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Monday, June 23, 2008

समझने में तर्क नहीं है.

तर्क से हम कुंठित होने की जगह में पहुँचते हैं। हर मनुष्य में जो सुखी होने की प्यास है - उसको पहचान लेने पर उसको पूरा करने के लिए जो अध्ययन करना है, वह हम करने में लगते हैं। सकारात्मक भाग को लेकर प्यास हर व्यक्ति में बना हुआ है।

वैदिक विचार में निषेध का प्रयोग करके कहा गया की उससे हर व्यक्ति में विधि का उदय होगा। अर्थात - यह सच्चाई नहीं है, यह भी सच्चाई नहीं है - इस तरीके से वैदिक विचार का presentation रहा। इस तरह यह सोचा गया था की ऐसे करते करते एक ऐसी जगह में पहुँच जायेंगे, जिसमें हम केवल "जो सच्चाई है" - उस तक पहुँच जायेंगे। वह प्रमाणित नहीं हो पाया।

मध्यस्थ-दर्शन का approach है - "जो है" उसका अध्ययन करना। अस्तित्व ही है - उसी का अध्ययन करना। सम्पूर्ण अस्तित्व क्यों है, और कैसा है - यह स्पष्ट होना। अस्तित्व में ही अविभाज्य मानव क्यों है, और कैसा है? इसके अलावा कुछ बचता नहीं है। इसके बाद अध्ययन का अध्याय ही ख़त्म।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित - जनवरी २००७ में

Friday, June 20, 2008

हर कर्म फलवती होता है.

हर क्रिया का फल होता हैं। हर व्यव्हार का फल होता हैं। हम जो कुछ भी कर्म करते हैं, सोचते हैं, बोलते हैं - उससे या तो समस्या होगा या समाधान होगा। तीसरा कोई कर्म का फल नहीं होता।

जागृति की दिशा पकड़ने के बाद श्राप, ताप, और पाप तीनो ख़त्म हो जाते हैं। जागृति के पास आने से पहले पूर्व कर्मो का फल जीवन भोग चुकता हैं। जिस क्षण से हमारी प्रवृत्ति सही की ओर हो जाती हैं, उसी क्षण से हमारे द्वारा पूर्व में की गयी गलतियों का प्रभाव हम पर ख़त्म हो जाता हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

ज्ञान की बात

शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध इन्द्रियों का जो ज्ञान है - वह किसको होता है? शरीर को होता है, या शरीर के अलावा और किसी को होता है? विगत में ज्ञान, ज्ञाता, और ज्ञेय ब्रह्म को ही बताया। साथ ही ब्रह्म को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता दिया। अब ज्ञान जो वचनीय भी हो, हम समझ भी सकें, समझा भी सकें - ऐसे हमको चलना है। ज्ञान का मतलब ही यही होता है - जो मैं समझ सकता हूँ, और जो मैं समझा पाता हूँ।

यहाँ एक समीक्षा हो सकती है - विगत ने हमको क्या दिया? विगत से आयी आदर्शवाद और भौतिकवाद (बनाम विज्ञान) ने हमको क्या दिया? आदर्शवाद ने हमको शब्द-ज्ञान दिया - जिसके लिए उसका धन्यवाद है। भौतिकवाद (विज्ञान) ने सभी तरह के time और space के नाप-तौल की विधियां दी, जिससे कार्य (work) को पहचाना गया - जिसके लिए उसका धन्यवाद है। अब बाकी और क्या ज्ञान की ज़रूरत है? धरती बीमार हो गयी है - अब आदर्शवाद और भौतिकवाद से इसका कोई रास्ता निकल नहीं रहा है, इसलिए हमको इनके आगे समझने की ज़रूरत है। यही reference point है - मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन शुरू करने के लिए। "आवश्यकता" के अर्थ में एक reference रखना पड़ेगा। यदि आवश्यकता ही नहीं है - तो हम अध्ययन क्यों करेंगे? इस reference को भूलना नहीं। यदि reference को नहीं रखते तो time और space का निर्णय कैसे करोगे? इस reference के आधार पर पता चलता है, हमने इतने time और space में क्या किया। उसी के आधार पर हम कार्य (work) को तय करते हैं।

कार्य की पहचान भी ज्ञान ही है - क्रिया-ज्ञान के रूप में। ज्ञान और क्रिया में क्या अन्तर है? भौतिक संसार में कार्य-ऊर्जा होती है - तभी तो भौतिक संसार क्रियाशील है। यह मूल ऊर्जा व्यापक ही है। मनुष्य में कार्य-ज्ञान ही कार्य-ऊर्जा है। मनुष्य में "कार्य-ज्ञान" होता है - यह बात परम्परा में आ चुकी है। इसी के आधार पर हम कार्य के लिए प्रशिक्षण लेते हैं। अब कार्य-ज्ञान के मूल में जो प्रवृत्ति है - उसे हम "ज्ञान" कह रहे हैं। यह वही मूल ऊर्जा है। यह वही साम्य ऊर्जा है। मानव में यह ऊर्जा ज्ञान के स्वरुप में जुड़ा है। "होने" के आधार पर साम्य-ऊर्जा, "रहने" के आधार पर कार्य-ऊर्जा।

इस बात को अच्छे से डूब के समझ लो! यह point यदि miss होता है, तो हम पुनः पटरी से उतर जायेंगे।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

Thursday, June 19, 2008

ज्ञानावस्था का वैभव

सत्ता व्यापक होने के आधार पर नियति-विधि से सह-अस्तित्व में उद्देश्य बनी - चारों अवस्थाओं का प्रमाणित होना। चौथी अवस्था (ज्ञानावस्था) में सह-अस्तित्व सहज प्रमाण में ही परम्परा बनती है। यही ज्ञान-अवस्था का वैभव है। यही जागृति का मतलब है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

प्रस्तावना, समीक्षा, निर्णय

अनुभव मूलक विधि बात-चीत करने के तीन ही column हैं।

(१) प्रस्तावना
(२) समीक्षा
(३) निर्णय

प्रस्तावना का मतलब है - अपनी बात को रखना। प्रस्तावना के रूप में विद्या की किसी भी बात को रखा जाए। उसको जांचने का अधिकार सामने वाले व्यक्ति के पास है। उसी तरह हर सुनी हुई बात को प्रस्तावना के रूप में ही लिया जाए, उसको दूसरे की अवहेलना/विरोध करने के लिए नहीं लिया जाए।

शुभ जो घटित नहीं हुआ - अपेक्षा ही रह गया, उसकी समीक्षा होती है। जो प्रमाणित हो गया उसका ही मूल्यांकन होता है। यदि जिसकी समीक्षा कर रहे हैं, उससे भविष्य में अपेक्षा नहीं रखते, तो वह विरोध ही हो जाता है।

तीसरा बात-चीत का कालम है - निर्णय। निर्णय होता है - कार्य-योजना के अर्थ में। इसका मतलब हम किस तरह अपनी समझदारी को प्रमाणित करेंगे, इस बात का निर्णय होता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

व्यवस्था का आधार परिवार है.



मध्यस्थ-दर्शन से मानवीय-व्यवस्था का आधार परिवार है, यही निकलता है।

इससे पहले व्यवस्था का आधार "राजा" बताया था। जो असफल हुआ। राजा लोगों के तौर-तरीकों को लोग पहचान गए, और उनको नकार दिए।

उसके बाद व्यवस्था का आधार "सभा" बताया। सभा में सब चोर हो गए! वह भी असफल हो चुका है।

व्यवस्था का मूल बीज परिवार ही है। समाधान-समृद्धि का प्रमाण - व्यवस्था का पहला बीज रूप परिवार ही है। इस जगह में मार्क्स नहीं पहुँचा, इस जगह में मनु (मनु धर्म-शास्त्र) नहीं पहुँचा, इस जगह में ऐडम स्मिथ नहीं पहुँचा। इस जगह में आज तक कोई नहीं पहुँचा।

परिवार देश की व्यवस्था का आधार हो सकता है, यह अभी तक किसी देश में नहीं है।

मैं एक अकेला आदमी को इसको पहचानने का सौभाग्य मिला - उसको मैं उत्सव मानू कि नहीं?

व्यवस्था का आधार परिवार है, न कि सभा, न कि व्यक्ति। अब मैं यह सोचता हूँ, (१) एक ग्राम में स्वराज्य व्यवस्था प्रमाणित करना, (२) एक कक्षा-१ से १२ तक एक विद्यालय प्रमाणित करना (इस समझ पर)। ये दो रिक्त स्थालियाँ हैं अभी। इन दो जगह प्रमाणित होने के बाद यह दावानल है। इस बात की आवश्यकता है - यह ध्वनी के रूप में पहुँच रहा है। आंशिक रूप में यह उत्साह के रूप में भी दिखता है। involvement की बात उसकी आन्शिकता में दिखता है।

