्रेरणा मध्यस्थ-क्रिया के रूप में है। जड़-प्रकृति में भी मध्यस्थ-क्रिया है, चैतन्य-प्रकृति में भी मध्यस्थ-क्रिया है। जड़ प्रकृति में मध्यस्थ-क्रिया (मध्यांश) आश्रित अंशों को संतुलित रखता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) में मध्यस्थ-क्रिया है - इसलिए स्वतंत्रता की सम्भावना है। ज्ञान पूर्वक, अर्थात सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक, मनुष्य विषयों को, संवेदनाओं को, ईश्नाओं को नियंत्रित रखता है।

प्रश्न: जड़-चैतन्य प्रकृति में पूर्णता की प्रेरणा कैसे है?

उत्तर: पूर्णता की प्रेरणा व्यापक से ही है। मध्यस्थ-सत्ता में वस्तुओं को मध्यस्थ-क्रिया के लिए प्रेरणा मिलती है। प्रेरक वस्तु सत्ता है। जड़-चैतन्य वस्तु प्रेरणा पाता है। परमाणु व्यापक वस्तु की प्रेरणा से मध्यस्थ-क्रिया करता है। वैसे ही रसायन-संसार, वनस्पति-संसार, और जीव-संसार भी मध्यस्थ-क्रिया करता है। व्यापक-वस्तु के अनुसार प्रेरणा देने वाला जागृत-मानव ही है, दूसरा कुछ भी नहीं है।

प्रश्न: अनुभव के पहले जीवन में मध्यस्थ-क्रिया का क्या रोल है?

उत्तर: अनुभव के पहले जीवन में मध्यस्थ-क्रिया ज्ञानार्जन या अध्ययन के लिए प्रेरित करता है। ज्ञानार्जन या अध्ययन के लिए कल्पनाशीलता का प्रयोग आवश्यक है।

प्रश्न: जीवन-क्रिया में ज्ञान कैसे व्यक्त हो जाता है? जड़ क्रिया में ज्ञान व्यक्त क्यों नहीं होता है?

उत्तर: चैतन्य-परमाणु में घूर्णन और वर्तुलात्मक गति के योगफल में कम्पनात्मक गति मिलती है। जड़ परमाणु में घूर्णन और वर्तुलात्मक गति के योगफल जितनी कम्पनात्मक गति नहीं मिलती है। इसलिए जड़-प्रकृति में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन होता है। जैसे - भौतिक-संसार का रसायन-संसार में परिवर्तित होना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन है। चैतन्य-प्रकृति में केवल गुणात्मक परिवर्तन होता है।

जड-प्रकृति में जितनी कम्पनात्मक-गति है, उससे अधिक कम्पनात्मक-गति जीवन में है। जीवन में इतनी कम्पनात्मक-गति है कि वह ज्ञान-स्वरूप में व्यक्त होने योग्य है। जीवन-क्रिया में ज्ञान व्यक्त होना ही संचेतना है। जड़-क्रियाकलाप यांत्रिकता है। जीवन शरीर से जो क्रियाकलाप कराता है - वह यांत्रिकता है। जीवन में जड़-शरीर को संचालन करने के रूप में यांत्रिकता है। जीवन में ज्ञान संचेतना स्वरूप में व्यक्त होता है - दृष्टा-पद में। संचेतना यांत्रिकता का दृष्टा है। दृष्टा-पद द्वारा जीने में फल-परिणाम निकालने के लिए यांत्रिकता है। जीवन में संचेतना और यांत्रिकता अविभाज्य हैं। संचेतना की संतुष्टि के लिए यांत्रिकता है।

प्रश्न: जीवन में कम्पनात्मक, वर्तुलात्मक, और घूर्णन गति साथ-साथ हैं - फिर आप यह कैसे कहते हैं कि कम्पनात्मक-गति ही संचेतना का कारण है?

उत्तर: यही तो अनुभव है। अनुभव पूर्वक ही ऐसा कहा जा सकता है। केवल तर्क से ऐसा नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न: आदर्शवाद में भी तो "अनुभव" की बात की गयी है...

उत्तर: आदर्शवाद में कहा है - "रहस्य को अनुभव करो।" आदर्शवाद रहस्य से शुरू होता है, और रहस्य में ही अंत होता है। आदर्शवाद में कहा है - "अनुभव को बताया नहीं जा सकता। सत्य अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है।" यहाँ कह रहे हैं - वस्तु को अनुभव करो। सह-अस्तित्व में अनुभव करो। सह-अस्तित्व रहस्य नहीं है। सह-अस्तित्व हम सभी के सामने व्यक्त है, प्रत्यक्ष रूप में है। इस मार्ग में पहले सह-अस्तित्व स्पष्ट होता है, फिर उसके बाद अनुभव होता है। अनुभव को बताया जा सकता है।

प्रश्न: सत्यता (सह-अस्तित्व) को समझने का मनुष्य के जीने (यथार्थता) से क्या सम्बन्ध है?

