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Tuesday, August 19, 2008

नियम

मध्यस्थ-दर्शन के अनुसार: नियति-विधि ही नियम है। सम्पूर्ण नियम अस्तित्व में हैं ही।
नियम से ही अस्तित्व में पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, और जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था प्रकट हुई।

भौतिकवाद या विज्ञान ने अपनी हवस के अनुसार नियम प्रतिपादित किए या बना दिए। जबकि नियम होते हैं, बनते नहीं हैं। ये जो नियम बनाए - वे नियति-विरोधी थे, उन पर चलने से धरती बीमार हो गयी। इन नियमो के रहते मानव का धरती पर बने रहना खतरे में है।

उसके पहले आदर्शवाद ने "ईश्वरीय नियम" बताये। सभी ईश्वरीय नियम ऐसे ही हैं - ईश्वर के अधीन में रहो, ईश्वर को रिझाओ, तुम्हारा कल्याण होगा! ईश्वर क्या है? - यह पूछा तो बताया "तुम समझोगे नहीं!" अब करो! परम्परा में सामान्य आदमी का फंसावट यहीं रहा।

अब मध्यस्थ-दर्शन से जो उपरोक्त दोनों विचारधाराओं का विकल्प जो आया - उससे यह स्पष्ट होता है:

प्राकृतिक रूप में गवाहित रहना ही नियम है।
प्राकृतिक रूप में प्रमाणित रहना ही नियम है।
प्राकृतिक रूप में वर्तमान रहना ही नियम है।

अध्ययन के लिए इन तीनो बातों को reference में रखना आवश्यक है। पदार्थावस्था, प्राणावस्था, और जीवावस्था नियम को गवाहित, प्रमाणित, और वर्तमानित करती रहती हैं। ज्ञान-अवस्था के मानव को भी अपने नियमो को पहचानने की आवश्यकता है। मानव ज्ञान-अवस्था में होने के कारण मानव में ज्ञान ही गवाहित, प्रमाणित, और वर्तमानित होगा। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, और भागीदारी - ये चारों जगह पर जब मानव पूरा हुआ, तभी मानव ने अपनी गवाही को प्रस्तुत किया। इस विधि से मनुष्य का ज्ञान-अवस्था में होने का qualification पूरा हो जाता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, August 17, 2008

"जीने" के आंशिक भाग में "करना" है.

आज की स्थिति में आदमी के पास "करने" का load ज्यादा है। "सोचने" का load उससे कम है। "समझने" का load शून्य है। यह load जीवन में "इच्छा" के स्वरुप में है। यंत्रों को संचालित करने को "करना" माना है। उसके लिए सोच जो है - वह लाभ-हानि के आधार पर तुलन है। पैसे के आधार पर लाभ-हानि को पहचाना। आज की स्थिति में "करने" को ही "जीना" मान लिया गया है। अभी पूरा शिक्षा-तंत्र और पूरा व्यवस्था तंत्र "करने" को ही "जीना" मान करके चल रहा है - जिसके मूल में लाभ-हानि को लेकर तुलन-विश्लेषण है।

मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आज की जो स्थिति है - उससे बिल्कुल उल्टा है। आज की स्थिति में "करना" है, और "करने" के लिए ही "सोचना" है। यह तरीका "समझने" तक पहुँचता ही नहीं है। मध्यस्थ-दर्शन में "समझ के करने" का प्रस्ताव है। "समझ" पूर्वक ही परिवार में अपनी आवश्यकता का निर्धारण होता है - उसके लिए क्या और कैसे "करना" है वह निर्धारण होता है। निर्धारण हेतु "सोच विचार" के लिए "समझ" पूरी रहती है।

"समझने" पर ही "जीने" की विधि आती है। समझदारी से यह निकलता है - "जीने" के आंशिक भाग में "करना" है।

"समझने" की ज़रूरत को पूरा करने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है। मध्यस्थ-दर्शन में जीने की विधि के लिए प्रस्ताव है - समाधान सम्पन्नता पूर्वक समृद्धि के साथ गति।

समाधान "समझे" बिना हो नहीं सकता।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००७, अमरकंटक )

श्रुति, स्मृति, अध्ययन, प्रमाण

श्रुति-स्मृति का मतलब है - भाषा को सुनना और बोल कर सुनाना। यहाँ तक मनुष्य-जाति पहुँच गया था। अध्ययन, वास्तविकताओं को लेकर पारंगत होना, और प्रमाण इसके आगे की कडियाँ हैं - जिनको मध्यस्थ-दर्शन द्वारा जोड़ा गया है। भाषा को सुनना और उसको बोल कर सुनाना अध्ययन के लिए आवश्यक है। भाषा आदर्शवाद की देन है। इससे पढ़ना, पढाना, बोलना, सुनना यह सब अच्छे से आदमी आज कर सकता है। लेकिन इतने भर से आदमी का काम चला नहीं। जब तक अध्ययन, वास्तविकताओं में पारंगत होना, और प्रमाणित होने की कडियाँ जुड़ती नहीं हैं - तब तक आदमी का काम चलता नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००७, अमरकंटक)

Saturday, August 16, 2008

४.५ या १०

प्रश्न: आप कहते हैं - मनुष्य जीने में दो ही स्थितियों में हो सकता है। या तो भ्रम में जीता है, या जागृति में जीता है। भ्रम में जीवन की ४.५ क्रिया प्रकाशित होती हैं। जागृति में जीवन की १० क्रियाएं प्रकाशित होती हैं। अध्ययन-क्रम में जीवन की क्रियाओं की क्या स्थिति होती है?

उत्तर: भ्रमित जीने में हम अपने जीवन की ४.५ क्रियाओं को शरीर के साथ लगाए रहते हैं। ऐसे समस्याओं में जीते हुए, हमारा अनुमान हुआ - यह पर्याप्त नहीं है। इससे जिज्ञासा जो उदय हुई - उसके आधार पर हमको दसों क्रियाओं को चालू करने का स्त्रोत (मध्यस्थ-दर्शन के प्रमाण के रूप में) मिल गया। उसका हम अध्ययन करने में लग गए। ऐसे अध्ययन करने में हमको लगा - कुछ भाग हमको बोध हो गया है, कुछ बोध होना अभी शेष है। तब तक हमारे जीवन की ४.५ क्रियाओं का समर्पण दसों क्रियाओं को चालित करने के लिए हो गया। इससे ४.५ क्रिया से उत्थान की ओर गति हुई। उत्थान हो गया - तब कहेंगे, जब दसों क्रिया प्रमाणित हुआ।

प्रश्न: क्या अध्ययन-क्रम में कोई निश्चित पड़ाव (या माइलस्टोन) हैं?

उत्तर: पड़ाव कुछ नहीं हैं। वरीयता क्रम की बात है। समझ कर जीने की वरीयता स्वयं में बनती है - तो हम जल्दी अध्ययन पूरा कर लेते हैं। यदि दूसरे-तीसरे नम्बर पर यह वरीयता रहती है - तो हम धीरे-धीरे अध्ययन पूरा करते हैं। इतना ही है।

भाषा से पठन को पूरा करने तक हम पहुँच जाते हैं। उसके बाद वस्तु का अनुभव ही है। यह जिए बिना होता नहीं है। बातों से यह नहीं होता। भाषा से पठन को पूरा करने के बाद दो ही स्थितियों में आदमी मिल सकता है - (१) जीने का प्रयत्न करते हुए। (२) अनुभव को जीने में प्रमाणित करते हुए। ये दो ही स्थितियाँ हैं - उसके अलावा तीसरा स्थिति नहीं है। यह हर व्यक्ति के साथ प्राण-संकट है - या सौभाग्य है। शरीर के साथ जोड़ते हैं - तो प्राण-संकट है। जीवन के साथ इसको जोड़ते हैं - तो सौभाग्य है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Thursday, August 14, 2008

भाषा से ज्ञान तक

ध्वनि के एक तरीके को हम भाषा कह रहे हैं। इन्द्रियों के साथ शब्द तैयार होता है। शब्द अंततोगत्वा भाषा के नाम से आया। भाषा है - भासना। शब्द के अर्थ से वस्तु का भास् होना। शब्द के अर्थ से वस्तु का स्वरुप कल्पना में आना। अपनी कल्पना में आने के बाद वह साक्षात्कार हो जाए। वह अनुभव में आ जाए। वह प्रमाणित हो जाए। प्रमाणित होना = जीने में, बोलने में, समझाने में अनुभव प्रमाणित होना।

जैसे - "ज्ञान" एक शब्द है। ज्ञान वह समझ है जो मनुष्य के जीने में सामरस्यता के रूप में प्रमाणित होता है। पहले चार विषयों को ही ज्ञान मान लिया गया। वह पर्याप्त न होने पर पाँच इन्द्रियों के द्वारा होने वाली स्वीकृतियों को ज्ञान मान लिया। वह भी पर्याप्त न होने पर उसको भी नकारा गया, और होना क्या चाहिए, इस पर सोचा गया। मैंने इसी बिन्दु से शुरू किया था। मैंने जो प्रयास किया वह सफल हो गया। मैंने ज्ञान को पहचान लिया - जो मनुष्य के जीने में सामरस्यता के रूप में प्रमाणित होता है।

इन्द्रिय-गोचर वस्तुओं का ज्ञान मनुष्य को हो गया है। ज्ञान-गोचर सब बचा हुआ है। मध्यस्थ दर्शन ज्ञान-गोचर वस्तुओं की पहचान कराने के अर्थ में है। जैसे - जीवन ज्ञान-गोचर है। मानव-मूल्य - विश्वास, सम्मान, आदि - ज्ञान-गोचर हैं। ये ज्ञानगोचर वस्तुएं यदि साक्षात्कार होता है, तो अनुभव होता ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Wednesday, August 13, 2008

कैसे सुने?

