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Friday, December 27, 2019

पद, पद चक्र और पद मुक्ति



पद भेद से अर्थ भेद को व्यक्त करने वाली वस्तु की पदार्थ संज्ञा है.  चार पद हैं - प्राण पद, भ्रांत पद, देव पद और दिव्य पद.  पदार्थ ही इन चारों पदों में व्यक्त है.

प्राणपद में भौतिक-रासायनिक वस्तु  हैं.  रासायनिक वस्तु का भौतिक वस्तु में परिणिति को "ह्रास" और भौतिक वस्तु का रासायनिक वस्तु में परिणिति को "विकास" कहा.  इस ढंग से यह एक चक्र है - प्राण पद चक्र.

भ्रांतपद में जीवन का मानव शरीर को चलाने योग्य हो जाना "विकास" है, मानव शरीर को चलाने वाले जीवन का जीव शरीर को चलाने जाना "ह्रास" है.  इस ढंग से यह एक चक्र है - भ्रांत पद चक्र.  भ्रांत पद चक्र में जीवन मानव शरीर को चलाये तब भी जीव चेतना ही है, जीव शरीर को चलाये तब तो जीव चेतना है ही.

भ्रांतपद (जीव चेतना) से देवपद (मानव चेतना) में गुणात्मक परिवर्तन है - जो एक संक्रमण है.  देव पद चक्र में आने के बाद भ्रांतपद चक्र में जाता नहीं है.  भ्रांतपद में रहते तक जीवन में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं है.

देव पद में देवचेतना से मानवचेतना में परिवर्तन "ह्रास" है.  मानवचेतना से देवचेतना में परिवर्तन "विकास" है.  श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर में और श्रेष्ठतर से श्रेष्ठ में आवर्तन ही देवपद चक्र है.  एक ही शरीर यात्रा में कभी देवपद तो कभी मानवपद में व्यक्त करना हो सकता है.

फिर दिव्यपद में पहुँचता है.  दिव्यचेतना में आवर्तनशीलता कुछ नहीं है.  चक्र से मुक्त हुए, निरंतरता से युक्त हुए.  दिव्यचेतना श्रेष्ठतम है.  उसमे पहुंचने पर उससे नीचे आने का प्रावधान नहीं है.  दिव्य पद एक संक्रमण है.  दिव्य पद की निरंतरता है - शरीर यात्रा में भी, शरीर यात्रा के बाद भी.

देवपद चक्र तक जीवन को अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए शरीर यात्रा की आवश्यकता शेष रहता है.  दिव्य पद में आने के बाद शरीर यात्रा करना स्वेच्छा पर हो जाता है परिस्थिति पर नहीं.  देव पद चक्र में रहते तक जीवन अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए बारम्बार शरीर को ग्रहण करेगा.

मानव पद में उपकार कम से कम रहता है, देव पद में उपकार बढ़ जाता है, दिव्य पद में उपकार पूर्ण हो जाता है.  दिव्य पद में ऐश्नाएं गौण हो जाती हैं तथा ज्ञान के अर्थ में ही जीना बनता है.

दिव्य मानव के समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित करते हुए सहअस्तित्व को प्रमाणित करना प्रधान रहेगा.  देवपद चक्र में समाधान-समृद्धि प्रमाणित रहेगा, सार्वभौम व्यवस्था में जीने की विधि से अभय सदा सुलभ रहेगा.

यदि सम्पूर्ण मानव परंपरा ही दिव्य चेतना में परिवर्तित हो जाता है, उसके बाद दिव्य जीवन ही मानव शरीर ग्रहण करेगा, क्योंकि दूसरा कोई रास्ता नहीं है.

पहले एक व्यक्ति, फिर अनेक व्यक्ति देवपद चक्र में मानव या देवमानव पद में काम करेंगे.  अभी देव चेतना के मार्गदर्शन में परम्परा बनाने की बात है.  इतने में अखंड समाज - सार्वभौम व्यवस्था स्थापित होगी.  मानव चेतना पूर्वक मानवीयता पूर्ण आचरण पर आधारित व्यवस्था हो जाता है. दिव्य चेतना संपन्न मानव भी मानवीयता पूर्ण आचरण ही करेगा.   सार्वभौम व्यवस्था सभी को स्वीकार होती है - इसके आधार पर दिव्य चेतना प्रभावी होना शुरू हो जाता है.  तब चारों अवस्थाओं की अक्षुण्णता हुआ, जीवन क्रम से दिव्य पद में संक्रमित होते गए, जनसंख्या नियंत्रित हुई, सब संतुलित रहने की व्यवस्था हुई.