उत्तर: सत्यता समझ आने के बाद, अर्थात अनुभव होने के बाद, यथार्थता का अनुमान होता ही है। सत्ता में सम्पृक्तता समझ आने के बाद उसका प्रगटन कैसे किया जाए, अर्थात उसको जिया कैसे जाए - स्वाभाविक रूप में समझ आता है। यह अनुमान कल्पनाशीलता पूर्वक ही होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Monday, July 5, 2010

स्व-निरीक्षण

स्व-निरीक्षण विधि से ही हम निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, दूसरे किसी विधि से नहीं। कितना भी प्रयत्न करो, दूसरे विधि से निकलेगा नहीं! स्व-निरीक्षण की ओर ध्यान नहीं जाना ही भूल है। चार विषय, और पांच संवेदनाएं शरीर-सापेक्ष हैं। जीवन के लिए शरीर "पर" (पराया) है। शरीर-मूलक सोच पर-सापेक्ष है, स्व-सापेक्ष नहीं है। स्व-निरीक्षण से पता चलता है - ज्ञान जीवन का है। ज्ञान के किसी न किसी स्तर को प्रमाणित करता हुआ ही मनुष्य मिलेगा। ज्ञान न हो, ऐसा कोई जीवित आदमी आपको मिलेगा नहीं। जीवन-ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। सह-अस्तित्व ज्ञान हुए बिना जीवन-ज्ञान होता नहीं है। अभी तक तो हुआ नहीं है! सारे लोगों ने बहुत सर कूट लिया, साधना कर लिया, यज्ञ कर लिया, तप कर लिया, योग कर लिया... मनुष्य ने क्या नहीं किया? पर उस सबसे जीवन-ज्ञान नहीं हुआ।

चारों अवस्थाओं के साथ सत्तामयता को संयुक्त रूप में अनुभव किये बिना जीवन-ज्ञान हो ही नहीं सकता। जीवन-ज्ञान होने से पहले मानव-चेतना का शुरुआत ही नहीं होगा।

स्व-निरीक्षण विधि से सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान तक पहुँचते हैं। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान होने के बाद स्व-स्वरूप ज्ञान होता है। स्व-स्वरूप ज्ञान ही जीवन-ज्ञान है। फल-स्वरूप ऊर्जा-सम्पन्नता का ज्ञान होता है। जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है, चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता है - यह ज्ञान होता है। यह दोनों स्पष्ट होता है, तो उसके अनुरूप जीने के लिए तत्परता होती है, तो मानवीयता पूर्ण आचरण की शुरुआत हो गयी। व्यवस्था में जीना शुरू हो गया।

स्व-निरीक्षण पूर्वक जीवन दृष्टा-पद प्रतिष्ठा को पाता है। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा में पहुँचते हैं तो स्व-निरीक्षण हुआ। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा में नहीं पहुंचे तो स्व-निरीक्षण नहीं हुआ। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा स्व-निरीक्षण का प्रमाण है। दृष्टा-पद प्रतिष्ठा पूर्वक सह-अस्तित्व समझ में आता है। चारों अवस्थाओं के साथ मानव का होना समझ में आता है। मानव का शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना समझ में आता है। शरीर का महत्त्व और जीवन का महत्त्व समझ में आता है। शरीर का महत्त्व मनुष्य-परंपरा के रूप में है। जीवन का महत्त्व शाश्वत रूप में है। इसी आधार पर प्रतिपादित किया है - "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत"।

प्रश्न: स्व-निरीक्षण की प्रक्रिया क्या होगी?

उत्तर: हम क्या कर रहे हैं? हम क्या सोच रहे हैं? - यही स्व-निरीक्षण है। यह बिलकुल सहज है। मैं क्या करता हूँ, और क्या सोचता हूँ - इसको मिलाओ। यदि "करने" और "सोचने" में मेल नहीं बैठता तो वह "होने" से जुड़ता नहीं है। कर्म करते समय कुछ और हो, फल भोगते समय और कुछ हो - तो तृप्ति कहाँ मिली? मानवीयता पूर्वक मनुष्य कर्म करते समय भी स्वतन्त्र है, और फल भोगते समय भी स्वतन्त्र है।