जो कहा जा रहा है, उतना ही सुने - उसके साथ मिलावट नहीं किया जाए। मिलावट करने से हम रुक जाते हैं। अनसुनी करने से हम रुक जाते हैं। अनदेखी करने से हम रुक जाते हैं।

यह कुल मिला कर जागृत मनुष्य के रूप में होने के लिए सुझाव है। इसको ध्यान से सुनने की ज़रूरत है।

अनदेखी नही किए - मतलब ध्यान देना शुरू कर दिए।
मिलावट नहीं किए - मतलब सतर्क रहना शुरू कर दिए।
अनसुनी नहीं किए - मतलब एकाग्रता आ गयी।

इस बात को पूरा समझने के बाद निर्णय लीजिये - इसमें क्या कमी है। समझने के पहले ही हम इसमें कमी निकालने लगे, कुछ इसके बारे में निर्णय लेने लगे - तो अनसुनी और अनदेखी होगी। इसको समझने के बाद विचार कीजिये - यह हमारे लिए कितना सार्थक है, उपकारी है, ज़रूरत है। फ़िर कोई विरोधाभास लगता है, तो मुझे बताइये। हर सूत्र, हर बिन्दु मनुष्य में समाने के लिए ही है। कुछ भी विरोधाभास में जाता ही नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित। (जनवरी २००७, अमरकंटक)

विचार पहले, आचरण उसके बाद में

विगत में (आदर्शवाद ने) बताया - आचरण पहले, विचार बाद में। आचरण के नियम बताये - यह करो, यह मत करो। वह सब रूढियों में परिवर्तित हो गया।

जबकि मध्यस्थ-दर्शन के अनुसार - विचार पहले, आचरण उसके बाद में । विचार में हम स्वस्थ हो जाते हैं, तो आचरण में स्वस्थ होते ही हैं। "करो, न करो" - यह रूढी है, समझ नहीं है। सोच-विचार यदि पूरा हो जाता है, अनुभव-मूलक हो जाता है - तो वह आचरण में आता ही है। विचार में समाधान स्थापित हुए बिना कोई मानवीयता पूर्ण आचरण नहीं करेगा। उसके लिए अध्ययन ही एक मात्र उपाय है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Tuesday, August 12, 2008

भ्रांत-अभ्रांत

प्रश्न: अनुभव सम्पन्नता के बाद मनुष्य मानव-पद में आता है। मानव-पद को आपने "भ्रांत-अभ्रांत" भी कहा है। "भ्रांत-अभ्रांत" का क्या अर्थ है?

उत्तर: "भ्रांत" मनुष्य प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से विचार करता है, कार्य करता है। "निर्भ्रांत" मनुष्य न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों से विचार करता है, कार्य करता है। निर्भ्रांत होने के बाद कोई भ्रांत वाले काम करता नहीं है। निर्भ्रांत होने पर "भ्रांत " क्या है - यह पता चलता ही है। यह वैसे ही है, जब हमको सही क्या है यह पता चल जाता है, तो ग़लत क्या है - यह भी पता चल जाता है। गलती के लिए कोई अलग से अध्ययन करना नहीं पड़ता।

भ्रांत-अभ्रांत से आशय है - जो निर्भ्रांत हो कर भ्रांत और निर्भ्रांत दोनों का दृष्टा हो। यह इसलिए आवश्यक है,क्योंकि गलती को सुधारने के लिए गलती को देख पाना आवश्यक है। यह तभी तक है जब तक पूरी मानव-परम्परा जागृति में परिवर्तित नहीं हो जाती। "भ्रांत-अभ्रांत" अनुभव संपन्न व्यक्ति ही है, जो मानव-पद में है। भ्रांत-अभ्रांत का मतलब यह नहीं है - अनुभव संपन्न व्यक्ति में भ्रान्ति भी रहेगा और निर्भ्रान्ति भी रहेगा।

सही को समझा है उसको गलती करने वाला ग़लत सिद्ध नहीं कर पाता। धीरे-धीरे गलती करने वाला सही समझने की जगह में आ जाता है। सही-पन किसी एक व्यक्ति से शुरू होता है।

प्रश्न: इससे पहले "सही" हुआ कि नहीं?

उत्तर: "सही" के बारे में मान्यता रही है। सही का प्रमाण हुआ नहीं।

"सही" कुछ होता है - ऐसी मान्यता रही है। पर सहीपन की परम्परा नहीं बन पायी। सही-पन की परम्परा से आशय है - समझ जो आचरण में आए, संविधान में आए, शिक्षा में आए, और व्यवस्था में आए। मध्यस्थ-दर्शन सही-पन की प्रमाण सहित परम्परा के लिए प्रस्ताव है। उसी के लिए हम प्रयास-रत हैं।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Monday, August 11, 2008

"अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" का मतलब

प्रश्न: अपने presentation को "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" नाम देने के मूल में आपका क्या आशय रहा?

उत्तर: इसके पहले दो तरह के चिंतन आए - पहला, रहस्य मूलक ईश्वर केंद्रित चिंतन; दूसरा, भौतिकवाद या अस्थिरता अनिश्चयता मूलक वस्तु केंद्रित चिंतन। ईश्वर केंद्रित चिंतन रहस्य से आरम्भ होता है, और रहस्य में ही अंत होता है - इसलिए उसको विशेषण दिया - "रहस्य मूलक"। रहस्य से कोई समाधान मिलता नहीं है। मनुष्य में कल्पनाशीलता होने से रहस्य को लेकर अनेक प्रकार की चीजें लिख दी गयी। भौतिकवाद ने सिद्धांत रूप में अस्थिरता-अनिश्चयता को प्रतिपादित किया है।

अब यह जो मुझसे प्रकट हुआ इसे भी तो कोई नाम देना था। मैंने अस्तित्व में ही सब कुछ देखा था। और मैंने मानव की हैसियत से ही देखा था। अस्तित्व मूल में है, और मानव देखने/समझने वाला है - इसीलिये "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" नाम दिया।

प्रश्न: इस को "मध्यस्थ दर्शन" आपने नाम क्यों दिया?

उत्तर: इसमें मध्यस्थ सत्ता, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति, और मध्यस्थ क्रिया का वर्णन है - इस आधार पर इसको मध्यस्थ-दर्शन नाम दिया।

प्रकृति में तीन तरह की क्रियाएं गवाहित हैं - सम (बनना, या बढ़ना) , विषम (गिरना, घटना), और मध्यस्थ (बने रहना)। जैसे - पेड़ बढ़ता है, बने रहता है, और एक दिन मर जाता है। बकरी का बच्चा पैदा होता है, जीता है, और एक दिन मर जाता है। बने रहने की परम्परा होती है।

परम्परा के रूप में हरेक वस्तु सदा-सदा रहने के लिए है - इसको पहचानने की आवश्यकता है। मध्यस्थ के आधार पर सम और विषम का भी अध्ययन किया जा सकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Sunday, August 10, 2008

हर मनुष्य समझने योग्य है।

प्रश्न: आप भय, प्रलोभन, और आस्था के स्थान पर आत्म-विश्वास से जीने की बात करते हैं। लेकिन आज की स्थिति में विश्वास की परम्परा नहीं बनी है। ऐसे में क्या हम अपने वातावरण के प्रति विरोधाभास में जीने के लिए बाध्य नहीं हो जायेंगे?

उत्तर: इसमें समझदारी को center में लाने की आवश्यकता है। परिवार में एक आदमी को प्रमाणित होना होगा। उस आदमी के प्रति सबको विश्वास होता है कि "यह आदमी ठीक है!" या "इस आदमी के प्रति हमको कोई शंका नहीं है।" मेरा उदाहरण लें - तो मैं पहला आदमी था, मेरा जीना-रहना सभी के लिए विश्वास का आधार बन गया। यह इस आधार पर है - जब जागृति होती है, तो उससे वातावरण बदलता है। वातावरण हमारे अनुसार बदल जाता है। हमारा जीना यदि बदल जाता है - तो उसका प्रभाव होता ही है। हम जागृति पूर्वक यदि जीते हैं तो क्या परिवार में हमारा कोई विरोध भी करता है?

जागृति पूर्वक जीना = समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। इस पर प्रहार कौन कर सकता है? इस पर अविश्वास कौन कर सकता है? यह आदमी से बनता ही नहीं है। जागृति को अपनाएं या न अपनाएं - यह दूसरे की स्वेच्छा पर निर्भर है। अपनाओ, चाहे न अपनाओ! इसका विरोध, या इस पर अविश्वास तो कोई कर नहीं पायेगा!

foundation work यही से है। जो मैंने ऊपर कहा - यदि जो व्यक्ति उसमें टिक पाता है, वह foundation work कर सकता है। जो टिक नहीं पाता - वह foundation work तो नहीं करेगा। Super-structure बनने के बाद तो सभी सहमत होते ही हैं, समर्पित होते ही हैं। परम्परा बनने के बाद हर व्यक्ति समर्पित होता ही है।

प्रश्न: समझदार होने में वातावरण का क्या योगदान है?

उत्तर: हमारी स्वीकृतियां ही हमारा वातावरण हैं। गोविंदपुर में हम एक स्कूल शुरू किए थे - वहाँ के बच्चे अपने माता-पिता, और गाँव के वातावरण को सकारात्मक रूप में प्रभावित करने लगे। मनुष्य किस समय कैसे समझदारी के लिए करवट ले ले, इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। आज गलती करने वाला कल कितना सही हो सकता है - इसको कोई सोच नहीं सकता।

आदमी के सुधरने की सम्भावना सदा-सदा बना है। हर अवस्था में बना है। हम यदि सटीक रहते हैं तो हमारा वातावरण भी प्रभावित होता है। हम यदि सटीक नहीं रहते - तो हमारा वातावरण हम पर दबाव डालता ही है। यह भी उसी विधि से है - "गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य समाता है।"

प्रश्न: आप हमारी जिस भी बात का उत्तर देते हैं, उसको जागृत मानव से ला कर जोड़ते हैं। ऐसा क्यों?

