ANNOUNCEMENTS



Monday, November 5, 2012

प्रकाशमानता - प्रतिबिम्बन - पहचान


हर इकाई प्रकाशमान है.  प्रकाशमानता का स्वरूप है – रूप, गुण, स्वभाव, धर्म.  सभी इकाइयों का प्रतिबिम्बन सभी ओर रहता है.  इस सिद्धांत को हृदयंगम करने की आवश्यकता है.  प्रतिबिम्बन सभी ओर रहता है तभी इकाई सभी ओर से दिखाई पड़ता है.  प्रतिबिम्बन इकाइयों में परस्पर पहचान का आधार है.  परस्पर पहचान ही परस्परता में निर्वाह का आधार है.  मानव में जानना-मानना के आधार पर पहचानना-निर्वाह करना होता है.

लक्ष्य के लिए प्रकृति की इकाइयों में सारी पहचान है.  लक्ष्य-विहीन कोई पहचान नहीं है.  साम्य सत्ता में संपृक्त रहने से हर इकाई में “लक्ष्य सम्मत पहचान की अर्हता” है.  विकासक्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति – सह-अस्तित्व में “लक्ष्य” इतना ही है.  साम्य सत्ता अपने में यथावत रहते हुए, सभी उसमें भीगे रहने से यह वैभव हो गया.  “लक्ष्य सम्मत पहचान” की शुरुआत परमाणु-अंशों से है.  सभी परमाणु अंश एक सा होते हुए, परमाणु के गठन में उनकी मात्रा (संख्या) के आधार पर उनकी कार्य-शैली बदलता गया.
लक्ष्य सम्मत पहचान के साथ “प्रक्रिया” आ गयी.  सभी परमाणु-अंश एक सा होते हुए, परमाणु में उनकी मात्रा के आधार पर उनकी कार्य-शैली बदलता गया.  परमाणुओं की प्रजातियां उनमे समाहित अंशों की संख्या भेद से है.  ये परमानुएं प्रयोजनों के आधार पर एक दूसरे की पहचान करते हैं.  ये परमानुएं निश्चित अनुपात (मात्रा) में और बाकी सभी संयोगों के साथ मिलते हैं – तभी अग्रिम रचना और यौगिक संसार का प्रगटन होता है.  यह भी एक बात ध्यान देने की है.

जड़ संसार अपनी यथा-स्थिति में “सम्पूर्णता” के साथ काम करता है.  सम्पूर्णता का मतलब है – त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी.  जड़ प्रकृति में पहचानना और निर्वाह करना होता है.  परमानुएं सहवास विधि और यौगिक विधि से एक दूसरे के साथ पहचान-निर्वाह करते हैं.

पेड़-पौधे, वनस्पतियों के बीजों में उनकी रचना का सूत्र बना रहता है.  उसी के आधार पर धरती, हवा, पानी आदि को पहचान-निर्वाह करते हुए वृक्ष-रचना बनता है.  प्राण-अवस्था में पहचान और निर्वाह का आधार “बीज” है.  बीज में प्राण-कोशाएँ सूखे हुए रहते हैं, जो अनुकूल संयोग पाने पर स्पंदन क्रिया को व्यक्त करने लगते हैं, रचना क्रिया को करने लगते हैं.

गाय गाय को पहचानती है, उसके साथ जीती है.  गाय बाघ को पहचानती है, उसके साथ जीती नहीं है.  इससे निकलता है – जीवों में पहचान और निर्वाह का आधार “वंश” है.

मानव में जानने मानने के आधार पर पहचानना और निर्वाह करना होता है.  मानव-चेतना विधि से ही मानव में यह संभव है.  जीव-चेतना विधि से ऐसा न हुआ, न हो सकता है.

अस्तित्व “होने” के रूप में है.  आचरण “रहने” के रूप में है.  “होना” और “रहना” अविभाज्य है.  मानव का “होना” प्राकृतिक है.  मानव ने अपने “रहने” की विधि को अपनाया नहीं है.  आचरण में, शिक्षा में, संविधान में, व्यवस्था में यह आया नहीं है.

सह-अस्तित्व ही नियति है.  सह-अस्तित्व स्वरूप में अस्तित्व नित्य वर्तमान है.  सह-अस्तित्व में प्रत्येक वस्तु ऊर्जा-संपन्न है और क्रियाशील है.  क्रियाशीलता के फलस्वरूप प्रत्येक वस्तु सभी ओर अपनी यथास्थिति (रूप, गुण, स्वभाव, धर्म) के साथ प्रतिबिंबित रहता है.   प्रतिबिम्बन के फलस्वरूप हर परस्परता में “लक्ष्य” के आधार पर पहचानने का गुण है.  विकासक्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति लक्ष्य है.  जो वस्तु लक्ष्य के अर्थ में अनुकूल होता है, उसके साथ वह अपने रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के अनुसार “रहता” है.  जो वस्तु लक्ष्य के अर्थ में अनुकूल नहीं होता है, उसके साथ वह नहीं रहता है.  “रहने” की दो विधियाँ हैं – यौगिक विधि और सहवास विधि.


शब्द का अर्थ प्रतिबिम्बन है.  उस प्रतिबिम्ब के साथ तदाकार होना ही निष्ठा है.  तदाकार होने का औजार हमारे पास है, जो है – कल्पनाशीलता.  हमारी चाहत के अनुसार हमारी कल्पनाशीलता काम करती है.  हम तदाकार होना नहीं चाहें तो तदाकार नहीं होंगे.  हम तदाकार होना चाहेंगे तो तदाकार हो जायेंगे.  यही अड़चन भी है, यही सुगमता भी है, अधिकार भी यही है.  तदाकार हो जाते हैं तो हम वस्तु को समझने लग जाते हैं.  तदाकार हुए बिना सच्चाई को पाया नहीं जा सकता या सच्चाई को समझा ही नहीं जा सकता.  तदाकार नहीं हो पाते हैं तो आँखों की सीमा तक रह जाते हैं.  आँख कोई समझने वाली वस्तु नहीं है.  आँख से जो अधूरा दिखता है, उसको “समझ” मान करके ही आदमी भ्रमित है.  आँखों की सीमा से जो समझ में आता है, उसमे सिवाय धोखे के और कुछ भी नहीं है.  संवेदनाओं के आधार पर कुछ भी करें – धोखा ही होगा, कुंठा ही होगा, निराशा ही होगा, असफलता ही होगा.  अस्तित्व के प्रतिबिम्बन के साथ तदाकार होने पर हम प्रमाणित होते हैं.  प्रमाणित होने का मतलब है – संवेदनाएं नियंत्रित रहना, न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जीना, समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व पूर्वक जीना, सुख-शान्ति-संतोष-आनंद पूर्वक जीना.  मानव का लक्ष्य यही है.  मानव के लक्ष्य को जांचने की विधि भी यही है.  दूसरी कोई विधि भी नहीं है.


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर 2010, अमरकंटक)

No comments: