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Thursday, October 11, 2012

सच्चाई का शोध करने का स्त्रोत

भ्रमित जीवन में अन्तर्निहित अतृप्ति है।  इस कारण से किसी भी आवेश को भ्रमित मानव सतही मानसिकता में स्वीकार नहीं कर पाता है।  जैसे - लाभोंमादी आवेश, किसी जगह में इस आवेश के साथ चलते हुए, यह "सही" है - हम मान नहीं सकते।  कामोंमादी और भोगोंमादी आवेशों के साथ भी ऐसा ही है।  यह हमारे जीवन में छिपा हुआ सच्चाई का शोध करने का स्त्रोत बना हुआ है।  इस स्त्रोत के आधार पर अध्ययन पूर्वक हम इन प्रचलित उन्मादों से बच कर निकल सकते  हैं।

बुद्धि जीव चेतना के चित्रणों का दृष्टा बना रहता है, किन्तु उसको स्वीकारता नहीं है।  बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, वही पीड़ा है।  सर्व-मानव में पीड़ा वही है।

आदमी अपने में जो करता है, उसे कहीं न कहीं देखता ही रहता है।  क्या देखता है, क्या नहीं देखता है - उसे पता नहीं रहता किन्तु उसमे "उचित"/"अनुचित" को कहीं न कहीं ठहराता ही रहता है।  उसी में भ्रमवश हठ-धर्मियता शुरू होती है।  उसमे मानव फंस जाता है।

बुद्धि भ्रमित नहीं होती।  बुद्धि बोध की अपेक्षा में रहती है।  बुद्धि की दृष्टि चित्रण की ओर रहता है और आत्मा से प्रामाणिकता की अपेक्षा में रहता है।  प्रामाणिकता न होने से स्वयं में रिक्तता या अतृप्ति बना ही रहता है।  जीव-चेतना की सीमा में कल्पनाशीलता में जो प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से जीना होता है, उससे बुद्धि में बोध की वस्तु कुछ जाता ही नहीं है।  शरीर संवेदना से सम्बंधित बातें बोध की वस्तु नहीं है, इसलिए वह चित्रण से ऊपर जाता नहीं है।  उसमे चिंतन की कोई वस्तु नहीं है।  उसमे संवेदना है और  संवेदनाओं को राजी रखने की प्रवृत्ति है।


- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त 2006, अमरकंटक)

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