सम्पूर्ण मानव जाति जब देवपद में संक्रमित हो जाती है तब अधिकांश लोग मानव चेतना में जियेंगे, कुछ लोग देव चेतना को प्रमाणित करेंगे.  इसके साथ दिव्य पद में मानव परम्परा के प्रमाणित होने की सम्भावना उदय हो जाती है.

देव चेतना के आधार पर मानव चेतना में स्थिरता-निरंतरता परम्परा स्वरूप में हो जाती है.  दिव्य चेतना के आधार पर देव चेतना में स्थिरता-निरंतरता हो जाती है.  मानवीयता की परम्परा की देवपद चक्र से ही शुरुआत है.

इस तरह सम्पूर्ण धरती पर पहले प्राण पद चक्र, फिर भ्रांत पद चक्र, फिर देव पद चक्र, फिर दिव्य पद (पद मुक्ति) का प्रकटन होने का क्रम है.

जीव चेतना में (भ्रांत पद चक्र) रहते हुए मानव क्षति ग्रस्त हो गया तब जाग्रति की आवश्यकता उदय हुई.  देवपद चक्र में मानव का धरती के साथ और मानव के साथ अहिंसक होना बनता है.

प्रश्न:  आपकी क्या भविष्यवाणी है?  क्या मानव जाति का देवपद चक्र में संक्रमण हमारे जीते जी हो  जायेगा?

उत्तर:  बिलकुल हो जायेगा!  होना पड़ेगा!  जीव चेतना विधि से यह धरती अगले सौ वर्ष भी नहीं चलेगा.  धरती ने अपने बीमार होने का अलार्म दे दिया है, उसके आधार पर मानव जाति संक्रमित हो सकता है.  सर्वाधिक लोग इस भय से ही संक्रमित होंगे.  जीव चेतना में भय और प्रलोभन से ही हैं.  प्रलोभन वश धरती को मानव ने घायल किया, जिससे उसी के लिए भय पैदा हो गया.  बीमार धरती पर तो रह नहीं पायेंगे, इसलिए हमको परिवर्तित होना है - यहाँ आएगा मानव पहले.  इस तरह जीव चेतना का भय भी एक asset हो गया!  परिवर्तित होने के बाद मानव का अहिंसक होना होगा, फिर धरती में शेष बची ताकत से उसके पुनः संभलने की सम्भावना बनती है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Tuesday, December 24, 2019

पहली बात है - मानव का अध्ययन

अभी हर व्यक्ति अपने स्वरूप को भुलावा देकर जी रहा है.  वैसे जी नहीं पाता है, इसीलिये ऊटपटांग होता है.

क्या अपने को पूरा भुला कर कोई आदमी जी पायेगा? तुमको क्या लगता है?

नहीं जी पायेगा.  अपने को पूरा भुला देने की तो कल्पना भी नहीं होती.

इसीलिये भ्रमित हो कर जीता है, यह भाषा दिया.  भ्रमवश मानव सभी गलती करने के लिए उद्द्यत हुआ.  स्वयं के साथ अधिमूल्यन-अवमूल्यन करेगा तो संसार के साथ भी करेगा.

इसीलिये यहाँ पहली बात है - मानव का अध्ययन.  मानव जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में है.  मानव लक्ष्य पूरा होने पर जीवन मूल्य प्रमाणित होता है.  मानव लक्ष्य की पहचान अभी तक की जानकारी में नहीं था.  सुख, शांति, संतोष, आनंद की चर्चा विगत में भी है.  मानव लक्ष्य समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व है - यह अनुसन्धान है.  यह विगत की सूचना नहीं है.  मानव लक्ष्य के बारे में चर्चा नहीं रही.  अभी तक स्वर ही नहीं निकला.  न भौतिकवाद में न आदर्शवाद में.  अथा से इति तक.

-श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)


होने-रहने का प्रमाण मानव ही है

क्षमता = वहन क्रिया, योग्यता = प्रकाशन क्रिया, पात्रता = ग्रहण क्रिया

ये तीनों क्रियाएं हरेक एक में समाई हैं.

प्रश्न:  तो क्या पत्थर में भी योग्यता (प्रकाशन क्रिया) है?

उत्तर: है, लेकिन उसको समझना मानव को ही है, समझ कर जीना मानव को ही है.  यदि आप यह कह कर रुक जाते हैं कि "भौतिक वस्तु प्रकाशमान है" तो वह पर्याप्त नहीं हुआ, क्योंकि उसमे मानव involve नहीं हुआ.  ग्रहण, वहन और प्रकाशन में मानव को पारंगत होना है न कि पत्थर को.  फिर मानव को ही यह समझ में आता है कि सब में ग्रहण, वहन और प्रकाशन क्रिया है.  उनमे यह क्रिया है, पर उसका ज्ञान नहीं है.  यदि इसमें mixup कर देते हैं तो हम कुमार्ग पर चल देते हैं.  भौतिकवाद इसी जगह तो अपनी मृत्यु पाया है!

