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Wednesday, December 21, 2011

ज्ञान अनुक्रम से होता है.


सह-अस्तित्व अपने में अलग-अलग नहीं है.  केवल वस्तु हो, सत्ता न हो - ऐसा भी नहीं है.  केवल सत्ता हो, वस्तु न हो - ऐसा भी नहीं है.  वस्तु चार अवस्था में बताया.  यद्यपि सत्ता को भी "वस्तु" ही कहा है - क्योंकि उसकी वास्तविकता को बताया जा सकता है.  सत्ता की वास्तविकता है - पारगामीयता, पारदर्शीयता, और व्यापकता.  सत्ता सर्वत्र होने के रूप में बोध होता है.  इसी सत्ता में सम्पूर्ण पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था और ज्ञान-अवस्था की वस्तुएं डूबा हुआ, भीगा हुआ, और घिरा हुआ समझ में आता है.  भीगा हुआ समझ में आने से सभी वस्तुएं ऊर्जा-संपन्न और ज्ञान-संपन्न होने की बात समझ में आती है.

ऊर्जा-संपन्नता और ज्ञान-सम्पन्नता के बीच "संवेदनशीलता" होती है - जो शरीर को जीवन मानने से होती है या जीवन द्वारा शरीर के अनुसार चलने का स्वरूप है.  मानव का केवल शरीर की सीमा में ही जीना बनता नहीं है.  शरीर संबंधी वस्तुओं का ज्ञान आवश्यक हो जाता है.  वस्तुओं का यदि ज्ञान होने लगता है तो आगे स्वयं का भी ज्ञान होना चाहिए - इस जगह में आ जाते हैं.  स्वयं का ज्ञान करने जाते हैं तो शरीर और जीवन दोनों का ज्ञान होता है.  यह ज्ञान अनुक्रम से होता है.  पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था का प्रकट होना अनुक्रम है.  ज्ञान-अवस्था (मानव जाति) के प्रकट होने में पहले शरीर के अनुसार चलने की बात रही.  ज्ञान-अवस्था में अनुक्रम से ज्ञान होने पर व्यवस्था में जीना बनता है.

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

Tuesday, December 6, 2011

संवाद - एक पुस्तक

बाबा जी के साथ हुए संवाद जो इस blog पर हैं, उसका प्रथम संस्करण एक पुस्तक के रूप में भी अब उपलब्ध हैं.  पुस्तक का शीर्षक है - "संवाद".   इस पुस्तक को खरीदने के लिए संपर्क करें - 9993249981.

बाबा जी द्वारा लिखा गया इस पुस्तक का प्राक्कथन निम्न प्रकार से है: -

"संवाद करीब ३०० पेज में लिखा हुआ, उसको पढ़कर देखा.   यह मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद के अनुरूप प्रस्तुति है.  इसमें प्रश्न भी हैं और उत्तर भी.  इसे संभाल कर लिपिबद्ध किया है.  इसको यथावत छपा कर लोगों के हाथ में पहुंचाने का प्रयास स्वागतीय है.  इसकी उपयोगिता जिज्ञासुओं के लिए प्रेरक होना सहज है.  यह संवाद राकेश गुप्ता, बंगलौर और श्रीराम नरसिम्हन, पुणे के साथ संपन्न हुआ.

सर्व-शुभ हो!  जय हो!  मंगल हो!"

प्रणेता लेखक
ए नागराज
मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद
जिला अनूपपुर, अमरकंटक, भारत

Friday, December 2, 2011

इच्छा

मानव अपनी इच्छा से ही भटकता है और अपनी इच्छा से ही सही मार्ग पर चल देता है.
 
अध्ययन के लिए आपकी इच्छा बहुत प्रबल होना आवश्यक है, तभी अध्ययन हो पाता है.  अनुभव होता है - इस बारे में आश्वस्त होने की आवश्यकता है.  अनुभव के बारे में आश्वस्त हो गए, और अध्ययन की इच्छा प्रबल हो गयी - तो वह प्रमाण तक पहुंचेगा ही.  प्रमाण पर पहुँच गए तो वह परम है, उससे आदमी के हिलने वाली कोई  जगह नहीं है.  प्रमाण से ज्यादा महिमा किसी वस्तु की नहीं है.

तुलन साक्षात्कार की पृष्ठ-भूमि है.  प्रमाणित होने की अपेक्षा में हम तुलन करते हैं, तो साक्षात्कार होता है.  यह अपने में देखने की बात है.  किताब यहाँ से पीछे छूट गया.  प्रमाणित होने की अपेक्षा नहीं है तो साक्षात्कार होगा नहीं.  "हम अध्ययन करेंगे, बाद में प्रमाणित होने के बारे में सोचेंगे!" या "हम अनुभव करेंगे बाद में प्रमाणित होने का सोचेंगे!"  -  यह सब शेखी समाप्त हो जाती है.  अनुभव होने के पहले प्रमाणित होने की इच्छा के बिना हमे साक्षात्कार ही नहीं होगा. आगे बढ़ने के मार्ग में यह बहुत बड़ा रोड़ा है.  हमारी इच्छा ही नहीं है तो हमारी गति कैसे होगा?  प्रमाणित होने की अपेक्षा या इच्छा के साथ तुलन करने पर साक्षात्कार होता ही है.  साक्षात्कार होता है तो बोध होता ही है.  बोध होता है तो अनुभव होता ही है. अनुभव होता है तो प्रमाण होता ही है.  प्रमाणित होने की आवश्यकता के आधार पर ही अध्ययन होता है.

अध्ययन की परिभाषा ही है - अनुभव की रोशनी में स्मरण सहित किया गया सभी प्रयास अध्ययन है.  अनुभव की रोशनी से आशय है - प्रमाणित होने की आवश्यकता.  अध्ययन होता है तभी साक्षात्कार होता है.  साक्षात्कार होता है तो फिर रुकता नहीं है.  इसको अच्छी तरह समझने की ज़रुरत है.  अभी आदमी जहां अटका है, वहां से उद्धार होने का रास्ता है, यहाँ से!

- श्री नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

सूचना, अध्ययन, अनुभव, प्रमाण

संवाद का उद्देश्य है - सह-अस्तित्व वस्तु को देखने के लिए 'सूचना' मिल जाए.  सूचना के पठन के बाद अध्ययन के अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है. अध्ययन के बाद अनुभव के अलावा और कोई मार्ग नहीं है.  अनुभव के बाद प्रमाण के अलावा और कोई मार्ग नहीं है.  मंजिल यही है.  अध्ययन की अवधि होती है.  अनुभव की अवधि होती है.  प्रमाण की कोई अवधि नहीं है.  अनंत तक प्रमाण है.  अध्ययन करने में, अनुभव करने में समय लगता है - चाहे छोटा से छोटा समय क्यो न हो.   प्रमाण के लिए कोई समय नहीं है.  प्रमाण निरंतर है.  दूसरे अध्ययन में  ही जो समय लगता है, वह लगता है.  अध्ययन के बाद अनुभव में नगण्य, अत्यल्प समय लगता है.  उसके बाद प्रमाण तो कभी समाप्त ही नहीं होता.

अभी तक भौतिकवादी विधि से या आदर्शवादी विधि से अध्ययन नहीं हो पाया था.  भौतिकवादी विधि में पहले पठन है, फिर प्रयोग है.   आदर्शवादी विधि में श्रवण या पठन के बाद साधना है.  साधना में मौन अंतिम बात हुई.  इस तरह भौतिकवादी या आदर्शवादी विधि से मानव के जीने में प्रमाण तक पहुँचने का रास्ता नहीं मिला.  प्रयोग कोई जीने की जगह नहीं है.  मौन कोई जीने की जगह नहीं है.

मध्यस्थ दर्शन के विकल्पात्मक विधि में है - सूचना, अध्ययन, अनुभव, फिर प्रमाण.  उपलब्धि प्रमाण ही है. 

-  श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७)

Thursday, December 1, 2011

संयम काल में अध्ययन

प्रश्न: आपने संयम-काल में परमाणु का अध्ययन कैसे कर लिया?

उत्तर: वैसे ह़ी जैसे आप कागज़ से अध्ययन करते हो, वैसे ही मैंने प्रकृति में सीधे अध्ययन किया। अभी परमाणु को देखने के लिए, अणु को देखने के लिए, एक बैक्टेरिया को देखने के लिए आपको एक प्रयोगशाला चाहिए। इसके बिना आप देख नहीं पाते हैं। संयम की यही गरिमा है कि मैं उसको देख पाया। जितने भी हम विद्युत विधि से, विकिरण विधि से, और भी अन्य उपकरणो से देख पाते हैं, वह मानव की ताकत का आंशिक भाग है।

मानव अपनी सम्पूर्ण शक्तियो को कहीं भी लगा नहीं पाता है। मानव का अस्तित्व सहज विधि से 'होना' है, और अपनी मानसिकता के अनुसार 'रहना' है। मानसिकता के अनुसार ह़ी मानव ने सभी प्रयोगशाला को बनाया है। प्रयोगशाला विधि से मानव पूरी तरह नियोजित हुआ नहीं है, बचा ह़ी है। मानव की समग्रता समाधान में ह़ी व्यक्त होता है। बाकी सभी जगह मानव की क्षमता की आन्शिकता ह़ी व्यक्त होता है। उस आन्शिकता से मानव ने सार्थक-प्राप्तियां और निरर्थक-प्राप्तियां की हैं।  जैसे - दूर-संचार मानव-जाति द्वारा एक सार्थक-प्राप्ति है.  युद्ध-सामग्री एक निरर्थक-प्राप्ति है.  इन प्राप्तियो का लोकव्यापीकरण हुआ है. मानव ने इस तरह जो भी प्राप्ति की है, वह मनाकार को साकार करने के क्रम में हैं.  अब मनः स्वस्थता को लेकर संयम विधि से मैंने जो प्राप्त किया है, उसको शिक्षा विधि से पकडाने के लिए (लोकव्यापीकरण करने के लिए) हम घंटी बजा रहे हैं!

नाश होने की घंटी तो बज ह़ी रही है, अब बचने की भी घंटी बजाया जाए।

- श्री नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००६, अछोटी)

Thursday, November 24, 2011

प्रचलित विज्ञान का मूल्यांकन

मध्यस्थ-दर्शन से सर्व-मानव का लक्ष्य निकला – समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व। अभी का विज्ञान क्या करना चाहता है, उसको भी सोचा जाए?

अभी के विज्ञान से जो कल्याण हुआ है और जो नाश हुआ है, उसका मूल्यांकन किया जाए। विज्ञान से सकारात्मक भाग में दूर-संचार मिला है। नकारात्मक भाग में - विज्ञान से धरती बीमार हो गयी, प्रदूषण छा गया, और अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी। ये तीनो अनिष्ट का कारण हो गया। दूर-संचार इष्ट का कारण हुआ – जो विज्ञान-युग का देन है। दूर-संचार भी विज्ञान की चाहत से मानव जाति को हासिल नहीं हुआ। प्रौद्योगिकी विधि से हासिल हुआ। विज्ञान-युग आने के पहले से ही पहिये का आविष्कार हो ही चुका था। पहले मानव ने खुद उसको घुमाया, फिर जानवर से घुमाया। विज्ञान-युग में यंत्र को बनाया। यंत्र में ईंधन का संयोग किया। उससे धरती, पानी, हवा पर चलने वाले यान-वाहन बना लिए।

आदर्शवादी युग में भी अपने-पराये की दूरियां रहा – मैं इसका सत्यापन करने के पक्ष में हूँ। आदर्शवादी युग में भी अपने-पराये की दूरियां रही। दूरी पहले से रहा, जो विज्ञान-युग के आने से और बढ़ गया।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

सत्यापन

प्रश्न: यह जो आप-हमारे बीच में जो खाली स्थली है, यह “सत्ता” है – ऐसा मुझसे बोलना नहीं बन रहा है।

उत्तर: - पहले बोलना ही बनता है, फिर समझा हुआ को समझाना बनता है, फिर जिया हुआ को जीने के रूप में प्रमाणित करना बनता है। यही क्रम है। मैं भी इसी क्रम से गुजरा हूँ। इससे ज्यादा क्या सत्यापन होगा? इससे कम सत्यापन में काम चलेगा नहीं। ऐसी बात है यह!

प्रकृति जड़ ओर चैतन्य स्वरूप में है। जड़ है – भौतिक ओर रासायनिक क्रियाकलाप। चैतन्य है – जीवन। रासायनिक क्रियाकलाप हरियाली के रूप में तथा जीव-शरीरों ओर मानव-शरीरों के रूप में हमे प्राप्त है। इनको बनाने में मानव का कोई हाथ नहीं है। परमाणु में विकास हो कर गठन-पूर्णता के रूप में हर जीवन है। गठन-पूर्णता के फलन में हर जीवन “जीने की आशा” से संपन्न है। मानव-परंपरा में भी वैसा ही “जीने की आशा” से संपन्न जीवन है। उसके बाद है – विचार, इच्छा, संकल्प, और उसके बाद है – प्रमाण। अभी साढ़े-चार क्रिया में मानव आशा-विचार-इच्छा की सीमा में है। यह सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता (व्यापक-वस्तु) में ही संपृक्त है। व्यापक-वस्तु जड़-प्रकृति में ऊर्जा है, जिससे जड़-प्रकृति (भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में) में चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। व्यापक वस्तु ही चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान है. व्यापक वस्तु ही मानव-परंपरा में ज्ञान रूप में प्रकट है। ज्ञान ही मानव में ऊर्जा है. ज्ञान की ताकत पर ही मानव अपने वैभव को बनाए रख सकता है। इसको छोड़ कर मानव अपराध को विधि मान कर नाश के काम करेगा ही. संपृक्तता का मतलब यह है। यह बात समझ में आने से आगे की बात हो सकती है।

जड़-प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता वश क्रियाशीलता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) का मानव-परंपरा में आशा से विचार, विचार से इच्छा, इच्छा से संकल्प, और संकल्प से प्रमाण तक पहुँचने की बात है। इस तरह साढ़े चार क्रिया से दस क्रिया तक पहुंचना हर मानव की जिम्मेदारी है। जब इच्छा हो तब पहुँच सकते हैं। उसी के लिए हमने मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मैंने किसी चीज को निर्मित नहीं किया है। केवल “जो है” उसको स्पष्ट किया है। स्पष्ट होने पर हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। स्पष्ट होने की परिपूर्णता ही “अनुभव” है। अनुभव पूर्वक हम अच्छी तरह से जी सकते हैं। अच्छी तरह जीने का स्वरूप है – समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व।

जिसको मैंने पता लगाया है, इसको समझने के लिए क्या हमको किसी आइंस्टीन को पढ़ना है? प्रचलित विज्ञान के साथ हम जिस जगह पहुँच गए हैं, कितनी विलक्षण बात है। ऊर्जा को हम समझे नहीं हैं, और “ऊर्जा” का नाम लेते हैं! ये विज्ञानी ऊर्जा को एक “प्रतिक्रिया” के रूप में ही पहचाने हैं। जैसे – एक लकड़ी का जलना। इसमें जलने को ऊर्जा माना। जबकि वास्तविकता है – एक जलाने वाली वस्तु थी, एक जलने वाली वस्तु थी, इसलिए जलने की घटना हुई। जलने को ऊर्जा माना। जलने से पहले जो लकड़ी और वायु थी – उसको ये जड़ (ऊर्जा-विहीन) मानते हैं। विज्ञानी वैभव को ऊर्जा-विहीन मानते हैं, नाश करने को ऊर्जा मानते हैं। इस तरह विज्ञान द्वारा ऊर्जा को प्रतिक्रिया मानना केवल ह्रास की ओर ले गया। आप इसको हर जगह में, जिसको applied science मानते हैं, जांच करके देखिये।

जिस स्वरूप में मैंने ऊर्जा को पहचाना, वह प्रभाव रूप में विकास-क्रम, विकास, जाग्रति-क्रम, जाग्रति को प्रगट कर चुका है। उस ऊर्जा को आइंस्टीन नहीं पहचाना। आप बताइये – क्या मैं ऐसा कहने योग्य हूँ या नहीं हूँ? ऊर्जा को इस तरह पहचाने बिना मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता। यदि मानव अपनी पहचान कर नहीं सकता, तो जियेगा कैसे? ऐसे बिना पहचान के लकडबग्घा जैसे ही जियेगा, और उससे जो होना है वह हो जाएगा। मैंने अस्तित्व की स्थिरता और निश्चयता को जो स्पष्ट किया है, वह विज्ञानियों के सामने प्रकट नहीं है, ऐसी बात नहीं है। लेकिन जब उसी को वे देखे तो कैसे उसको अस्थिर-अनिश्चित मान लिए? उस सोच ने आदमी-जात को कहाँ पहुंचाया – सोच लो! यदि विज्ञान की सोच ही चाहिए, तो आप विज्ञान को ही अपनाओ। यदि नहीं तो विकल्प का अध्ययन करो।

प्रश्न: तो आप यथास्थिति को बताते हैं, आवश्यकता को बताते हैं, फिर हमारी इच्छा पर छोड़ देते हैं?

