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Monday, February 18, 2008

सम्प्रेष्णा का गुरु मंत्र

मानव का मन तीन दिशाओं में एक साथ काम करता है। मन जो तीन दिशाओं में दौड़ता है - उसको कल्पना भी कह सकते हैं, मन की गति भी कह सकते हैं। चयन करने के लिए दौड़ता है मन। अन्य व्यक्ति क्या कर रहा है, कैसा दिखता है, क्या चाहता है - यह मन द्वारा चयन में आता है। यह हमारे मन पर प्रतिबिम्बित होता है। उसी के आधार पर हम दूसरे व्यक्ति से मंगल-मैत्री पूर्वक बात कर सकते हैं।

दूसरे व्यक्ति को सटीक पढ़ पाने की क्षमता में व्यक्ति-व्यक्ति में अन्तर रहता है। दूसरे व्यक्ति के आशय को पढ़ पाना एक perfection की बात है। उसमें पैना-पन है। हमारी अपेक्षाओं से लदा हुआ हमारा मन पूरा जिज्ञासा नहीं कर पाता। अपने मन को खाली करने पर ही सामने वाले का मन पढने में आएगा। सामने वाले क्या चाहता है - यह पता चलता है। क्या करता है - यह पता चलता है। क्या होता है - यह भी पता चलता है। खाली मन में विचार का भी प्रतिबिम्ब रहता है। खाली मन ही प्रतिबिम्बन के लिए नेगेटिव (फोटोग्राफी जैसे) है। उससे हमारे लिए सामने व्यक्ति को समझने के लिए मदद हो जाता है। उसके पहले से हमारे पास यह योग्यता रहती है - की होना क्या चाहिए? करना क्या चाहिए? और रहना क्या चाहिए? इसको साथ में लेकर दूसरे की अपेक्षा के अनुसार अपनी योग्यता कों भाषा स्वरूप में पहनाने जाते हैं। जिससे दूसरे कों सटीक बात पहुँच जाती है।

यही सम्प्रेष्णा का गुरु मंत्र है। यही सूक्ष्म संवेदना है। इन संवेदनाओं के साथ यदि हम सोचने लगते हैं, प्रवृत्त होते हैं - तो हमारा बहुत सारा सम्प्रेष्णा सफल होने लगता है।

अनुभवमूलक विधि से जीने में यह स्वाभाविक हो जाता है। अनुभवगामी विधि में भी ध्यान देने की आवश्यकता है - ताकि सूचना ठीक ग्रहण हो सके।


श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी 2007)

Thursday, February 14, 2008

प्रमाण के साथ ही समझ पूरा होता है।

भ्रमित स्थिति में भी आप सत्य की अपेक्षा करते रहे। सत्य की अपेक्षा आप में समाई रही। उसके बाद आपको सूचना मिली की यह अपेक्षा जीवन में है। जीवन में सहअस्तित्ववाद की सूचना का परिशीलन करने गए तो यह आपके तुलन में आ गया। इस तरह सूचना के रूप में न्याय, धर्म, और सत्य आपके तुलन में आ गया। आपका तुलन इस प्रकार शुरू हुई तो आपके चित्त में साक्षात्कार होना शुरू हो गया। चित्त में साक्षात्कार पूरा होना बोध के पहले ज़रूरी है। साक्षात्कार पूरा होने के बाद ही बोध होता है। सहअस्तित्व बोध हो गया, तो अनुभवमूलक विधि से वह प्रमाण रूप में आने लगता है।

अनुभव का रोशनी सदा सदा जीवन में रहता ही है। शरीर का क्रिया-कलाप जीवन के साढ़े चार क्रिया में ही समाप्त हो जाता है, अनुभव तक पहुँचने का इसमें कोई वस्तु रहता नहीं है। न्याय-धर्म-सत्य सूचना के रूप में पहुँची तो साक्षात्कार का प्रोजेक्ट शुरू हो गया। अनुभव होने के बाद, अनुभव-प्रमाण सहित हम पुनः प्रस्तुत हो पाते हैं।

भ्रमित अवस्था में इतना तक रहता है - कि तुलन होता है। हर व्यक्ति प्रिय-हित-लाभ का तुलन करता ही है। इसी लिए हम को यह स्वीकार होता है की न्याय-धर्म-सत्य का भी तुलन हो सकता है। यह बात हम-में मान्यता के रूप में रहता है। जब हम प्रमाणित होने लगते हैं, तो इसमें हमें विश्वास होता है।

न्याय-धर्म-सत्य को मान्यता के आधार पर शब्द के द्वारा जब हम स्वीकारते हैं - तो उसका साक्षात्कार अपने आप से चित्त में होता है। चित्त में साक्षात्कार होने के फलस्वरूप बोध, बोध के बाद अनुभव, अनुभव के फलस्वरूप प्रमाण, फलस्वरूप प्रमाण-बोध। यहाँ तक पहुँचने के बाद हम चिंतन पूर्वक हम प्रमाणित करने योग्य हो जाते हैं।

प्रमाण के साथ ही समझ पूरा होता है।
अनुभव के बिना समझ पूरा नहीं होता। तब तक शब्द ही रहता है।

मान्यता और आस्था के साथ हम अध्ययन शुरू करते हैं।
प्रमाण के आधार पर हम प्रमाणित हो जाते हैं।

- श्री ए नागराज  के साथ हुए संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

मनुष्य की कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु सह-अस्तित्व में ही है।

* सत्ता में संपृक्त प्रकृति का बोध बुद्धि में ही होता है। यह मन में नहीं होता। चित्त में चित्रित नहीं होता। बुद्धि में इसका बोध होने पर मन, वृत्ति, और चित्त तीनो तृप्त हो जाते हैं।

* बुद्धि में जो बोध होता है, वह अनुभव मूलक विधि से प्रमाण प्रस्तुत होता है। अनुभव से पहले चित्त में जो चित्रण होता है - वह अनुभव-मूलक विधि से प्रमाणित नहीं होता। संवेदना के रूप में ही व्यक्त होता है।

* चित्त में साक्षात्कार होने के बाद बुद्धि में बोध ही होता है। बोध होने के बाद अनुभव-मूलक विधि से पुनः प्रमाण बोध होता है। प्रमाण बोध का संकल्प होता है - बोध को प्रमाणित करने के लिए । संकल्प होने से उसका चिंतन होता है। चिंतन के पश्चात् उसका चित्रण होता है। वह चित्रण हम आगे प्रकाशित करना शुरू कर देते हैं।

* मनुष्य की कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु सह-अस्तित्व में ही है। कल्पनाशीलता की रोशनी में हमें साक्षात्कार/बोध हो गया। अनुभव की रोशनी बना ही रहता है - फलस्वरूप अनुभव में कल्पनाशीलता विलय हो जाती है। अनुभव की रोशनी प्रभावी हो जाती है।

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श्री नागराज शर्मा के साथ अगस्त २००६ में हुए संवाद पर आधारित

Wednesday, February 13, 2008

बोध तक अध्ययन है - उसके बाद अनुभव स्वयंस्फूर्त है।

प्रिय, हित, लाभ के साथ तुलन रहते प्रिय, हित, लाभ का ही चित्रण रहता है। इस आधार पर वह चिंतन-क्षेत्र में जाता ही नहीं है। शरीर मूलक बात को चित्रण से आगे बढाया नहीं जा सकता। उसमें केवल संवेदनाएं हैं, और संवेदनाओं को राजी करने की प्रवृत्ति है। इसी को संवेदनशीलता कहा। 'वेदना' इसलिए कहा - क्योंकि सुख भासता है, सुख निरंतर रहता नहीं है। यह कष्ट बना है। यह वेदना अतृप्ति का कारण है। इसीलिए चित्रण में बार - बार दुःख दखल करता है। बिगाड़ का संकेत चित्रण में आता ही है। वह मानव के लिए संकट है। उससे मुक्ति पाना मानव का काम है। भय, प्रलोभन वश हम कुछ करते भी हैं - उससे कुछ सही हो जाता है, कुछ ग़लत हो जाता है। इसमें से जो "सही" वाला भाग है - वह शरीर से संबंधित है। "गलती" वाला भाग चारों अवस्थाओं से संबंधित है। (क्योंकि "सही" की पहचान शरीर मूलक विधि से ही की गयी थी।  ) इस ढंग से हम सही-पन के बारे में हम केवल शरीर तक ही सीमित हो गए। 'सही-पन' को पहचानने का क्षेत्र इस तरह सिकुड़ गया। 'गलती' का क्षेत्र बढ़ गया। गलती का क्षेत्र बढ़ने से गलती की आदत बढ़ती गयी। कल्पनाशीलता, कर्म-स्वतंत्रता रहा ही। मनाकार को साकार करने के लिए हम हर अपराध को वैध मान लिए।

अब इस तरह हम चलते-चलते यहाँ तक पहुंचे - जब आपके सामने यह मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आ गया। इससे आप रोमांचित हुए। क्योंकि आपकी बुद्धि की चित्रण से सहमति मिली।

बुद्धि की चित्रण के साथ सहमति होने पर रोमान्चकता तो है - पर तृप्ति नहीं है।

तृप्ति कैसे लाई जाए?

