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Sunday, November 21, 2010

समझने की प्रक्रिया

(1) समझना वस्तु है, शब्द नहीं है। अंततोगत्वा शब्दों से इंगित वस्तु को पहचानना है, या शब्द को पहचानना है? यह तय करना होगा। शब्दों को शब्दों से जोड़ते हुए शब्दों में ही हम फैलते जाते हैं। वस्तु पर ध्यान देते हैं तो शब्द कम होते जाते हैं, और वस्तु को पा जाते हैं।

(२) समझाने वाले व्यक्ति की पूरी बात को पूरा सही से सुनने के लिए, सुनने/समझने वाले को अपने पूर्व-विचार को स्थगित करने की आवश्यकता है।

(३) "सबके साथ समझदारी एक ही होगा" - यह स्वीकारने से "विशेषता" का भ्रम समाप्त होता है। "हम समझदार होंगे, बाकी सब मूर्ख रहेंगे" - इससे परेशानी बढ़ेगी। "सब समान रूप से समझदार होंगे" - इस बात पर हमको विश्वास रखना है।

(४) पवित्रता पूर्वक, संयमता पूर्वक रहने से जल्दी समझ में आता है। समझने के बाद पवित्रता में ही रहना होता है।

(५) अध्ययन विधि से क्रमिक रूप से साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार होना = वस्तु के होने-रहने की स्वीकृति होना = वस्तु का दृष्टा बनना। वस्तु अपने रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म के साथ है। साक्षात्कार में ये चारों समाहित हैं। साक्षात्कार होने के फल-स्वरूप कल्पनाशीलता तदाकार होती है। कल्पनाशीलता तदाकार होना = प्रतीति होना। चित्त तदाकार होता है, जिसको बुद्धि स्वीकारता है। बुद्धि में स्वभाव और धर्म स्वीकृत होता है, जिसको अनुभव-गामी बोध कहा। बोध होने के फलस्वरूप अनुभव होता है। अनुभव होना = तद्रूप होना। अनुभव का प्रमाण फिर कार्य-व्यवहार में होता है। इस प्रकार जीने की विधि अनुभव-मूलक, जीवन-मूलक, और प्रमाण-मूलक हो जाती है।

(६) शरीर के साथ जब तक जीवन तदाकार रहता है, या जब तक जीवन स्वयं को शरीर माना रहता है, तब तक चार विषयों और पांच संवेदनाओं की सीमा में ही जीना बनता है। विषयों में और संवेदनाओं में सुख जैसा लगता है, पर सुख होता नहीं है। विषयों और संवेदनाओं में सुख यदि होता तो उनमें सुख की निरंतरता भी होती!

(७) तत-सान्निध्य = वास्तविकता के साथ हम प्रमाणित हों। तत-सान्निध्य तद्रूपता (अनुभव सम्पन्नता) के साथ है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सदा सान्निध्य रूप में रहे, हमारे अधिकार में रहे - उसी को तत-सान्निध्य कहा है। अध्ययन-क्रम में तत-सान्निध्य की अपेक्षा बना रहता है।

(८) तदाकार होने के लिए समझने की इच्छा, और प्रमाणित होने की इच्छा को बलवती बनाने की आवश्यकता है। प्रमाणित होने के लिए अर्थ के पास जाना ही पड़ता है। प्रमाणित नहीं होना है तो शब्द की सीमा में ही रहना बनता है। परिभाषा को याद करने से अर्थ तक नहीं पहुंचे। परिभाषा के अनुरूप जब जीना शुरू होता है, तब शब्द से इंगित अर्थ को समझे।

(९) अध्ययन-क्रम में जीने के उद्देश्य में गुणात्मक-परिवर्तन होता है। स्वयं में गुणात्मक-परिवर्तन अनुभव के बाद ही होता है।

(१०) अध्ययन-काल में मुख्य बात है, सामने वाला व्यक्ति जो अध्ययन कराता है, उसको प्रमाण मानना पड़ता है। प्रमाण मानने के बाद प्रमाण के स्वरूप - न्याय, धर्म, और सत्य - में क्या अड़चन हो सकता है, उसको शोध करना होता है। शोध करने का मूल मुद्दा है - न्याय, धर्म, सत्य को हम समझ रहे हैं, या नहीं समझ रहे हैं? प्रमाणित करने की विधि क्या होगी उसको यथावत सुनते हैं, समझते हैं, तो प्रमाणित करने की जगह तक पहुँचते हैं। यदि अपने मन मर्जी का तर्जुमा करके सुनते हैं, तो जहां पहले थे वहीं रह जाते हैं। सुनना समझना नहीं है। सुनने पर बोलना बनता है। समझने पर प्रमाणित करना बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)

जीवन की पहचान

हर व्यक्ति अपने जीवन को पहचान सकता है। हर व्यक्ति के साथ जीवन शरीर को जीवंत बनाने के रूप में है। शरीर की जीवन्तता जीवन का गुण है। जीवंत रहते हुए मनुष्य चार विषयों, पांच संवेदनाओं, तीन ईश्नाओं, और उपकार को पहचानता है, समझता है। पहचानने के ये चार स्तर हैं। फिर जो पहचाने हैं, समझे हैं, उसको प्रमाणित करने की बारी आती है। पांच संवेदनाओं को प्रमाणित करने में चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। गुरु-मूल्य में लघु-मूल्य समाहित रहता है। उसी तरह तीन ईश्नाओं को प्रमाणित करने में पांच संवेदनाओं और चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। उपकार को प्रमाणित करने में तीन ईश्नाओं, पांच संवेदनाओं, और चार विषयों को प्रमाणित करना समाहित रहता है। अभी तक मानव-जाति चार विषयों और पांच संवेदनाओं को प्रमाणित कर पाया। तीन ईश्नाओं और उपकार को प्रमाणित करना शेष रहा। समझदारी पूर्वक ही इनको प्रमाणित करना हो पाता है। समझदारी का स्वरूप है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। यह समझदारी अध्ययन गम्य है। अध्ययन पूर्वक समझ आने पर यह पूरा होता है।

जीव जानवरों में चार विषयों में वंश के अनुसार जीने की बात रहती है। जीव-जानवरों में पांच संवेदनाओं का ज्ञान नहीं रहता। जीवों में चार विषयों के अर्थ में पांच संवेदनाओं का व्यक्त होना देखा जाता है। मनुष्य पांच इन्द्रियों से सुखी होने के लिए प्रयत्न करता है। आदिकाल से अभी तक यही हाल है।

जीवन का स्वरूप-ज्ञान न होने के कारण जीवन शरीर के साथ तद्रूपता विधि से घनीभूत रहता है। जीवन के स्वरूप को अध्ययन-विधि से हम समझते हैं। मनुष्य सुख चाहता है। सुखी होने की अपेक्षा शरीर में कहीं नहीं है। जीवन में सुखी होने की प्यास है।

सच्चाई की प्यास आत्मा में सर्वोपरि है। उसके बाद बुद्धि में, उसके बाद चित्त में, वृत्ति में, फिर मन में। मनुष्य चाहत के रूप में शुभ ही चाहता है। यह जीवन की महिमा है। जीवन में शुभ की चाहत है। मनुष्य में संतुलन की चाहत बनी हुई है, पर करते समय असंतुलन का काम करता है। यही आत्म-वंचना है। अभी तक मनुष्य ने ऐसा ही किया, या और कुछ किया? - उसको सोच लीजिये!

मनुष्य में ज्ञानगोचर पक्ष अभी तक सुप्त रहा। ज्ञानगोचर पक्ष को अध्ययन द्वारा समझा जा सकता है, प्रमाणित किया जा सकता है - जीवन-तृप्ति के लिए। समझदारी के बिना समाधान हो नहीं सकता।

सच्चाई को मनुष्य चाहता है, इसलिए हर मनुष्य में न्याय-धर्म-सत्य के भास्-आभास होने की बात बनी हुई है। इसी आधार पर मनुष्य न्याय-धर्म-सत्य की प्रतीति, बोध, और अनुभूति के लिए प्रयास करता है। जीवन शरीर को जीवंत बनाने के फल-स्वरूप में सच्चाई को हम चाहते हैं, समाधान चाहते हैं, न्याय चाहते हैं - यह मनुष्य में बना है। हम जितना जीते हैं, उससे अधिक चाहते हैं। यह इच्छा में चित्रण स्वरूप में बना रहता है।