प्रश्न:  नहीं समझ आया...  "भौतिक वस्तुएं प्रकाशमान हैं", इतना भर कहने में क्या दोष है?  मानव को इसमें बीच में लाने की क्या ज़रूरत है?  भौतिकवाद का कैसे इस जगह मृत्यु हो गया?

उत्तर:  पत्थर में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - इस जगह पर है भौतिकवाद.  ठीक से समझना इसको!  भौतिकवाद के अनुसार यंत्र में sincerity है, मानव में sincerity नहीं है - जबकि मानव सभी यंत्र बनाता है.  भौतिकवाद का इसमें मृत्यु नहीं होगा तो और क्या होगा?  आदर्शवाद का मृत्यु तब हुआ जब वे बताये - प्रमाण का आधार किताब है, मानव नहीं है.

यहाँ हम कह रहे हैं - "प्रमाण का आधार मानव ही है."  किस बात का प्रमाण: - निपुणता, कुशलता, पांडित्य का प्रमाण.  ज्ञान, विवेक, विज्ञान का प्रमाण.  समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का प्रमाण.  मानव को प्रमाण का आधार बताने के लिए मैंने सारा सारस्वत जोड़ा.

होने का प्रमाण हर वस्तु है.  होने-रहने का प्रमाण मानव ही है.

जीव-संसार तक 'होने' की सीमा में ही है.  होने-रहने की सीमा में मानव ही है.

जीव-संसार तक "होने" को सही माना है भौतिकवाद.  मानव का "होना" भौतिकवाद से qualify नहीं हुआ, "रहना" qualify होना तो दूर की बात है.

प्रश्न:  मिट्टी-पत्थर से लेकर जीव संसार तक "होने" को भौतिकवाद में किस आधार पर पहचाना? भौतिकवाद मानव के "होने" को किस प्रकार देखता है?

उत्तर:  भौतिकवाद ने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में मिट्टी-पत्थर के "होने" को पहचाना.  इसी क्रम में बड़े-बड़े पहाड़ों को मैदान बना कर अपनी बहादुरी दिखाया और मान लिया कि मिट्टी-पत्थर को उसने पहचान लिया.  उसी तरह जो कुछ भी भौतिकवाद ने पहचाना उसको अपने उपयोग के अर्थ में पहचाना.  मानव को भी उसने अपने उपयोग की commodity के अर्थ में पहचानने का प्रयास किया.  पैसे के आधार पर मानव के उपयोग को आंकलित किया - यह आदमी हजाररूपये योग्य है, यह लाख रूपये योग्य है, यह करोड़ रूपये योग्य है आदि.  इसी क्रम में सारा शिक्षा व्यापार के लिए हो गया.  भौतिकवाद मानव को एक commodity के रूप में सोचा.  मानव को व्यापार में लगाया.  जबकि व्यापार की सीमा में मानव नहीं आता, व्यापार में वस्तु आता है.  व्यापार में मानव का मूल्यांकन नहीं होता.

मानव को छोड़ कर मानवेत्तर प्रकृति को समझ गया है, इस तरह अपनी विद्वता बघार रहा है भौतिकवाद.  भौतिकवाद का सारा तर्क utility के आधार पर है.  उसके अनुसार सर्वोच्च utility है - सीमा सुरक्षा के लिए. जबकि सीमा-सुरक्षा पर सभी अवैध को वैध माना जाता है.

मानव जब अपने में सोचता है तो स्वयं को एक commodity होना नहीं स्वीकार पाता.  इसीलिये जहाँ आत्मीयता है, वहां व्यापार नहीं होता.  जैसे - आप अपनी बेटी के साथ व्यापार नहीं कर सकते, जबकि आप जहाँ नौकरी करते हैं वहां व्यापार से अधिक की कोई बात नहीं है.  "सम्बन्ध में आत्मीयता प्राथमिक वस्तु है" - यह कहीं माना ही नहीं गया.  जबकि हम सब कुछ करके वहीं व्यय करते हैं जहाँ आत्मीयता पाते हैं.  एक चोर चोरी करके लाता है, जहां आत्मीयता पाता है वहाँ उसको खर्च कर देता है.  एक डाकू डाका डालके लाता है, जहाँ आत्मीयता पाता है, वहाँ उसको खर्च कर देता है.  व्यापारी व्यापार करके लाता है, आत्मीयता की जगह में खर्च कर देता है.  आप सोचिये यह कैसे होता है?