तुलन में न्याय, धर्म, सत्य को प्रधान माना जाए। न्याय-धर्म-सत्य को हम चाहते तो हैं ही। यह हर व्यक्ति में है। मन में भी न्याय-धर्म-सत्य के साथ सहमति है। इस तरह हम जितना भी जाने हैं - उससे यह देखना शुरू करते हैं, कि यह कहाँ तक न्याय है, कहाँ तक यह समाधान है, यह कहाँ तक सच्चाई है? यह जिज्ञासा करने से हम अपनी वरीयता को न्याय-धर्म-सत्य में स्थिर कर देते हैं। यही तरीका है - न्याय-धर्म-सत्य को स्वयं में प्रभावशील बनाने का। स्वयं की न्याय, धर्म, सत्य के आधार पर जाँच करने का। यह जाँच होने पर हम स्वयं में न्याय-धर्म-सत्य की प्राथमिकता को स्वीकार लेते हैं। यह स्वीकारने के बाद - हम न्याय क्या है, सत्य क्या है, धर्म क्या है? - इस जिज्ञासा में जाते हैं।

इसमें जाने पर पता चलता है - सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व ही परम-सत्य है। यह बुद्धि को बोध होता है। इससे बुद्धि के स्वयं में संतुष्ट होने की सम्भावना बन जाती है। बुद्धि को कल्पनाशीलता से सन्देश पहुँचा कि सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व ही सत्य है, समाधान ही धर्म है, और मूल्यों के रूप में ही न्याय है। यह बुद्धि को स्वीकार होता है। बुद्धि को जब यह स्वीकृत हुआ तो वह तुरंत अनुभव में आ जाता है। इस तरह सहअस्तित्व में अनुभव होना हो जाता है।

बोध तक अध्ययन है। उसके बाद अनुभव स्वयंस्फूर्त है।

अब अनुभव मूलक विधि से प्रमाण बोध होने लगता है। प्रमाण बोध होने लगता है, तो हमारे आचरण में आने लगता है।

अब तुम्ही बताओ - इसको मैं सत्य मानूं या और कुछ को सत्य मानूं?

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

Monday, February 11, 2008

अटकाव का कारण है - आप अभी तक जैसे जिए हैं, उसके कुछ बिन्दुओं को अच्छा माने रहना।

भ्रम-मुक्ति का प्रमाण अपराध-मुक्ति है। अपना-पराया से मुक्ति है। इस जगह पर आने के लिए यह प्रस्ताव रखे हैं। वह प्रस्ताव आपको ठीक लग रहा है। यहाँ आने से पहले आप जैसे भी जिए, उससे संतुष्टि नहीं मिली - पर अच्छी तरह जीने के अरमान में आप जिए।

अब यह प्रस्ताव आपके अधिकार में आने में थोडा आनाकानी करता है। इस अटकाव का कारण है - आप अभी तक जैसे जिए हैं, उसके कुछ बिन्दुओं को अच्छा माने रहना।

अब इस बात से यह पता लगता है - हम चाहे कितने भी बिन्दुओं को अच्छा मान लें - वह कुल मिला कर भ्रम ही है। जीव चेतना विधि से एक भी बिन्दु ठीक नहीं है। हमारा किन्ही बिन्दुओं को ठीक मान लेना - जीवन की दसों क्रियाओं के काम करने में बाधा करता है। हम इसलिए कुछ बिन्दुओं को ठीक मान लेते हैं - क्योंकि जो कुछ भी अभी (जीव चेतना में ) कर रहे हैं, वह अच्छे जीने की अपेक्षा से ही है। अब उससे अच्छा हुआ नहीं - तभी तो आपमें जिज्ञासा हुई है।

प्रश्न: यानी अभी मैं परिवार में जैसे जीता हूँ, क्या वो गलत है?

उत्तर: गलत है! परिवार हम जैसा भी डिजाईन अभी किये हैं - वह ठीक नहीं है। हम एक छत के नीचे होना सीखे हैं, रहना नहीं सीखे।

प्रश्न: मैं जैसे खाता हूँ, रहता हूँ, नौकरी करता हूँ - क्या वह गलत है?

उत्तर: गलत है! जीवचेतना में हम जितना भी अच्छे से अच्छा डिजाईन बनाया - सब गलत है।

अब इस प्रस्ताव के आने के बाद भी - पहले के जीने के साथ इसको बैठाने लगते हैं। क्योंकि जीव-चेतना में राजी-गाजी से ही काम चलाने की बात रहती है।

आप लोगों में हिम्मत कहीं न कहीं से जुड़ा है - वरना यह जो मैंने अभी बोला, उसको सुन कर टिके रहना मानव जाति के पक्ष में तो नहीं है। जीव चेतना में जीने वाला मानव मेरी इस बात को सुनकर हजार कोस दूर भागना चाहिऐ!

अब आप इस प्रस्ताव के पास अपनी मजबूरी वश आये हैं। जीवचेतना में अच्छे से अच्छा मान कर हम बहुत कुछ करते हैं। जैसे - वैदिक विचार और परंपरा को इतना मैं श्रेष्ठतम मान कर चला, पर उससे कोई भी समाधान नहीं निकला। तपस्या में कमी नहीं रहा लोगों की - पर निकला भून्जी-भांग नहीं! सामान्य व्यक्तियों की आशा उनसे बनी रही। संसार इन लोगों से कुछ मिलता है, मिलता है - सोच कर प्रणाम किया। लोग प्रणाम करने लगे, तो अपने को मान लिया कि हमने सब-कुछ दे दिया! इस तरह से अहमतायें बढ़ी।

आपको लोग प्रणाम करने मात्र से आपका यह सोचना कि आप बडे हो गए - यह गलत है!
अध्ययन, तप, आदि से यदि कुछ मिलता है तो वह शिक्षा में, संविधान में, आचरण में आना चाहिऐ। व्यवस्था में उसकी सूत्र-व्याख्या होनी चाहिऐ। इन चीजों का प्रयोजन है - अपने पराये की दीवारों का ख़त्म होना। मानव, मानव की हैसियत से एक दुसरे की पहचान में आना चाहिऐ। इसके लिए मध्यस्थ दर्शन से पहले (मानव इतिहास में) कोई सूत्र नहीं निकला।

अनुभव से पहले व्यवहार में निश्चयता, आचरण में निश्चयता और निरंतरता नहीं बनती। अनुभव से पहले आदमी बीसों अवतारों में जी लेता है। एक ही आदमी एक समय में बहुत शांत दिखता है, वही आदमी दुसरे समय में श्राप दे देता है। यह कब तक चलेगा? यह जीवन के अपने आप में संतुष्ट न होने के कारण है। शरीर संतुष्टि का कारक होता नही है - इसलिए अधूरापन ही लगता है।

देखो - साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कुछ नहीं है। या तो साढ़े चार है, या दस है।

यह ऐसा ही है - जैसे बल्ब जलाया और प्रकाश हो गया।

अध्ययन हो जाना - मतलब उजाला हो गया।
अध्ययन होने से पहले - उजाले की अपेक्षा रहा।


- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, February 8, 2008

अध्ययन मनुष्य का मनुष्य के साथ ही होता है।

किताब से सूचना है। अध्ययन मनुष्य का मनुष्य के साथ ही होता है। दो व्यक्ति के बिना प्रमाण का प्रश्न ही नहीं है।  संज्ञानशीलता और संवेदनशीलता का यदि प्रमाण होना है, तो दो व्यक्तियों का होना ही है। संज्ञानशीलता प्रमाणित होने के लिए - दो आदमियों में एक समझाने वाला, एक समझने वाला। समझने वाला समझने पर, और समझाने वाला समझा पाने पर स्वाभाविक रुप में संज्ञानशीलता प्रमाणित होती है।