शहरी जिन्दगी में शिक्षा में प्रमाणित होना निकटवर्ती है।
ग्रामीण जिंदगी में व्यवस्था में प्रमाणित होना निकटवर्ती है।

इसकी आवश्यकता तो आ गयी है। इस को आप कैसे अपनाओगे यह आप के ऊपर निर्भर है। तकनीकी तो आप के पास है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

शब्द का अर्थ

शब्द का अर्थ होता है।
अर्थ के मूल में अस्तित्व में वस्तु होता है।
वस्तु को इंगित करना ही शब्द का काम है।
उसको पहचान लेना व्यक्ति का काम है।
पहचान लिया = समझ में आया।
नहीं पहचाना = समझ में नहीं आया।
पहचान पूरा हो जाना = अध्ययन पूरा होना।
अध्ययन पूरा होना = सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व में बोध संपन्न होना।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

समाधान की गति समृद्धि के साथ है.

समझदारी के बाद ही हमारा न्याय-पूर्वक, समाधान-पूर्वक जीना बनता है। समाधान की गति समृद्धि के साथ है।

मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्तुत होने के पहले ऐसा सोचा जाता था - "साधना करने वाले लोगों की ज़रूरतों के लिए समाज उपलब्ध कराएगा।"  इस तरीके से साधना करने वाले साधना ही करते रह गए। साधना के फल को समाज और परम्परा तक पहुँचा नहीं पाये। जिस समाज ने साधना करने वालों को संरक्षण दिया - उस समाज की गति के लिए उनसे कोई सूत्र नहीं निकला। इस तरीके से व्यक्तिवाद और समुदायवाद ही निकला। अब जब धरती ही बीमार हो चुकी है, तब यह प्रश्न उठ चुका है - "समाज कब तक इन साधना करने वालों को अघोरे? विकल्प को क्यों न तलाशा जाए, जांचा जाए?"

समृद्धि के साथ ही हम समाधान को गतिशील बनाते हैं, प्रमाणित करते हैं। समझने के बाद कोई चोरी अपराध नहीं कर सकता। समझने के बाद समृद्धि भावी हो जाती है। समाधान-समृद्धि के बिना कोई व्यवस्था में जी नहीं सकता। व्यवस्था का पूरा ढांचा-खांचा समाधान समृद्धि पर आधारित है। समाधान-समृद्धि प्रमाणित होने के बाद आदमी के पास उपकार करने के अलावा कुछ बचता भी नहीं है! Public-money या दान-चंदा आदि से इक्कट्ठा किए पैसे से उपकार तो नहीं हो सकता। यदि जनता के पैसे से दाना खाते हैं तो हवाबाज़ी के अलावा हम कुछ कर भी नहीं सकते। हवाबाज़ी का मतलब - दूसरों का पैसा मारना, और भाषण-बाज़ी करना। समाधान-अधिकार में परमुखापेक्षा स्वीकृत नहीं होता। समस्या से ग्रसित व्यक्ति ही परमुखापेक्षा करता है।

अभी जीवचेतना में यह मान्यता और अपेक्षा बनी है, की कमाऊ पूत बच्चों, बड़ों, और दाम्पत्य का पोषण करेगा। यह रोटी-पानी की अपेक्षा पुरुषार्थियों से ही रहता है। अब हमको पुरुषार्थी के साथ परमार्थी भी होना है। समझदारी से संपन्न होने के लिए आप अभी इसके लिए जो दासता करते हो, वह कोई अड़चन नहीं है। समझदारी से संपन्न होने के बाद यह आता है - हम समृद्धि पूर्वक इन दायित्वों को भी पूरा कर सकते हैं।

जीवचेतना में चले संसार को झेलने के बाद ही हम समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने के लिए स्वयं तैयार हो पाते हैं। इसको घायल बना कर, काट कर कोई रास्ता नहीं है।

हम जब पूरा समझ जाते हैं, हमको अपने में समृद्धि-पूर्वक जीने की तमीज आ जाती है। उसमें परिवार-जनों की भी संतुष्टि हो जाती है, इसलिए हम अच्छे कामो में लग सकते हैं। यह बात हर व्यक्ति के पकड़ में आ सकता है। मेरे पकड़ में यह आ सकता है, तो बाकी लोगों के पकड़ में कैसे नहीं आयेगा? साधना काल में मैं विरक्ति विधि से ही रहा। ५५ वर्ष की आयु में मैं जब समाधि-संयम से उठने के बाद समृद्धि के लिए (कृषि, गोशाला, आयुर्वेद) कार्यक्रम बनाने में लगा। उत्पादन कार्य में लगने के लिए आप सभी की स्थिति मेरी उस समय की स्थिति से ज्यादा अच्छी है!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित। (अगस्त २००६)

Saturday, June 14, 2008

अध्ययन में तुलन पूर्वक सीधा साक्षात्कार ही होता है.