स्व-निरीक्षण लक्ष्य-सम्मत होना प्रधान बात है। किस लक्ष्य से स्व-निरीक्षण कर रहे हैं - यह मूल मुद्दा है। मानव-लक्ष्य (समाधान-समृद्धि) के अर्थ में स्व-निरीक्षण करते हैं तो पकड़ में आता है, नहीं तो पकड़ में नहीं आता। लक्ष्य को पकड़ लेने पर सारे फिसलने के रास्ते हट जाते हैं। जागृति के लिए राज-मार्ग शुरू हो जाता है। भ्रमित अवस्था में भी मनुष्य जिस सुविधा-संग्रह लक्ष्य को स्वीकारा रहता है, उसको वह सही माने या गलत - उसके सारे प्रयास उसी के लिए रहते हैं। उसी तरह समाधान-समृद्धि लक्ष्य को स्वीकारने पर सारे प्रयास उसी के लिए हो जाते हैं। इस बात को हम सभी शोध कर सकते हैं।

दर्शन में इस बात को स्पष्ट किया है, सूचना दिया है - जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतम है। मनुष्य में श्रेष्ठता के लिए अरमान है ही! इसीलिये मानव-चेतना सम्मत लक्ष्य (समाधान-समृद्धि) सबको स्वीकार होता है।

भौतिकवाद में स्व-निरीक्षण की बात नहीं है। स्व-निरीक्षण की परिकल्पना आदर्शवाद में की गयी है। "स्व-निरीक्षण होना चाहिए" - ऐसी आशा व्यक्त की गयी है। स्व-निरीक्षण किस लक्ष्य के लिए किया जाए - यह आदर्शवाद में स्पष्ट नहीं हुआ। मानव-लक्ष्य का ही वहां पता नहीं चला।

यहाँ मानव-लक्ष्य (समाधान - समृद्धि) के लिए स्व-निरीक्षण करने का संदेश है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा, प्रकाशन

ज्ञान

मानव में ऊर्जा-सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है। भ्रमित रहते तक ऊर्जा का प्रयोग मनुष्य चार विषयों और पांच संवेदनाओं के रूप में करता है। जागृत होने पर ऊर्जा का प्रयोग मनुष्य तीन ईश्नाओं और उपकार में करता है।

प्रश्न: चार विषयों के लिए क्या "ज्ञान" शब्द का प्रयोग उचित है?

उत्तर: ज्ञान के बिना प्रवृत्ति नहीं है। विषयों के ज्ञान से ही विषयों में प्रवृत्ति है। उसी तरह संवेदनाओं के ज्ञान से संवेदनाओं में प्रवृत्ति है। ईश्नाओं के ज्ञान से ईश्नाओं में प्रवृत्ति है। उपकार के ज्ञान से उपकार में प्रवृत्ति है। ज्ञान के चार स्तर हैं। जिस स्तर के ज्ञान को अपनाते हैं, उसी की व्याख्या अपने जीने में करने लगते हैं। विषयों में प्रवृत्ति और संवेदनाओं में प्रवृत्ति जीव-चेतना की सीमा है। ईश्नाओं में प्रवृत्ति और उपकार में प्रवृत्ति से मानव-चेतना की शुरुआत है।

पांच संवेदनाएं और चार विषय - यह जीव-चेतना की सीमा है। तीन ईश्नाओं पूर्वक जीने से मानव-चेतना की शुरुआत है। इसमें संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। जीव-चेतना में संवेदनाएं नियंत्रित नहीं रहती हैं। इतना ही अंतर है। मानव चेतना से उपकार की शुरुआत है।

मानव चेतना सहज ज्ञान को मध्यस्थ-दर्शन में प्रतिपादित किया गया है। जिससे सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत होना और प्रमाणित होना संभव है। जिससे ज्ञान सम्मत विवेक और विवेक सम्मत विज्ञान पूर्वक जीना होता है।

व्यापक वस्तु के प्रतिरूप का नाम है - "ज्ञान"। मानव में ऊर्जा-सम्पन्नता ज्ञान के रूप में है। व्यापक वस्तु ही मानव द्वारा "ज्ञान" के नाम से प्रकाशित होता है। व्यापक वस्तु को जो हम अभिव्यक्त कर सकते हैं, संप्रेषित कर सकते हैं, आचरण में ला सकते हैं - उसका नाम है "ज्ञान"। ज्ञान के चार स्तर बताये हैं - जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतर है। जिस स्तर पर आप जीना चाहें - जियें! हमारा कोई आग्रह नहीं है - आप ऐसे ही जियें।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

सम्पूर्णता और पूर्णता

पूर्ण में समाहित रहने के कारण प्रकृति में पूर्णता की तृषा है। सत्ता को पूर्ण कहा है। पूर्ण से आशय है - न घटना, न बढ़ना। पूर्ण में समाहित होने से प्रकृति में परिवर्तनहीन होने ( पूर्णता ) और व्यवस्था में होने (सम्पूर्णता) की प्रवृत्ति है। व्यवस्था (परंपरा के स्वरूप में रहना) भी निरंतरता के अर्थ में है।

सम्पूर्णता के लिए प्रवृत्ति जड़-प्रकृति में है। पूर्णता के लिए प्रवृत्ति जीवन (चैतन्य प्रकृति) में है।