उत्तर: सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व से सम्बंधित कोई भी बात होगी - तो उसको हम बताएँगे। उसको अधर में छोड़ा नहीं जा सकता। सह-अस्तित्व को समझने वाला जागृत मानव है। इसलिए जागृत मानव को छोड़ा नहीं जा सकता। इन दो ध्रुवों के बीच में ही सारा दर्शन है। एक तरफ़ सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व - दूसरी तरफ़ जागृत मानव। सह-अस्तित्व का दृष्टा, कर्ता, ज्ञाता, और भोक्ता जागृत-मानव ही है।

प्रश्न: समझने की प्रक्रिया में communication सही होना जरूरी है...

उत्तर: communication ठीक होने में दो basic needs हैं।
(१) समझाने वाला अपनी पूरी समझ को प्रकाशित कर सके।
(२) समझने वाला व्यक्ति उसको ग्रहण कर सके।
ये दोनों होने पर ही communication पूरा होता है। पूरे मन से सुनने के लिए आप आए हो - यह मेरा स्वीकृति है।

हर मनुष्य समझने योग्य है। हर मनुष्य समझना चाहता है। इसके साथ ही - हर मनुष्य किसी आयु के बाद अपने को समझदार मान लेता है। "मैं समझदार हो गया हूँ" - जब यह मान लेता है, तब उसके लिए समझने के दरवाजे बंद हो जाते हैं। इसके बाद सटीक बात उस तक पहुँचने में तकलीफ होती है। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति जैसा उसने अपना life-style बनाया है, उसके अनुकूल बातों को सुनता है - और जो उसके अनुकूल नहीं हैं, उनको अपने सहूलियत के अनुसार तर्जुमा कर लेता है।

प्रश्न: व्यवहार की सीमा क्या है?

उत्तर: व्यवहार की सीमा है - सम्बन्ध। संबंधों में न्याय प्रमाणित होना। सम्बन्ध का प्रयोजन के आधार पर पहचान हो जाना, उसकी ईमानदारी के साथ निर्वाह होना, मूल्यों की परस्पर अनुभूति होना, परस्परता में उनका मूल्यांकन होना - फलन में उभय-तृप्ति होना। व्यवहार में उभय-तृप्ति ही standard है।

नियति विधि वैभव = न्याय।

सम्बन्ध नियति विधि से होते हैं। सम्बन्ध को आदमी पैदा नहीं करता। आदमी केवल संबंधों को पहचान सकता है। न्याय में "संबंधों की पहचान" के बारे में कहा है। "संबंधों का निर्माण" नहीं कहा है। संबंधों को प्रयोजन के रूप में पहचाना - वहां से न्याय का शुरुआत होता है। प्रयोजन = सह-अस्तित्व में प्रमाण।

प्रश्न: अनुभव से पहले हमसे अन्याय न हो - क्या यह सम्भव है?
उत्तर: नहीं। अन्याय करने से ही अस्मिता (ego) बनती है। परस्परता में कहीं न कहीं अन्याय होता ही है। जागृति के पहले न्याय का कोई स्थान ही नहीं है।
आज की स्थिति में एक छत के नीचे अनेक लोग हो जाते हैं, साथ में रह नहीं पाते। अपना-पराया का दीवार बना ही रहता है - चाहे छोटा हो, या बड़ा हो। थोड़ा दीवार बढ़ गया तो द्वेष भी दिखता है। कम दीवार रहता है तो द्वेष दिखता नहीं है। अनुभव के पहले कोई न्याय नहीं है, कोई समाधान नहीं है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

मनुष्य और प्रकृति

प्रश्न: मनुष्य और बाकी सारी प्रकृति में क्या फर्क है?

उत्तर: मनुष्य अनंत और असीम अस्तित्व के साथ सोचने, समझने, और जीने योग्य वस्तु है। बाकी सब वस्तुएं प्रकटन क्रम में "होने" के रूप में हैं। इस तरह मानव ही अस्तित्व में दृष्टा है। मानव ही अस्तित्व को समझेगा, व्यापक को समझेगा, और स्वयं को भी समझेगा। फलस्वरूप मानव का अस्तित्व में "रहने" का बात बनेगा। अभी हम न स्वयं को समझे हैं, न अस्तित्व को समझे हैं - इसलिए जीने का रास्ता ही बंद हो गया। आदि-काल से अभी तक मनुष्य अपने "रहने" के स्वरुप को पहचान नहीं पाया।

प्रश्न: अभी तक मनुष्य क्या जीता नहीं रहा क्या?

उत्तर: मनुष्य अभी तक जीव चेतना में जिया है। जीव-चेतना में जीते हुए भी जीवों से अच्छा जीने के लिए सोचा। क्योंकि मनुष्य को कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता विरासत में मिला ही था। उसी के रहते मनुष्य ने सामान्य-आकांक्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन) संबन्धी सभी वस्तुओं को प्राप्त कर लिया। इस तरह मनुष्य अपनी परिभाषा के अनुरूप मनाकार को साकार करने के चौखट में आ गया। मनः स्वस्थता का चौखट टटोला तो देखा खाली पड़ा है! मनः स्वस्थता को लेकर हम bankrupt हैं। मनाकार को साकार करने के पक्ष में हम समृद्ध हैं। यह आज तक की समीक्षा है। बिना मनः स्वस्थता के मनाकार को साकार करने के क्रम में ही यह धरती बीमार हो चुकी है। आगे की पीढी कहाँ रहेगा? मनः स्वस्थता का चौखट कैसे भरेगा? - इन्ही प्रश्नों के उत्तर में यह विकल्प है।

प्रश्न: मानव के "होने" और "रहने" से क्या आशय है?

उत्तर: मानव अपने "होने" को कल्पनाशीलता पूर्वक पहचान चुका है। कैसे रहना है? - यह तय नहीं कर पाया है। मानव में संस्कार परम्परा के अनुरूप ही "रहना" बनता है। मानव का रहना इस तरह जीवों से भिन्न है। जीवों में वंश परम्परा के अनुरूप रहना बन जाता है। "मानव-परम्परा" जैसी कोई चीज होती है, यह जागृति से पहले भी स्वीकृति रहती है। पर मानव-परम्परा को कैसे रहना है? - यह जागृति के बाद ही होता है।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, August 9, 2008

प्रमाणित होने के लिए अध्ययन आवश्यक है।

प्रश्न: "मैं सुख चाहता हूँ" - यह तो मुझे निश्चित है। मैं सुखी हूँ, या नहीं - यह मुझे पता नहीं। निरंतर सुखी तो नहीं हूँ। इस जगह से आगे कैसे बढें?

उत्तर: शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन्द्रियों में सुख जैसा भासता तो है - पर सुख रहता नहीं है। सुख उनमें रहता नहीं है। सुख यदि उनमें "होता" - तो उसकी निरंतरता होती। यह कसौटी है। इन्द्रियों से हमको जितनी भी चीजों में सुख भासता है - उनमें अनुकूलता-प्रतिकूलता ही होती है। इनमें सुख नहीं होता। अनुकूलता को हम सुख मान लेते हैं। पर वह सुख रहता नहीं है! यही वह स्थली है जहाँ सारा आदमी जात बुदधू बना है। बुदधूपन की दूसरी ऊंचाई है - बेवकूफ होना। तीसरी ऊंचाई है - अपराधी होना। इन तीनो ऊंचाइयों में ही खड़े हैं सभी!

यदि सुख चाहिए तो ज्ञानगोचर वस्तुओं को पहचानने की ज़रूरत है। मनुष्य परस्परता में विश्वास ज्ञानगोचर है। संबंधों का प्रयोजन ज्ञान-गोचर है। धरती की अखंडता ज्ञानगोचर है। आदमी के जीने के अधिकाँश भाग ज्ञानगोचर हैं, न्यूनतम भाग इन्द्रियगोचर हैं।

अभी आप सहमति दे रहे हैं - ज्ञानगोचर वस्तुएं पहचान में आनी चाहिए। लेकिन सहमति होना भर पर्याप्त नहीं है। सहमति के साथ निष्ठा होता है तब हम प्रमाण के पास आयेंगे - यह आशा होती है। जैसे रोज चार किलोमीटर दौड़ने के लिए सब लोगों की सहमति हो सकती है। लेकिन कई लोग नहीं दौड़ पाते हैं। इसमें अक्षमता व्यक्त करते हैं। कई लोग चल भी पाते हैं। उसी तरह ज्ञानगोचर भाग के प्रति सहमत होते हुए भी उसको लेकर चल नहीं पाने की कमजोरी प्रौढ़ लोगों में रखा ही है।

सहमति के साथ यदि निष्ठा नहीं होती है तो हम प्रमाण के पास आयेंगे, ऐसी कल्पना भी नहीं किया जा सकता। सहमति के साथ निष्ठा जोड़ने पर ही अध्ययन हुआ। अध्ययन होने से सच्चाई को हमने पहचान लिया। सच्चाई को पहचानने के बाद हमारे जीने के लिए सरल मार्ग निकल गया। उसके बाद कोई रुकता नहीं है। सहमति के साथ निष्ठा होना ही link है। निष्ठा होने पर हम यदि अध्ययन में लग गए तो मानिए हम सिलसिले में हैं।

अध्ययन में लगना ही निष्ठा का प्रमाण है। प्रमाणित होने के लिए अध्ययन आवश्यक है। अध्ययन के बिना हम प्रमाणित नहीं हो सकते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

अनुभवगामी विधि

प्रश्न: संयम के बाद आपने अनुभवगामी विधि को कैसे तैयार किया?