संज्ञानशीलता प्रमाणित होने के बाद उसको अभ्यास रुप में लाने में कहीं भी अड़चन नहीं है। जैसे मुझे मेरी बात को प्रमाणित करने में अभी तक तो कोई अड़चन नहीं है। "हम सुनेंगे नहीं" और "हम करेंगे नहीं" - इन्ही दो कालम में लोग खडे हैं अभी। किन्तु इसका विरोध करना किसी से बनता नहीं है।

भाषा का प्रयोजन है - सूचना तक पहुँचना। भाषा अध्ययन का आरंभिक भाग है।
सुनने पर, देखने पर आपको सूचना होता है। सुनने पर सर्वाधिक सूचना पहुँचता है, उससे कम देखने पर, उससे कम और बाक़ी संवेदनाओं से।

"मैं प्रमाणित हूँ" - यह आप के स्वीकारने पर आप प्रभावित होते हैं। उससे पहले तक आप जिज्ञासु बने रहते हैं। अध्ययन करने की इच्छा प्रकट करने तक आ जाते हैं। अध्ययन तभी होता है - जब स्वयम में यह स्वीकार हो जाता है, कि अध्ययन कराने वाला प्रमाणित है। यही "व्यक्ति प्रमाण" का आधार है।

अध्ययन एकांत में नहीं है। अध्ययन प्रमाण के साथ ही है। इसको highlight करने की जरूरत है। आज की दुनिया के लिए यह एक vigorous point है।

रासायनिक-भौतिक वस्तुएं सभी कारीगरी विधि से हमको समझ में आते हैं। जैसे जंगल से करंज के बीज बटोर के लाना एक कारीगरी है। उसका तेल बनाना, और फिर उसका डीज़ल बनाना एक कारीगरी है। इन सबको मिला कर हम गति या दूरगमन के लिए प्रयोग करते हैं।

जीवन और व्यापक को हम कारीगरी विधि से नहीं समझ सकते.  जीवन को हम अध्ययन विधि से समझते हैं। व्यापक को हम अध्ययन विधि से समझते हैं।

मानव के पास कल्पनाशीलता है।
मानव सच्चाई को चाहता है।
मानव को सच्चाई का भास-आभास होता है।
इस आधार पर पठन से अध्ययन की प्रवृत्ति बनती है।

अब जैसे आपको सूचना मिली - कि "सत्य" है, "न्याय" है, "समाधान" है
यही तीन प्रधान मुद्दे हैं अस्तित्व में। इन प्रधान मुद्दों के आधार पर (मध्यस्थ दर्शन की) सारी सूचनाएं हैं। इन सूचनाओं के आधार पर हमें लगता है, सत्य कोई वस्तु है!

अध्यात्मवादियों ने भी सत्य का कुछ प्रतिपादन किया शब्दों में.  उससे उनको कुछ सच्चाई भासी - तभी तो उसके लिए न्योछावर हुए हैं वे लोग।

अब यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रतिपादन है - "सहअस्तित्व ही परम सत्य है"।  सहअस्तित्व होने के आधार पर, प्रकृति और व्यापक वस्तु सतत होने के आधार पर, मनुष्य के अध्ययन करने की सम्भावना बन गयी।  अध्ययन पूर्वक हम इस जगह पर पहुंच जाते हैं कि सत्य ऐसा ही है!

पहले "ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या" बताया था। और मिथ्या सत्य को अध्ययन कैसे करेगा - करके रास्ता बंद था।  अब मध्यस्थ दर्शन के अनुसार - स्थितिपूर्ण सत्ता में स्थितिशील प्रकृति सम्पृक्त है। पूर्णता के अर्थ में सम्पृक्त है।

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Thursday, February 7, 2008

अध्ययन करने के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है।

जीव चेतना में हम जितना भी करते हैं, उसका गम्य-स्थली सुविधा-संग्रह ही है। सुविधा-संग्रह में पहुँचना अच्छा तो लगता है, किन्तु इसका कोई तृप्ति-बिन्दु नहीं है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु न अभी तक किसी को मिला है, न आगे मिलने की कोई सम्भावना है। इस निष्कर्ष पर यदि हम पहुंच जाते हैं - तो समझो मानवचेतना की हममें अपेक्षा बन गयी।

मानव-चेतना को पाने के लिए जो हमारा मन लगता है, उसे हम ध्यान कहते हैं। ध्यान देना = मन लगाना। अध्ययन में यदि मन लगता है, शनै: शनै: हम मानव चेतना के प्रति स्पष्ट होते जाते हैं। एक दिन एक ऐसा बिन्दु आता है, जब वह हमारा स्वत्व के रुप में हो जाता है। उसी बिन्दु से जागृति प्रकट होती है।