पूर्णता का स्वरूप है - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता। पूर्णता का मतलब - "ज्यादा-कम से मुक्त"।

गठन-पूर्णता = निश्चित गठन = जो परमाणु-अंशों के घटने-बढ़ने या ज्यादा-कम होने से मुक्त है।
क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता में - समाधान न ज्यादा है, न कम है। समृद्धि न ज्यादा है, न कम है। अभय (विश्वास) न ज्यादा है, न कम है। सह-अस्तित्व (सत्य) न ज्यादा है, न कम है।

क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता जो शेष है - उसके लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है। हम सत्ता में भीगे हैं, उसके प्रति जागृत होना, उसका दृष्टा होना, उसको प्रमाणित करना अभी शेष है। जीवन ही है जो स्वयं को पहचानता है, और सर्वस्व को पहचानता है। अभी भ्रमित-स्थिति में जीवन स्वयं को शरीर स्वरूप में पहचाना हुआ है - जिसको "जीव-चेतना" कहा है। स्वयं को पहचानना, और सर्वस्व को पहचानना ही तो कुल मिला करके अध्ययन है, जिसके फलस्वरूप व्यवस्था को पहचानना और निर्वाह करना बनता है।

स्थिति-पूर्ण सत्ता में स्थिति-शील प्रकृति संपृक्त होने के कारण हरेक वस्तु स्वयं में व्यवस्था है, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करती है। मानव में भी यह होने के लिए अध्ययन है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

नियंत्रण

व्यापक में प्रकृति डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरा हुआ है। भीगा हुआ से ऊर्जा-सम्पन्नता है। डूबा हुआ से क्रियाशीलता है। घिरा हुआ से नियंत्रण है। भीगा हुआ के साथ डूबा हुआ और घिरा हुआ बना ही है।

प्रश्न: व्यापक से इकाई घिरे होने से वह नियंत्रित कैसे है?

उत्तर: घिरा होना ही नियंत्रण है। व्यापक से इकाई घिरा न हो तो उसका इकाइत्व कैसे पहचान में आएगा? नियंत्रण का मतलब है - निश्चित आचरण की निरंतरता।

प्रश्न: जड़ प्रकृति में नियंत्रण कैसे है?

उत्तर: हर जड़-इकाई व्यापक वस्तु से घिरी है, इसलिए नियंत्रित है। जड़ वस्तु में अनियंत्रित करने वाली कोई बात नहीं है।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में घिरा है, फिर वह नियंत्रित क्यों नहीं है?

उत्तर: मनुष्य नियंत्रण चाहता है। पर अपनी मनमानी के अनुसार नियंत्रण चाहता है, उसमें वह असफल हो गया है। पूरा मानव-जाति इसमें असफल हो गया है। असफल होने के बाद हम पुनर्विचार कर रहे हैं।

अनियंत्रित होने के लिए मनुष्य ने प्रयत्न किया, पर हो नहीं पाया। इसके आधार पर पता चलता है, नियंत्रित रहना जरूरी है। मनुष्य के लिए क्या नियंत्रित रहना जरूरी है? इसका शोध करने पर पता चलता है - संवेदनाएं नियंत्रित रहना जरूरी है। संवेदनाएं नियंत्रित कैसे रहेंगी? - इसका शोध करते हैं तो पता लगता है - समझ पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहेंगी। सत्ता में हम घिरे हैं - यह समझ में आने पर संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। सत्ता के बिना चेतना नहीं है। चेतना के बिना मानव-चेतना नहीं है। मानव-चेतना के बिना संवेदनाएं नियंत्रित नहीं हैं।

प्रश्न: मनुष्य भी तो व्यापक में सदा डूबा-भीगा-घिरा रहता है, फिर अध्ययन-पूर्वक अनुभव के बाद उसमें तात्विक रूप में ऐसा क्या हो जाता है कि वह निश्चित-आचरण को प्रमाणित करने लगता है?

उत्तर: अध्ययन पूर्वक अनुभव करने से जीवन की प्रवृत्ति बदल जाती है। मनुष्य में तात्विकता उसकी प्रवृत्ति भी है। प्रवृत्ति बदलती है तो आचरण परिवर्तित हो जाता है। कल्पनाशीलता प्रवृत्ति के रूप में है। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु ज्ञानशीलता या समझ है। ज्ञान-पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं। संवेदनाएं नियंत्रित होने पर मनुष्य द्वारा निश्चित आचरण पूर्वक समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Sunday, July 4, 2010