उत्तर: इससे पहले मैंने आपको बताया था - साधना, समाधि, संयम ने अनुभव के योग्य पात्रता को मुझमें तैयार कर दिया - फलस्वरूप अस्तित्व में मुझे अनुभव हो गया। अनुभव होने का प्रमाण व्यक्ति ही हो सकता है - दूसरा कुछ हो नहीं सकता। अनुभव संपन्न होने के बाद मैंने सोचा - हर व्यक्ति साधना तो करेगा नहीं। हर व्यक्ति के लिए साधना करने के लिए उद्देश्य ही नहीं बन सकता। हर व्यक्ति के लिए समाधि-संयम विधि से गुजरने के लिए संभावना भी नहीं है। इसकी आवश्यकता ही नहीं बनता तो सम्भावना भी नहीं बनता। ऐसा तय करने के बाद - इस फल के लोकव्यापीकरण के लिए क्या विधि हो?

अनुभव मूलक विधि से व्यक्त होने और अनुभवगामी विधि से उसे पहचान लेने पर अध्ययन पूरा हो जाता है। ऐसा मैंने स्व-विवेक से सोचा। इसमें किसी दूसरे का सलाह नहीं रहा, और उस वर्तमान में कोई ऐसा घटना नहीं रहा - जो मुझे ऐसा करने के लिए suggest करे। यह मैंने अपने स्व-विवेक से ही तय किया।

मनुष्य जाति पठन तक तो पहुँच चुकी है - यह तो मुझे पता था। निबंध, कथा, इतिहास - ये सब पठन करते हुए देखा ही था मैंने। इसके लिए मेरे परिवार-परम्परा में "श्रुति" के नाम से वेदाभ्यास करते ही रहे। इससे मैंने निश्चय किया - मनुष्य जाति पठन तक अध्ययन कार्य को स्वीकारा है। इसके बाद ईश्वर-वादी विधि से दो विधियां बनी थी - साधना और अभ्यास। इसको तप, उपासना, साधना, जप, अभ्यास आदि नाम दिया है। अब मेरे मन में यह बात आयी - क्या पठन कराना और पढाना - इससे अनुभव होता है? इसमें निकला - नहीं! पठन कोई अनुभव का आधार नहीं हो सकता। पठन एक सूचना का उच्चारण मात्र होगा। सूचना का उच्चारण प्रमाण नहीं हो सकती। अभी हम जितने भी किताब पढ़ते हैं - वे केवल सूचना का उच्चारण ही है। अभी आप और हम जो रिकॉर्ड कर रहे हैं - वह भी सूचना के रूप में ही होगी। प्रमाण नहीं होगा। प्रमाण आदमी ही होगा। ऐसा मैंने तय किया। मैं साधना-समाधि-संयम पूर्वक जो अनुभव को पाया तो उसका प्रमाण मैं ही हूँ, न कि मेरे द्वारा लिखी हुई कोई किताब। किताब केवल सूचना है।

इसी तरह मेरे द्वारा यदि कोई व्यक्ति अध्ययन पूर्वक इस फल को पाता है तो वह स्वयं ही प्रमाण होगा। इस निष्कर्ष पर मैं आ गया। मैंने जो कुछ भी लिखा है - वह किसी वस्तु को इंगित करने के लिए है। वह वस्तु सामने व्यक्ति के समझने के लिए है - न कि केवल पढने के लिए! जीवन समझता है। जीवन को समझने के लिए क्या चाहिए? इसका शोध करने पर निकला - शरीर के साथ जो उच्चारण करते हैं भाषा का - उसके साथ परिभाषा को भी पढने के लिए प्रावधानित कर दिया। परिभाषा विधि से वस्तु का वर्णन स्वीकार होता है। हर व्यक्ति के पास जो कल्पनाशीलता है - वह उस वर्णन के साथ जुड़ता है। वह जुड़ने से कल्पनाशीलता उस वर्णन से जो अर्थ निर्धारित हुई - उस आकार तक मन को पहुँचा देता है। उस आकार की वस्तु को जब अस्तित्व में मन पहचानने जाता है - तो उसे अस्तित्व में वस्तु के रूप में पाता है। जैसे - "पानी" एक शब्द है, और पानी एक वस्तु है। "पानी" शब्द से पानी कैसा है, उसको मन तक पहुंचाने की व्यवस्था है। मन तक पहुँचने के बाद मन पानी को अस्तित्व में पहचान लेता है। प्यास बुझा देता है।

कल्पना से हम वस्तु को अस्तित्व में पहचानने जाते हैं। वस्तु मिल गया तो प्रमाण हो गया। नहीं मिला तो कल्पना ही रह गया। हर व्यक्ति कल्पनाशील है। यह प्रकृति प्रदत्त है।

पहचानने की वस्तुएं दो तरह की हैं - कुछ वे हैं, जो इन्द्रियों द्वारा आंशिक रूप में पहचानी जाती हैं। इनको इन्द्रिय-गोचर नाम दिया। दूसरी वे वस्तुएं हैं - जो ज्ञान द्वारा ही पहचानी जाती हैं। इनको ज्ञान-गोचर नाम दिया।

पानी, पेड़-पौधे, पत्थर आदि वस्तुओं को हम इन्द्रियों से प्राप्त संवेदनाओं के आधार पर पहचानते हैं। "पानी से प्यास बुझती है" - यह ज्ञान हमको इन्द्रियगोचर विधि से हुआ है। ऐसी बहुत सी चीजों का ज्ञान मनुष्य को हो चुका है। लेकिन जो वस्तुएं केवल ज्ञान विधि से पहचानी जाती हैं - वे करीब-करीब सभी मनुष्य की पहचान से रह गए। जैसे जीवन ज्ञान विधि से ही पहचाना जाता है। व्यापक ज्ञान विधि से ही पहचाना जाता है। वस्तुओं का स्वभाव और धर्म ज्ञान विधि से ही पहचाना जाता है।

प्रश्न: इन्द्रियगोचर विधि से जो वस्तुएं मनुष्य ने पहचानी - क्या उनका ज्ञान उसमें पूरा हो गया?

उत्तर: नहीं! केवल संवेदनाओं के अर्थ में ही उनकी पहचान हुई। वह शरीर संरक्षण के लिए पर्याप्त हुआ। शरीर के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता थी - उस तरह से पूरी हुई। किंतु जीवन की जो आवश्यकता रही - उसके लिए ज्ञानगोचर विधि से पहचानने की आवश्यकता रही। वह भाग यूँ का त्यूं चुप ही रहा। ज्ञान-गोचर विधि से जो वस्तुओं को पहचानना था - वह परम्परा में पहचान में नहीं आया। इसी लिए जीवन-तृप्ति की बात प्रमाणित नहीं हुई। जीवन-तृप्ति क्या है, उसको मैंने देखा है। वह है - सुख, शान्ति, संतोष, और आनंद। यह मैंने अनुभव पूर्वक पाया।

अनुकूलता - प्रतिकूलता इन्द्रियगोचर है।
सुख-शान्ति-संतोष-आनंद ज्ञान-गोचर ही है।

इसकी आपको जरूरत है या नहीं, पहले यह तय ही कर लो! इसमें hotch-potch न रहे! इस पर सोचा जाए, चर्चा किया जाए, निष्कर्ष निकाला जाए। इसमें यही निकलता है - हर व्यक्ति सुखी होना चाहता ही है।

प्रश्न: ज्ञान-गोचर वाला भाग मनुष्य-जाति के पहचान में आने से कैसे छूट गया?

उत्तर: उस तरफ़ मनुष्य गया ही नहीं! ज्ञान-गोचर वाला पक्ष ही प्रमाण से सम्बंधित है। प्रमाण को लेकर विज्ञान ने यंत्र को अपनी विद्वता का प्रमाण माना। उससे मनुष्य कट गया। ईश्वर-वादी विधि से विद्वता का प्रमाण किताब को माना। उससे भी मनुष्य कट गया। ज्ञान और विद्वता का ध्रुवीकरण अभी तक यंत्र और किताब के साथ ही हुआ है। मनुष्य के साथ विद्वता का ध्रुवीकरण अभी तक हुआ ही नहीं। यह चर्चा ही नहीं हुई! जबकि आदमी का ही अधिकार है - ज्ञान-गोचर विधि! सुख-शान्ति-संतोष-आनंद की अपेक्षा मनुष्य में ही है। कितना हम बुद्धुपन से चले हैं, नालाकियत से चले हैं, या बुद्धिमानी से चले हैं - आप ही सोचो!

हर व्यक्ति आदि-काल से सुखी होने की अपेक्षा रखता है, पर मनुष्य को प्रमाण का आधार नहीं माना।

यह कितने बड़े अपराध का आधार हुआ है - आप सोच लो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Friday, August 8, 2008

अध्ययन - तृप्ति का मार्ग


न्याय-धर्म-सत्य को लेकर "सूचना" है.  यह सूचना अध्ययन पूर्वक मन को स्वीकार होती है, फिर तुलन में स्वीकार होती है, फिर चित्त में स्वीकार होती है, फिर बुद्धि में बोध हो जाती है. सत्ता में संपृक्त प्रकृति का बोध बुद्धि में ही होता है - मन में नहीं होता, चित्त में यह चित्रित नहीं हो पाता.  इसका बुद्धि में ही बोध होता है. यह बोध होने से बाकी सब संतुष्ट हो जाते हैं.

इसके लिए स्वयं में निरीक्षण-परीक्षण करने की आवश्यकता है.  सर्वप्रथम स्वयं में न्याय-धर्म-सत्य का निरीक्षण-परीक्षण होता है.  इसके लिए जिज्ञासा होती है - सत्य क्या है?  कहाँ है?  धर्म क्या है?  कहाँ है?  न्याय क्या है? कहाँ है?  उसके लिए इस प्रस्ताव से सूचना मिलती है - "सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व ही परम सत्य है.  सर्वतोमुखी समाधान ही धर्म है.  मूल्यों का निर्वाह करना ही न्याय है."  यह साक्षात्कार होकर बुद्धि में पहुँच जाता है.  पहुँच जाने पर यह अनुभव मूलक विधि से प्रमाण बोध होता है.  प्रमाण बोध होता है तो वह हमारे आचरण में आने लगता है.  इसको मैं सही मानूं या बाकी किसी बात को मानूं?  आप सोचो!