ध्यान और अभ्यास आदि कि परंपरागत जो भी विधियाँ हैं - वे इसको छूती भी नहीं हैं। उन विधियों से स्वयम का प्रयोजन और दूसरों के लिए उपकार दोनों सिद्ध नहीं होता।

अध्ययन में मन लगना यदि पूरी ईमानदारी के साथ हो जाता है - तो यह पूरा हो जाता है। मानव चेतना में प्रवृत्त होने के लिए पूरा रास्ता बना देता है। उसका प्रमाण है - दसों क्रियाओं का प्रमाणित होना।

अध्ययन करने के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन करते समय अभी आप जो कर रहे हो - उसके प्रति कोई त्याग, वैराग्य का बात आता नहीं है। आप अध्ययन यदि करते रहो, कोई ऐसी जगह आयेगी, कोई ऐसा क्षण आएगा - जब मानव-चेतना आपके लिए स्वीकार हो जायेगी। उस बिन्दु तक अध्ययन है।

जिस तरह पत्ता पकने के बाद वृक्ष से स्वतः ही गिर जाता है - उसी प्रकार हमारी सारी निरर्थकतायें अपने आप गिर जाती हैं। पत्ता तोड़ने और पत्ता गिरने में कितना फर्क है - आप ही बताओ? यह एक woundless process है।

खाना, पीना, जीना आदि कुछ नहीं बदल जाता - खाने, पीने, जीने आदि के लिए जो करते हो - उसका डिजाईन बदल जाता है। खाने-पीने में आप यहाँ देख ही रहे हो - कोई कमी नहीं है।  थोडा ज्यादा ही है, कम नहीं है!

समझदारी के बाद यह समीक्षा होती है - हम जिस तरह से दाना-पानी पैदा करते हैं, उससे संतुष्ट हो सकते हैं या नहीं? समीक्षा के बाद यदि हम पाते हैं कि वर्तमान का हमारा दाना-पानी अर्जित करने का तरीका ठीक है, तो किसको क्या तकलीफ है? यदि अनुकूल नहीं पाते तो जीने का दूसरा डिजाईन अपने आप से ही हो जाता है। दूसरा डिजाईन कोई नया आदमी नहीं करेगा। समझने के बाद जीने का डिजाईन अपने आप से उभर आता है।

दूसरे डिजाईन बनने के उदाहरण के लिए देखो यौगिक विधि से प्राण-सूत्रों में कैसे अपने आप से नया डिजाईन उभर आती है! हम जब तृप्त होते हैं, तो तृप्त हो कर जीने का डिजाईन अपने आप से हम में उभर के आ जाता है। एक ही डिजाईन से हर व्यक्ति जियेगा - यह भी बेवकूफों की कथा है! एक डिजाईन में सभी आदमी जी नहीं पायेगा। हर आदमी के साथ डिजाईन बदलेगी। इसमें एक चीज ध्रुव रहेगी - स्वावलंबन की स्थिति = अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन कर लेना = परिवार के दसों व्यक्तियों के शरीर पोषण, संरक्षण, शिक्षा, दीक्षा, और समाज-गति में भागीदारी का प्रबंध हो। इतने के लिए ही तो साधन चाहिऐ! उतने के लिए साधन हर परिवार में श्रम पूर्वक पैदा किया जा सकता है।

श्रम पूर्वक स्वावलंबन का डिजाईन आप अपने आप से ही निर्मित करोगे। एक ही डिजाईन में सभी उत्पादन करेंगे - यह भी मूर्खता की बात है। इस तरह मानव एक मशीन नहीं है। मानव एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहते हैं - फलस्वरूप हम व्यवस्था में जी कर प्रमाणित हो सकते हैं। इतना ही तो सूत्र है। इस सूत्र को यदि हम ठीक तरह से उपयोग कर लेते हैं - तो संसार के उपकार करने की जगह में आ जाते हैं।

यथास्थिति को बनाए रखते हुए, अध्ययन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। आवेश में आने से अध्ययन स्थगित हो जाएगा।

- श्री ए नागराज  के साथ संवाद पर आधारित  (अगस्त २००६, अमरकंटक)