अपेक्षा, आवश्यकता, सम्भावना

अनुमान, अनुक्रम, अनुभव

अनुमान से अनुभव तक पहुँचते हैं। अनुभव होता है, तो अनुमान सही है। अनुभव नहीं होता, तो अनुमान सही नहीं है। अनुमान करने की ताकत कल्पनाशीलता के स्वरूप में हर व्यक्ति के पास है। उसके सहारे अनुभव तक पहुँच सकते हैं। जीने में जो प्रमाणित हो सके, वह अनुमान सही है। जीना प्रमाण ही होता है, अनुमान नहीं होता। जीने के अलावा और किसी चीज को प्रमाण कैसे माना जाए? "मैं प्रमाणित स्वरूप में जी रहा हूँ" - इस जगह आपको आना है।

अनुक्रम से अनुभव होता है। जो कुछ भी होना हुआ है, और जो कुछ भी होना है - वह अनुक्रम है। अनुक्रम का अर्थ है - एक से एक जुडी हुई श्रंखला विधि। इस विधि को पूरा समझने से अनुमान होता है। अनुमान होने के बाद अनुभव होता है। अनुभव होने के बाद प्रयोजन सिद्ध होता है, प्रमाण होता है। मानव के सुधरने के लिए, सुसज्जित होने के लिए यही विधि है।

अध्ययन में यदि मन लगता है तो अनुभव हो जाएगा।
अध्ययन में मन नहीं लगता है तो अनुभव नहीं होगा।

अनुभव के पहले प्रमाण नहीं है। अनुभव के पहले अनुकरण-अनुसरण विधि से "अच्छा लगने" की स्थिति में आ जाते हैं, "अच्छा होना" नहीं होता। केवल अनुसरण-अनुकरण पर्याप्त नहीं है। जीने में प्रमाणित होने पर ही "अच्छा होना" होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

कैसे सुने, कि समझ आये?

Saturday, June 26, 2010

मानव का होना और रहना

संवाद का सन्दर्भ

विकल्प की आवश्यकता

व्यापक की वास्तविकता

सभी इकाइयों के बीच में जो खाली-स्थली है - वह व्यापक-वस्तु है। दो धरतियों, दो मनुष्यों, दो परमाणुओं, दो परमाणु-अंशों - सभी के बीच जो खाली-स्थली है, वह व्यापक-वस्तु ही है। व्यापक-वस्तु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण सभी वस्तुओं में पारगामी है।

अस्तित्व में व्यापक-वस्तु हर जगह है। कुछ स्थानों पर पदार्थ (प्रकृति) है, कुछ स्थानों पर नहीं है। जहां पदार्थ है, वहां भी व्यापक-वस्तु है। जहां पदार्थ नहीं है, वहां भी व्यापक वस्तु है। इस प्रकार - व्यापक में ही सम्पूर्ण प्रकृति है। व्यापक-वस्तु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण सभी वस्तुओं में पारगामी है। पत्थर, लोहे सभी में व्यापक पारगामी है। पारगामियता के फल-स्वरूप ही प्रकृति की इकाइयां ऊर्जा-संपन्न हैं।

प्रश्न: क्या परमाणु-अंश के बीच में भी कोई रिक्त स्थान है, जहां व्यापक तो है - पर पदार्थ नहीं है?

उत्तर: नहीं। परमाणु-अंश के बीच कोई रिक्त-स्थान नहीं है। परमाणु-अंश जहां है, वहां पदार्थ भी है और व्यापक भी है।

क्रमशः

Friday, June 25, 2010

सह-अस्तित्व का प्रतिरूप

प्रकृति का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त है। प्रकृति को कोई पैदा करके "ऐसा करो! वैसा करो!" निर्देश करता हो - ऐसा नहीं है। मनुष्य भी जागृत होने पर स्वयं-स्फूर्त हो जाता है।

एक परमाणु-अंश से परस्परता में पहचान शुरू होती है। पहचान के आधार पर ही निर्वाह करना होता है। निर्वाह करना = आचरण करना। परमाणु से ही स्वयं-स्फूर्त निश्चित-आचरण की शुरुआत होती है। दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण करता है। बीस अंश का परमाणु एक दूसरा निश्चित आचरण करता है। गठन में जितने परमाणु हैं, उसके अनुसार परमाणु की प्रजातियाँ है। जितने प्रजाति के परमाणु हैं, उतनी तरह के आचरण हैं। एक प्रजाति के सभी परमाणु एक ही तरह का आचरण करते हैं।

प्रश्न: ऐसा होने का क्या कारण है? परमाणु का आचरण क्यों निश्चित है? आगे वनस्पतियों, और जीवों के आचरण निश्चित होने का क्या कारण है?

उत्तर: कारण है - व्यवस्था! दूसरे - सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए निरंतर प्रकटन-शील है।

सह-अस्तित्व समझ में आये बिना यह क्यों और कैसे होता है, समझ में आ नहीं सकता। कल्पनाशीलता के अलावा इसको समझने के लिए मनुष्य के पास और कोई औज़ार नहीं है।

प्रश्न: "सह-अस्तित्व का प्रतिरूप" से क्या आशय है?