प्रश्न:  न्याय-धर्म-सत्य को लेकर जिज्ञासा जीवन में कहाँ होती है?

उत्तर:  तुलन में.  न्याय, धर्म और सत्य के नाम के प्रति पहले से ही सहमति है.  न्याय क्या है?  धर्म क्या है?  सत्य क्या है? - यह जिज्ञासा है.  सत्य के लिए पहले (आदर्शवाद में) कहा गया था कि सत्य अनिर्वचनीय है और यह समाधि में समझ आता है.  समाधि को मैंने स्वयं देखा है - समाधि में कोई सत्य मिला नहीं.  सत्य संयम करने पर मिला.  समाधि-संयम पूर्वक प्राप्त उस सत्य को शिक्षा विधि से कैसे पाते हैं, वह सीढ़ी आपको बता रहे हैं.  अध्ययन द्वारा जिज्ञासा पूर्वक सत्य-बोध होने की जगह में चले जाते हैं.

प्रश्न: भ्रम से जागृति के इस मार्ग को सिलसिले से और फ़िर से बताइये।

उत्तर: भ्रमित अवस्था में भी जीवन में न्याय, धर्म, और सत्य की अपेक्षा रहती है।  तुलन में न्याय-धर्म-सत्य मध्यस्थ-दर्शन द्वारा न्याय-धर्म-सत्य का प्रस्ताव शब्द के रूप में विचार में पहुँचा। इससे न्याय-धर्म-सत्य की अपेक्षा की पुष्टि हुई। इस शब्द से सम्बंधित वस्तु वहाँ नहीं रहा। शब्द द्वारा सह-अस्तित्व "होने" के रूप में वृत्ति में स्वीकार हो जाता है।  शब्द से इतना भारी उपकार हो जाता है.  सत्य का "होना" स्वीकार है तभी तो लोग उसके लिए अब तक प्राण देते रहे हैं!  न्याय , धर्म, सत्य "कुछ होता है" यह वृत्ति में स्वीकृत है - तभी तो यह न्याय है यह अन्याय है, यह धर्म है यह अधर्म है, यह सत्य है यह असत्य है - ऐसा तोलने की भाषा प्रयोग करता है.  लेकिन जीने जब जाते हैं तो शब्द भर पर्याप्त नहीं होता।  शब्द सुनने के बाद शब्द के अर्थ में जाने की आवश्यकता बन जाती है.   शब्द का अर्थ अस्तित्व में वस्तु है.  जैसे - पानी एक शब्द है, और पानी एक वस्तु है. उसी तरह "सहअस्तित्व" एक शब्द है -  "सहअस्तित्व" शब्द से इंगित वस्तु क्या है?  सहअस्तित्व के बारे में प्राप्त सूचना के आधार पर हम सहअस्तित्व वस्तु को पहचानने की जगह पहुँच जाते हैं।  सहअस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्वरूप में है.  सत्ता व्यापक है.  एक एक इकाइयों के रूप में अनंत प्रकृति है.

 


सहअस्तित्व के बारे में सूचना का परिशीलन करने हम चित्त में गए। जिसके फलन में सहअस्तित्व चित्त के चिंतन क्षेत्र में साक्षात्कार होता है। अध्ययन की शुरुआत चित्त से ही है। साक्षात्कार का यथावत बुद्धि में बोध हो जाता है। बुद्धि में जो बोध हुआ उसका तुंरत अनुभव हो ही जाता है।  चित्त में साक्षात्कार होने के बाद बोध, बोध के बाद अनुभव सिद्ध!  अनुभव ही प्रमाण है.


आत्मा में हुए अनुभव का परावर्तन बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध हो जाता है। उसके साथ प्रमाणित होने का संकल्प पूरा होता है।  अनुभव प्रमाण बोध होने के पश्चात तुरंत हमारा चिंतन शुरू हो जाता है.  चिंतन चित्रण की पृष्ठभूमि है.  संकल्प प्रमाणित करने का दवाई है!  संकल्प के अनुरूप चित्त काम करने के लिए चिंतन एक आवश्यक क्रिया है.  जिससे वृत्ति संतुष्ट हो जाती है यही न्याय है! यही धर्म है! यही सत्य है!  वृत्ति के इस प्रकार सहमत होने के लिए अनुभव आवश्यक रहा।

इस प्रकार अनुभव-मूलक विधि से तुलन में न्याय घंटी बजाने लगा, धर्म घंटी बजाने लगा, सत्य घंटी बजाने लगा। वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य पूर्ण दृष्टियों से प्रमाण-पूर्ण तुलन होने लगा।  इस विश्लेषण के अनरूप मन में आस्वादन हुआ मूल्यों का - और उन मूल्यों को प्रमाणित करने के लिए मन चयन करने लगा। अब मन में जो संवेदनाओं से जो सूचना प्राप्त होती है वह इसमें नियंत्रित हो गयी। उसके लिए कोई बाहर से बल नहीं लगाना पड़ा। मन में मूल्यों के आस्वादन के आधार पर जब चयन करने लगे - तो प्रमाणित होने लगे। प्रमाणित करने के लिए एक तरफ़ संकल्प बुद्धि में, और दूसरी तरफ़ मन में चयन। ये दोनों मिल कर प्रमाण परम्परा बन गयी।

शिक्षा विधि से अध्ययन
अध्ययन विधि से बोध
बोध विधि से अनुभव
अनुभव विधि से प्रमाण
प्रमाण विधि से प्रमाण-बोध का संकल्प
प्रमाण-बोध के संकल्प से चिंतन और चित्रण
चिंतन और चित्रण से तुलन और विश्लेषण
तुलन और विश्लेषण के आधार पर मूल्यों का आस्वादन - और उसी के लिए चयन


इस पैकेज को अच्छे से अपने में सुदृढ़ बनाओ - इसको यदि प्रमाणित करना शुरू कर दिया आपने, फ़िर जो होना है वह हो ही जायेगा। अपने में प्रमाणित होने के बाद अपने आगे जो होने वाला प्रक्रिया है - वह होगा ही। उसके लिए हमको अलग से सोचने की ज़रूरत नहीं है। इस तरह छोड़ने पकड़ने का पूरा झंझट ही समाप्त हो गया। समझ के करने हम जैसे जाते हैं तो प्रमाण ही प्रवाहित होता है।

यह जो मैंने समझाया - यदि आपको समझ में आता है, उसमें आपका निष्ठा होता है, तो फ़िर उसको अनुभव करने में आपको क्या तकलीफ है? अनुभव के बाद प्रमाणित करने का जो हमारा प्रवृत्ति बनता है - उसके अनुसार हमारा आचरण बनता है। अनुभव के बाद आचरण में न आए - ऐसा कोई बाँध नहीं है। आचरण में उसको आना ही है।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अमरकंटक, अगस्त २००६)

Wednesday, August 6, 2008

समझने के लिए जब प्राथमिकता बन जाती है - तभी समझ में आता है।

प्रश्न: आपकी बात तर्क-संगत है, और मेरी कल्पना में भी आती है। कब मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ - मैं इस बात को समझ गया हूँ?

उत्तर: आपकी कल्पनाशीलता शब्द से वस्तु तक पहुँचती है। सह-अस्तित्व ही समझने की वस्तु है। वस्तु को जीवन द्वारा पहचान लेना ही समझ है। कल्पनाशीलता समझ नहीं है। कल्पनाशीलता हर व्यक्ति का अधिकार है। जीवन में कल्पनाशीलता वस्तु को पहचानने के लिए catalytic agency है। कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए हमको वस्तु को पहचानना है। वस्तु को समझे तो उसका साक्षात्कार हुआ। समझ में आने का प्रमाण है - साक्षात्कार होना। हमको साक्षात्कार नहीं हुआ - मतलब हम अध्ययन नहीं किए हैं। सीधा-सीधा बात करें तो ऐसा ही बनता है।

समझने के लिए जब प्राथमिकता बन जाती है - तभी समझ में आता है। प्रस्ताव को सुनने के बाद आपकी कल्पना में ऐसा लग सकता है की आप समझ गए! कल्पना में वस्तु झलकता होगा - तभी आप मान लेते हो कि आप समझ गए! जबकि वस्तु को समझने के बाद उसके साक्षात्कार होने का खाका अभी बचा ही है।

आपके जीवन में शब्द द्वारा कल्पनाशीलता जो स्वरुप बनता है, उसके मूल में अस्तित्व में जो वस्तु है - वह जीवन जब स्वीकार लेता है, तब आपको वह साक्षात्कार होता है। जैसे - "पानी" एक शब्द है। पानी वह है - जो प्यास बुझाता है, धरती की, वृक्षों की, जीवों की, और मनुष्य की प्यास। यह सुनने के बाद आपके मन में पानी वस्तु के बारे में कल्पना आती है। उस कल्पना के सहारे आप धरती पर पानी वस्तु को पहचान लेते हो। पानी को पहचान लिया - तो पानी आपको साक्षात्कार हुआ। उसी तरह "न्याय","धर्म",और "सत्य " तीन शब्द हैं। ये शब्द निश्चित वस्तुओं को इंगित करते हैं - जो अस्तित्व में वास्तविकता हैं। आप जब उनको सटीक पहचान लेते हो - तो आपको वे समझ में आ जाते हैं। सत्य से सह-अस्तित्व ही इंगित है। सत्य समझ में आ गया - मतलब साक्षात्कार पूरा हुआ। साक्षात्कार पूरा होने के बाद बोध और अनुभव में देरी नहीं है। वह तत्काल ही होता है।

प्रश्न: पानी को जो अभी हम जो जीव-चेतना में पहचानते हैं, क्या इसका मतलब है - हमको पानी का साक्षात्कार हुआ है?