भौतिकवाद के चलते आदमी "नीचता" की ओर चल दिया.  नीचता की ओर चलने का मतलब है - मानव का अवमूल्यन करके चल दिया.  मानव को एक commodity के रूप में "होना" बता दिया.  आदर्शवाद ने मानव के "होने" को लेकर कहा - "तुम ईश्वर का ही अंश हो, ईश्वर स्वरूप में समा जाओगे" उसके लिए त्याग, तप, भक्ति, विरक्ति को जोड़ दिया.  वह भी प्रमाणित नहीं हुआ.

प्रश्न: आपने कहा - "होने-रहने का प्रमाण मानव ही है".  मानव के होने और रहने को और समझाइये.

उत्तर: मानव होता भी है, रहता भी है.  जिस तरह गाय का होना सार्वभौमिक है, वैसा अभी मानव के साथ नहीं है.  क्योंकि मानव को मानव में एकात्मता का आधार समझ में नहीं आया.  मानव में एकात्मता का आधार है - ज्ञान.  ज्ञान रूप में हम एक होते हैं, विचार रूप में समाधानित होते हैं, कार्य रूप में अनेक होते हैं.  यदि ज्ञान रूप में हम एक नहीं होते तो विचार रूप में समाधान होता नहीं है.  ज्ञान के आधार पर विचार में समाधान होता है फिर उसके क्रियान्वयन में मानव के साथ व्यव्हार में न्याय और मानवेत्तर प्रकृति के साथ कार्य में नियम-नियंत्रण-संतुलन प्रमाणित होता है.  यह सार्वभौम रूप में मानव के साथ वर्तने वाली प्रक्रिया हो गयी.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Monday, December 23, 2019

सिद्धांत, प्रक्रिया, विधि, पद्दति

सिद्धांत:-  सिद्धांत वह है जिसके अंत में समाधान सिद्ध होता है.

प्रक्रिया:-  किसी प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए श्रंखलाबद्ध कार्यकलाप की प्रक्रिया संज्ञा है.

विधि:-  बुद्धि पूर्वक (ज्ञान सहित) समझदारी को प्रमाणित करना विधि है, जिसमे तर्क-संगत होना और प्रयोजन सिद्ध होना दोनों आवश्यक है.  (धी= बुद्धि)

पद्दति:- जीवन मूल्य और मानव लक्ष्य के अर्थ में किया गया क्रियाकलाप पद्दति है.

सूत्र:  कम शब्दों में ज्यादा अर्थ स्पष्ट कर देना.

व्याख्या: सूत्र को कार्य-पद्दति से जोड़ देना.

स्थापित मूल्य समझ में आते हैं, शिष्ट मूल्य व्यव्हार में आते हैं.  स्थापित मूल्य स्थिति में रहते हैं, शिष्ट मूल्य गति में रहते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

ग्रहण क्रिया के लिए वस्तु

ग्रहण क्रिया को पात्रता कहा है.  मानव में समझदारी के लिए ग्रहण क्रिया बनी हुई है.  इस पात्रता के अनुरूप वस्तु भी होने की आवश्यकता है.  अभी तक परम्परा में ग्रहण योग्य वस्तु ही नहीं है.  क्या ग्रहण करना है क्या नहीं - इसको तय करने का आधार नहीं है.  परम्परा से बेवकूफी/भद्दगी को हम सुनते रहे, उसमे से प्रलोभनात्मक को वरते रहे, भयात्मक को छोड़ते रहे - यह हमारी मनमानी करने की विधि रही.  अब यहाँ मानव के ग्रहण करने योग्य वस्तु का प्रस्ताव रखे हैं.  ग्रहण करने की वस्तु है - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य की समझ.  यह समझ में आ जाए और प्रमाणित हो जाये.  सत्य को हम सहअस्तित्व स्वरूप में बता रहे हैं.  धर्म को हम अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) स्वरूप में बता रहे हैं.  न्याय को सम्बन्धों में होने वाला प्रकाशन बता रहे हैं.  नियम-नियंत्रण-संतुलन को मनुष्येत्तर प्रकृति को बनाये रखने के रूप में बता रहे हैं. 

अध्ययन क्रम में अपनी मनमानी की बात को secondary करते हुए यथार्थ को ग्रहण करने/समझने की बात बलवती होता जाता है.  यथार्थ समझ में आने के बाद हमारा अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा, प्रकाशन रहेगा ही. 

अभी परंपरा में यथार्थता का स्त्रोत नहीं रहने के कारण एक आयु के बाद मानव में ग्रहण क्रिया बोथरा हो जाता है.  मानवजाति के सामने अब यह यथार्थता का पूरा प्रस्ताव आ गया है.  यथार्थता के इस प्रस्ताव में न कोई भय है न प्रलोभन है.  ग्रहण क्रिया, प्रकाशन क्रिया और वहन क्रिया जीवन में बनी हुई है.  उसमे क्या वस्तु होना है यह निर्णय होना है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित.  अमरकंटक, अगस्त २००७

Monday, December 9, 2019

सर्वभाषा में समानता का सूत्र


सर्वभाषा में समानता का सूत्र है - कारण गुण गणित

भाषा का प्रयोजन है - मानव परस्परता में सच्चाई की सम्प्रेष्णा

मानव में सच्चाई को प्रमाणित करने की अपेक्षा है.  सच्चाई को प्रमाणित करना = उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता प्रमाणित करना.  भाषा इसको संप्रेषित करने के लिए है.

सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व के स्वरूप में प्रयोजनशीलता अनुभव में आता है, जो सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होता है.  इसको संप्रेषित करने के लिए कारणात्मक भाषा है.  दर्शन कारणात्मक भाषा में लिखा है.

(अनुभव मूलक विधि से) उपयोगिता और सदुपयोगिता व्यवहार में आता है, जो न्याय और धर्म के स्वरूप में प्रमाणित होता है.  इसको संप्रेषित करने के लिए गुणात्मक भाषा है.  वाद और शास्त्र गुणात्मक भाषा में है.

गणना करने के लिए गणितात्मक भाषा है.

गणित आखों से अधिक लेकिन समझ से कम होता है.  समझ के लिए गुणात्मक और कारणात्मक भाषा है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Friday, December 6, 2019

मानसिकता

मानव संवेदनाओं से अपने को व्यक्त करता है.

मानव संवेदनाओं द्वारा अपनी मानसिकता को व्यक्त करता है.

संवेदनाओं को व्यक्त करते समय मानव (भ्रमवश) अपनी मानसिकता में अनिश्चयता को व्यक्त कर सकता है.

मानसिकता या मन जीवन का अभिन्न अंग है.  मन के बाद वृत्ति, वृत्ति के बाद चित्त, चित्त के बाद बुद्धि, बुद्धि के बाद आत्मा - इन पाँचों के संयुक्त रूप में जीवन है. 

मानव में संवेदनाओं द्वारा जीवन अपने स्वरूप को व्यक्त करता है.

जीवन का अपने स्वरूप को व्यक्त करने का और कोई तरीका नहीं है.

सुखी होने के लिए मानव जो कुछ भी करता है उस सब के मूल में मन में आस्वादन है.

मानव मन से काम करता है - इस बारे में मानवजाति आश्वस्त है या नहीं?  अधिकांश लोग मन होता है, इसको मानते ही होंगे.  कुछ लोग नहीं भी मानते होंगे.  मन के होने को मानते हैं इसीलिये मनोविज्ञान को पढ़ते-पढ़ाते हैं.  फ्रायड ने मनोविज्ञान को लगभग १०० वर्ष पहले लिखा.  भारतीय विचार में मनु के समय से मन को पहचाना गया.  "मन एव मनुष्याणाम बन्धमोक्ष्यो: कारणं" या मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है - यह गीता में लिखा है.  "निर्भ्रमता पूर्वक मोक्ष और भ्रमवश बंधन है" - यह प्रतिपादित करते हुए वे भ्रम-निर्भ्रम की भाषा लाये।  फिर भ्रम-मुक्ति के लिए वे भक्ति-विरक्ति मार्ग बताए, वह रहस्य में फंस गया.  "भ्रम मुक्ति ही मोक्ष है" - यह हमने मध्यस्थ दर्शन में भी प्रतिपादित किया है.  भ्रम-मुक्ति के लिए हम समझदारी के पास ले गए, उसके लिए अध्ययन का मार्ग बताया.  समझदारी का स्वरूप है - मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना.  नासमझी का स्वरूप है - जीव चेतना.  नासमझी है - सकल अपराध को वैध मानना.  समझदारी है - वैध को वैध मानना, अवैध को अवैध मानना.  इसी से सही और गलत का demarcation  होता है.  वैध को वैध मानने का मतलब है, वैध आचरण में आना.  आचरण में आने का स्वरूप है - समाधान-समृद्धि.  इस क्रम में हम स्थिर हो पाते हैं तो उसकी परम्परा बनाने का काम हम शुरू करते हैं.  यदि यह क्रम हममे स्थिर नहीं है तो इसकी परम्परा नहीं बनेगी.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)