"समझे बिना मैं सुखी नहीं हो सकता" - यह स्वीकार होने पर अध्ययन में मन लगता है। सुखी होने के अर्थ में ही मन लगता है। कुछ छोड़ने के अर्थ में मन लगता नहीं है। सुखी होने की इच्छा "कमजोर" है, जब तक मनुष्य शरीर को केंद्र में रख कर सुखी होने की सोचता है। शरीर के आधार पर मनुष्य का सुखी होना नहीं बना। "समझदारी के आधार पर ही मैं सुखी हो सकता हूँ" - इस जगह पर आने के बाद ही मनुष्य अध्ययन करता है।

सुखी होने की चाहत मनुष्य में पहले से ही रहा। सुखी होने का रास्ता (अध्ययन) सुनने में आया। उस पर तुल कर चलना शुरू करता है। भास्-आभास पूर्वक हम सुनते हैं, प्रतीति को स्वीकारते हैं। स्वीकारने की विधि है - तदाकार विधि। शब्द का अर्थ होता है, अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है, वस्तु के साथ तदाकार होने से हमको प्रतीति होता है।

अध्ययन अनुभव के घाट तक पहुँचने के लिए है। अनुभव के बाद प्रमाण है। अनुभव हुआ, उसका प्रमाण। वह दूसरे व्यक्ति के लिए अध्ययन की वस्तु है। अभी मैं जो करा रहा हूँ, वही है। अध्ययन से तदाकार हो जाता है। तदाकार होना ही अध्ययन का लक्ष्य है। तदाकार होने के बाद तद्रूप होना शेष रहता है। तद्रूप होना = आत्मा में अनुभव। अनुभव का ही फिर व्यवहार में प्रमाण होता है। यह हर नर-नारी का अधिकार है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २०१०, अमरकंटक)

Wednesday, November 10, 2010

ज्ञान और प्रमाण


जितना हमें ज्ञान होता है वह पूरा प्रमाणित होता ही नहीं.  जैसे - समुद्र की एक बूँद का परीक्षण करके हम प्रमाणित करते हैं.  समुद्र का सारा पानी वैसा ही है, यह हमें ज्ञान रहता है.  समुद्र के सारे एक एक बूँद को निकाल करके परीक्षण करना/प्रमाणित करना नहीं बन पाता.  इसको "सिन्धु बिंदु न्याय" कहा.  

अनंत के प्रति ज्ञान होता है, आंशिक रूप में प्रमाण होता है.

सिन्धु रूप में ज्ञान, बिंदु रूप में प्रमाण

अनंत ज्ञान को थोडा सा ही प्रमाणित करते हैं तो सामने व्यक्ति में भी जीवन है, वो अनंत के अर्थ को पकड़ लेता है.  उसके वह अनुभव में आता ही है, ज्ञान होता ही है.  ज्ञान होने पर वह दूसरा व्यक्ति भी इस सिन्धु-बिंदु न्याय के साथ जीने लगता है.  इसको बताने के लिए सूत्र दिया:

"जो जितना जानता है, उतना चाह नहीं पाता
जितना चाह पाता है, उतना कर नहीं पाता
जितना कर पाता है, उतना भोग नहीं पाता"

इसलिए मानव द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु पैदा करना अस्तित्व सहज है.

जानना ही ज्ञान है, प्रमाणित करना जागृति है.

प्रमाणित करने की जगह छोटा है, ज्ञान की जगह बड़ा है.

ज्ञान से पहले प्रमाणित करना दुरूह लगता है.   ज्ञान के बाद प्रमाणित करना बायें हाथ का खेल लगता है.

अभी जहाँ आदमी फंसा है उससे छूटने का यह बहुत बढ़िया जुगाड़ है.  इसको हम बहुत अच्छे से निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

यथा-स्थिति से अनुभव तक (भाग २)