उत्तर: विकल्प को अपनाना स्वेच्छा से ही होगा। हम किसी को आग्रह करने वाले नहीं हैं। इच्छा हो तो अपनाओ, नहीं तो जो आप कर रहे हैं – वही ठीक है। उपदेश-विधि को मैंने अपनाया नहीं है। जबकि अनुसंधान से पहले मैं उपदेश-परंपरा से ही था।

संपृक्तता को समझना इस बात का आधार है। यदि संपृक्तता समझ आती है, तो आगे सभी कुछ समझ में आ जाता है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

Saturday, November 5, 2011

अनुगमन और चिंतन

अनुगमन का मतलब है – अनुक्रम से गति होना। अनुक्रम है – समझ, योजना, कार्य-योजना, फल-परिणाम, जिसमे फल-परिणाम समझ के अनुरूप हो। दूसरे – जीव-चेतना से मानव-चेतना को पहचानना अनुक्रम है, मानव-चेतना से देव-चेतना को पहचानना अनुक्रम है, देव-चेतना से दिव्य-चेतना को पहचानना अनुक्रम है। तीसरे – अनुभव से विचार, विचार से व्यव्हार की ओर गति होना अनुगमन है। अनुभव मूलक विधि से इच्छा का नाम है – चिंतन।

अनुगमन और चिंतन के लिए बताया है – स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण, कारण से महाकारण।

धरती स्थूल है, परमाणु सूक्ष्म है, परमाणु-अंश अति-सूक्ष्म है। जीवन सूक्ष्म है, अनुभव “परम-सूक्ष्म” है। सत्ता में संपृक्त सम्पूर्ण प्रकृति के रूप में सृष्टि स्थूल है, सत्ता “परम-सूक्ष्म” है. मानव-शरीर स्थूल है। मानव-शरीर में जो क्रियाएँ हैं – वे सूक्ष्म हैं। मानव-शरीर का जो प्रयोजन है – वह “परम-सूक्ष्म” है। वह प्रयोजन है – शरीर के द्वारा जीवन सहज जागृति को प्रमाणित करना। इन तीन विधियों से “परम-सूक्ष्म” को पहचाना जाता है। प्रकृति की सभी इकाइयां स्थूल, सूक्ष्म, अति-सूक्ष्म रूप में हैं – लेकिन “परम-सूक्ष्म” वस्तु व्यापक-सत्ता ही है। इस “परमता” को समझने के बाद मानव कहाँ गलती या अपराध कर सकता है, आप सोच लो!

न्याय समझ में आने के बाद अपराध है ही नहीं। जो लोग अपराध करते हैं, वे भी न्याय ही चाहते हैं।

सही समझ में आने के बाद गलती है ही नहीं। जो लोग गलती करते हैं, वे भी सही ही करना चाहते हैं।

“कारण” है – सह-अस्तित्व। “ महाकारण” है – सत्ता। सारी क्रियाकलाप का, ज्ञान का, अज्ञान का, विज्ञान का एक मात्र कारण है – सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्व में ही सारा अज्ञान है और सारा ज्ञान है। जीव-चेतना में जीना अज्ञान है। मानव-चेतना में जीना ज्ञान है। सत्ता ही जड़-प्रकृति को ऊर्जा के रूप में और चैतन्य-प्रकृति (जीवन) को ज्ञान के रूप में प्राप्त है। सत्ता में ही सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति है – इसीलिये सत्ता को “महाकारण” नाम दिया।

अभी तक किसी भी परंपरा में “महाकारण” का उद्धाटन करना नहीं बना। “ कारण” को बताना भी नहीं बना। “ स्थूल” को बताने वाले बहुत हैं। जीवन को समझे बिना “सूक्ष्म” को समझाना बनेगा नहीं। सूक्ष्म को समझने पर ही दृष्टा-पद समझ में आता है। दृष्टा-पद समझ में आने पर ही दृश्य समझ में आता है। दृश्य समझ में आने पर प्रयोजन समझ में आता है। प्रयोजन समझ में आना ही “परम-सूक्ष्म” है। यह ज्ञान हो जाना ही परिपूर्णता है। इन्द्रिय-गोचर विधि से मानव परिपूर्ण नहीं होता है, ज्ञान-गोचर विधि से ही मानव परिपूर्ण होता है। इन्द्रियगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता ही नहीं है, तो उसके साथ जियेंगे कैसे? ज्ञानगोचर विधि से सम्पूर्णता समझ में आता है, तभी उसके साथ जीना बनता है।

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २०१०, सरदारशहर)

Sunday, October 30, 2011

संयम-काल में अनुभव

प्रश्न: आपको अनुभव संयम-काल के पहले हुआ, बाद में हुआ, या संयम-काल में हुआ?

उत्तर: मुझे पाँच वर्ष के संयम-काल में अध्ययन-पूर्वक अनुभव हुआ। हर पक्ष का साक्षात्कार, बोध हो कर अनुभव होता रहा। चारों अवस्थाओं का अनुभव होने में समय लगता है। सह-अस्तित्व में ही विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति अनुभव हुआ। विकास-क्रम का अनुभव होने में सबसे अधिक समय लगा, उससे कम विकास में, उससे कम जागृति-क्रम में, उससे कम जागृति में। अनुभव करने में समय आपको भी लगेगा। जिस तरह मैंने मन लगाया वैसे आप मन लगाएं तो आपको उससे कम समय में अनुभव होगा। अनुभव के लिए अध्ययन में मन लगना आवश्यक है।

पूरी बात को अनुभव करने के बाद मैंने स्वीकारा यह मेरे अकेले का स्वत्व नहीं है, सम्पूर्ण मानव-जाति का स्वत्व है।

आपको भी “विकास-क्रम” और “विकास” को समझने के क्रम में सह-अस्तित्व अनुभव होगा, तथा “जागृति-क्रम” और “जागृति” को समझने के क्रम में मानव का ज्ञान-अवस्था में होना और यह ज्ञान मानव का स्वत्व होना अनुभव होगा।

अध्ययन के लिए मन लगाना पड़ता है। अनुभव के बाद मन लगा ही रहता है।

प्रश्न: क्या आपने भी संयम-काल में अध्ययन के लिए मन लगाया था?

उत्तर: हाँ। मन लगाए बिना संयम हो ही नहीं सकता।

प्रश्न: हम जिस विधि से अध्ययन कर रहे हैं, उसको आप आपकी विधि से अधिक सुगम क्यों कहते है?

उत्तर: - आप अध्ययन विधि से निष्कर्ष निकाल सकते हैं। निष्कर्ष निकालने के बाद अनुभव करना बहुत सरल है. मेरे पास कोई निष्कर्ष नहीं थे।

मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन से निष्कर्ष तो निकलते हैं। यह तो अनेक व्यक्तियों ने सत्यापित कर दिया है। निष्कर्ष निकाल लेने को “अंतिम-बात” न माना जाए। अनुभव को ही अंतिम-बात माना जाए। निष्कर्षों को अंतिम-बात मान लेते हैं तो भाषा में लग जाते हैं। अनुभव को अंतिम-बात मानते हैं तो प्रमाण में लग जाते हैं। इतना ही सूक्ष्म-परिवर्तन है।

प्रश्न: क्या अनुभव ही क्रिया-पूर्णता है?

उत्तर: अनुभव के जीने में प्रमाणित होने पर क्रिया-पूर्णता है। प्रमाणित होने का स्वरूप भी मैंने प्रस्तुत कर दिया है। विकसित-चेतना का अनुभव होता है। अनुभव में समझ का पूंजी पूरा रहता है। उसके बाद जीने में शुरुआत मानव-चेतना से है, फिर देव-चेतना, और दिव्य-चेतना है।

प्रश्न: क्या अध्ययन के लिए जो आपने वांग्मय लिखा है, वह पर्याप्त है?

उत्तर: - मेरे अनुसार सारी बात वांग्मय में आ चुकी है। कुछ बचा होगा तो आप बताना। लिखा हुआ जो है वह केवल सूचना है, उसको समझाने का काम अनुभव-मूलक व्यक्ति ही करेगा।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Tuesday, October 25, 2011

सिंधु-बिंदु न्याय

व्यापक-वस्तु बिंदु के रूप में अनुभव है, सिंधु के रूप में अभिव्यक्ति है। ज्ञान सत्ता का ही प्रतिरूप माना। जैसे सत्ता कहीं रुकता नहीं है, वैसे ज्ञान भी कहीं रुकता नहीं है। ज्ञान पारगामी है. जैसे ज्ञान मुझे स्वीकार होता है, आपको भी स्वीकार हो जाता है – तो ज्ञान पारगामी हुआ कि नहीं? यदि ऐसा ज्ञान ७०० करोड लोगों के बीच पारगामी होता है तो अखंड-समाज नहीं होगा तो और क्या होगा? सर्वाधिक लोग यदि समझदार होते हैं, तो अखंड-समाज होगा या नहीं होगा?

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

शंका का समाधान

मुझसे रायपुर में शिक्षा से जुड़े १५० लोगों की एक बैठक में एक शंका व्यक्त किया गयी थी – “आपकी बात कहीं एक सम्प्रदाय तो नहीं बन जायेगी?”

इसके उत्तर में मैंने कहा था – साम्प्रदायिकता को लेकर मैं तो सोच नहीं पाता हूँ, वह सोचना आपके अधिकार की बात है। आप इस प्रस्ताव को शोध करके बताइये कि इसमें सम्प्रदाय का आधार क्या है? उसको मैं ठीक कर दूंगा।

“सम्प्रदाय” शब्द का अर्थ है – समान रूप में प्रदाय होना। समान रूप में प्रदाय सही-बात का होता है, या गलती का होता है? सही-बात का ही समान रूप में प्रदाय हो सकता है। सही-बात का समान रूप से प्रदाय होगा तो अखंड-समाज ही होगा।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

प्रश्न और उत्तर

प्रश्न में कौनसा उत्तर मिलता है भला? अभी तक प्रश्न पैदा करने को, शंका पैदा करने को ही विद्वता माना। केवल प्रश्न करके, शंका पैदा करके संतुष्ट रहना नहीं बनेगा – उत्तर को अपनाने से संतुष्ट रहना बनेगा। मानव को ही समझने का और उत्तर को स्वीकार करने का अधिकार है।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

अनुभव प्रमाण की आवश्यकता

मैं उस दिन तृप्त हो जाऊँगा जिस दिन मुझको पता चलेगा कि दस-बीस आदमी प्रमाणित हो गए। मुझको इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। यही चाहिए! उसी के लिए मेरा सारा प्रयास है, मेरी सारी सोच उसी के लिए है, मेरा जीना उसी के लिए है।

प्रश्न: मैं सोचता हूँ, अनुभव तक हम यदि नहीं पहुँचते हैं तो क्या करेंगे?

उत्तर: “नहीं पहुंचेंगे” को क्यों सोचते हो? “कैसे पहुंचें?” – उसको सोचो! नहीं पहुँचने पर तो वही अपराध-परंपरा में रहेंगे। अभी इस धरती को छोड़ करके इस सौर-व्यूह में और कोई गृह नहीं है जहां “मानव” बन कर जी पाए। अभी तक इस धरती पर भी मनुष्य पशु-मानव और राक्षस-मानव के स्वरूप में ही रहा है। यदि मंगल-गृह पर भी जा कर रहने लगते हैं तो भी पशु-मानव राक्षस-मानव बन कर ही रहेंगे।

पशु-मानव और राक्षस-मानव की लड़ाइयों की ही गाथाएं हैं, हमारे इतिहास में। रहस्यमय देवी-देवताओं के गाने गाये, उनको “विशेष” मान कर उनकी भाटगिरी को ही विद्वता माने हैं। जबकि हमारी विधि से मानव ही समझदारी पूर्वक देवता स्वरूप में होता है।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Monday, October 24, 2011

मध्यस्थ-क्रिया का स्वरूप

सत्ता किस वास्तविकता को व्यक्त करती है?

सत्ता मध्यस्थ वस्तु है। वस्तु का मतलब है – जो वास्तविकताओं को व्यक्त करे। पारगामी, पारदर्शी, और व्यापक स्वरूप में सत्ता प्रस्तुत है। सत्ता मध्यस्थ है – क्योंकि उस पर सम और विषम का प्रभाव नहीं पड़ता है।

परमाणु एक से अधिक अंशों का गठन है। गठन पूर्वक ही परमाणु है. ऐसे परमाणु के मध्य में कुछ अंश रहते हैं, और परिवेशों में कुछ अंश होते हैं। जितने अंश चक्कर लगाते हैं उतने या उससे अधिक अंश मध्य में रहते हैं। अजीर्ण परमाणुओं में मध्य में परिवेशों से अधिक अंश रहते हैं, भूखे परमाणुओं में परिवेशों जितने अंश मध्य में रहते हैं। मध्य में जो अंश रहते हैं, वे घूर्णन गति करते हैं तथा जो परिवेश में रहते हैं – वे घूर्णन के साथ वर्तुलात्मक गति भी करते हैं।

परमाणु का मध्यांश मध्यस्थ-क्रिया करता है। यदि परिवेशीय अंश अपनी नाभिक से दूर जाते हैं (विषम क्रिया) या मध्य के पास आते हैं (सम क्रिया), तो उनको मध्यस्थ-क्रिया पुनः निश्चित-दूरी पर स्थापित कर देता है। इस तरह सम और विषम मध्यस्थ के नियंत्रण में रहते हैं। मध्यस्थ-दर्शन उसी के आधार पर नाम दिया है।

प्रश्न: मध्यस्थ-बल क्या है?

उत्तर: सत्ता में भीगे रहने से मध्यांश में जो ताकत रहता है, उसी का नाम है मध्यस्थ-बल। मध्यस्थ-बल के आधार पर ही चुम्बकीय बल है – जिससे मध्यांश द्वारा परिवेशीय अंशों को स्वयं-स्फूर्त विधि से नियंत्रित करना बनता है।

इसी आधार पर कहा है – “व्यवस्था का मूल रूप परमाणु है।”

सत्ता मध्यस्थ है – अर्थात सत्ता सम और विषम प्रभावों से मुक्त है। मध्यस्थ-क्रिया सम और विषम प्रभावों को नियंत्रित करता है। सत्ता कोई नियंत्रण करता नहीं है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया नियंत्रण करता है। सत्ता सम-विषम से अप्रभावित रहता है, जबकि मध्यस्थ-क्रिया सम-विषम को नियंत्रित करता है। दोनों में अंतर यही है. 

परमाणु के सभी अंग-अवयव अपने स्थान के अनुसार काम करते हैं। सभी परमाणु-अंश एक जैसे होते हैं। जो परमाणु-अंश मध्य में होता है वह मध्यस्थ क्रिया करता है। जो परिवेश में होता है वह परिवेशीय क्रिया करता है। यह स्वयं-स्फूर्त विधि से होता है। वैसे ही प्राण-कोषा रचना के जिस स्थान पर रहते हैं, उसके अनुसार काम करते हैं। प्राण-कोषा जो आँख में काम करते हैं वे आँख के अनुसार ही काम करते हैं, जीभ में जो प्राण-कोषा काम करते हैं, वे जीभ के अनुसार ही काम करते हैं। इसको मैंने संयम-काल में महीनों देखा। जब तक मैं संतुष्ट नहीं हो गया, तब तक देखा। इस तरह समझने के बाद ही मैंने दर्शन के रूप में व्यक्त किया। मैंने प्रकृति से समझा, वैसे ही आप समझा हुए व्यक्ति से समझ सकते हैं।

प्रश्न: प्रकृति में उद्भव, विभव, और प्रलय का क्या स्वरूप है?

उत्तर: उद्भव, विभव और प्रलय केवल भौतिक-रासायनिक संसार के साथ ही है। जीवन और सत्ता नित्य विभव ही है। जीवन दो स्वरूप में हुआ – भ्रमित रहने के स्वरूप में, और जागृत रहने के स्वरूप में। भ्रमित रहने का स्वरूप है – जीव-चेतना. जागृत रहने का स्वरूप है – मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। भौतिक-रासायनिक संसार में मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन है। जीवन में केवल गुणात्मक-परिवर्तन है। इस बात को भौतिकवाद बनाम विज्ञान अभी तक पहचाना नहीं है।

प्रश्न: भौतिक-रासायनिक संसार के साथ प्राकृतिक रूप में “प्रलय” का भाग है, उसको क्या ‘विषम क्रिया’ कहना ठीक है?

उत्तर: नहीं. विघटन होना ‘प्रलय’ है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में संगठन-विघटन निरंतर बना ही रहता है. विघटन कोई विषम क्रिया नहीं है।

प्रश्न: तो विषम क्रिया क्या है?