अध्ययन में तुलन पूर्वक सीधा साक्षात्कार ही होता है। चित्रण नहीं होता। चित्त में चिंतन क्षेत्र में ही साक्षात्कार होता है। चित्रण क्षेत्र में स्मृतियाँ है। पठन कार्य में चित्रण होता है - स्मृति के रूप में। अध्ययन में प्रस्ताव के स्मरण की आवश्यकता है।

साक्षात्कार क्रमिक रूप से होता है, जो सह-अस्तित्व में पूर्ण होता है। सह-अस्तित्व में साक्षात्कार पूर्ण होने पर बुद्धि में बोध होता है। बुद्धि में बोध होने पर प्रमाणित करने का संकल्प होता है। प्रमाणित करने के संकल्प के साथ ही आत्मा अस्तित्व में अनुभव करती है। साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद अनुभव होने तक में कोई देर नहीं लगती।

सारी देर साक्षात्कार पूरा होने तक ही लगती है। देर लगने का कारण है - अध्ययन के लिए हमारी प्राथमिकता नहीं होना। भ्रमित स्थिति में जीते हुए हम कुछ पक्षों को सही माने रहते हैं। जबकि जीव-चेतना में एक भी पक्ष सही नहीं होता। जिन पक्षों को हम सही माने रहते हैं, उनके प्रति हमारा वैचारिक चिपकाव बना रहता है। इस चिपकाव के कारण अध्ययन में ध्यान नहीं लग पाता। अध्ययन में ध्यान देने की आवश्यकता है। अनुभव पूर्वक ध्यान बना ही रहता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६ में)

दृष्टा, दृष्टि, और दृश्य

दृष्टा समझ आने से दृष्टि की बात स्पष्ट होती है। जीवन ही दृष्टा है।

जीवन ४.५ क्रिया में कितनी बातों का दृष्टा है, और १० क्रिया में कितनी बातों का दृष्टा है - यह मध्यस्थ-दर्शन में स्पष्ट किया है। ४.५ क्रिया द्वारा जीवन संवेदनाओं का दृष्टा है। १० क्रिया के साथ संज्ञानीयता पूर्वक सह-अस्तित्व में दृष्टा है। केवल जब शरीर-ज्ञान के साथ जीते हैं - तो ४.५ क्रिया में ही जीते हैं। उसका अन्तिम लक्ष्य है संवेदना। शब्द, स्पर्श, रस, गंध, रूप इन्द्रियों को राजी रखना।

जीवन-ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण-ज्ञान के बिना संज्ञानीयता सिद्ध ही नहीं होगा।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)
स्त्रोत: मध्यस्थ-दर्शन

Friday, June 13, 2008

समझ के करो.



अध्ययन में मन लगना यदि पूरी ईमानदारी के साथ हो जाता है, तब यह पूरा होता है। अध्ययन करने के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन करते समय अभी आप जो कर रहे हो, उसके प्रति कोई त्याग-वैराग्य की बात आता नहीं है। आप अध्ययन करते रहो, कोई एक क्षण ऐसा आएगा, कोई ऐसी जगह आयेगी - जब मानव-चेतना आपको स्वीकार हो जायेगी। उस बिन्दु तक अध्ययन है। जिस तरह एक पत्ता पकने के बाद वृक्ष से अपने आप गिर जाता है, उसी तरह हमारी सारी निरर्थकतायें समझदारी संपन्न होने के बाद अपने-आप गिर जाती हैं। पत्ता तोड़ने, और पत्ता गिरने में कितना फर्क है - आप ही सोचिये। अपनी निरर्थकताओं को दूर करने के लिए कोई अलग से प्रयास करने की ज़रूरत नहीं है। अध्ययन एक पूरी तरह wound-less process है।

समझदारी आने के बाद अपने में यह तुलना होती है - हम जिस तरह से दाना-पानी उपार्जित करते हैं, उससे संतुष्ट हो सकते हैं, या नहीं? तुलन करने पर यदि हम पाते हैं कि हमारा वर्तमान तरीका ठीक है, तो किस को क्या तकलीफ है? यदि अनुकूल नहीं होता - तो जीने का दूसरा डिजाईन स्वयं में अपने आप में से ही उभर आता है। एक ही डिजाईन से सभी जियेंगे - यह भी बेवकूफी वाली बात है। हर व्यक्ति के साथ डिजाईन बदलेगा। उसमें एक चीज़ ध्रुव रहेगा - वह है स्वावलंबन की स्थिति। स्वावलंबन की स्थिति = परिवार के सदस्यों के पोषण-संरक्षण और समाज-गति में भागीदारी के लिए आवश्यक साधनों का प्रबंध करना।

यथास्थिति को बनाए रखते हुए अध्ययन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस स्थिति में आ जाएँ की अगली स्थिति आज की स्थिति से ज्यादा अच्छा है - यह हमको भी स्वीकार होना, और हमारे परिवार को भी स्वीकार होना।

"करना - नहीं करना" - यह मूढ बुद्धि की बात है।
"होना - नहीं होना" - यह विचार बुद्धि की बात है।
"यह ज़रूरत है - यह ज़रूरत नहीं है" - यह विद्वता पूर्ण बुद्धि की बात है।

"होना क्या है" - इस बात पर सोचना। "होना क्या है" - यह स्पष्ट होना चाहिए। "होने" के अर्थ में क्या करना है, क्या नहीं करना है - यह निर्धारित हो जाता है।

पहले लक्ष्य के प्रति स्पष्ट हुआ जाए। ज्ञान निश्चित हो जाता है - फलस्वरूप करना निश्चित हो जाता है। करना निश्चित करके ज्ञान निश्चित होता नहीं।

अभी तक विज्ञानवाद और आदर्शवाद कहते रहा : - "करके समझो!"
अब मध्यस्थ-दर्शन में हम कह रहे हैं - "समझ के करो!" यह सिद्धांत है।

समझने का अधिकार हर व्यक्ति के पास हर अवस्था में रखा हुआ है। चाहे अपराधी मानते रहे, चाहे राजा मानते रहे - सबको समझने का अधिकार समान है। समझने का अवसर युगों-युगों बाद आज आया है - मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान के सफल होने पर। सभी परिस्थितियां समझने के लिए अनुकूल हैं। यदि अपनी परिस्थितियों को बदलने के चक्कर में पहले पड़े - तो बखेडे में जायेंगे। हर व्यक्ति के लिए हर परिस्थिति में समाधान तक पहुँचने का रास्ता है। सामाधानित होने के बाद समृद्धि का डिजाईन अपने आप में से ही उद्गामित होता है। समाधान प्राथमिक है। समाधानित होने में कोई अमीरी, गरीबी, दुष्टता अड़चन नहीं है। यदि समाधान आपका लक्ष्य बनता है - तो हर परिस्थिति आपके अनुकूल ही बनती है, प्रतिकूल बनता ही नहीं! इस बात की महिमा यही है।

समाधान मेरा प्राथमिक लक्ष्य है - जब यह मुझमे तर्क द्वारा निर्णीत होता है - तब अध्ययन में मेरा मन लगता है। नहीं तो मन नहीं लगता।

ज्ञान-सम्पन्नता के बाद ही प्रक्रिया पक्का हो जाता है। प्रक्रिया से ज्ञान स्पष्ट नहीं होता। विगत में "कर के समझो" पर जोर दिया गया। उसी को तप माना। अब आपके सामने यह प्रस्ताव है - "समझ के करो!" इससे trial and error वाली सारी कथा ही समाप्त हो गयी। trial and error में घाटे की स्थिति भी आ सकती है। समझ के करो - पूरी तरह economical है। इस तरह इस बात के साथ "छोड़ने-पकड़ने' का झंझट ही समाप्त हो गया। पहले समझ लो - फ़िर निर्णय करो, क्या छोड़ना है - क्या पकड़ना है!  समझने के बाद क्या आवश्यक है, क्या अनावश्यक है - यह स्वयं में विश्लेषित हो जाता है। आवश्यक को पकड़ना, या पकड़े रहना होता है। अनावश्यकता को छोड़ना होता है। "त्याग" की परिभाषा ही है - "अनावश्यकता का विसर्जन"।

समझने में कोई "मात्रा" नहीं होती। ज्यादा समझे-कम समझे जैसी कोई बात नहीं होती। या तो समझे, या समझने की अपेक्षा रही। १० क्रिया में समझे, ४.५ क्रिया में समझने की अपेक्षा रही। समझना = बोध। बोध अपूर्ण नहीं होता।

हमारे पूर्वजों ने - ऋषि, मह्रिषी, सिद्ध, महापुरुषों ने - अनेक तरह की "अभ्यास विधियां" सुझाई जिसमें "करके समझो!" वाली बात को प्रस्तावित किया गया। इन अभ्यास-विधियों को "तप" माना। "तप" के लोकसुलभ होने का कोई रास्ता वे निकाल नहीं पाये।

तर्क विधि से यह प्रस्ताव पूरा पड़ता है। व्यवहारिक विधि से इसके पूरा पड़ने के लिए आपको इसे समझना ही पड़ेगा। और दूसरा कोई रास्ता नहीं है। यदि समझ में आ गया तो आपसे छूटने वाली कोई बात नहीं है। यदि समझ में आ गया है - तो आपसे कुछ क्यों छूटेगा?

"समझ" शब्द स्वयं (जीवन) में जागृति हो जाने को ही इंगित करता है। उससे पहले "सुनी हुई बात" ही है।

समझ "ज्यादा" और "कम" की उपाधियों से मुक्त है। "समझे हैं" या "नहीं समझे हैं" - इतना ही है।

सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व को समझना, और जीवन को समझना। ये दोनों यदि समझ में आता है, तो बाकी सब उससे अपने आप निकल आता है।

दृष्टा समझ में आने पर दृश्य स्पष्ट होता है। जीवन ही दृष्टा है। जीवन ४.५ क्रिया में कितने भाग का दृष्टा है, और १० क्रिया में कितने भाग का दृष्टा है - यह मध्यस्थ-दर्शन में स्पष्ट किया गया है। ४.५ क्रियाओं द्वारा जीवन संवेदनाओं का दृष्टा रहता है। १० क्रिया के साथ जीवन सह-अस्तित्व में दृष्टा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

जीवन में अतृप्ति को आवेशित क्रियाकलाप से भर नहीं सकते.

जीवन में अनुभव से पहले अतृप्ति (अधूरापन या खोखलापन) रहता है। इस अतृप्ति के रहते हमारी सतही-मानसिकता (४.५ क्रिया) में जीते हुए भी जीवन आवेशित क्रिया-कलाप को पूरा स्वीकारता नहीं है। जैसे सुविधा-संग्रह में ग्रस्त लाभोन्माद में चलते चलते किसी जगह पर पहुँच जाने के बाद "यह सही है" - ऐसा हम मान नहीं सकते। बाकी दोनों आवेशों के साथ (कामोन्माद और भोगोन्माद) के साथ भी ऐसा ही है। यह इसलिए है - क्योंकि जीवन में निहित अतृप्ति को इन उन्मादों से किसी तरह भी भरा नहीं जा सकता। कुछ दूर चलने पर खालीपन फ़िर कचोटने लगता है। यह सभी के साथ है। यही जीवन में सच्चाई के लिए शोध का स्त्रोत है। इसी खालीपन के सहारे हम अध्ययन पूर्वक उन्मादों के चक्र-व्यूहों से बुचक सकते हैं। इस खालीपन को भरने का एक मात्र उपाय सहअस्तित्व में अध्ययन ही है।

- श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६)

लक्ष्य के लिए प्राथमिकता तय करने का उपाय

यह कुल मिला कर श्रेष्ठ क्या है - इसको तय करने की बात है।

जीव-चेतना में हम जितना भी करते हैं, उसका गम्य स्थली सुविधा-संग्रह ही है। सुविधा-संग्रह में पहुँचना अच्छा लगता तो है - पर इसका कोई तृप्ति-बिन्दु नहीं है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति बिन्दु अभी तक किसी को मिला नहीं है, आगे मिलने की सम्भावना भी नहीं है। इस जगह में हमको पहुँचना है। यहाँ यदि पहुँच जाते हैं, तो मानो हममे मानव-चेतना की अपेक्षा बन गयी। मानव-चेतना को पाने के लिए हमारा मन जो लगता है, उसे हम "ध्यान" कहते हैं। ध्यान देना = मन लगना। अध्ययन में यदि मन लगता है, तो शनै-शनै हम मानव-चेतना को लेकर स्पष्ट होते जाते हैं। एक दिन ऐसा बिन्दु आता है, जब वह हमारा स्वत्व हो जाता है। उसी बिन्दु से जागृति प्रकट होती है।

ध्यान, अभ्यास आदि की जो परम्परा-गत विधियाँ हैं, वे इसको नहीं छूती। इन विधियों से स्वयं का प्रयोजन और दूसरों का उपकार - दोनों सिद्ध नहीं होता।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६ में)