उत्तर: नहीं। जीव-चेतना में पानी को मनुष्य उसके अपने लिए उपयोग के अर्थ में ही पहचानता है। जीव-चेतना में मनुष्य पानी के साथ अपने सम्बन्ध, पानी के स्वभाव और धर्म को नहीं पहचानता। यही कारण है - मनुष्य जीव-चेतना में जीते हुए पानी के साथ अपने कर्तव्य को नहीं निभा पाता। समझदारी के बाद मनुष्य को पानी के साथ अपने कर्तव्य का बोध होता है। पानी को संरक्षित करने का दायित्व निर्वाह समझदारी के बाद ही होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Tuesday, August 5, 2008

अध्ययन की विधि

प्रश्न: हम जो अनुभवगामी विधि से अध्ययन कर रहे हैं, क्या हमको वही समझ में आएगा जो आपको आया है?

उत्तर: मेरे सम्मुख जो प्रकृति प्रस्तुत हुई थी, वही आपके लिए अध्ययन पूर्वक प्राप्त होने वाले साक्षात्कार में होता है। मैं जो आपके सम्मुख प्रस्तुत हो रहा हूँ, मैं एक प्रकृति का अंश ही तो हूँ। आप भी प्रकृति का, प्रकृति से ही अध्ययन कर रहे हैं। साधना-समाधि-संयम पूर्वक मेरी अर्हता बन गयी - जिससे प्रकृति मेरे सम्मुख अध्ययन के लिए प्रस्तुत हो गयी। अब आप के सामने भी वही अध्ययन करने की सम्भावना है।

प्रश्न: अनुभवगामी विधि में अध्ययन विधि क्या है?

उत्तर: परिभाषा से आप शब्द के अर्थ को अपनी कल्पना में लाते हैं। परिभाषा आपकी कल्पनाशीलता के लिए रास्ता है । उस कल्पना के आधार पर अस्तित्व में वस्तु को आप पहचानने जाते हैं। आपकी कल्पनाशीलता वस्तु को छू सकता है। वस्तु को जीवन ही समझता है। जीवन समझता है - तो वह साक्षात्कार ही होता है। अस्तित्व में वस्तु को पहचानने पर वस्तु साक्षात्कार हुआ। वस्तु के रूप में वस्तु साक्षात्कार होता है - शब्द के रूप में नहीं होता है। ऐसे साक्षात्कार होने पर वह बोध और संकल्प में जा कर अनुभव मूलक विधि से पुनः प्रमाण बोध में आ जाता है। प्रमाण-बोध में आ जाने से निश्चयन हो जाता है - कि यह वस्तु ऐसे ही है।

अध्ययन की शुरुआत सह-अस्तित्व से करना सही है। सह-अस्तित्व में ही जीवन है, रासायनिक भौतिक क्रिया है। सह-अस्तित्व साक्षात्कार होना, फ़िर उसमें जीवन साक्षात्कार होना, जीवन साक्षात्कार होने के बाद अजीर्ण और भूखे परमाणु साक्षात्कार होना। साक्षात्कार तक ही आप की लगन की ज़रूरत है। साक्षात्कार होने के बाद बोध और अनुभव में टाइम नहीं लगता। वह तत्काल होता है। देरी उसके के लिए तैय्यारी में लगता है।

अर्हता के बिना कोई चीज प्रमाणित नहीं होता। सत्य को समझने की अर्हता, और सत्य को प्रमाणित करने की अर्हता अध्ययन से ही आती है। सभी वस्तुओं को अस्तित्व में पहचानना अध्ययन है - जो एक क्रमिक विधि है, जिसमें समय लगता है । अध्ययन साक्षात्कार तक ले जाता है। साक्षात्कार हो जाना अध्ययन होने का प्रमाण है।

समझने के सूत्र हैं - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य। व्याख्या रूप में चारों अवस्थाएं हैं - जो प्राकृतिक गवाहियाँ हैं। चारों अवस्थाओं का रूप, गुण, स्वभाव और धर्म है - यह समझने की वस्तु है। प्राकृतिक गवाहियों का ही अध्ययन है। अस्तित्व क्यों है, कैसा है - यह आपको समझ में आना है। सह-अस्तित्व में व्यापक वस्तु भी है, एक-एक वस्तु भी है। व्यापक वस्तु का वैभव है - पारगामियता, पारदर्शिता, और व्यापकता। इन तीन स्वरुप में जब व्यापक समझ में आता है - तब इसी में समाई हुई अनंत प्रकृति हमको साक्षात्कार हो जाता है।

मुझको जैसे अध्ययन हुआ - आपको भी होगा।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Saturday, August 2, 2008

संयम काल में अध्ययन

प्रश्न: समाधि के बाद संयम में आपने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, और आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया?

उत्तर: आपको मुझसे यह सूचना के रूप में बात मिली है कि मैं साधना, समाधि, संयम विधि से मध्यस्थ-दर्शन की पूरी बात को पाया हूँ। उससे आप यह कह रहे हैं - संयम काल में मैंने गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता को कैसे अध्ययन कर लिया, जिसका परम्परा में कोई जिक्र नहीं था। आपका यह जिज्ञासा पूरा होना चाहिए - यह मेरा शुभ-कामना है।

मेरे पास पहले से यह कोई विचार नहीं था कि मैं यह अध्ययन करूंगा। पहला मुद्दा यह है। संयम करने से पहले मेरे पास अध्ययन का कोई syllabus नहीं था। उससे पहले समाधि में मैंने अपने आशा, विचार, और इच्छा को चुप होते देखा था। ऐसे स्थिति में - दिन में १२-१८ घंटे तक मैं ज्ञान होने का इन्तेज़ार में रहता था। समाधि में ज्ञान हुआ नहीं। अब क्या किया जाए? समाधि में ज्ञान नहीं होता - इसका अपने साथी, सहयोगी, और मित्रों को message देना है। पतंजलि योग-सूत्र में लिखा है - यदि संयम सफल होता है, तो समाधि होने की गवाही हो जाती है। उसके आधार पर संयम करने के लिए मैंने अपने मन को तैयार किया।

संयम के बारे में शास्त्रों में जो लिखा था - वह सिद्धि मात्र को प्राप्त करने के लिए है, ऐसी मेरी स्वीकृति हुई। सिद्धियाँ तो संसार को बुद्धू बनाने वालों को चाहिए। मुझे सिद्धि नहीं चाहिए - यह मैंने स्वीकारा। शास्त्रों में लिखा था - धारणा , ध्यान, और समाधि इन तीनो को जब हम इस क्रम में एकत्र करते हैं तो संयम होता है। मुझ में यह अन्तः-प्रेरणा हुई कि इस formula को उलटाया जाए। वैसा करने से शायद कुछ निकले - जो इससे भिन्न होगा। क्या भिन्न होगा - वही उसकी गवाही होगी। इस तरह मैंने समाधि, ध्यान, धारणा - इस क्रम में इन स्थितियों को एकत्र करने का निर्णय किया। स्वयं पर विश्वास और दृढ़ता करने की प्रवृत्ति मुझ में पहले से ही थी।

मैं पहले धारणा, ध्यान, और समाधि की भूमियों से गुजरा ही था - इसलिए इन स्थितयों को एकत्र करने में मुझको कोई मुश्किल नहीं हुई। न ही इसमें कोई ज्यादा समय लगा। इस तरह मैं अपने चित्त और वृत्ति को लगाने में तत्पर हुआ। कुछ चार महीने के बाद - मैं बहुत सारी ध्वनियां सुनने लगा - कई ऐसी ध्वनियां जो मैं पहले सुना नहीं था। मैंने सोचा - मुझे कर्ण-नाद तो नहीं हो गया है? लेकिन संयम के समय के बाद ऐसी कोई ध्वनियां होती नहीं रही। यह क्या है? - यह आगे पता चलेगा, यह सोच कर आगे चले। कुछ समय के बाद वे ध्वनियां शांत हो गयी। शांत हो गया - एक दम। शांत होने के स्थिति में वैसा ही था - जैसे गहरे पानी में डूबने पर आँखे खोलने पर सूरज, पानी, और आंखों के बीच जैसा दिखता है - वैसी ही स्थिति में मैं संयम में स्थित हो गया।

फ़िर धीरे-धीरे प्रकृति अपने आप उभड-उभड कर सामने आने लगी। धरती अपने स्वरुप में आयी। वनस्पतियाँ अपने स्वरुप में आयी। जीव संसार अपने स्वरुप में आया। मनुष्य संसार अपने स्वरुप में आया। ऐसा होने लगा। पहले धरती आयी। फ़िर ऐसी अनंत धरतियां। यह कोई महीने भर चला होगा। जैसे सिनेमा में देखते हैं - वैसे मुझको संसार दीखता रहा। इसके आगे चलने पर - एक चट्टान - फ़िर उसके detail में जाने पर, जैसे चूना पिघलता है, वह पिघला। और पिघल कर के फैला - और फ़ैल करके फैलते-फैलते उस जगह में आ गया, जहाँ वह हर भाग स्वचालित स्थिति में था। ऐसा मैंने परमाणु को देखा, पता लगाया।

इस तरह से कई चीजें पिघल पिघल कर मूल रूप में परमाणु के रूप में होने को मैंने देखा है। कुछ वस्तुओं के नाम मैं जानता हूँ, कुछ के नाम भी मैं नहीं जानता। ऐसे चीजों को पिघल कर स्वचालित स्वरुप में detail में मैं पहचाना। "यही परमाणु है।" - यह मैंने cognate किया। इस परमाणु को चलाने वाला कोई नहीं है - यह पहचाना। अनेक प्रजाति के परमाणुओं को व्यापक वस्तु में डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरे हुए स्वरुप में देखा।

उसके बाद प्राण-कोशा के स्वरुप में देखा। प्राण-कोशा के मूल रूप में यौगिक क्रिया के स्वरुप में अपने सम्मुख में आते हुए चित्र के रूप में देखता रहा। इसमें मुझे बहुत खुश-हाली होती रही। इस तरह हर वस्तु का detail में अध्ययन होता है, इसके अलावा पढने को चाहिए ही क्या? यही पढने की वस्तु रही। ऐसा पढ़ते-पढ़ते मनुष्य आ गया। मनुष्य में प्राण-कोशा से रचित शरीर। प्राण-कोशा पहले स्पष्ट हुए - प्राण-कोशा कैसे बनते हैं। प्राण-कोशा के मूल में प्राण-सूत्र, प्राण-सूत्र के मूल में पुष्टि-तत्व और रचना-तत्व। पुष्टि-तत्व को आप लोग protein कहते हो। रचना-तत्व को आप लोग harmone कहते हो। आप लोग वह भाषा जानते हैं - उस वस्तु को जानते नहीं हैं। वस्तु को मैं जानता हूँ। आप पुष्टि-तत्व को जानते नहीं हैं - पुष्टि-तत्व का नाम जानते हैं। वह पुष्टि-तत्व वस्तु के रूप में क्या है - वह आप नहीं जानते - उसको मैं जानता हूँ। उसी प्रकार प्राण-कोशा और प्राण-सूत्रों से रचना। प्राण-सूत्रों का नाम आप जानते हैं - वह प्राण-सूत्र किस वस्तु से कैसे बना है, उसको मैं देखा हूँ। रचना-तत्व और पुष्टि-तत्व निश्चित अनुपात में एक दूसरे से जुड़ जाते हैं - वैसे ही जैसे दो परमाणु-अंश एक दूसरे को पहचान करके साथ हो जाते हैं। जुड़ते हुए देखा है मैंने! जुड़ करके प्राण-सूत्र होते हुए देखा है! प्राण-सूत्र बन कर जल में निमग्न रहता हुआ देखा है। रसायन-जल में निमग्न रहते हुए - उनमें श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया की शुरुआत होते हुए देखा है! इससे ज्यादा क्या detail में देखना है? देखना है? मुझको पहले से यह सब देखने की इच्छा थी - ऐसा कुछ नहीं था। अपने आप से यह सब देखने को मिला।

प्राण-सूत्रों में जब श्वसन और प्रश्वसन की प्रक्रिया शुरू होती थी - तो उनमें एक खुशहाली दिखाई देती थी। उस खुश-हाली के साथ उनमें एक रचना विधि उभर के आ जाती थी। उस रचना में वे संलग्न हो जाते थे। उसके बाद बीज-वृक्ष न्याय विधि से उनकी परम्परा बनी। उसकी खुश-हाली से दूसरी रचना-विधि निकली। दूसरी रचना किए। वह फ़िर परम्परा हुआ - बीज वृक्ष विधि से। इस ढंग से अनेक रचनाएँ प्राण-सूत्रों से हुई।

रसायन तत्वों के मूल में गए - तो उनके मूल में है "जल"। किसी भी धरती पर पहला यौगिक वस्तु जल ही है। जल धरती पर ही टिकता है। घरती से मिल कर जल अम्ल और क्षार ग्रहण कर लेता है। किसी निश्चित अनुपात में अम्ल और क्षार मिल कर पुष्टि-तत्व होता है। किसी निश्चित अनुपात में मिल कर वे रचना-तत्व होते हैं। इसको देखा। इस तरह प्राण-सूत्रों का बनना देखा। प्राण-सूत्रों से रचनाएँ होते देखा।

संयम काल में कुछ कुछ जगह पर मैंने संस्कृत लिपि में लिखा हुआ भी देखा। यह सब बात देखने पर मुझे विशवास हुआ - यह संयम तो पढने की चीज है! इसको आगे बढाए - चारों अवस्थाएं जब स्पष्ट हो गयी, यह फ़िर दोहराने लगा।

पहले एक वर्ष मैं इन्तेज़ार ही करता रहा। फ़िर २-३ महीने ध्वनियों की बात रही, उसके बाद समाधि के आकार में आने में कुछ समय लगा, उसके बाद ध्यान की जगह में मैं जैसे ही पहुँचा - यह सब "तांडव" होने लगा! पूरा जड़ और चैतन्य प्रकृति व्यापक वस्तु में अपने आप को किस तरह से निरंतर पाया है। दूसरे - योग संयोग कैसे प्रकट हुआ है।

एक दिन मैं संयम में देखता हूँ - परमाणुएं अपने आप एक लाइन में लग गए। एक, दो, तीन, चार, उन्हें मैं गिन सकता था। कुछ संख्या के बाद परमाणुओं का अजीर्ण होना मिला। जो परमाणु अपने में से कुछ परमाणु-अंशों को बहिर्गत करना चाह रहे हैं - उनको मैंने अजीर्ण नाम दिया। उससे पहले कुछ परमाणुओं को भूखे परमाणुओं के रूप में देखा। वे परमाणु अपने में कुछ और परमाणु-अंशों को समा लेना चाह रहे हैं। इन दोनों तरह के परमाणुओं के मध्य में मैं एक ऐसे परमाणु को भी देखा - जो अपने एक आकार में घूम रहा है। जबकि बाकी सब परमाणु अपनी जगह में बैठे हैं। जब उस परमाणु को एक जगह में स्थिर होते हुए देखा - तब पता लगा इसकी गठन-तृप्ति हो गयी है। इस तृप्त परमाणु को गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया।

प्रश्न: क्या आपने संक्रमण होते हुए भी देखा?

नहीं। संक्रमण की कोई अवधि नहीं होती - इसलिए वह नहीं देखा। समय विहीनता का दर्शन नहीं होता। समय-विहीनता का मात्र अनुभव होता है। कतार में भूखे, अजीर्ण, और तृप्त परमाणु हैं - उनको देखा। लेकिन संक्रमण होते हुए नहीं देखा। संक्रमण हो गया है - यह अपना capacity लगता ही है, interpret करने में। वैसे ही - जैसे किसी क्रिया को नाम देने में हमारा capacity लगता है। तृप्त परमाणु अपने गठन में पूर्ण हो गया - तभी यह अपने आकार को बनाए रखा। गठन-पूर्ण परमाणु अनु-बंधन और भार-बंधन दोनों से मुक्त हो गया - और आशा-बंधन से युक्त हो गया। आशा-बंधन के आधार पर यह अपना पुंज-आकार बनाया। उस आकार की शरीर-रचना सह-अस्तित्व में प्रकटन विधि से उपलब्ध रही - जिसको चलाने के लिए प्रवृत्ति।
जीवन-परमाणु को पहले मैंने पुन्जाकर स्वरुप में देखा। उसके बाद धीरे-धीरे वह परमाणु के रूप में सम्मुख हुआ। उसमें मैंने देखा - मध्य में एक ही अंश है। यह देखने के लिए परमाणु कितना magnify हुआ होगा - यह मैं नहीं कह सकता। पर मैं परमाणु-अंशों को गिन सकता था। हर बात को मैं समझ सकता था। मध्य में एक अंश, पहले परिवेश में २, दूसरे में ८, फ़िर १८, फ़िर ३२ - इस तरह ६१ परमाणु-अंशों को मैंने जीवन-परमाणु में देखा।
इन ६१ परमाणु-अंशों में परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों हैं। परावर्तन में प्रकाशन करना बनता है। प्रत्यावर्तन में स्वीकार करना बनता है। इस तरह जीवन में ६१ परावर्तन और ६१ ही प्रत्यावर्तन में क्रियाएं हैं। इन कुल १२२ क्रियाओं को मैंने मानव-संचेत्नावादी मनोविज्ञान में स्पष्ट किया है। संयम काल में जीवन की क्रियाओं को गिनने का काम मैंने किया।

प्रश्न: इस सब में कितना समय लगा?

संयम काल में अध्ययन करने में मुझे ५ वर्ष लगे। जब तक मैंने यह नहीं माना कि मेरा अध्ययन पूरा हो गया है - इस दृश्य की पुनरावृत्ति होती रही। इससे मैंने माना कि नियति स्वयं प्रकटनशील है। इसमें कोई रहस्य नहीं है। अस्तित्व कोई रहस्य नहीं है - मैं यहाँ आ गया। यह स्वयं में विश्वास होने पर कि मेरा अध्ययन पूरा हुआ - फ़िर पहले जैसे ही अनेक धरतियां, जलता हुआ सूरज जैसा प्रतिबिंबित होता रहा। कई धरतियों को मैं देखते रहा। इन धरतियों में से कई में चारों अवस्थाओं को स्थापित भी देखा। स्थूल से स्थूल और सूक्ष्म से सूक्ष्म सब कुछ देखने के पर मैंने निर्णय किया - यही अस्तित्व है। यही व्यापक में संपृक्त प्रकृति है। इस बात में जब मुझको पूरा विश्वास हुआ - उसके बाद मैंने संयम को बंद किया।

प्रश्न: आपको जैसा अस्तित्व अध्ययन हुआ - क्या हमको भी वैसा ही अध्ययन होगा?

भाषा से वांग्मय के रूप में जो मैंने प्रस्तुत किया है - उसके अर्थ में जाओगे तो आपको वही मिलेगा। आपके पास उसके लिए agency है - कल्पनाशीलता। कल्पनाशीलता आपके पास agency है - अर्थ तक पहुँचने के लिए। अर्थ अस्तित्व में है। भाषा से जो मैंने कहा है - उसका अर्थ अस्तित्व में है।

मुझे यह पता लगा - मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है। जागृति जीवन द्वारा दसों क्रियाएं व्यक्त करने के रूप में हैं। १० क्रियाओं के detail में १२२ आचरण हैं - ६१ परावर्तन में, ६१ प्रत्यावर्तन में। इनको गिनने के बाद मुझको तृप्ति हुई कि संयम जो मैंने किया था, वह सार्थक हुआ। संयम सार्थक होने के बाद प्रयास ख़त्म हो गया।

इससे यह निकल गया - (१) भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है। (२) अस्तित्व में परिवर्तन है - उत्पत्ति नहीं है।

तृप्त परमाणु को मैंने पुंज-आकार में होता हुआ देखा। कभी घोडे, कभी गधे, कभी बकरी, तो कभी मानव के आकार में। कई प्रकार से यह दीखता रहा - यह महीनो तक चला। उसके बाद पुन्जाकार के मूल में परमाणु अपने में स्थिर हुआ - वह भी बाकी भूखे और अजीर्ण परमाणुओं की कतार में जैसे देखा था, वैसे ही एक परमाणु ही है। उसमें चार परिवेश और एक मध्य में अंश देखा। यह मुझ को समझ में आ गया : यह एक विशेष परमाणु है - जिसमें तृप्ति है। जब उसकी पूरी क्रियाएं मेरी गिनती में आ गयी - यह पता लगा उसमें परावर्तन और प्रत्यावर्तन दोनों है। जब ६१ प्रकार के परावर्तन और प्रत्यावर्तन का अध्ययन मेरा पूरा हो गया तो मैंने माना मेरा जीवन का अध्ययन पूरा हो गया।

विगत में कहा था - ब्रह्म से जीव-जगत पैदा हुआ। जीव के ह्रदय में ब्रह्म बैठा हुआ है - यह लिखा था। यह सब झूठ निकल गया। इसके विपरीत मैंने पाया - जीवन एक गठंपूर्ण परमाणु है, जो शरीर को चलाता है। मनुष्य शरीर के साथ एक विशेषता देखी - जीवन की कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को इसके साथ दूर दूर तक फैलता देखा। यहाँ तक मैंने देख लिया।

समाधि से बाहर निकलने पर मैं जीवन से सम्बंधित बात को मैं अपने में अध्ययन करता ही रहा। होते-होते पता चला - जीवन ही भ्रम-वश बंधन में पीड़ित होता है। जीवन ही जागृत हो कर बंधन से मुक्त हो जाता है। भ्रमित होने से बंधन। भ्रम-मुक्त होने से जागृति। भ्रम अति-व्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोष है। फ़िर भाषा से तो मेरे पास पहले से थोड़ा था ही - उसके साथ परिभाषा के साथ मैं समृद्ध हुआ। धीरे धीरे इस बात को मैं दूसरों को बताने में सफल हुआ।

प्रश्न: व्यापक वस्तु के पारगामी और पारदर्शी होने का आपने कैसे अनुभव किया?

जड़ और चैतन्य व्यापक वस्तु से घिरा है - यह मैंने देखा। डूबा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ है - यह देखा। भीगा हुआ से पारगामियता स्पष्ट हुई। डूबा हुआ है - यह क्रियाशीलता के रूप में पहचाना। एक दूसरे का परस्परता में प्रतिबिम्बन है - इससे पारदर्शिता समझ में आ गयी। प्रतिबिम्बन विधि से ही इकाइयों की परस्परता में पहचान है। ४-५ वर्ष में यह बात कितनी ही बार दोहराया होगा - जब तक मैं तृप्त नहीं हो गया, तब तक यह repetition होता रहा। जो मैं साधना किया था - वही इस बात को बनाए रखा ऐसा मैं मानता हूँ।

इस तरह - समाधि होता है, संयम होता है - ये बात attest हुई। योग, आगम तंत्र उपासना विधि से जो समाधि की तरफ़ जो इशारा किया है, वह ग़लत नहीं है। समाधि में ज्ञान होता है, जो लिखा - वह ग़लत है!

सम्पूर्ण अस्तित्व क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

जीवन क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

मानवीयता पूर्ण आचरण क्यों है, कैसा है - यह समझ में आना - इसको मैंने ज्ञान माना।

प्रश्न: क्या संयम काल में आपकी कोई पूर्व स्मृतियाँ भी कार्य-रत थी?

उत्तर: नहीं। समाधि में उनका निरोध हुआ, उसके बाद ध्यान, उसके बाद धारणा। इस तरह संयम काल में मेरी कोई पूर्व-स्मृतियाँ कार्य रत नहीं थी।

प्रश्न: अस्तित्व कैसा है?

उत्तर: अस्तित्व सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में है। जड़ प्रकृति रसायन-प्रक्रिया द्वारा बाकी तीनो अवस्थाओं को प्रकटित करता है। मूलतः पदार्थ-अवस्था से ही सारा रचना है। वही पदार्थ-अवस्था से ही परमाणु में विकास। पदार्थ-अवस्था ही है परमाणु। पदार्थ-अवस्था के परमाणु ही विकास-क्रम में भूखे और अजीर्ण - और विकसित अवस्था में उनको तृप्त या गठन-पूर्ण परमाणु नाम दिया है।

प्रश्न: शरीर में जीवन कैसे काम करता है?

उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को चलाने के लिए मेधस-तंत्र समृद्ध होने की ज़रूरत है। मेधस-तंत्र समृद्ध हुए बिना जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाना बनता नहीं है। शरीर और जीवन के बीच मेधस-तंत्र एक battery है। जीवन पहले इस battery को चार्ज करता है। मेधस तंत्र को प्रभावित करने से पूरा मेधस-तंत्र चार्ज हो जाता है। तो शरीर जीवंत दीखता है। शरीर एक प्राण-कोशाओं से बना ताना-बाना है। हर प्राण-कोषा सत्ता में भीगा है। दो प्राण-कोशों के बीच की रिक्त-स्थली में से जीवन travel करता रहता है। गर्भावस्था में horizontal विधि से travel करता है, और उस तरह शिशु को जीवंत बनाता है। शिशु के बाहर आने पर जीवन horizontal और vertical दोनों विधियों से घूमता है। दोनों विधियों से संचार को स्थापित करके प्राण-कोशाओं के बीच के रंध्रों में से घूमता रहता है। उसकी स्पीड की कोई गणना नहीं की जा सकती। अक्षय-गति के रूप में यह पुन्जाकार है। उसकी गति के आगे संख्या defeat हो जाती है। किसी भी विधि से जीवन की स्पीड का संख्याकरण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न: अस्तित्व क्यों है? अस्तित्व का प्रयोजन क्या है?

उत्तर: अस्तित्व का लक्ष्य है - सह-अस्तित्व में मानव द्वारा ज्ञान-अवस्था में प्रमाणित होना। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व है। दूसरे शब्दों में - यही अस्तित्व का प्रयोजन है। इसी लक्ष्य या प्रयोजन के लिए अस्तित्व में स्वयं-स्फूर्त प्रकटन विधि है। ज्ञान-अवस्था के प्रमाणित होने के लक्ष्य से ही सह-अस्तित्व विधि से अस्तित्व में प्रकटन है। अस्तित्व में प्रकटन है - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और अंत में ज्ञान-अवस्था। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व का परम प्रमाण प्रस्तुत होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Friday, August 1, 2008

भ्रम का कार्य-रूप है भय और प्रलोभन

भ्रम में जीता हुआ आदमी अपने सुखी होने का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है। इसलिए ऐसे आदमी का जड़ ही हिला रहता है। कितना भी कोई पैसे वाला हो, ऊंचे पद पर हो, बलशाली हो - भ्रमित आदमी अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता। यही कारण है - जागृति के प्रमाण के सामने आने पर भ्रम में जीते हुए आदमी को लगता है, जैसे उसकी जड़ ही उखड गयी हो!

भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय और प्रलोभन के रूप में ही हैं। भ्रम का कार्य-रूप है - भय और प्रलोभन। भ्रमित अवस्था में आप कुछ भी करें - उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है। नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन की जड़ है या नहीं? भय और प्रलोभन को छोड़ कर न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार किया जा सकता है। "हमको दाना-पानी मिलेगा या नहीं, हम भूखे तो नहीं मर जायेंगे?", "हमको लोग इतना मान देते हैं - वह नहीं रहेगा तो हम क्या करेंगे?" - इन्ही सब भय के मारे हम व्यापार करते हैं, या नौकरी करते हैं। चाहे कैसी भी नौकरी हो - उसका यही हाल है। चाहे कैसा भी व्यापार हो - उसका यही हाल है। यही विवशता है। विवशता मानव को स्वीकार नहीं है। इसीलिये भय और प्रलोभन की जड़ हिलती रहती है।

भय और प्रलोभन का कोई सार्वभौम मापदंड नहीं बन पाता। नौकरी और व्यापार का इसीलिये कोई universal standard बन नहीं पाता है। उसका स्वरुप बदलता ही रहता है। आज जिस प्रलोभन से नौकरी करते हैं, कल उससे काम नहीं चलता। नौकरी और व्यापार के अनिश्चित और परिवर्तनशील लक्ष्य होते हैं। कोई उन परिवर्तनशील और अनिश्चित लक्ष्यों तक पहुँच गया हो, और सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया हो - ऐसा न हुआ है, न आगे होने की संभावना है।

मध्यस्थ-दर्शन से निकला - जागृति का सार्वभौम मापदंड  है समाधान और समृद्धि। यह निश्चित लक्ष्य है। यह हर किसी को मिल सकता है। निश्चित लक्ष्य के लिए जब हम सही दिशा में प्रयास करें - तो वह सफलता तक पहुंचेगा ही।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)