उत्तर: विषम क्रिया है – हमारे अधिकार से भिन्न काम करना। जैसे मानव का जीवों के स्वरूप में काम करना। व्यवस्था सहज सब कुछ सम है। व्यवस्था के विपरीत सब कुछ विषम है। मानव-जाति के अलावा विषम क्रिया करने वाला या व्यवस्था के विपरीत करने वाला, अपराध करने वाला कुछ भी नहीं है। यह एक मौलिक बात है। केवल मानव को व्यवस्थित होने की आवश्यकता है। बाकी सब अवस्थाओं को व्यवस्थित-मानव ही नियंत्रित करने का अधिकार रखता है। जैसे – जंगल बहुत बढ़ गया, उसको नियंत्रित करना। जीवों का अत्याचार बहुत बढ़ गया, उसको नियंत्रित करना. धरती में उत्पात बढ़ गया – उसको नियंत्रित करना। इसी नियंत्रण के अर्थ में मनुष्य का प्रकटन हुआ है। मानव को नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य के ज्ञान होने पर ही वह नियंत्रण को प्रकट कर सकता है। इसी ज्ञान का अनुभव होने की आवश्यकता है।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

प्रभाव

सत्ता का प्रभाव सर्वत्र बना रहता है, सत्ता विकृत नहीं होता। उसी तरह प्रत्येक वस्तु का प्रभाव है। किसी वस्तु का प्रभाव जितनी दूर तक है, उससे वह वस्तु विकृत नहीं होती। वस्तु का प्रभाव नहीं हो तो वस्तुओं के बीच दूरी ही नहीं होगी। इकाई का प्रभाव-क्षेत्र इकाई से अधिक होता ही है। इसी से इकाइयों के बीच में दूरी बना रहता है। दो इकाइयों के प्रभाव-क्षेत्र से अधिक दूरी उनके बीच बनी रहती है। चाहे दो परमाणु-अंशों की परस्परता हो या दो धरतियों की परस्परता हो। इसी आधार पर इकाइयां एक दूसरे को पहचानती हैं, और काम करती हैं।

जड़ वस्तु जितना लंबा-चौड़ा होता है उसी जगह में काम करता है। चैतन्य वस्तु जितना लंबा-चौड़ा होता है, उससे अधिक जगह में काम करता है। इकाई का प्रभाव-क्षेत्र उसके कार्य-क्षेत्र से ज्यादा होता है – इसीलिए इकाइयों में परस्पर दूरी होती है।

संपृक्तता से इकाइयों में ऊर्जा-सम्पन्नता, ऊर्जा-सम्पन्नता से इकाइयों में चुम्बकीय-बल सम्पन्नता, चुम्बकीय बल-सम्पन्नता से कार्य-ऊर्जा, और कार्य-ऊर्जा ही प्रभाव है। प्रभाव के आधार पर इकाइयों में पहचान और निर्वाह. इकाई की पहचान उसके प्रभाव या वातावरण के साथ ही है। इकाई अपने वातावरण (प्रभाव) के साथ ही सम्पूर्ण है।

प्रभाव = गुण। वस्तु का प्रभाव = वस्तु का गुण। वस्तु का गुण = वस्तु का परस्परता में सम, विषम या मध्यस्थ प्रभाव। जड़ प्रकृति में मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता है। मतलब जड़-वस्तु की मात्रा और उसके गठन में परिवर्तन होने के साथ साथ उसके प्रभाव (गुणों) में परिवर्तन होता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन) में मात्रात्मक-परिवर्तन नहीं होता, केवल गुणात्मक-परिवर्तन होता है, या केवल उसके प्रभाव में परिवर्तन होता है। भ्रमित-मानव का एक प्रकार का प्रभाव होता है। जागृत-मानव का दूसरे प्रकार का प्रभाव होता है।

जीवन जो ज्ञान को व्यक्त करता है, वह एक प्रभाव है। ज्ञान या अनुभव को व्यक्त करने से जीवन का कोई व्यय होता ही नहीं है। शरीर में जो व्यय होता है, वह अपने गति से होता है। ज्ञान को व्यक्त करने का स्वरूप है – अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, और प्रकाशन। अभिव्यक्ति और सम्प्रेश्ना में शरीर का कोई व्यय/क्षति होता ही नहीं है। प्रकाशन में भौतिक-रासायनिक वस्तु का भी व्यय होता है। ज्ञान प्रभाव है। प्रभाव से ही भाव, भाव से ही मूल्य, मूल्य से ही व्यवहार होता है।

जीवन में निहित आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, अनुभव के प्रभावों का मूल्यांकन करने वाला दिन आता है, तब “जीना” होता है। अभी शरीर को जीवन मानते हुए, हम मरने के लिए जीते हैं। जीवन को जीवन मानते हुए, हम जीने के लिए जीते हैं। शरीर एक भौतिक-रासायनिक रचना है, उसमे परिवर्तन भावी है। उसको स्थिर मान कर जीव-चेतना में शुरू करते हैं, इसलिए पराभावित होते हैं।

इकाइयां एक दूसरे के पास में आते हैं, फिर भी उनके बीच दूरी बनी रहती है। इकाइयां ठोस, तरल, और विरल के रूप में प्रगट होती हैं। अणुओं का प्रभाव-क्षेत्र एक दूसरे के साथ मिल जाता है, इसलिए वह तरल रूप में होता है – जैसे पानी में। तरल रूप में अणुओं का सबसे ज्यादा पास में होना पाया जाता है, उससे कम विरल में, और ठोस रूप में अणुओं का सबसे दूर रहना पाया जाता है। एक तरल-अणु और दूसरा तरल-अणु का प्रभाव-क्षेत्र सबसे निकट-वर्ती होते हैं, तब वह तरल या रस स्वरूप में होता है। उससे ज्यादा दूरी होती है विरल में, उससे ज्यादा दूरी होती है ठोस में।

प्रश्न: यह तो हमारे सामान्य तर्क से भिन्न बात लग रही है...

उत्तर: ठोस में अणु सब अलग अलग करके गिना जा सकता है। ठोस में अणुओं को अलग अलग करना सबसे आसान है, विरल में उससे कठिन है, तरल में सबसे कठिन है। जैसे मैंने संयम में देखा – एक ठोस वस्तु सामने आया, वह धीरे धीरे पिघलते गया, और पिघलते-पिघलते इस स्थिति में आया जब उसका हर अंग स्वयं-स्फूर्त विधि से क्रियाशील देखा। उसी को मैंने परमाणु नाम दिया. विरल में ऐसा होने के लिए उससे कई गुना अधिक श्रम है, तरल में उससे कई गुना अधिक।

परमाणु से अणु, और अणु से रचना है। पहले वह रचना भौतिक-क्रिया स्वरूप में ठोस, तरल, विरल रूप में है। भौतिक-क्रिया में रचना-तत्व का प्रगटन है। रचना-तत्व में रचना करने की प्रवृत्ति रहती है। रचना -तत्व से जितने भी खनिजों का प्रगटन होना है, वे तैयार हो गए। यौगिक विधि से रसायन-तंत्र का प्रगटन होता है। जल पहला रसायन है. रसायन-तंत्र में ‘पुष्टि-तत्व’ का प्रगटन है और ‘रचना-तत्व’ पहले से रहा। पुष्टि-तत्व में परंपरा बनाने वाली प्रवृत्ति होता है। रचना-तत्व और पुष्टि-तत्व के संयोग से प्राण-कोषा बन गए, जिनमे सांस लेने का गुण है। प्राण-कोषा में रचना-विधि स्वयं-स्फूर्त आयी। जिससे पहली रचना है – काई। काई में अपने जैसा दूसरा बनाने का गुण (बीज-वृक्ष न्याय) गवाहित होता है। काइयों की कई प्रजाति होने के बाद, फिर प्राण-सूत्रों में खुशहाली के आधार पर उत्तरोत्तर श्रेष्ठ वनस्पति-रचना, स्वेदज-शरीर रचना, जीव-शरीर रचना, मानव-शरीर रचना का स्वयं-स्फूर्त प्रगटन है। लिंग विधि (स्त्रीलिंग/पुर्लिंग) की शुरूआत वनस्पति-संसार से है। वनस्पति-संसार में पुर्लिंग प्राण-कोषा सर्वाधिक होता है, स्वेदज-संसार (मच्छर, मक्खी, कीड़े-मकोड़े आदि) में उससे कम होता है, अंडज-संसार में उससे कम होता है, पिंडज संसार में उससे भी कम होता है, और फिर मानव में स्त्रीलिंग और पुर्लिंग समान होता है। पशुओं में पुरुष में बहु-यौन प्रवृत्ति रहती है, स्त्री में संयत प्रवृत्ति रहती है. मानव में नर-नारी दोनों में यौन-चेतना एक सा होता है। यह समझ में आने से पूरा प्रकृति आपको समझ में आता है या नहीं, यह आपको सोचना है।

साम्य-ऊर्जा या सत्ता में भीगे रहने के फलस्वरूप सभी इकाइयों में ऊर्जा-सम्पन्नता है। ऊर्जा-सम्पन्नता के आधार पर चुम्बकीय-बल सम्पन्नता है। ऊर्जा नहीं हो तो चुम्बकीयता भी न हो। चुम्बकीय-बल सम्पन्नता के आधार पर ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता के फलन में कार्य-ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा का ही प्रभाव-क्षेत्र होता है। इकाइयों की परस्परता में उस प्रभाव-क्षेत्र से अधिक दूरी होती है। इसीलिये इकाइयां शून्याकर्षण में हैं। इकाइयां एक दूसरे के प्रभाव-क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करती, उससे अधिक दूरी बना कर स्वतन्त्र रहते हैं।

प्रश्न: कार्य-ऊर्जा का क्या स्वरूप है?

उत्तर: जड़ प्रकृति में कार्य-ऊर्जा का स्वरूप है – ध्वनि, ताप और विद्युत। इसके साथ इकाइयों में परस्पर चुम्बकीय-बल के रूप में भी कार्य-ऊर्जा है। इन चार प्रकार की ऊर्जा का ही इकाई के चारों ओर वातावरण बना रहता है। मानव के चारों ओर भी उसका वातावरण बना रहता है। आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, और अनुभव-प्रमाण – इन पाँच प्रकार से मनुष्य में ऊर्जा-सम्पन्नता का प्रभाव रहता है।

प्रश्न: विद्युत तैयार होने की प्रक्रिया में क्या होता है?

उत्तर: - इकाई के चुम्बकीय प्रभाव-क्षेत्र का विखंडन होता है जो विद्युत में परिणित होता है। विद्युत भी एक प्रभाव ही है। विद्युत कोई कण नहीं है।

प्रश्न: प्रकाश क्या है?

उत्तर : - प्रकाश भी इकाई का प्रभाव ही है। प्रकाश कोई कण या तरंग नहीं है। प्रकाश कोई गति नहीं होता है। ताप-परम बिम्ब के प्रतिबिम्ब को प्रकाश कहा है। हर वस्तु प्रकाशमान है।

प्रश्न: चैतन्य शक्तियों का प्रभाव कितनी दूर तक रहता है?

उत्तर: अनुभव का प्रभाव सम्प्रेश्ना के रूप में दूर-दूर तक जाता है। सम्प्रेश्ना का मतलब है – पूर्णता के अर्थ में व्यक्त होना। मानव की जागृति का प्रभाव असीम दूरी तक जाता ही है। अनुभव के प्रभाव-क्षेत्र में तो आप समझ ही रहे हैं। शब्द के प्रभाव से उससे इंगित अर्थ को अस्तित्व में आप समझ रहे हो। शब्द के अर्थ में सत्य को समझ रहे हो।

प्रश्न: इकाइयों के बीच जो परस्पर प्रभाव है, उसमे क्या कोई वस्तु एक से दूसरे तक जाता है?
उत्तर: नहीं। जड़ इकाइयों के बीच चुम्बकीय-धारा कोई वस्तु नहीं है, वह प्रभाव ही है। उसी तरह आप जो शब्द से अर्थ को समझते हो, उसमे मुझसे आप तक कोई वस्तु जाता नहीं है, वह प्रभाव ही है।

प्रश्न: जड़ और चैतन्य शक्तियों में क्या तुलना है?

उत्तर: जड़-प्रकृति में चुम्बकीयता है। चैतन्य-प्रकृति में चुम्बकीयता आशा के स्वरूप में काम करता है।

जड़ प्रकृति में चुम्बकीय-बल के आधार पर भार-बंधन और अणु-बंधन होता है, वही गुरुत्वाकर्षण के रूप में स्पष्ट होता है। जड़-इकाइयों के प्रभाव-क्षेत्र जब एक दूसरे को प्रतिच्छेद करते हैं तो भार-बंधन और अणु-बंधन का प्रकाशन होता है। चैतन्य-प्रकृति में गुरुत्त्वाकर्षण का स्वरूप है – न्याय-धर्म-सत्य दृष्टि के विचारों का प्रिय-हित-लाभ दृष्टि के विचारों को आकर्षित करना और स्वयं में विलय करना।

जड़-प्रकृति में सामान्य-हस्तक्षेप ‘होने’ और ‘रहने देने’ के स्वरूप में है। जैसे – एक झाड है, उसके नीचे एक पौधा है। झाड पौधे को रहने देता या नहीं रहने देता है। यह रहने देना या नहीं रहने देना सामान्य-हस्तक्षेप है। जैसे – वट-वृक्ष अपने नीचे कम से कम पौधा रहने देता है। आम का वृक्ष अपने नीचे अधिक से अधिक पौधा रहने देता है। चैतन्य-प्रकृति में या सामान्य-हस्तक्षेप समझने-समझाने के रूप में है।

चैतन्य प्रकृति में प्रबल-हस्तक्षेप बुद्धि के रूप में है। सत्य-बोध हुआ है तो प्रबल-हस्तक्षेप है. प्रबल-हस्तक्षेप जड़ प्रकृति में नहीं होता। प्रबल-हस्तक्षेप का प्रदर्शन मानव ही करता है – समझदारी को एक से दूसरे में अंतरित करने के रूप में।

मध्यस्थ-बल जड़-प्रकृति में भी रहता है, लेकिन चैतन्य-प्रकृति में मध्यस्थ-बल सर्वाधिक रहता है। मध्यस्थ बल सम और विषम से मुक्त है। इसका चैतन्य प्रकृति में विषम से मुक्ति का अर्थ है – भ्रम से मुक्ति, अपराध से मुक्ति, और भय से मुक्ति।

प्रचलित विज्ञान में जड़-प्रकृति के अध्ययन में पहले चार बलों (विद्युत चुम्बकीय बल, गुरुत्त्वाकर्षण बल, सामान्य-हस्तक्षेप और प्रबल-हस्तक्षेप) का नाम लिया जाता है। इन प्रचलित नामो की मैंने परिभाषा दी है। मध्यस्थ-बल का प्रचलित-विज्ञान में नाम भी नहीं है।

प्रचलित-विज्ञान ने ‘बोध’ नाम की कोई चीज नहीं पहचानी। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं का एक दूसरे पर प्रभाव होता है, यह पहचाना है। प्रचलित-विज्ञान ने चैतन्य-वस्तु (जीवन) को नहीं पहचाना है। बोध को यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) चैतन्य-वस्तु (जीवन) में पहचाना है. इससे किस विज्ञानी को तकलीफ है?

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Wednesday, October 19, 2011

इकाई

"जो नियंत्रित है वह इकाई है, यही स्वभाव गति क्रिया है। गठन रहित संतुलित इकाई नहीं है। हर गठन में कई अंशों या अंगों एवं इकाइयों को पाया जाना अनिवार्य है। क्रियाएँ अनंत हैं तथा समस्त क्रियाएँ सत्ता में ही ओत-प्रोत व नियंत्रित हैं, जिससे हर इकाई शक्त है अर्थात सत्ता में ही हर इकाई को शक्ति प्राप्त है। हर इकाई अनंत की तुलना में एक अंश ही है। हर इकाई का गठन अनेक अंशों से संपन्न है। इकाई निष्क्रिय हो ऐसी कोई सम्भावना नहीं है। इकाई का ह्रास व विकास प्राप्य योग पर ही है। इकाई में कंपन क्रिया का बढ़ जाना ही विकास की घटना है, तथा इसके विपरीत में ह्रास की घटना है। चैतन्य इकाई में कंपन की अधिकता ही विशेषता है। अध्ययन से हर इकाई की गठन प्रक्रिया एवं उसका परिणाम स्पष्ट होता है। प्रत्येक इकाई का सर्वांगीण दर्शन उसके रूप, गुण, स्वभाव व धर्म से होता है। इनमे से रूप, गुण और स्वभाव समझ में आता है और धर्म की मात्र अनुभूति ही संभव है, जो अनुभव प्राप्त इकाई द्वारा एक प्रक्रियाबद्ध अनुभव के सम्भावना पूर्ण आदेश, सन्देश, एवं निर्देश व अध्ययन से ही संभव है।" - मानव व्यवहार दर्शन (श्री ए. नागराज)

Sunday, October 16, 2011

सबसे मासूमियत का भाग



अनुभव के लिए स्वीकृति ज्यादा है, प्रश्न कम है। प्रमाणित होने के लिए अनुभव है, और सभी प्रश्नों का उत्तर है।

वास्तविकता = वस्तु जैसा है, मतलब - त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी।

प्रश्न: दुःख क्या कोई वास्तविकता है?

उत्तर: दुःख वास्तविकता होती तो उसको सभी-मानव सभी-समय समाप्त करने के लिए कोशिश क्यों करते रहते हैं? समस्या = दुःख. समस्या या दुःख कभी भी मानव को स्वीकृत नहीं है। समस्या और दुःख में सकारात्मक भाग ही नहीं है। जीव-चेतना में जीता हुआ भ्रमित-मानव भी समस्या और दुःख को नकारता है। दुःख को भला कौन मोलना चाहता है?

प्रश्न: तो “दुःख” शब्द से क्या इंगित है?

उत्तर: पीड़ा. व्यवस्था का विरोध ही पीड़ा है, दुःख है, समस्या है। व्यवस्था का स्वरूप सह-अस्तित्व है। व्यवस्था के विपरीत जो भी मनुष्य प्रयत्न करता है, सोचता है - वह दुःख है।

आदर्शवाद ने कहा – सुख और दुःख को बताया नहीं जा सकता. जबकि यहाँ कह रहे हैं – व्यवस्था में जीना सुख है, समाधान है। अव्यवस्था में जीना दुःख है, समस्या है। मानव जब व्यवस्था में जीता है तो तीनो प्रमाण होते हैं – अनुभव-प्रमाण, व्यवहार-प्रमाण, और प्रयोग-प्रमाण। इन तीनो प्रमाण के साथ सुखी नहीं होगा तो और क्या होगा?

प्रश्न: वियोग होने पर दुःख तो होता है न?