उत्तर: पदार्थ-अवस्था में सह-अस्तित्व का प्रतिरूप प्रस्तुत होने की शुरुआत है। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व के प्रतिरूप की परिपूर्णता है।

सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए नित्य प्रकटन-शील है। पदार्थ-अवस्था मात्र से सह-अस्तित्व का सम्पूर्ण प्रतिरूप प्रगट नहीं होता। प्राण-अवस्था के शरीरों की रचना और जीवन का प्रकटन इसी क्रम में हुआ। जीवन का प्रकटन जागृत होने के लिए, और जागृति को प्रमाणित करने के लिए हुआ। सह-अस्तित्व का प्रकटन-क्रम पूर्णता की ओर प्रगति है। गठन-पूर्णता के बाद क्रिया-पूर्णता का पड़ाव, क्रिया-पूर्णता के बाद आचरण-पूर्णता का पड़ाव है। सह-अस्तित्व का प्रमाण क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता में ही होता है। "सह-अस्तित्व यही है!" - ऐसा प्रमाणित करने वाला ज्ञान-अवस्था का मनुष्य ही है। पूर्णता का प्रमाण भ्रम से मुक्ति है।

स्थिति-पूर्ण सत्ता में संपृक्त स्थिति-शील प्रकृति पूर्णता की ओर प्रकटन-शील है। प्रकृति द्वारा व्यापकता के अनुकरण का प्रमाण विविधता से मुक्ति पाना है। व्यापकता में कोई विविधता नहीं है। सबके साथ समान रूप से पारगामी है, सबके साथ समान रूप से पारदर्शी है, और व्यापक है ही। पदार्थ-अवस्था में जातीय विविधता दिखती है। प्राण-अवस्था में भी जातीय विविधता है। जीव-अवस्था में भी जातीय विविधता है। ज्ञान-अवस्था या मानव में जातीय विविधता नहीं है। मानव जाति एक है। मानव जाति में जागृति पूर्वक सह-अस्तित्व पूरा व्यक्त होता है। इसको "सम्पूर्णता" नाम दिया। मानव जाति एक होना, मानव धर्म एक होना, हर व्यक्ति और हर परिवार का व्यवस्था में भागीदार होना। सर्व-मानव के लिए ज्ञान यही है। इस तरह सम्पूर्णता में प्रमाण है। सम्पूर्णता सह-अस्तित्व ही है।

स्वयं-स्फूर्त प्रकटन ही सृष्टि है। ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक स्वयं-स्फूर्त प्रकटन है। ऊर्जा-सम्पन्नता का स्त्रोत व्यापक-वस्तु है। सह-अस्तित्व का प्रतिरूप ज्ञान-अवस्था में ही पूरा प्रमाणित होता है, और दूसरे कहीं होता नहीं है। पूरा प्रमाणित करना ज्ञान-अवस्था में ही होता है। उसके आन्शिकता में ही बाकी सारी अवस्थाएं कार्य कर रही हैं।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Thursday, June 24, 2010

जीना और भाषा

सार रूप में हम जीते हैं, सूक्ष्म सूक्ष्मतम विस्तार में हम सोचते हैं। हर व्यक्ति में यह अधिकार बना है। विश्लेषण रूप में जीना नहीं होता। विश्लेषण भाषा है। जीना सार है, चारों अवस्थाओं के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक जीना होता है। समाधान तो इस सार रूप में जीने में ही होता है। सूचना सूक्ष्मतम विस्तार में रहता है। अनुभव के आधार पर हम सूक्ष्मतम विस्तार में विश्लेषण करने योग्य हो जाते हैं। प्रयोजन के साथ यदि भाषा को जोड़ते हैं तो भाषा संयत हो जाती है। प्रयोजन को छोड़ कर हम भाषा प्रयोग करते हैं, तो हम बिखर जाते हैं।

जीना समग्र है। एक व्यक्ति का "समग्रता के साथ जीना" जागृत-परंपरा की शुरुआत है। समग्रता के साथ जीने में उसके विपुलीकरण की सामग्री बना ही रहता है। पहले जीना है, फिर उसको भाषा के साथ फैलाना है। जीने के लिए जितनी भाषा चाहिए, उतनी भाषा पहले। उसके बाद विस्तार के लिए आगे और भाषा है - जैसे, दार्शनिक-भाषा, विचार-भाषा, शास्त्र-भाषा, संविधान-भाषा। इन चार स्तरों पर भाषा का प्रयोग है। यह सब भाषा अध्ययन की सामग्री बनता है। जीना सार रूप में ही होता है। चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित रूप में जीना होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Tuesday, June 22, 2010

अध्ययन विधि

निष्कर्ष पर पहुंचना है कि नहीं - पहले इसको तय किया जाए! व्यवस्था चाहिए तो निष्कर्ष पर पहुंचना आवश्यक है।

समाधान कोई शर्त (condition) नहीं है। व्यवस्था कोई शर्त नहीं है। सुख कोई शर्त नहीं है। अभय कोई शर्त नहीं है। सह-अस्तित्व कोई शर्त नहीं है। समाधान, व्यवस्था, सुख, अभय, सह-अस्तित्व ये सब शर्त-विहीन (unconditional) हैं।

अपनी शर्त लगाने से कोई बात स्पष्ट नहीं होता। "हम हमारे तरीके से ही समझेंगे!" - यह भी एक शर्त है। शर्त लगाते हैं, तो रुक जाते हैं। वस्तु जैसा है, वैसा समझने की जिज्ञासा करने से वस्तु स्पष्ट होता है। शर्त लगाने से ही हम रुकते हैं। शर्त नहीं लगाते, तो हम रुकते नहीं हैं। शर्त न हो, और हम रुक जाएँ - ऐसा हो नहीं सकता! समझने के लिए हम अपनी शर्त नहीं लगाते तो हमारे पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए जो कल्पनाशीलता है, वह नियोजित हो जाती है। शर्त लगाते हैं तो कल्पनाशीलता नियोजित नहीं हो पाती।

सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने के बाद ही हम उसको अपनाते हैं। अभी तक जितना आप अपनाए हो, उसी विधि से अपनाए हो। आगे जो अपनाओगे, उसी विधि से अपनाओगे। अध्ययन विधि में पहले सूचना है। सूचना तक पठन है। सूचना से इंगित अर्थ में जाते हैं, तो अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना होता है। तदाकार होने के बाद कोई प्रश्न ही नहीं है।

कल्पनाशीलता द्वारा सच्चाई रुपी अर्थ को स्वीकार लेना ही "तदाकार होना" है। अर्थ को समझते हैं, तो शरीर गौण हो गया - जीवन प्राथमिक हो गया। तदाकार होने के बाद ही बोध होता है। अस्तित्व चार अवस्थाओं के स्वरूप में है। इनके साथ अपने "सही से जीने" के स्वरूप को स्वीकारना ही बोध है। बोध होने के बाद ही अनुभव होता है। अनुभव सच्चाई का प्रमाण होता है। अनुभव पूर्वक यह निश्चयन होता है कि - "पूरी बात को मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। इसको अनुभव-मूलक बोध कहा। जिसके फलस्वरूप चित्त में चिंतन होता है। जिसका फिर चित्रण होता है। चित्रण पुनः वृत्ति और मन द्वारा शरीर के साथ जुड़ता है - संबंधों में जागृति को प्रमाणित करने के लिए। इस तरह - अनुभव जीवन में, प्रमाण मनुष्य में।

अध्ययन है - शब्द (सूचना) के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु को पहचानना। अध्ययन भाषा से शुरू होता है, अर्थ में अंत होता है।

पहले सूचना के लिए जिज्ञासा है। फिर सूचना से इंगित अर्थ के लिए जिज्ञासा है। फिर अर्थ में तदाकार होने के लिए जिज्ञासा है। उसके बाद प्रमाणित होने के लिए जिज्ञासा है। जिज्ञासा के ये चार स्तर हैं।

समझाने वाला समझा-हुआ होना और समझाने के तरीके से संपन्न होना ; और समझने वाले के पास सुनने से लेकर साक्षात्कार करने तक की जिज्ञासा होना - इन दो बातों की आवश्यकता है। इन दोनों के बिना संवाद सफल नहीं होता।

आपका "लक्ष्य" क्या है, और आपके पास उस लक्ष्य को पाने के लिए "पूंजी" क्या है - ये दोनों पहले स्पष्ट होना आवश्यक है।

यदि आपको स्वीकार होता है कि आपका लक्ष्य "सार्वभौम व्यवस्था" है और उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके पास "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता" पूंजी रूप में है - तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए यह पूरा प्रस्ताव ठीक है या नहीं, उसको शोध करना! आपको अपने लक्ष्य के लिए इस प्रस्ताव की आवश्यकता है या नहीं - यह तय करना। फिर उस लक्ष्य के अर्थ में जब आप जीने लगते हैं, तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती जाती हैं।

सार्वभौम-व्यवस्था के लिए जीने का हम रास्ता बनाते हैं, तो सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सोचने का रास्ता बन जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Saturday, June 19, 2010

सूचना, तदाकार-तद्रूप, प्रमाण

अनुसन्धान पूर्वक जो मुझे समझ आया उसकी सूचना मैंने प्रस्तुत की है। इस सूचना से तदाकार-तद्रूप होना आप सभी के लिए अनुकूल होगा, यह मान कर मैंने इस प्रस्तुत किया है। तदाकार-तद्रूप होने का भाग (कल्पनाशीलता के रूप में ) आप ही के पास है।

"सूचना और उसमें तदाकार-तद्रूप होना" - यह सिद्धांत है। अभी तक चाहे आबाद, बर्बाद, अच्छा, बुरा जैसे भी मनुष्य जिया हो - इसी सिद्धांत पर चला है। मानव जाति का यही स्वरूप है। अभी भी जो मानव-जाति चल रही है, वह तदाकार-तद्रूप विधि से ही चल रही है।

व्यवस्था में हम सभी जीना चाहते हैं। (मध्यस्थ-दर्शन द्वारा प्रस्तावित) व्यवस्था के स्वरूप को मान करके ही (इसके अध्ययन की) शुरुआत होती है। समझ के लिए जो सूचना आवश्यक है - वह पहले से ही उपलब्ध रहता है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है, तदाकार-तद्रूप होने का भाग आपका है।

जब मैंने शुरू किया था - तब "व्यवस्था के स्वरूप" को समझाने की कोई सूचना नहीं थी। न तदाकार-तद्रूप होने का कोई रास्ता था। उस कष्ट से सभी न गुजरें, इसलिए व्यवस्था के स्वरूप की सूचना प्रस्तुत की है, और उसमें तदाकार-तद्रूप होने की अध्ययन-विधि प्रस्तावित की है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है। उसमें तदाकार-तद्रूप आपको होना है।

"व्यापक प्रकृति में पारगामी है" - यह सूत्र सार्वभौम-व्यवस्था तक पहुंचाता है। इस आधार पर मैंने स्वीकारा - यह सही है!

मैंने एक मार्ग बताया है, जो व्यवस्था तक पहुंचाता है। दूसरे किसी मार्ग से व्यवस्था तक पहुँच सकते हों - तो उसको अपनाने और बताने के लिए आप स्वतन्त्र हैं ही! व्यवस्था तक पहुंचाने का एक मार्ग मैंने पहचान लिया। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है (जो व्यवस्था तक पहुंचा दे) - ऐसा मैंने नहीं कहा है। अभी तक आदर्शवादी और भौतिकवादी विधि से जो सोचा गया, उससे व्यवस्था घटित नहीं हुआ। इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ दर्शन का मार्ग है - जो व्यवस्था तक पहुंचता है। चौथा कोई तरीका हो, तो मुझे वह पता नहीं! "चौथा विधि नहीं है" - यह कहने का अधिकार मेरे पास तो नहीं है। अपने अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कहता हूँ - "सह-अस्तित्व परम सत्य है।" फिर भी हर व्यक्ति अपने में स्वतन्त्र है, यह कहने के लिए कि - "सत्य और कुछ है"।

"जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो" - प्रताड़ना और कुंठा से मुक्ति के लिए।

प्रश्न: अध्ययन विधि में "मानने" की क्या भूमिका है?

उत्तर: पहले हम मानते ही हैं - कि यह "सच बात" है। सूचना को पहले "मानना" होता है, उसके बाद "जानना" होता है। जीने से ही "जानने" की बात प्रमाणित होती है। प्रमाणित करने के लिए जीने के अलावा और कोई विधि नहीं है। प्रमाण-स्वरूप में जीना ही समाधान है।

समझाने वाले को सच्चा मान कर शुरू करते हैं। सूचना से यह और पुष्ट होता है। सूचना के अर्थ में जाने पर यह और पुष्ट होता है। अर्थ में तदाकार होने पर वह स्वत्व बन जाता है। इतना ही तो बात है।

प्रयोजन ही अर्थ है। जो सूचना दिया, उसके प्रयोजन या अर्थ के साथ तदाकार होना। यदि प्रयोजन के साथ तदाकार नहीं होते, तो सूचना भर रहा गया।

सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप विधि से पारंगत होने पर अनुभव होता है। अनुभव सर्वतोमुखी समाधान का स्त्रोत है। आपके पास इस प्रस्ताव की सूचना है, इस सूचना में तदाकार-तद्रूप होने की सम्पदा आपके पास है - उसका उपयोग करो! भाषा, सच्चाई, और अर्थ - इन तीनो को एक सूत्र में लाने की कोशिश करो, बात बन जायेगी!

कल्पनाशीलता तदाकार होने के लिए वस्तु है। आपमें कल्पनाशीलता है या नहीं - उसका शोध करो! कल्पनाशीलता में तदाकार होने का गुण है।

इस बात में सवाल तो एक भी नहीं है। समझना चाहते हैं, समझाना चाहते हैं - इतना ही है। हम जितना समझे हैं, उतना समझाते हैं - तो आगे और समझ आता जाता है। समझना चाहते हैं, तो समझ आता है। नहीं समझना चाहते, तो नहीं समझ में आता।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)