उत्तर: वियोग होता कहाँ है? वियोग का मतलब है – नासमझी. शरीर सदा के लिए बनता ही नहीं है। एक आयु के बाद शरीर विरचित होता ही है, जैसे पत्ता पक कर गिर ही जाता है, झाड एक दिन मर ही जाता है, जीव-जानवर मर ही जाते हैं – वैसे ही मानव-शरीर भी मरता है. यह एक साधारण बात है।

प्रश्न: लेकिन मृत्यु से होने वाले वियोग पर शोक तो होगा ही न?

उत्तर: परंपरा यदि बनता है तो वियोग होगा ही नहीं. मेरी बात आपको स्वीकार हो जाती है, तो फिर हमारा वियोग कहाँ हुआ? जीवन मूलक विधि से वियोग नहीं है। जीवन जीवन से प्रभावित होकर रहता है, यह परंपरा है. शरीर का वियोग होता है. जीवन शरीर को छोड़ देता है, जब वह उसके काम का नहीं रहता, या उसके अनुसार काम नहीं करता. परंपरा विधि से वियोग होता नहीं है। शरीर-यात्रा में जो उद्देश्य अपूर्ण रह गया, उसकी पूर्ति करना आगे की पीढ़ी का काम है। मानव-परंपरा जीवन उद्देश्य की आपूर्ति के लिए है।

अभी जीवन-उद्देश्य को पहचाने बिना हम दौड रहे हैं, इसीलिये दुःख है, शोक है, समस्या है। जीवन-उद्देश्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) और मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को पहचानने के लिए अभी तक इतिहास में कौन गया? क्या ऐसा इतिहास में आपने कहीं पढ़ा है? कौनसे समुदाय की परंपरा ने इसको अपनाया है?

जीवन-उद्देश्य और मानव-लक्ष्य परंपरा में स्वीकार होने पर उसी की आपूर्ति के लिए सभी काम करते हैं, फिर उसमे वियोग हुआ या निरंतरता हुई? इस निरंतरता का स्वरूप है – अनुभव-प्रमाण, व्यवहार-प्रमाण, प्रयोग-प्रमाण। इसकी आपूर्ति के लिए ही जीना, आगे पीढ़ी के लिए हस्तांतरित करना, और शरीर को छोड़ देना। इसमें वियोग क्या हुआ? मानव-परंपरा में शरीर पुनः बनता ही रहता है. पुनः शरीर ग्रहण करेंगे, यही काम करेंगे. कहाँ वियोग? किसका वियोग? इसमें रोने-धोने की जगह कहाँ है? दूसरे के शरीर शांत होने पर संवेदनाएं तो होती हैं – यदि और जीते रहते तो लक्ष्य के लिए और काम कर सकते थे, इस अर्थ में शोक व्यक्त करना ठीक है। यह सबसे मासूमियत का भाग है।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Friday, October 14, 2011

सहीपन का अनुभव



अनुभव के बिना स्वयम को विद्वान मानना ही गलत हो गया। देखिये – मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, यदि मुझे यह बोध हो सकता है तो आपको क्यों नहीं हो सकता? आप पढ़े हो, लिखे हो, सब कुछ किये हो – यह मान कर ही तो मैंने इसे अध्ययन के लिए प्रस्तुत किया है। यदि मैं यह मानता मनुष्य समझ ही नहीं सकता, तो यह प्रयास ही क्यों करते? मनुष्य समझने वाली वस्तु है और मनुष्य के पास समझने की प्यास है – ऐसा मान करके इसे व्यक्त किया है। “ मनुष्य में समझने की प्यास है” – यहाँ तक तो प्रचलित है। लेकिन प्यास को बुझाने में आनाकानी करते हैं, व्यक्त करने में लग जाते हैं, अनुभव-बिंदु तक पहुँचने को भूल जाते हैं। सबको समझना ही होगा – दूसरा कोई रास्ता नहीं है। समझने के बाद ही प्रमाण है, प्रमाण सर्वतोमुखी है। अनुभव से सर्वतोमुखी समाधान आता है, फिर कौनसी जगह है फंसने की? अनुभव हर व्यक्ति का अधिकार है। यदि आप अनुभव करते हैं, तो आप हमारे जैसे या हमसे अच्छे ही होंगे। मैं कम-से-कम अच्छे होने का प्रमाण प्रस्तुत किया हूँ। अधिक-से-अधिक अच्छे होने का प्रमाण प्रस्तुत करने की जगह आपके लिए रखा ही है। मेरा सभी प्रमाण मानव-चेतना का है. देव-चेतना और दिव्य-चेतना के प्रमाण प्रस्तुत करने का स्थान रखा ही है।

हमारा कहना सूचना है। “ आप हमसे अच्छे हो सकते हैं” – यह भी सूचना है। हमारा जीना ही प्रमाण है। सूचना के बिना अनुभव तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं है। सूचना तो मिलना चाहिए - सहीपन के लिए। सहीपन को व्यक्त करने के पक्ष में काफी लोग सहमत हो गए हैं। सहीपन को अनुभव करने के पक्ष में कम लोग हैं। कुछ लोग सहीपन को अनुभव करने के लिए भी जुड़े हैं।

प्रश्न: कभी-कभी ऐसा लगता है कि अनुभव के लिए जो शेष प्रयास आवश्यक हैं, उनके लिए कुछ ध्यान विधियों की आवश्यकता है...

उत्तर: अध्ययन करना ही ध्यान है। अध्ययन करने में ध्यान नहीं है, इसीलिये अनुभव में जाते नहीं हैं। पठन में ध्यान है, अध्ययन में ध्यान नहीं है। सत्ता निर्विकार स्वरूप में रहता है। सारी जड़-चैतन्य प्रकृति संपृक्त स्वरूप में रहता है। यही अनुभव होता है।

- श्रद्धेय  ए. नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

आस्वादन और स्वागत

संवेदनशीलता पूर्वक मन में स्वागत क्रिया और आस्वादन क्रिया है। स्वागत क्रिया समझने के अर्थ में है, आस्वादन क्रिया प्रमाणित करने के अर्थ में है। स्वागत क्रिया को छोड़ कर हम आस्वादन क्रिया में ज्यादा रम जाते हैं। स्वागत क्रिया केंद्रीकृत होता है. आस्वादन क्रिया फैलता है। फैलने वाली क्रिया को हम स्वीकार लेते हैं, स्वागत क्रिया को हम छोड़ देते हैं – यही बुद्धिजीवियों का रोग है।



स्वागत क्रिया संवेदनशीलता को अनुभव-बिंदु तक ले जाता है, अनुभव को मूल्यांकन करने में ले जाता है। संवेदनशीलता के बिना संज्ञानशीलता (या बोध) होता ही नहीं है। संवेदनशीलता के बिना संज्ञानशीलता होता ही नहीं, किसी को नहीं होगा! इस धरती पर तो क्या, अनंत धरतियों पर किसी को नहीं होगा!

प्रश्न: मैं पहले सोचता था, संवेदनशीलता अपने में कोई “अच्छी” वस्तु नहीं है। लेकिन आप यहाँ कह रहे हैं, संवेदनशीलता के बिना बोध हो ही नहीं सकता!

जीवन जब मानव-शरीर को जीवंत बनाता है तो संवेदनशीलता प्रकट होती है। मानव में संवेदनशीलता “तृप्ति” के अर्थ में काम करता है। तृप्ति को शरीर में खोजता है तो वह मिलता नहीं है। शासन में खोजता है, तो भी तृप्ति मिलता नहीं है। शिक्षा में खोजता है, तो भी मिलता नहीं है। इन तीन जगह में तृप्ति नहीं मिल पाने के कारण मानव मान लेता है कि जीने में तृप्ति मिलता नहीं है। यदि जीने में तृप्ति नहीं मिलेगा तो कहाँ तृप्ति मिलेगा? संवेदनशीलता पूर्वक मन में स्वागत क्रिया है। स्वागत क्रिया संवेदनशीलता को संज्ञानशीलता (या बोध) तक ले जाता है। संज्ञानशीलता पूर्वक अनुभव-मूलक विधि से तृप्ति के साथ जीना बनता है। इस तरह जीने को विकसित-चेतना (मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना) कहा है।

इस तरह (अध्ययन विधि से) आशा, विचार, और इच्छा पूर्वक हम बोध तक पहुँच गए – संज्ञानीयता के लिए. संज्ञानीयता का ही बोध होता है, निरर्थकताएं चित्रण तक ही रह जाता है – जिनका बोध नहीं होता। इस तरह चित्रण, विचार और आशा के साथ प्रगटन में बोध नहीं है। अनुभव मूलक विधि से बोध होकर के प्रमाण रूप में जीने में प्रगट कर सकते हैं। प्रमाण जीने में ही है. मैंने जो कुछ वांग्मय के रूप में लिखा है, वह सब सूचना ही है। मेरा जीना ही प्रमाण है. अध्ययन, बोध, अनुभव, और प्रमाण – यह क्रम है।

- श्रद्धेय नागराज जी  के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Thursday, October 13, 2011

जीवन में सूक्ष्म और कारण क्रियाएँ




जीवन में बुद्धि और आत्मा कारण-क्रियाएँ हैं। जीवन में मन, वृत्ति, और चित्त सूक्ष्म-क्रियाएँ हैं. शरीर स्थूल-क्रिया है.  सूक्ष्म क्रियाएँ सम-विषमात्मक हैं – जो condition के साथ में हैं। कारण क्रियाएँ बिना condition के हैं। सूक्ष्म क्रिया से कारण क्रिया के लिए पहला जो खेप है – वह है बुद्धि में (अवधारणा) बोध होना। बुद्धि में (अवधारणा) बोध हुए बिना आत्मा में अनुभव होता ही नहीं है। यही मुख्य बात है। बुद्धि में (अवधारणा) बोध होने के लिए स्त्रोत हैं – आशा, विचार और इच्छा। इन तीनो के आधार पर ही मानव ४.५ क्रिया में जीता है। ४.५ क्रियाएँ (अवधारणा) बोध के लिए स्त्रोत हैं, न कि ये स्वतन्त्र रहने के लिए हैं। अभी मानव इनके स्वतन्त्र रहने के लिए चल रहा है। यही लाभोन्माद, भोगोन्माद, और कामोन्माद है। सूक्ष्म क्रियाएँ (मन, वृत्ति, और चित्त) कारण-क्रियाओं के लिए स्त्रोत हैं। इन्ही के द्वारा बुद्धि में (अवधारणा) बोध होता है। (अवधारणा) बोध होने पर अनुभव स्वतः होता है। अनुभव के लिए आपको अलग से कुछ नहीं करना है। (अवधारणा) बोध तक ही पुरुषार्थ है।

सूक्ष्म क्रियाओं को संकेत मिलता है, शरीर से। बुद्धि (कारण क्रिया) को संकेत मिलता है, सूक्ष्म क्रियाओं से। बुद्धि को संकेत मिलने से आत्मा में अनुभव होता है। सिंधु से बिंदु तक पहुँचने का काम यही है। आशा, विचार, और इच्छा (कल्पनाशीलता) ही बोध के लिए स्त्रोत है। आशा के बिना हम किसी की बात सुनेंगे ही नहीं। सुनेंगे नहीं तो वह विचार में आएगा ही नहीं। विचार में नहीं आएगा तो चित्त में उसका चित्रण बन नहीं पायेगा। चित्त में सच्चाई का चित्रण संवेदनशीलता पूर्वक तदाकार-तद्रूप विधि से होता है। इस तरह तदाकार होने पर सच्चाई का बोध होता है। शरीर से सम्बंधित जो भाग है वह चित्रण तक ही रह जाता है।

प्रश्न: आशा, विचार, और इच्छा सच्चाई के लिए स्त्रोत हो सकता है, यह विगत से बिलकुल अलग बात लगती है?

वह तो स्वाभाविक है। विगत (आदर्शवाद और भौतिकवाद) में तो केवल भाड़ झोंकने वाली बात ही है। भाड़ झोंकने का मतलब है – शिकायत पैदा करना, समस्या पैदा करना, और दुःख पैदा करना।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

पूर्णता के अर्थ में वेदना

जीव-चेतना में मानव शरीर को जीवन मानता है। जीवन अपनी आवश्यकताओं को शरीर से पूरा करने की कोशिश करता है, जो पूरा होता नहीं है, इसलिए अतृप्त रहता है। शरीर में होने वाली संवेदनाओं का नियंत्रण हो सकता है, लेकिन उनको चुप नहीं कराया जा सकता। संवेदनाओं का चुप होना समाधि की अवस्था में होता है, जब आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाती हैं। मानव-परंपरा को संवेदनाओं के नियंत्रण की जरूरत है, न कि संवेदनाओं को चुप करने की।

समाधान या पूर्णता के अर्थ में वेदना ही संवेदना है। वेदना के निराकरण में विचार-प्रवृत्ति के बदलते बदलते सच्चाई के पास पहुँच ही जाते हैं। नियति विधि से मानव में संवेदना जो प्रकट हुई, उसमे तृप्त होने की अपेक्षा है। आदर्शवादियों ने संवेदनाओं को चुप कराने के लिए कोशिश किया – वह सफल नहीं हुआ। भौतिकवादियों ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए कोशिश किया – उससे धरती ही बीमार हो गयी।

आत्मा में अनुभव की प्यास है, इसीलिए संवेदना होती है। इतनी ही बात है। संवेदनाएं होने के आधार पर ही जिज्ञासाएं बनते हैं। जितनी सीमा में मनुष्य जीता है या अभ्यास करता है, उससे अधिक का विचार करता है, बात करता है। अध्ययन पूर्वक आत्मा की प्यास बुझती है। अनुभव होता है, जो जीने में प्रमाणित होने पर आत्मा की प्यास बुझी यह माना जाता है।

प्रश्न: अनुभव पूर्वक जो आत्मा की प्यास बुझती है, क्या उससे आत्मा का कार्य-रूप पहले से बदल जाता है?

उत्तर: नहीं। आत्मा का कार्य-रूप नहीं बदलता। आत्मा की प्यास बुझने पर जीवन में कार्य करने की प्रवृत्तियां बदल जाती हैं। इस तरह जीवन की दसों क्रियाएँ प्रमाणित होती हैं। अभी ४.५ क्रिया में मानव जी रहा है, इसीलिये उसमे अनुभव का प्यास बना है। ४.५ क्रिया में जीने में तृप्ति नहीं है। ४.५ क्रिया में शरीर-मूलक विधि से जीते हुए तृप्ति के बारे में जो भी सोचा वह गलत हो गया, सभी अपराधों को वैध मान लिया गया।

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

अंतिम बात समझ में आना चाहिए




व्यापक क्या है? इसके उत्तर में कहा – “ब्रह्म ब्रह्म में व्यापक है, सोना सोने में व्यापक है, लोहा लोहे में व्यापक है।” यह किसी को स्पष्ट नहीं हुआ. समझ में आता ही नहीं है – वह है वेदान्त। मेरे वेदान्त पर इस तरह प्रश्न करने से ही मेरे मामा परेशान हुए। मेरा मेरे मामा के साथ बहुत लगाव था। तभी तो हम इस तरह अंतिम बात कह पाए, अंतिम बात सोच पाए, अंतिम बात के लिए जिज्ञासु हो पाए। “अंतिम बात समझ में आना चाहिए” - इसमें मेरे मामा भी सहमत रहे और मैं भी सहमत रहा। यहाँ तक मेरे मामा साथ रहे। फिर अज्ञात को ज्ञात करने के लिए जिज्ञासा को पूरा करने के लिए एक ही विधि है – समाधि। उसमे मुझे बीस वर्ष लगे। उसके बाद संयम में पाँच वर्ष लगे। यह तो बात सही है – समाधि के बिना संयम होता नहीं है। उसी तरह अध्ययन-विधि में अनुभव किये बिना संवेदनाओं पर नियंत्रण नहीं हो सकता।

प्रश्न: अनुसंधान क्या समाधि-संयम विधि से ही हो सकता है?

उत्तर: समाधि-संयम विधि से ही अनुसंधान हो सकता है। समाधि में कुछ नहीं होगा। समाधि में आशा-विचार-इच्छाएं चुप होते हैं। समाधि के बाद संयम पूर्वक ही अनुसन्धान होता है।

प्रश्न: भौतिकवादी विधि से क्या अनुसंधान नहीं हो सकता?

उत्तर: भौतिकवादी विधि से तो कुछ भी नहीं मिल सकता. भौतिकवादी विधि से वितृष्णाएं ही मिलते हैं।

प्रश्न: तो क्या आदर्शवाद भौतिकवाद से आगे की सोच पाया?

उत्तर: आदर्शवाद भौतिकवाद से बहुत आगे की सोच पाया। इसमें कोई शंका नहीं है।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Wednesday, October 12, 2011

संवाद की अंतिम बात



अभी हमारे इतने दिनों के सम्बन्ध में और संभाषण में जो आपको बोध होना था वह हुआ कि नहीं हुआ?

-> मुझसे यह कहना नहीं बन पा रहा है, कि मुझे “बोध” हो गया है।

समझदारी को लेकर भी जो कहा जाता है, उसका भी कोई शब्द होगा ही। समझदारी को व्यक्त करने के लिए भी भाषा होगी। उस भाषा के अर्थ में अस्तित्व में वस्तु होगी। वस्तु के साथ तदाकार होना स्वाभाविक है। वस्तु-ज्ञान होना ही बोध होना है. यदि बोध होता है तो अनुभव होता ही है। उसके लिए अपने को अलग से प्रयत्न नहीं करना है। तदाकार होता है तो तद्रूप होता ही है। तदाकार और तद्रूप दोनों एक साथ हैं। मनुष्य के पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए है कल्पनाशीलता। अध्ययन संज्ञानशीलता के लिए है। संज्ञानशीलता हुआ का मतलब बोध हो गया। बोध होने के बाद पारंगत होने की बात आयी। पारंगत होने के बाद प्रमाणित होने की बात आयी। यह आपको बोध होता है कि नहीं? यही संवाद का अंतिम बात है। इस तरह विस्तार से हम एक बिंदु तक पहुँचते हैं। अनुभव वह बिंदु है। उस बिंदु का प्रकाशन फैलता चला जाता है। फ़ैलाने में हमारी प्रवृत्ति ज्यादा है, बिंदु तक पहुँचने में हमारी प्रवृत्ति कम है। यही अनुभव की कमी है।

-> फैलाने की हमारी जो प्रवृत्ति है, क्या उसको हमे निषेध करने की आवश्यकता है?

उसके लिए आपको बताया, सच्चाई का भी भाषा होता है। सच्चाई का भाषा अलग होता है। वह भाषा कम है। व्यर्थता की भाषा ज्यादा है, सार्थकता की भाषा कम है। सार्थकता की भाषा के अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है – यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता के रूप में। उस वस्तु के साथ हम तदाकार होते हैं तो हम तद्रूप हो जाते हैं। शब्द के अर्थ को छोड़ करके शब्द को लेकर चल देते हैं, इसी में समय लगता है। आपमें समझने (अनुभव बिंदु तक पहुँचने) और प्रमाणित करने (फैलाने) दोनों की प्रवृत्ति बनी है। इनमे से प्रमाणित करने की प्रवृत्ति ज्यादा है. यही रुकावट है। स्वत्व रूप में प्रमाणित करने की इच्छा को बलवती बनाना है। अनुभव के पहले बताने जाते हैं तो वह अनुभव की आवश्यकता के लिए आप में पीड़ा पैदा करता है। वह तो आप में हो ही रहा है. अनुभव के लिए पीड़ा पैदा होती है तो अनुभव के लिए निष्ठा बनेगी। अभी जहां मानव खड़ा है, वह ज्यादा बताने के पक्ष में है, समझने के पक्ष में नहीं है। इसीलिये मैं कहता हूँ – सही बात को बताओ, उससे धीरे-धीरे उसको स्वत्व बनाने के लिए जिज्ञासा होगी। अभी आप-हम उसी जिज्ञासा के आधार पर बात कर रहे हैं. स्वत्व बनाने के लिए जिज्ञासा रुपी पीड़ा बढ़ जाती है, तो उसका निराकरण स्वाभाविक हो जाता है।

अनुभव मूलक विधि से चिंतन करने का अधिकार पाने के लिए आत्मसात करना पड़ता है। रिकॉर्डिंग सब सूचना है। मैंने जो कुछ वांग्मय के रूप में लिखा है, वह सब भी सूचना ही है। सूचनाओं को लेकर उसको प्रगट करने के काम में आप लोग पारंगत हैं। प्रमाणित मानव ही होता है। प्रमाणित होने के लिए आप आत्मसात करोगे या नहीं करोगे?

-> आत्मसात ही करना है!

मुख्य बात इतना ही है। जिस जिज्ञासा से आप लोग आये हैं, उसके लिए इतनी ही बात है। आत्मसात करना हर व्यक्ति का अधिकार है। एक व्यक्ति का अधिकार नहीं है। क्योंकि हर व्यक्ति जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। जीवन के बिना कोई मानव होता ही नहीं है।

यह एक शिकायत मुक्त प्रस्ताव है। व्यक्तिवाद-समुदायवाद के स्थान पर मानववाद-सहअस्तित्व-वाद आ गया है। इस पर सोचा जाए। सोच कर के आप बताइये आपकी क्या जिज्ञासा बनती है, उसकी आपूर्ति होगी।

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Tuesday, October 11, 2011

जीवन एक परमाणु

परमाणु व्यवस्था का मूल रूप है. कम से कम दो परमाणु-अंश मिल करके एक परमाणु को बनाते हैं. उसी तरह अनेक अंशों से मिल कर बने हुए भी परमाणु होते हैं. सभी परमाणु त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करते हैं. समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वरूप है – पूरकता और उपयोगिता. मानव कहाँ तक पूरक हुआ, उपयोगी हुआ – इसका स्वयं में परिशीलन करने की आवश्यकता है. परमाणु गठन-पूर्ण होने पर जीवन कहलाता है. उससे पहले गठन-शील परमाणु हैं. गठन-शील परमाणुओं में रासायनिक-भौतिक क्रियाएँ ही होते हैं. जीवन क्रिया गठन-पूर्ण परमाणु से ही होता है, और दूसरे परमाणुओं से होता नहीं है. भौतिक-क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया – ये तीन प्रकार की क्रियाएँ है, जो चार अवस्थाओं के रूप में प्रकाशित हैं. जीवन क्रिया से ही ज्ञान का अभिव्यक्ति होती है. ज्ञान की अभिव्यक्ति को ही चेतना कहा है. चेतना के चार स्तर हैं – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना. इनमे श्रेष्ठता का क्रम है – जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है, मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है, देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतम है. चेतना-विकास के अर्थ में ही मध्यस्थ-दर्शन लिखा है.

- श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

पठन से अध्ययन




पढ़ना आ जाने या लिखना आ जाने मात्र से हम विद्वान नहीं हुए। समझ में आने पर या पारंगत होने पर ही अध्ययन हुआ। समझ में आने पर ही प्रमाणित होने की बात हुई. प्रमाणित होने का मतलब है – अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या में जी पाना। अध्ययन का मतलब है – शब्द के अर्थ में तदाकार-तद्रूप होना। आपके पास जो कल्पनाशीलता है, उसके साथ सह-अस्तित्व में तदाकार-तद्रूप हुआ जा सकता है। सह-अस्तित्व रहता ही है। सह-अस्तित्व न हो, ऐसा कोई क्षण नहीं है। कल्पनाशीलता न हो, ऐसा कोई मानव होता नहीं है। हर जीते हुए मानव में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। अब तदाकार-तद्रूप होने में आप कहाँ अटके हैं, उसको पहचानने की आवश्यकता है।

आवश्यकता महसूस होता है तो तदाकार होता ही है, तद्रूप होता ही है। जब अनुसंधान विधि से तदाकार-तद्रूप होता है, तो अध्ययन-विधि से क्यों नहीं होगा भाई? तदाकार-तद्रूप विधि से ही तो मैं भी इसको पाया हूँ। आप किताब से या शब्द से प्रकृति में तदाकार-तद्रूप होने तक जाओगे। किताब केवल सूचना है। किताब में लिखे शब्द से इंगित अर्थ के साथ तदाकार-तद्रूप होने पर समझ में आता है।

जब समाधान, नियम, नियंत्रण, स्व-धन, स्व-नारी-स्व-पुरुष, दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार एक “आवश्यकता” के रूप में स्वीकार होता है, तभी तदाकार-तद्रूप होता है, अनुभव होता है। अन्यथा नहीं होता है। किसी की आवश्यकता बने बिना उसे समझाने के लिए जो हम प्रयास करते हैं, वह उपदेश ही होता है, सूचना तक ही पहुँचता है। अध्ययन से ही हर व्यक्ति पारंगत होता है। अध्ययन के बिना कोई पारंगत होता नहीं है। अनुभव मूलक विधि से ही हम प्रमाणित होते हैं। अनुभव के बिना हम प्रमाणित होते नहीं हैं। यह बात यदि समझ आता है तो अनुभव की आवश्यकता है या नहीं, आप देख लो! अनुभव की आवश्यकता आ गयी है तो अनुभव हो कर रहेगा। आवश्यकता के आधार पर ही हर व्यक्ति काम करता है। आपकी आवश्यकता बनने का कार्यक्रम आपमें स्वयं में ही होता है। दूसरा कोई आपकी आवश्यकता बना ही नहीं सकता. यही मुख्य बात है। हर व्यक्ति की जिम्मेदारी की बात वहीं है। अनुभव हर व्यक्ति की आवश्यकता है, ऐसा मान कर ही इस प्रस्ताव को प्रस्तुत किया है। अनुभव को व्यक्ति ही प्रमाणित करेगा. जानवर तो करेगा नहीं, पेड़-पौधे तो करेंगे नहीं, पत्थर तो करेंगे नहीं...

सभी जीव वंश विधि से काम करते हैं। मानव ज्ञान-अवस्था का होते हुए अभी न पूरा जीवों जैसा जीता है, न पूरा मानव जैसा जीता है। इस तरह मानव अभी न इधर का है, न उधर का! ऐसा अनिश्चित जीने से धरती ही बीमार हो गयी।



प्रश्न: मानव ऐसा “न इधर का, न उधर का” क्यों हो गया?

उत्तर: उसका कारण है – जीवों में जो “आवश्यकता” है, उससे मानव का संतुष्ट होना बना नहीं। और मानव-चेतना से संतुष्ट होने की जगह में मानव आया नहीं। मानव-चेतना की “आवश्यकता” को महसूस करने पर ही मानव अनुभव करेगा और मानव-चेतना को अपनाएगा। हर व्यक्ति में इस आवश्यकता बनने के लिए उसे अध्ययन रुपी पुरुषार्थ करना होगा। पूरा समझ में आना और प्रमाणित होना ही परमार्थ है, वही समाधान है। फिर पुरुषार्थ के साथ समृद्धि होता ही है. समाधान-समृद्धि होने पर अभय होता ही है। समाधान-समृद्धि और अभय होने पर सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाणित होता है। ऐसा व्यवस्था बना हुआ है।

प्रश्न: इसमें दिक्कत फिर कहाँ है?

उत्तर: दिक्कत है, हम दूसरों को ठीक करने में अपने को ज्यादा लगा देते हैं। स्वयं ठीक होने के लिए हम लगते नहीं हैं। दूसरे – पठन से हम अपने को विद्वान मान लेते हैं, वह गलत है। जीने से ही हम विद्वान हैं। वह आने पर हो जाता है. इसमें आप मुझे ही जाँचिये. मैं पढ़ने-लिखने में विद्वान नहीं हूँ, फिर मैं इसे कैसे पा गया? शब्द का अर्थ समझ में आने पर मेरा “जीना” बन गया, उसी को हम प्रमाण कह रहे हैं। प्रमाण के रूप में मैं आपके सामने उपलब्ध हूँ. अनुसन्धान विधि से चलते हुए, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं था। आपके साथ सूचना भी है, प्रमाण रूप में व्यक्ति भी है।

प्रश्न: तो आप कह रहे हैं, हमारी अनुभव-प्रमाण की आवश्यकता नहीं बन पा रही है, इसलिए हमे अनुभव नहीं हो रहा है?

उत्तर: - आवश्यकता अनुभव करने की और प्रमाणित होने की नहीं बना है। दूसरों को बताने की आवश्यकता बना है। दूसरों को बताने योग्य आप हो भी गए हैं। श्रवण के आधार पर गति होना पर्याप्त नहीं है। समझ के आधार पर गति होना ही पर्याप्त होता है। समझ के आधार पर गति होना अनुभव के साथ ही होता है, प्रमाण के साथ ही होता है। अनुभव के लिए तदाकार-तद्रूप होने के लिए वस्तु कल्पनाशीलता के रूप में हर व्यक्ति के पास रखा है। कल्पनाशीलता रुपी इस व्यक्तिगत स्त्रोत को नकारा भी कैसे जाए? कल्पनाशीलता का स्त्रोत जीवन है. जीवन का अध्ययन नहीं हुआ है। शरीर को जब तक जीवन मानते रहते हैं तब तक अनुभव होना नहीं है। जीवन को जीवन माना, जीवन में अनुभव होने की सम्भावना को समझा, उसके बाद अपनी उपयोगिता को जोड़ दिया तो अनुभव होता है। हमारा उपयोग अनुभव-मूलक विधि से ही है. अनुभव एक बिंदु है. प्रमाण एक सिंधु है।


 

भाषा में हम बहुत विद्वान हो जाते हैं, अनुभव को लेकर हम वहीं के वहीं बने रहते हैं। इसी रिक्तता को भरने की आवश्यकता है। प्रमाण अनुभव से ही होता है. सूचना से प्रमाण होता नहीं है। सूचना सूचना ही है। भाषा से हम सूचना तक पहुँच पाते हैं। सूचना को प्रमाण में उतारना हर व्यक्ति का जिम्मेदारी है।

सुनाना हमारा स्वत्व नहीं है। सुनाना दूसरों के लिए ही होता है. जीना हमारा स्वत्व है। यही जिम्मेदारी की बात है। इसको पहचान लेना एक पुण्य की बात है। अच्छी बुद्धि के बिना यह पहचान में नहीं आता है।

व्यक्त होने के लिए आपने प्रयत्न किया तो स्वत्व बनाने के लिए आवश्यकता बनी। स्वत्व बनाने की आवश्यकता बनी तो उसमे सफल हो जायेंगे।

इसका सार बात है – “अनुभव स्वत्व है. बताना हमारा वैभव है।” वैभव के बारे में हम जल्दी चले जाते हैं, स्वत्व के बारे में उपेक्षा रहता है।

स्वयं में मानव-चेतना की आवश्यकता स्वीकार होना, तदाकार-तद्रूप होना, स्वयं की उपयोगिता सिद्ध होना, फिर उपकार विधि से पूरक होना – ये एक से एक लगी कड़ियाँ हैं। पूरकता विधि से ही परंपरा है। बिना परंपरा के कोई प्रमाण नहीं है। परंपरा के बिना तो केवल “घटना” है। “ घटना” के रूप में एक व्यक्ति को अनुभव हो गया, वह चला गया – उसका कोई मतलब नहीं है।


 - श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०११, अमरकंटक)

Monday, July 4, 2011

सृष्टि दर्शन

मानव ज्ञान-अवस्था का होने के आधार पर पूरी सृष्टि का दर्शन चाहता ही है।

परमाणुओं में परमाणु-अंशों का बढ़ना-घटना, अणुओं में परमाणुओं का संख्या बढ़ना-घटना – इसी का नाम है, रासायनिक-भौतिक संसार।

सृजन = इकाई + इकाई। इसके तीन स्तर हैं. पहला परमाणु के स्तर पर परमाणु-अंशों का जुडना, दूसरा अणु के स्तर पर परमाणुओं का जुडना, तीसरा अणु-रचित रचना के स्तर पर अणुओं का जुडना। विसर्जन = इकाई – इकाई। सृजन और विसर्जन के बीच है – विभव (बने रहना)। विभव ही मानव को सर्वोपरि स्वीकार है। विभव ही मध्यस्थ है. विभव की ही परंपरा होती है। जैसे मानव-शरीर गर्भाशय में रचित होता है, और एक दिन विरचित होता है। इन दोनों के बीच में है “जीना” - जो विभव है।

सभी परमाणु-अंश एक ही स्वरूप के हैं। परमाणु-अंश का और विघटन होता नहीं है। परमाणु-अंश में भी व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति है। अकेला परमाणु-अंश प्राकृतिक स्वरूप में पाया नहीं जाता। चुम्बकीय बल है – सत्ता में संपृक्तता वश एक दूसरे के साथ होने की प्रवृत्ति। सत्ता में संपृक्तता वश परमाणु अंशों में भी चुम्बकीय बल सम्पन्नता है, जिससे उनमे घूर्णन गति है, घूर्णन गति के साथ हर परमाणु-अंश का अपना एक वातावरण (प्रभाव क्षेत्र) है। व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति और चुम्बकीय-बल सम्पन्नता के साथ ये परमाणु-अंश निश्चित अच्छी दूरी में रह कर वर्तुलात्मक गति करते हुए व्यवस्था को प्रमाणित करते हैं। मध्य में जो परमाणु-अंश होते हैं, उनके बीच भी एक निश्चित दूरी रहती है। इस तरह व्यवस्था को प्रमाणित करने को ही हम ‘आचरण’ कहते हैं। अकेले परमाणु-अंश (जो किसी परमाणु में भागीदारी नहीं कर रहे हैं) अस्तित्व में नगण्य हैं। अकेले परमाणु-अंश की घूर्णन-गति अनिश्चित होती है, जो परमाणु में भागीदारी करते हुए निश्चित हो जाती है।

अनेक प्रजाति के परमाणु उनमे परमाणु-अंशों की संख्या-भेद के आधार पर हैं।

परमाणु में परिवेशीय अंशों में घूर्णन-गति और वर्तुलात्मक-गति के साथ कम्पनात्मक-गति भी आ गयी। नाभिक और परिवेशीय-अंश दो ध्रुव बने रहते है, उसके सापेक्ष में कंपन है। वर्तुलात्मक-गति कागज़ पर जो वृत्त बनाते हैं, वैसा नहीं है। नाभिक के चारों ओर गति-पथ में आगे-पीछे निश्चित सीमा तक झुकना भी होता है – वही कम्पनात्मक गति है. उतना ही झुकता है, जितने में व्यवस्था सुरक्षित रहे। हरेक गति में – चाहे घूर्णन गति हो या वर्तुल गति हो – दो ध्रुव स्थिर रहते हैं, उनके सापेक्ष में कंपन होता है। धरती जो सूर्य के चारों ओर घूमती है – उसमे भी वैसा ही है। चंद्रमा जो धरती के चारों ओर घूमता है – उसमे भी वैसा ही है। कम्पनात्मक गति की शुरुआत परमाणु-अंश से ही है। फिर परमाणु में कम्पनात्मक-गति का निश्चित स्वरूप है, अणु में उससे ज्यादा है, अणु रचित रचना में उससे ज्यादा है, फिर गठन-पूर्ण परमाणु में कम्पनात्मक-गति की पूर्णता है।

प्रचलित-विज्ञान ने विखंडन-विधि को अपनाया है। विखंडन-विधि से प्रकृति में व्यवस्था की प्रवृत्ति दिखती ही नहीं है। विखंडन-विधि आवेश पैदा करके ही होती है। इसलिए विखंडन-विधि से हम व्यवस्था को प्रमाणित कर नहीं पायेंगे। मैंने विखंडन-विधि से प्रकृति को नहीं देखा, समग्रता विधि से देखा। समग्रता-विधि से प्रकृति में व्यवस्था की प्रवृत्ति को देखा। व्यवस्था में होने की प्रवृत्ति की परमाणु-अंश से ही शुरुआत है। परमाणु-अंशों में व्यवस्था की प्रवृत्ति से ही परमाणु में व्यवस्था और व्यवस्था में प्रवृत्ति आया है। परमाणु व्यवस्था का मूल स्वरूप है और उसमे सभी भूखे, अजीर्ण, और तृप्त प्रकार के परमाणुओं में व्यवस्था में होने-रहने की प्रवृत्ति है। इसी क्रम में व्यवस्था के अर्थ में ही इन भूखे और अजीर्ण परमाणुओं का मिल कर अणु बनना, और अणुओं का मिल कर अणु-रचित रचना बनना है। धरती भी एक अणु-रचित रचना है। धरती अपने में एक व्यवस्था है. धरती के व्यवस्था होने का प्रमाण है – इस पर चारों अवस्थाओं का प्रकट होना।

प्रश्न: आप ने जिस पैने-पन से परमाणु के सूक्ष्म-सूक्ष्मतम स्वरूप को देखा, क्या अध्ययन-विधि से हमको भी वैसा दिखेगा?

उत्तर: - बिलकुल दिखेगा! जो मुद्दा आप को समझाया उसकी स्वीकृति की आप में पूरी निरंतरता हो जाती है, तो वह आपको दिख ही गया। दिखने का मतलब ही समझना है। स्वीकारने के बाद आपको व्यवस्था का अनुभव होगा। अनुभव में जैसे मुझे तृप्ति हुई, “वैसी ही” तृप्ति आपको होगी। अनुभव केवल व्यवस्था का ही होता है, और कुछ भी नहीं होता। निश्चित आचरण के स्वरूप को व्यवस्था कहा है। जो मुझ को दिखा (समझ में आया) उसी को मैं समझाता हूँ। समझाता हूँ तो आप के समझ में आता है। समझने के बाद, अनुभवमूलक विधि से आपका व्यवस्था में जीना बनता है। व्यवस्था में जीना बनता है तो वह प्रमाण नहीं तो और क्या है? जीने में ही अनुभव व्यक्त होता है. जैसे मैं व्यक्त होता हूँ, उससे अच्छा आप व्यक्त हो ही सकते हैं।

कोई भी वस्तु का हम अध्ययन करते हैं, उसकी दो ही विधियाँ हैं – शोध विधि और अनुसंधान विधि। परंपरा से जो मिलता है, उसको हम शोध करते हैं। परंपरा जो देने में असमर्थ होता है, उसके लिए हम अनुसंधान करते हैं। अनुसंधान या तो विखंडन विधि से कर सकते हैं, या समाधि-संयम विधि से कर सकते हैं। मुझसे जो आप को सूचना मिलता है, उसको आप शोध करते हो। आपके शोध से आप व्यवस्था के प्रति सुस्पष्ट हो जाते हो। वह आप के जीने में सही निकलता है, तो आप उसको प्रमाण मानते हो।

जड़ (संपृक्तता) से फल (मानवीयता पूर्ण आचरण में जीना) तक मैंने देखा है, फल से जड़ तक आपको देखना है. इतना ही है। फल से जड़ को पकड़ना (शोध विधि) कोई दूर नहीं है। किन्तु जड़ से फल को पकड़ना (अनुसन्धान विधि) काफी दूर है। यह पूरा प्रस्ताव मानवीयता पूर्ण आचरण में जीने के अर्थ में ही है। प्राकृतिक रूप में “होना” जड़ है, “रहना” (मानवीयता पूर्ण आचरण) फल है। फल की स्वीकृति होता है, उससे जिज्ञासा बनती है, फिर जड़ को समझने में फिर देर नहीं लगती है। फल से जड़ की कल्पना करना सुगम है। जड़ से फल को प्राप्त करना (अनुसन्धान विधि या साधना विधि) काफी अनिश्चयता के साथ है। लोकव्यापीकरण के लिए अध्ययन-विधि ही सुगम है।

परमाणु का अध्ययन करने के लिए तर्क-विधि है, या प्रयोग विधि है, तीसरे साधना विधि (समाधि-संयम) है। तर्क विधि से संतुष्ट नहीं होते हैं, तो प्रयोग की आवश्यकता होती है। प्रयोग विधि से परमाणु का अध्ययन करने के लिए विखंडन विधि ही है। उससे व्यवस्था का कोई अनुभव होता नहीं है। परमाणु का तर्क-सम्मत विधि से अध्ययन करने के लिए यह प्रस्ताव पर्याप्त है। साधना विधि सभी के लिए सुगम नहीं है।


- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Friday, July 1, 2011

वाद और शास्त्र

“भौतिक वस्तुओं में द्वन्द नहीं है, समाधान है” - इस बात का प्रतिपादन समाधानात्मक भौतिकवाद करता है.

मानव का भातिक-वस्तुओं के साथ व्यवस्थित आचरण का स्वरूप आवर्तनशील अर्थ-शास्त्र स्पष्ट करता है.

मानव का मानव के साथ व्यवहार के लिए विचार शैली या तर्क व्यवहारात्मक जनवाद प्रस्तुत करता है.

मानव मानव के बीच व्यवहार के लिए विचार-शैली को समाज के स्तर पर क्रियान्वयन का स्वरूप व्यवहार-वादी समाजशास्त्र स्पष्ट करता है.

“अनुभव को बताया जा सकता है, समझाया जा सकता है” – इस बात का प्रतिपादन अनुभवात्मक अध्यात्मवाद करता है.

जीवन-जागृति पूर्वक मानवीयता पूर्ण आचरण (अनुभव मूलक आचरण) का स्वरूप मानव संचेत्नावादी मनोविज्ञान स्पष्ट करता है.

- अध्ययन शिविर से (मई २०११, अभ्युदय संस्थान, अछोटी)

Tuesday, June 21, 2011

अध्ययन विधि

अध्ययन संयोग से होता है। इसमें अभिभावक, अध्यापक, और विद्यार्थी तीनो शामिल हैं। विद्यार्थी वह है - जो जिज्ञासु हो। अभिभावक से आशय है - विद्यार्थी के माता-पिता आदि। अध्यापक वह है - जो अनुभव-संपन्न समझदार व्यक्ति हो।

अध्ययन-क्रम में विद्यार्थी अपनी जिज्ञासा को व्यक्त करता है, जिसका समाधान अध्यापक प्रस्तुत करता है और जिज्ञासा को शांत करता है।

अध्यापक के अनुभव की रोशनी में विद्यार्थी अध्ययन करता है। अध्यापक के अनुभव की रोशनी विद्यार्थी के पूरे जीवन पर प्रभाव डालती है - जिससे विद्यार्थी की बुद्धि और आत्मा बोध और अनुभव करने के लिए तैयार हो जाती है। जैसे-जैसे विद्यार्थी की जिज्ञासा तृप्त होती जाती है उसकी कल्पनाशीलता वैसे-वैसे सह-अस्तित्व में तदाकार होती जाती है। एक बिंदु पर कल्पनाशीलता पूरी तरह तदाकार हो जाती है। वह बिंदु है - अस्तित्व को सह-अस्तित्व रूप में अनुभव करना। अनुभव संपन्न होने पर विद्यार्थी स्वयं को प्रमाणित करने योग्य हो जाता है। यही अध्ययन की सफलता है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (मई २०११, अमरकंटक)

Monday, June 20, 2011

ऊर्जा

सभी संसार – एक परमाणु-अंश से लेकर परमाणु तक, परमाणु से लेकर अणु रचित रचना तक, अणु रचित रचना से लेकर प्राण-कोषा से रचित रचना तक – का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त होता हुआ समझ में आया। स्वयं-स्फूर्त विधि से ही परमाणु का गठन-पूर्ण होना समझ में आया।

प्रश्न: परमाणु स्वयं-स्फूर्त विधि से कैसे रचना कर दिया और कैसे गठन-पूर्ण हो गया?

इसका उत्तर है – परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है। हर परमाणु-अंश स्व-चालित है, हर परमाणु स्व-चालित है। इसको देख लिया गया। स्व-चालित होने के आधार पर ही गठन-पूर्ण हुआ है, और रचनाएँ किया है। स्वयं-स्फूर्त होने के लिए मूल वस्तु है – ऊर्जा-सम्पन्नता। सत्ता से प्रकृति का वियोग होता ही नहीं है। इसी का नाम है – “नित्य वर्तमान” होना।

सत्ता न हो, ऐसा जगह मिलता नहीं है। पदार्थ न हो, ऐसा जगह मिलता है। पदार्थ का सत्ता से वियोग होता नहीं है, पदार्थ को सदा ऊर्जा प्राप्त है – इसलिए पदार्थ नित्य क्रियाशील है, काम करता ही रहता है। इस तरह सभी पदार्थ या जड़-चैतन्य प्रकृति का ‘त्व सहित व्यवस्था – समग्र व्यवस्था में भागीदारी’ पूर्वक रहने का विधि आ गई। पदार्थ की स्वयं-स्फूर्त क्रियाशीलता ही “सह-अस्तित्व में प्रकटन” है।

सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है – जीव-चेतना, मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना। जीव-चेतना में जीने से जीवों में तो व्यवस्था होता है, लेकिन मानवों में व्यवस्था होता नहीं है। मानव के व्यवस्था में जीने के लिए कम से कम मानव-चेतना चाहिए। मानव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो देव-चेतना में जी सकते हैं। देव-चेतना में परिपक्व होते हैं तो दिव्य-चेतना में जी सकते हैं।

साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश प्रकृति में सापेक्ष-ऊर्जा या कार्य-ऊर्जा है। सापेक्ष-ऊर्जा और कार्य-ऊर्जा एक ही है. कार्य से जो उत्पन्न हुआ वह कार्य-ऊर्जा है। अभी प्रचलित भौतिक-विज्ञान में जितना भी पढ़ाते हैं – वह कार्य-ऊर्जा ही है। साम्य-ऊर्जा को प्रचलित भौतिक-विज्ञान में पहचानते ही नहीं हैं।

सत्ता में भीगे रहने से या पारगामीयता से प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता है। सत्ता में डूबे रहने से प्रकृति में क्रियाशीलता है। सत्ता में घिरे रहने से प्रकृति में नियंत्रण है। इसको अच्छे से समझने के लिए अपने को लगाना ही पड़ता है। अपने को लगाए नहीं, यंत्र इसको समझ ले – ऐसा होता नहीं है। यंत्र को आदमी बनाता है।

अस्तित्व नित्य वर्तमान होने से, नित्य प्रगटनशील होने से ही मूल-ऊर्जा सम्पन्नता का होना पता चल गया। मूल ऊर्जा सम्पन्नता ही मूल-चेष्टा है. चेष्टा ही क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता से ही सापेक्ष-ऊर्जा है। भौतिक-रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में दबाव, तरंग, और प्रभाव के रूप में सापेक्ष-ऊर्जा को पहचाना जाता है। ताप, ध्वनि, और विद्युत भी सापेक्ष ऊर्जा है। कार्य-ऊर्जा पूर्वक ही इकाइयों का एक दूसरे को प्रभावित करना और एक दूसरे से प्रभावित होना सफल होता है। इस तरह प्रभावित होने और प्रभावित करने का प्रयोजन है – व्यवस्था में रहना। प्रभावित होने और करने के साथ परिणिति होने की भी बात है। यदि परणिति न होती तो चारों अवस्थाओं के प्रकट होने की बात ही नहीं थी।

कार्य-ऊर्जा की मानव गणना करता है. मूल-ऊर्जा (साम्य-ऊर्जा) की उस तरह गणना नहीं होती। मूल-ऊर्जा को हम समझने जाते हैं, तो पता चलता है – मूल-ऊर्जा सम्पन्नता चारों अवस्थाओं के रूप में प्रकट है। कार्य-ऊर्जा का स्वरूप हर अवस्था का अलग-अलग है। जैसे – जिस तरह जीव-जानवर कार्य करते हैं, और जिस तरह मानव कार्य करता है, इन दोनों में दूरी है। मानव जीवों से भिन्न जीने का प्रयास किया है, इस कारण से यह दूरी हो गयी। कार्य करने के स्वरूप को ही कार्य-ऊर्जा कहते हैं।

कार्य-ऊर्जा में ही आवेशित-गति और स्वभाव-गति की पहचान होती है। कारण-ऊर्जा या साम्य-ऊर्जा में आवेशित-गति होती ही नहीं है। आवेशित-गति अव्यवस्था कहलाता है। स्वभाव-गति व्यवस्था कहलाता है।

साम्य-ऊर्जा न बढ़ती है न घटती है। कार्य-ऊर्जा भी न बढ़ती है न घटती है। एक दूसरे पर दबाव और प्रभाव के बढ़ने और घटने की बात होती है। उसमे कोई मात्रात्मक परिवर्तन होता नहीं है। कम होना और बढ़ना मात्रात्मक परिवर्तन के साथ ही होता है। दबाव और प्रभाव में आवेशित गति और स्वभाव गति ही होती है। जैसे - एक तप्त इकाई है, दूसरी इकाई उसके समक्ष है – जो उसके ताप से प्रभावित है। ऐसे में, दोनो इकाइयां कार्य-ऊर्जा संपन्न हैं तभी वे एक दूसरे को पहचान पाती हैं। पहचान के फलस्वरूप दूसरी इकाई उसके ताप को अपने में पचाती है। अंततोगत्वा दोनों इकाइयां स्वभाव-गति में पहुँचती हैं।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

प्रश्न मुक्ति

७०० करोड मानवों के सभी प्रश्नों के लिए एक ही चाबी है। समझना है और प्रमाणित करना है – तो सभी प्रश्न ही समाप्त हैं। समझना नहीं है, प्रमाणित नहीं करना है – तो प्रश्न ही प्रश्न हैं.

समझ में आते तक मानव द्वारा अध्ययन करना या अनुसंधान करना ही उसकी स्वभाव-गति है। समझ में आने पर (अनुभव होने पर) प्रमाणित करना ही मानव की स्वभाव-गति है।

समझना = शक्तियों का अंतर्नियोजन। प्रमाणित करना = शक्तियों का बहिर्गमन। समझने के लिए ध्यान देने का अर्थ है, कल्पनाशीलता को लगाना। परंपरागत ध्यान-विधियों से इसका कोई लेन-देन ही नहीं है। कल्पनाशीलता का सह-अस्तित्व वस्तु में (न कि “सह-अस्तित्व” शब्द में) तदाकार होना ही अध्ययन के लिए ध्यान देना है। सह-अस्तित्व वस्तु है – चारों अवस्थाएं “त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी” स्वरूप में होने से है। शब्द के अर्थ में तदाकार होना होता है. ध्यान देने का मतलब इतना ही है।

तदाकार होते हैं तो बोध होता है, बोध होता है तो अनुभव होता है। अनुभव होता है तो प्रमाण होता है।

सुनना, समझना, और प्रमाणित करना – यह क्रम है। बारम्बार उलझ जाते हैं, मतलब समझे नहीं हैं। समझे नहीं हैं, मतलब सुने नहीं हैं। प्रमाणित नहीं हुए हैं, मतलब समझे नहीं हैं. मूल में “सुख की निरंतरता” के लिए यह क्रम है। समाधान हुए बिना सुख की निरंतरता होता नहीं है. समाधान होने पर प्रमाण होता ही है।

प्रश्न: समझना पूरा होते तक विद्यार्थी के पास सच्चाई को “जांचने” का क्या आधार है?

समझना पूरा होते तक जिज्ञासा ही है. समझ पूरा होने के बाद ही जांचना होता है। विद्यार्थी की समझ पूरा होते तक गुरु ही जांचता है।

समझ पूरा होने के बाद शिष्य स्वयं अपने समझे होने का सत्यापन करता है। गुरु अपने शिष्य के समझदार होने का सत्यापन नहीं करता। कोई एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समझदार होने का सत्यापन करे – यह जीव-चेतना की बात है. मेरे विद्वान होने का आप प्रमाण-पत्र लिख कर दें – यह जीव-चेतना है। यह सब मिला कर के सुविधा-संग्रह में ही समीक्षित होता है।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

Friday, June 3, 2011

जिज्ञासा

प्रश्न: मेरी जिज्ञासा ठीक है या नहीं – इसका मैं कैसे निर्णय कर सकता हूँ?

उत्तर: अनुभव-शील व्यक्ति ही इसको बताएगा। अनुभव मूलक विधि से जीने वाला व्यक्ति सामने व्यक्ति की जिज्ञासा को समझ सकता है। जिज्ञासु को जब समझ में आता है, तभी उसको पता चलता है कि उसको अनुभव-संपन्न व्यक्ति ने उसे समझा दिया! एक दूसरे के लिए पूरक होने का विधि इस तरह बन गया या नहीं? यही एक छोटी सी दीवार है, जिसको फांदने की जरूरत है।

मानव में सुख की निरंतरता की चाहत समाई हुई है। “ सत्य” नाम तो सब जानते हैं, बच्चे भी जानते हैं। “ सत्य में सुख की निरंतरता है” – इस परिकल्पना के आधार पर जिज्ञासा है। “ सत्य” शब्द के आधार पर सभी सत्य को चाहते हैं। हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक होता है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहता है, और सत्य-वक्ता होता है। सत्य बोध कराना शिक्षा का काम है, सही कार्य-व्यवहार सिखाना शिक्षा का काम है, और न्याय-प्रदायी क्षमता को स्थापित करना शिक्षा का काम है। जबकि आज की शिक्षा में पढ़ाते है कि “बच्चे जन्म से ही कामुक होते हैं”। यही कामोंमादी मनोविज्ञान है। कामोन्माद के साथ भोगोन्माद और लाभोन्माद जुड़ा ही है। मानव की चाहत और आज की शिक्षा के बीच में परस्पर-विरोध होगा या नहीं?

सत्य को समझना है या नहीं समझना है? – यह पहली बात है। सत्य को समझने के लिए वरीयता है या नहीं? – यह दूसरी बात है। सत्य को समझने के लिए जिज्ञासा है या नहीं? – यह तीसरी बात है। इन तीन बातों को आप अपने में आजमा सकते हैं। सत्य को समझने के लिए वरीयता है तो जिज्ञासा है, सत्य को समझने के लिए वरीयता नहीं है तो जिज्ञासा नहीं है – केवल शब्द के आधार पर बात-चीत है।

बात-चीत तो शब्दों में ही होती है। फिर भी बात-चीत तीन स्तर पर हो सकती है। पहले - शब्द के आधार पर बात-चीत होना। दूसरे – शब्द से इंगित अर्थ के आधार पर समझने के लिए बात-चीत होना। तीसरे – समझ के आधार पर अपना स्वत्व बना कर जीने के लिए बात-चीत होना, या अनुभव के आधार पर बात-चीत होना। इन तीनो में अंतर है या नहीं? अनुभव के आधार पर ही “सत्संग” पूरा होता है। शब्द के आधार पर सत्संग मानव आदि-काल से करता रहा है। शब्द के अर्थ तक मानव अभी तक गया नहीं है। शब्द के अर्थ तक जाना है, फिर अनुभव के आधार पर जीना है।

जिज्ञासा दो बातों के लिए है – पहला, अनुभूत होने के लिए कैसे मैं समझ जाऊँगा? दूसरे, समझने के बाद प्रमाणित कैसे करूँगा? अनुभव के बाद प्रमाणित करना स्वाभाविक होता ही है।

अनुभव के लिए अध्ययन ही अभ्यास है। सुख की निरंतरता के लिए प्रयास ही मानव की स्वभाव-गति है। इस तरह अनुभव से पहले अध्ययन ही स्वभाव गति है।

वस्तु को समझने के लिए कल्पनाशीलता आगे निकल जाता है, तर्क पीछे छूट जाता है। वस्तु को समझने के बाद तर्क कहाँ रहा? वस्तु को समझने के बाद अनुभव ही है, फिर हमको अनुभव हुआ है इसके प्रमाण पूर्वक प्रस्तुत होना शुरू होता है। “ हम ठीक न हों, और दूसरे सब ठीक हो जाएँ” – वर्तमान में राज्य को, धर्म को, शिक्षा को देखने पर ऐसा ही लगता है। राज्य-गद्दी, धर्म-गद्दी, और शिक्षा-गद्दी में बैठे लोग अपने को सही मानते हैं, वे स्वयं सुधरना नहीं चाहते हैं। व्यापार-गद्दी में बैठे लोग अपने आप को इन सभी का संरक्षक मानते हैं – वे तो अपने को सबसे सही मानते हैं।

अनुभव के बिना समझ में आया नहीं। अनुभव के बिना हम कितने भी डिजाईन बना लें – वह दूसरों के लिए ही है, हमारे अपने जीने के लिए नहीं है। अनुभव विधि में पहले स्वयं समझना है, फिर हमको अनुभव हुआ है इसके प्रमाण में दूसरे को समझाना है।

जिज्ञासा की तृप्ति के लिए अध्ययन है। समझा हुआ व्यक्ति ही अध्ययन कराएगा। किताब अध्ययन कराएगा नहीं। यंत्र अध्ययन कराएगा नहीं। इन दो विधियों से आदमी अभी तक चला है। जबकि यंत्र कभी किसी को समझाता नहीं है। किताब कभी किसी को समझाता नहीं है। मानव जो जिज्ञासा करता है, उसके लिए सारी बात को एक स्थान पर संजो कर प्रस्तुत करने का काम न किताब कर सकती है, न यंत्र कर सकता है। कोई एक बात को समझाने के लिए २०० सन्दर्भों के साथ प्रस्तुत होने की बात समझा हुआ आदमी ही कर सकता है, यंत्र नहीं कर सकता। विद्यार्थी द्वारा जिज्ञासा को व्यक्त करना और अध्यापक द्वारा जिज्ञासा का उत्तर देना – इन दोनों के संयोग में अध्ययन है। इसी लिए ‘अनुभव-मूलक विधि से समझाना’ और ‘अनुभव-गामी विधि से समझना’ इसको शिक्षा के लिए तैयार किया। इस तरह से हम शुरू किया हैं। ऐसे शुरू करके हम कहाँ तक पहुँचते हैं, इसको हम देखेंगे। वर्तमान-शिक्षा में तो ऐसा प्रावधान नहीं है।

प्रश्न: आपकी बात से लगता है अध्ययन की जिम्मेदारी विद्यार्थी की कम और अध्यापक की ज्यादा है?

अध्ययन की जिम्मेदारी अध्ययन करने वाले और अध्ययन कराने वाले दोनों पक्षों की है। अध्ययन करने की इच्छा भी ज़रूरी है। अध्ययन कराने की ताकत भी ज़रूरी है। इन दोनों के योगफल में अध्ययन है। कल्पनाशीलता के आधार पर जिज्ञासा है। जिज्ञासा ही पात्रता है। जिज्ञासा की प्राथमिकता के आधार पर ही ग्रहण होता है। जिज्ञासा की प्राथमिकता है या नहीं – इसको सटीक पहचानना अध्यापक का काम है। प्राथमिकता को स्वीकारना और उसके लिए प्रयास करना विद्यार्थी का काम है।

पाँच वर्ष की आयु तक बच्चों में अपने अभिभावकों के प्रति अपनी जिज्ञासा पूरी होने के प्रति पूरा विश्वास रहता है। लेकिन उनकी जिज्ञासा अभिभावकों के न पहचान पाने से और उनके द्वारा उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में बच्चों का विश्वास घटता जाता है। धीरे-धीरे वह घटते-घटते शून्य हो जाता है। एक आयु के बाद बच्चे दूर हो जाते हैं।

"सुख की निरंतरता" मानव का प्रयोजन है। संवेदनाओं में सुख भासता है, पर सुख की निरंतरता बन नहीं पाती। "सत्य में सुख की निरंतरता है" - इस परिकल्पना के साथ जिज्ञासा है। निरंतर सुख संवेदनाओं में नहीं होता है, समाधान से ही निरंतर सुख होता है। यह अनुसंधान पूर्वक मैंने पता लगाया, अब समाधान के लिए सभी का रास्ता बना दिया।

- बाबा श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

Friday, May 6, 2011

अनुसंधान, अध्ययन, प्रमाण



अध्ययन करने वाला तुलन, साक्षात्कार और बोध विधि से देखता (समझता) है। अध्ययन कराने वाला अनुभव मूलक विधि से प्रस्तुत होता है। अनुभव की रोशनी में ही सब देखा (समझा) जा सकता है। अनुभव की रोशनी अध्यापन करने वाले के पास रहता है। कल्पनाशीलता जब अनुभव को स्वीकारती है तब वह तदाकार हो जाती है। अध्ययन की प्रक्रिया तो यही है।

सह-अस्तित्व विधि से समझदारी अस्तित्व में है। उसको समझना है, अनुभव करना है, प्रमाणित करना है - इतना ही बात है।

शब्द से अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचानने के लिए मन को लगाना पड़ता है। शब्द से इंगित अस्तित्व में वस्तु को स्वीकारना होता है, तब तदाकार होने की बात आती है। यदि शब्द से कोई वस्तु अस्तित्व में इंगित नहीं होती तो वह शब्द सार्थक नहीं है। वस्तु को स्वीकारते नहीं हैं तो तदाकार नहीं हो पाते। तदाकार होने पर तद्रूप होते ही हैं। उसके लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है - वह परमार्थ ही है।

तदाकार होना ही अध्ययन है। तद्रूप होना ही अनुभव है। तद्रूप होने पर प्रमाण होता ही है, उसके लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। प्रमाण तो व्यक्त होता ही है. जैसे – आप जो पूछते हो, उसका उत्तर मेरे पास रहता ही है। अनुभव-मूलक विधि से व्यक्त होने वाला अध्ययन कराएगा। अनुभव की रोशनी में ही अध्ययन करने वाले का विश्वास होता है। विश्वास के आधार पर ही वस्तु का बोध होता है। वस्तु का बोध होने पर तदाकार हुआ।


प्रश्न:- जीवन-विद्या परिचय-शिविर में सुने प्रस्तावों पर अपनी कल्पनाशीलता को लगाना अनुभव तक पहुँचने के लिए पर्याप्त है, या वांग्मय का अध्ययन करना भी आवश्यक है?

उत्तर: - अध्ययन करना आवश्यक है। अध्ययन पूर्वक ही अनुभव होता है।

प्रश्न:- तो क्या अध्ययन करने के लिए क्या पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है?

उत्तर: - नहीं। समझने की अर्हता सबके पास है, कल्पनाशीलता के आधार पर – चाहे पढ़े-लिखे हों, या न हों। समझाने वाला पढ़े-लिखे को भी समझा सकता है, बिना पढ़े-लिखे को भी समझा सकता है। जो पढ़ा-लिखा नहीं है, वह सुन तो सकता ही है। पढ़ना भी सुनना ही है – उससे अधिक नहीं है। सुनने-पढ़ने के आधार पर हम तर्क करते हैं। तर्क संतुष्ट होने के बाद समझने की इच्छा होती है। समझने के बाद व्यवहार में प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं।

कितने भी तरीके से हम सोचें, लक्ष्य समझदारी का व्यवहार में प्रमाणित होना ही है। इस लक्ष्य को छोड़ कर हम केवल बातों में अपनी बहादुरी को बता सकते हैं। बातों में बहादुरी बताने से मानव तरा नहीं। बातों में बहादुरी दिखाने की वेद-मूर्ती परंपरा से मैं स्वयं निकला था। वेद-मूर्तियों से ज्यादा बोलने वाला संसार में कोई नहीं है। लेकिन उससे कोई प्रयोजन निकला नहीं।

प्रश्न:- जब तक हम अध्ययन के इस वातावरण में रहते हैं, तब तक हमारा मन लगा रहता है. जब यहाँ से दूर जाते हैं – तो ऐसा लगता है जैसे उल्टा ही गियर लग गया हो! ऐसा क्यों है, इसके निदान के लिए क्या करें?
उत्तर: - सुनना और पढ़ना समझना नहीं है। जब तक हमारा ध्यान सुनने और पढ़ने में ज्यादा रहता है, “समझने” में कम रहता है – तब तक ऐसा होता है। सुनने और पढ़ने के साथ-साथ “समझने” का भी प्रयास किया जाए। समझ में आने पर वह भूलता नहीं है, फिर उस समझ को जीना ही होता है। समझने से पहले मानव जीव-चेतना में ही जीता है।


प्रश्न:- अभी तक जो “धर्म-संस्थापक” के नाम से महापुरुष हुए – जैसे बुद्ध, महावीर, यीशु, पैगम्बर मुहम्मद – वे मानव थे, देव-मानव थे, दिव्य-मानव थे, या भ्रमित थे?
उत्तर: - “धर्म-स्थापना” की कल्पना है। धर्म कहाँ “स्थापित” हुआ? धर्म स्थापित हुआ होता तो संसार को बिगाड़ते कैसे? अपनी कल्पनाशीलता की बदौलत “धर्म” शब्द को हम पाए जरूर हैं – लेकिन “धर्म” शब्द के अर्थ में हम जीते नहीं हैं।

प्रश्न:- आपको जो दर्शन हुआ, वह भूतकाल में इस धरती पर किसी को हुआ या नहीं?

उत्तर: - मैं यह नहीं कह सकता। यदि हुआ भी हो तो उसका प्रमाण तो वर्तमान में नहीं है। “ मुझसे पहले किसी को अनुभव नहीं हुआ” – यह कहने का अधिकार मेरे पास नहीं है। परम्परा में प्रमाण नहीं हुआ – यह मैं कह सकता हूँ। प्रमाण के लिए ही मैंने अनुसंधान किया, प्रमाणित होने के लिए ही हम काम कर रहे हैं।

प्रश्न:- आपको जो दर्शन हुआ, वह भविष्य में किसी को होगा या नहीं?

उत्तर: - अध्ययन करने वाले सभी को यह अस्तित्व-दर्शन होगा। अध्ययन किये बिना किसी को अस्तित्व-दर्शन नहीं होगा।

प्रश्न: शरीर छोड़ने के बाद जीवन की भ्रम और जागृति को लेकर क्या स्थिति होती है?

उत्तर: - जीते समय जीवन जितना भ्रमित रहता है, उतना ही भ्रमित शरीर छोड़ने के बाद भी रहता है। जीते समय जीवन जितना जागृत रहता है, उतना ही जागृत शरीर छोड़ने के बाद भी रहता है। जीवन शरीर छोड़ते समय शरीर-यात्रा का समीक्षा करता है, इसमें जो भी वह गलती स्वीकारता है उसको भूल कर अगली शरीर-यात्रा शुरू करता है। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जीना जागृति है। जीव-चेतना में जीना भ्रम है। जीव-चेतना में न्याय पूर्वक जीना बनता नहीं है।

प्रश्न: एक जागृत-जीवन को अपनी अगली शरीर-यात्रा में क्या फिर अनुसंधान या अध्ययन करने की आवश्यकता है?
उत्तर: - जागृत-जीवन द्वारा भी शरीर छोड़ने के बाद दुबारा शरीर लेने पर समझना तो फिर से पड़ेगा ही। ऐसे जीवन द्वारा परंपरा में यदि जागृति होगा तो परंपरा से जल्दी समझना होगा, परपरा में जागृति नहीं होगा तो पुनः अनुसंधान करना होगा।

हर जीवन जागृति के लिए तृषित है। परंपरा से यदि जागृति नहीं मिलती है तो जो लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद मिलता है – उसी में जीना होता है। उससे जीवन को संतुष्टि होता नहीं है। जीवन-संतुष्टि का प्रावधान मानव-परंपरा में हो, उसके लिए मैंने यह प्रस्ताव मानव-जाति के सम्मुख रखा है।

समझना या अनुभव करना हर व्यक्ति के वश का है। परंपरा में समझदारी का प्रावधान न होने के कारण मानव भ्रम में रहने के लिए विवश है।

प्रश्न: एक बार मानव द्वारा अनुभव-संपन्न होने के बाद उसका दूसरी शरीर-यात्रा में फिर से अनुसंधान करना क्यों आवश्यक है?
उत्तर: - शरीर के साथ तदाकार हुए बिना संवेदनाएं व्यक्त होते नहीं हैं। दूसरी शरीर-यात्रा शुरू करने पर कल्पनाशीलता शरीर के साथ ही तदाकार होगी। ऐसे में जीवन द्वारा ज्ञान को स्वीकारने के लिए अनुसंधान या अध्ययन की आवश्यकता रहेगी ही।

अनुसन्धान तब आवश्यक है जब परंपरा में जागृति का प्रमाण पहुँचता नहीं है। परंपरा में जागृति का प्रमाण नहीं है तो अनुसंधान के अलावा और क्या रास्ता है? जैसे - मेरे द्वारा किये गए अनुसंधान की यदि परंपरा नहीं बनती है या इसको परंपरा में स्थापित करने के लिए मानव तैयार नहीं होते हैं, और मैं यदि इसी धरती पर मानव को मदद करना चाहूंगा, तो मैं अगली शरीर-यात्रा में पुनः अनुसंधान करूँगा ही। ऐसे में अनुभव स्वयं (जीवन) में बना रहेगा, पर उस अनुभव को कल्पनाशीलता द्वारा प्रकट करने के लिए अनुसंधान करना ही होगा। समाधि-संयम पूर्वक ही अनुसंधान होगा।

परंपरा में कमी होती है तभी अनुसंधान करने की बात होती है। जिस परंपरा में मैं जन्मा उसमें मुझे कमी लगी, उससे मैं पीड़ित हुआ, फलस्वरूप तीव्र-इच्छा से मैंने समाधान को चाहा, तभी मैंने अनुसंधान किया।

यदि परंपरा में जागृति का प्रमाण पहुँचता है तो हमको दुबारा अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में पुनः शरीर-यात्रा करते समय में जो परंपरा से प्रमाण मिलता है उसको अध्ययन और अभ्यास करने की आवश्यकता है।

प्रश्न:- आपने जो यह अनुसंधान किया उसको करने से पहले आप क्या पहले से अनुभव-संपन्न “थे” या “नहीं थे”?
उत्तर: - इस अनुसंधान को करने से पहले मैं अनुभव-संपन्न “था” या “नहीं था”, उसका कोई प्रमाण नहीं है। जिस परिवार-परंपरा में मैं पैदा हुआ उसमे भी किसी ने प्रमाण प्रस्तुत किया नहीं। इसी लिए मैं अपने प्रयास को “अनुसंधान” कहता हूँ। प्रमाण-विहीन कोई बात मैं कर नहीं सकता।

प्रश्न: इसका मतलब क्या यह है – परंपरा यदि जागृत न हो तो चाहे उसमे अनुभव-संपन्न व्यक्ति हो या न हो, पुनः अनुसंधान करने की आवश्यकता होगी?
उत्तर: - हाँ। व्यक्ति कोई जागृत हुआ या नहीं हुआ – इसको तब तक कहा नहीं जा सकता जब तक परंपरा में प्रमाण न हो। अनुसंधान करना एक हिम्मत की बात है। हर कोई व्यक्ति अनुसंधान करेगा नहीं। अध्ययन सभी के लिए एक सुलभ मार्ग है। इसी आधार पर अब हम ईमानदारी के साथ बात कर सकते हैं। इस आधार के बिना ईमानदारी के साथ बात करने का कोई तरीका ही नहीं बनता।

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, बांदा)

Tuesday, May 3, 2011

अनुभव और प्रमाण

प्रमाण के बिना अनुभव का कोई प्रयोजन नहीं है। यदि हम कहते हैं, हमको अनुभव हो गया पर उसका प्रमाण नहीं है – तो उसका कोई प्रयोजन नहीं है। अनुभव होता है, तो प्रमाण होता ही है। प्रमाण नहीं होता, तो अनुभव होता ही नहीं है। अनुभव होने में ही गलती हो गयी है, तभी प्रमाण नहीं हुआ। अनुभव ही एक ऐसी बात है जिसको झाड पर चढ कर चिल्ला सकते हैं, बहुत दूर-दूर तक हम चोंगा-पोंगा लगा करके बात कर सकते हैं, उसका कोई भय नहीं होता। अभी तक की सारी परंपराओं के विपरीत मैं बात कर रहा हूँ – फिर भी मैं कहाँ भयभीत हूँ? जो अनुभव होता है, उससे अधिक की संभावनाएं बने रहते हैं। क्योंकि मानव में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता अनुभव से जुड़ती है। अनुभव मूलक विधि से न्याय पूर्वक जीना बनता है। न्याय-पूर्वक जीना बनता है तो समाधान (धर्म) पूर्वक जीना बनता है। न्याय और धर्म पूर्वक जीना बनता है तो सत्य पूर्वक जीना बनता है। दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। ७०० करोड आदमी मिल कर दूसरा कोई रास्ता या विधि को बना ही नहीं पायेंगे।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था

दस व्यक्तियों के समझदार परिवार में समाधान-समृद्धि का वैभव होता है। ऐसे दस समझदार परिवार एक-एक व्यक्ति को अपने में से निर्वाचित करते हैं, जो परिवार-समूह सभा को गठित करता है। ऐसे दसों व्यक्तियों का अधिकार समान होगा, उसका कोई एक मुखिया होगा ऐसा नहीं है। इन दसों परिवारों के जीने के पाँचों आयामों – शिक्षा-संस्कार कार्य, न्याय-सुरक्षा कार्य, स्वास्थ्य-संयम कार्य, उत्पादन कार्य, विनिमय-कोष कार्य – में जब भी कोई काम आया उसको पूरा करना, इनका काम रहेगा। जैसे सभी दस परिवार शिक्षा-संस्कार में पारंगत हैं या नहीं, उसमे जो कमी है उसको पूरा करना। सभी दस परिवार न्याय पूर्वक जी पा रहे हैं, यदि नहीं जी पा रहे हैं तो उसको पूरा करना। सभी दस परिवार उत्पादन कार्य में प्रवीण हैं या नहीं, आवश्यक उत्पादन कर पा रहे हैं या नहीं – इसका परिशीलन करना, और उसकी कमियों को पूरा करना। सभी स्वास्थ्य को लेकर स्वायत्त हैं या नहीं इसका परिशीलन करना और उसकी कमियों को पूरा करना। व्यवस्था के अर्थ में ही कमियों का आंकलन होता है, और उसको पूरा करने के लिए प्रयास होता है।

इस तरह एक परिवार से एक परिवार-समूह तक पहुँचते हैं। ऐसे दस परिवार-समूह मिल कर एक ग्राम परिवार-सभा को तैयार करते हैं। ग्राम-परिवार सभा में भी यही पाँचों आयाम – शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, स्वास्थ्य-संयम, उत्पादन, और विनिमय - काम करते हैं। इन सौ परिवारों के बीच ही विनिमय-कोष कार्य पूरा होता है, संतुलित होता है।

इसके आगे ग्राम-समूह परिवार-सभा में दस ग्राम परिवार-सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर पहुँचते हैं। इस प्रकार उत्पादन के दस गावों तक पहुँचने की व्यवस्था बनती है। इस तरह हज़ार परिवारों के बीच संतुलन की व्यवस्था बनती है।

इसके आगे दस ग्राम-समूह सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर मंडल परिवार-सभा तक पहुँचते हैं। इस तरह दस-हज़ार परिवारों के बीच पाँचों आयामों में संतुलन की व्यवस्था बनती है।

इसके आगे दस मंडल-सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर मंडल-समूह परिवार-सभा तक पहुँचते हैं। दस मंडल-समूह सभा से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर मुख्य-राज्य परिवार-सभा बनता है। इसी विधि से आगे प्रधान-राज्य परिवार सभा और विश्व परिवार-सभा के होने का प्रावधान है। इस तरह “दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था” का स्वरूप निकलता है – जिससे विश्व स्तर तक शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, स्वास्थ्य-संयम, उत्पादन और विनिमय-कोष कार्यों को व्यवस्था के अर्थ में संपादित किया जाता है, उनमे कमियों को पूरा किया जाता है। व्यवस्था का काम यह है, न कि आदमी को फांसी पर लटकाना, बन्दूक दिखा कर बस में रखना। शक्ति केंद्रित शासन मानव को स्वीकार नहीं है। व्यवस्था ही मानव को स्वीकार होती है. सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सह-अस्तित्ववादी ज्ञान, विवेक, विज्ञान में पारंगत होने की आवश्यकता बनती है। पारंगत होने के लिए शिक्षा-विधि ही है। उसके लिए हम छत्तीसगढ़ में कुछ प्रयास कर रहे हैं, आगे चल कर सभी जगह पहुंचेंगे।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

Monday, May 2, 2011

मानव-जाति की छाती के पीपल

आदि-काल से अभी तक हर समुदाय में नर-नारियों में असमानता – ऊपर-नीचे की बात, श्रेष्ठ और नेष्ट की बात, ज्यादा और कम की बात - बना ही रहा है। यह किसी एक समुदाय विशेष की बात नहीं है। हर समुदाय में ऐसा ही रहा है. ‘नर-नारियों में असमानता’ और ‘गरीबी-अमीरी में असंतुलन’ आदि काल से मानव-जाति की “छाती के पीपल” बने हुए है। नारी को असमान बनाए रखने के लिए और गरीब को गरीब ही बनाए रखने की विधियों को लेकर के आदमी अभी तक चला है। हर मानव में ये दो जंजाल बने हुए है। यह है भ्रम का विस्तार! यह सोचने का मुद्दा है। विकल्पात्मक विधि से इस पर सोचने से निकला – समाधान को यदि हम अध्ययन पूर्वक पाते हैं तो नर-नारियों में समानता आती है। नर और नारी में समानता रूप विधा से आ नहीं सकती, बल विधा से आ नहीं सकती, धन विधा से आ नहीं सकती, पद विधा से आ नहीं सकती। बुद्धि विधा से अर्थात समझदार होने पर ही नर-नारी में समानता का स्वरूप निकलता है।

यदि हर परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना बन जाता है तो गरीबी-अमीरी में संतुलन होता है। हर परिवार – जिसे चाहे हम आज “गरीब” कहते हों, “अमीर” कहते हों, या “सामान्य” कहते हों – यदि ‘समझदारी से समाधान’ और ‘श्रम से समृद्धि’ को प्रमाणित करते हैं तो गरीबी-अमीरी में संतुलन सिद्ध होता है। परिवार में संबंधों को व्यवस्था के अर्थ में पहचानना और व्यवस्था के अर्थ में जीने पर समाधान-समृद्धि का अनुभव होता है। उसके पहले प्रमाण होने वाला नहीं है. इसकी आवश्यकता है या नहीं – यह भी सोचा जाए।

इस धरती पर जितने भी देश हैं, जिसकी सीमाओं पर सेनाएं तैनात हैं – उन सभी के अपने-अपने संविधान हैं। वे सभी एक-एक परम्पराएं हैं। इस तरह मानव कितनी विधियों से जियेगा? इस तरह मानव छतरिया गया है। छतरिया करके कहीं भी टिक नहीं पा रहा है। सर्व-देश में एक ही तरीके से उपयोगी हो, ऐसा मानव बन नहीं पा रहा है। हम सभी देशों में अपने उपयोगी हो पाने के बारे में चाहते अवश्य हैं, पर उस तरह से हम सोच नहीं पाते हैं, प्रमाणित नहीं हो पाते हैं। व्यापार-विधि से मानव सर्व-देश तक पहुंचा है। व्यापार का मतलब है – दूसरे को बुद्धू बना कर, ज्यादा लेना और कम देना। व्यापार को सर्व-देशीय बनाने की कोशिश हुई है। उस तरह जिसके पास ज्यादा धन है - वह ज्यादा शोषण करता है, जिसके पास कम धन है – वह कम शोषण करता है।

व्यापार “कृत्रिम अभाव” के आधार पर होता है. इसमें हर उत्पादक द्वारा किये गए सारे उत्पादन को एक जगह इकठ्ठा करके मनचाहे लाभ के अनुसार बेचने की बात रहती है। अभी हमारे ही देश में जो उत्पादक हैं, कृषक हैं – वे अपने घर की दीवारों पर सफेदी करवा नहीं पाते हैं। और जो व्यापारी हैं – वे चमकते घरों में रहते हैं। क्यों होता है ऐसा करिश्मा!? यह सोचने का मुद्दा है या नहीं? गरीबी और अमीरी में संतुलन आये बिना इस स्थिति का समाधान होगा ही नहीं। गरीबी और अमीरी में संतुलन कैसे होगा? गरीबी और अमीरी का संतुलन समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की विधि से ही होगा। गरीब के पास भी समाधान का अभाव है। अमीर के पास भी समाधान का अभाव है। समाधान के बिना समृद्धि का अनुभव होता ही नहीं है। समाधान के बाद ही समृद्धि का अनुभव होता है। हर व्यक्ति यदि समझदारी से समाधान प्राप्त करता है तो वह श्रम से समृद्धि को प्राप्त कर ही सकता है। हर व्यक्ति में समाधान का एक ही स्वरूप होता है। हर परिवार में समृद्धि का अपना-अपना स्वरूप होता है। किसी का दो रोटी से पेट भरता है, किसी का चार से पेट भरता है। उसके लिए कोई एक वस्तु का एक मात्रा में उत्पादन करता है, दूर किसी दूरी वस्तु का दूसरी मात्रा में उत्पादन करता है। दोनों समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं। समाधान पूर्वक सभी समृद्धि का अनुभव कर सकते है। यदि दस व्यक्तियों के एक परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का अभ्यास होता है – उससे फिर एक से अनेक परिवार का ऐसे ही जीना बनता है। हम यदि न्याय पूर्वक जियें, समाधान पूर्वक जियें, सुख पूर्वक जियें, समृद्धि पूर्वक जियें – तो हर व्यक्ति ऐसा चाहता है या नहीं, इसका परीक्षण किया जा सकता है।

सह-अस्तित्व विधि से हम अध्ययन कर पाते हैं तो समाधान-समृद्धि हाथ लगता है। प्रचलित-विज्ञान की विधि से हम अध्ययन करते हैं तो अस्थिरता-अनिश्चयता ही हाथ लगता है, उससे सिवाय अपराध करने के दूसरा कोई प्रवृत्ति बनता ही नहीं है। भक्ति-विरक्ति विधि से हम चलते हैं तो भौतिकता को नकारते रहते हैं, जबकि जीने में भौतिकता को ही स्वीकारे रहते हैं। इस तरह भक्ति-विरक्ति विधि से हमारे शिक्षा में, जीने में, और व्यवहार में कहाँ संतुलन होता है? इस तरह संतुलन न भक्ति-विरक्ति विधि से हुआ, न अत्याधुनिक-विज्ञान विधि से हुआ। अत्याधुनिक-विज्ञान यंत्र को सर्वोपरि प्रमाण मानने तक पहुंचा है – मानव को प्रमाण नहीं माना. भक्ति-विरक्ति शास्त्र को सर्वोपरि प्रमाण मानने तक पहुंचा है – मानव को प्रमाण नहीं माना। यही मुख्य बात है. सह-अस्तित्व वादी विधि से शिक्षा व्यवस्था में जीने के अर्थ में है। स्थिरता और निश्चयता के आधार पर है. हम स्थिरता-अनिश्चयता चाहते हैं या अस्थिरता-अनिश्चयता? – इसका भी अपने में परिशीलन करिये. हम यदि स्थिरता-निश्चयता चाहते हैं तो क्या उसे हम पाए हैं या नहीं – इसका भी अपने में परिशीलन करिये। यदि स्थिरता-निश्चयता को पा गए हैं तो उसमे प्रमाणित हैं या नहीं – इसको सोचिये। इस तरह हम सोचते हैं तो अभी तक की शिक्षा की समीक्षा होती है, उसका मूल्यांकन होता है, और हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि - अभी तक की शिक्षा निरर्थक है, अपराधिक है, अनिश्चित है, अस्थिर है। इसमें कोई शंका हो, कोई जिज्ञासा हो, कोई प्रश्न हो तो उसको आप सभी मुझसे पूछ सकते है।

आपका कोई प्रश्न नहीं है – उसका मतलब मैं यह नहीं मानता कि आपको यह बात स्वीकार हो गयी है। आप इस बात में पारंगत हो गए – ऐसा मैं नहीं मानता हूँ। स्वीकार होने पर प्रमाण ही होता है। आप इस बात से सहमत हुए हैं, ऐसा मैं मानता हूँ।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

प्रचलित-शिक्षा का विकल्प

अभी की प्रचलित-शिक्षा कामोंमादी, भोगोंमादी, और लाभोंमादी है। जबकि हर अभिभावक - चाहे डाकू हों, दरिद्र हों, समर्थ हों, असमर्थ हों - चाहते हैं उनके बच्चे नैतिकता पूर्ण बने, चरित्रवान बनें। आप स्वयं सोचिये – इन तीनो उन्मादों को पाते हुए क्या बच्चे नैतिक बन सकते हैं, चरित्रवान बन सकते हैं? इस ढंग से हम अभी तक क्या किये, किस बात के लिए भागीदारी किये – इसका मूल्याँकन होने लगता है। इस मूल्याँकन के होने के बाद हम विकल्पात्मक स्वरूप में जीने के लिए तैयार होते हैं। विकल्पात्मक स्वरूप है – सह-अस्तित्व में जीना. विकल्पात्मक शिक्षा के स्वरूप के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।

सह-अस्तित्व में स्वयम जीने के स्वरूप को लेकर विकल्पात्मक-शिक्षा की शुरुआत करते हैं। सह-अस्तित्व में स्वयं जीने के लिए जब पारंगत हो जाते हैं, तो उसके सत्यापन को हम इस विकल्पात्मक-शिक्षा की पूर्णता मानते हैं। इसके उपरान्त समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने, अन्य लोगों की सहायता करने, और उपकार करने की शुरुआत होती है। आगे पीढ़ी में पिछली पीढ़ी से और अच्छा करने तथा अच्छा प्रस्तुत होने की कल्पना रहता ही है। अभी की अपराध-परंपरा में भी इस को देखा जा सकता है। मानव ने अपराध की शुरुआत जंगल को विनाश करने और हिंसक पशुओं का वध करने के रूप में की। उनकी संतान और ज्यादा विनाश करने, और ज्यादा वध करने की ओर गयी। यह चलते-चलते लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद तक पहुँच गया। अभी प्रचलित व्यापार-शिक्षा में लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद ही मिलता है। इसके अलावा दूसरा कुछ उसमे पा ही नहीं सकते। इसके अलावा उस शिक्षा में कोई ध्वनि ही नहीं है, सूत्र ही नहीं है, न व्याख्या है। यहाँ बैठे कुछ लोग नौकरी करते हुए भी हैं, व्यापार करते हुए भी हैं। वे सभी सोच सकते हैं, ऐसा ही है या नहीं? यदि मैं जो कह रहा हूँ वास्तविकता उससे भिन्न कुछ है तो उसको आप मुझे सुझाव के रूप में दे सकते हैं, आग्रह के रूप में दे सकते हैं – कैसे भी दीजिए, वह सब स्वागतीय है।

अभी मानव बहु-रुपिये जैसा जीता है. समझदारी पूर्वक मानव एक निश्चित आचरण (मानवीयता पूर्ण आचरण) के साथ जीता है। क्या इस बात से किसी का विरोध है, असहमति है? यह जीव-चेतना और मानव-चेतना का विश्लेषण है। इस विश्लेषण के आधार पर मनुष्य पुनर्विचार करने का अधिकार प्राप्त करता है। पुनर्विचार कि – अपराध-मुक्ति कैसे हो? गलतियों से मुक्ति कैसे हो? भ्रम से मुक्ति कैसे हो? दरिद्रता से मुक्ति कैसे हो? पुनर्विचार के लिए सुझाव है – सह-अस्तित्व-वादी विधि से इन सभी मुद्दों का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। जिससे अपराध-मुक्त हो सकते हैं, गलतियों से मुक्त हो सकते हैं, भ्रम से मुक्त हो सकते हैं, दरिद्रता से मुक्त हो सकते हैं।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित