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Tuesday, April 30, 2019

न्याय दृष्टि जीवन में रहता ही है, पर जागृत नहीं हुआ रहता है


न्याय चाहिए, पर प्रिय-हित-लाभ के चंगुल से छुटे नहीं हैं.  अभी हम न्याय को भी संवेदनाओं के साथ जोड़ते हैं, क्योंकि दूसरा कोई रास्ता मिला नहीं है.  अब इस अनुसंधान पूर्वक दूसरा रास्ता खोज लिया गया है.  यहाँ संबंधों के साथ न्याय होने की बात की शुरुआत किये हैं.  संवेदनाओं में प्रिय-हित-लाभ के साथ न्याय कुछ होना नहीं है.  जैसे - फैक्ट्री में यूनियन और मैनेजमेंट के बीच आज जिसको लेकर compromise हुआ, वह दूसरे क्षण टूटा ही रहता है.

अध्ययन विधि में शब्द से न्याय एक शाश्वत वस्तु के रूप में इंगित होता है.  शब्द का प्रयोजन इतने तक ही है.  इंगित होने के बाद यह मन में, विचार में, साक्षात्कार में आना है.  पहले कल्पना में आना, फिर विचार में तुलन होना, फिर चित्त में साक्षात्कार होना - ये तीनो लगातार हो गया तो बोध और अनुभव होता ही है.

इसमें अड़ने वाली चीज़ है - प्रिय हित लाभ के प्रति सम्मोहन, जो भय और प्रलोभन के रूप में रहता है.  इससे हम "न्याय-प्रिय" तो हो जाते हैं पर न्याय प्रमाणित नहीं होता.

संवेदनाओं के स्थान पर संबंधों में शिफ्ट होने पर ये प्रमाणित होने की स्थिति बनती है. 

प्रश्न:  अभी प्रिय-हित-लाभ दृष्टि हममे प्रभावी है.  न्याय-धर्म-सत्य के बारे में हमे सूचना मिला है - जिससे न्याय-धर्म-सत्य के आधार पर तुलन करने की हममे अपेक्षा है.  आपने बताया कि अध्ययन की शुरुआत वहीं से है.  अब हमारे पास न्याय-दृष्टि है ही नहीं तो हम इसका अभ्यास कैसे करें?

उत्तर: न्याय दृष्टि जीवन में रहता ही है, पर जागृत नहीं हुआ रहता.  न्याय-दृष्टि का पहले कल्पना आ जाए.  अध्ययन विधि से ही न्याय-दृष्टि का कल्पना बनता है, और किसी विधि से बनता नहीं है.  अध्ययन विधि न्याय की पहचान के लिए संबंधों के पास पहुंचा देता है.  "संबंधों की निर्वाह निरंतरता में ही न्याय होता है."  अभी हम प्रिय-हित-लाभ विधि से भय व प्रलोभन पूर्वक थोड़े समय तक सम्बन्ध को पहचानते हैं फिर उसको जूता मार देते हैं - उसमे कौनसा न्याय होने वाला है?  भय और प्रलोभन के अर्थ में संबंधों की पहचान विखंडित होता ही है.  संबंधों का नाम लेना हमारे अभ्यास में है, किन्तु संबंधों के प्रयोजन (अर्थ) को पहचानना शेष रहा है.  संबंधों का प्रयोजन (अर्थ) है - व्यवस्था में जीना.  व्यवस्था बोध करा देने पर संबंधों की निर्वाह निरंतरता स्वाभाविक हो जाता है.

संबंधों की निर्वाह निरंतरता शब्द नहीं है - यह जीवन में होने वाली प्रक्रिया है.  संबंधों की निर्वाह निरंतरता में न्याय अपने आप से आता है.  उदाहरण के लिए जिस क्षण अभिभावक ने संतान के साथ अपने सम्बन्ध को पहचाना, उसी क्षण से उनमे ममता-वात्सल्य अपने आप से उमड़ता है.  उसके लिए उनको कोई कॉलेज का प्रशिक्षण नहीं रहता है, कोई उपदेश दिया नहीं रहता है.  यह अपने आप से आता है, क्योंकि यह सारा चीज़ जीवन में निहित है.  सम्बन्ध पहचान लेने पर यह उभर जाता है.

न्याय-शब्द से न्याय-अर्थ इंगित होने के लिए न्याय में प्रमाणित व्यक्ति का होना बहुत महत्त्वपूर्ण है, अन्यथा शब्द से प्रिय-हित-लाभ के आधार पर ही अर्थ निकाल लेते हैं, उससे न्याय प्रमाणित होता नहीं है.  प्रमाणित व्यक्ति का होना इस तरह अध्ययन की सफलता की पूंजी भी है और कुंजी भी है.

अध्ययन विधि से व्यवस्था स्पष्ट होना और व्यवस्था में हम जी सकते हैं - यह विश्वास दिलाने की ज़रुरत है.  समाधान-समृद्धि पूर्वक हम व्यवस्था में जी सकते हैं, समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर सकते हैं, और उपकार कर सकते हैं.

- श्रद्देय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Monday, April 29, 2019

परमाणु में बल सम्पन्नता



परमाणु में चुम्बकीयता बल सम्पन्नता स्वरूप में है.  व्यापक वस्तु में भीगे रहने से चुम्बकीय बल अपने आप से आता है.  चुम्बकीय बल संपन्न होने से ही दो परमाणु अंश मिल कर एक व्यवस्था को प्रमाणित करते हैं.  एक दूसरे के साथ अच्छे निश्चित दूरी में होना और व्यवस्था को प्रमाणित करना.

साम्य ऊर्जा में भीगे रहने से प्रत्येक चुम्बकीय बल संपन्न है.  वो कभी घटता-बढ़ता नहीं है.  चुम्बकीय बल हर अवस्था में रहता है.  वस्तु में परमाणुओं का संख्या बढ़ सकता है या कम हो सकता है - किन्तु वस्तु का चुम्बकीय बल घटता-बढ़ता नहीं है. 

चुम्बकीय बल होने के आधार पर ही संगठित होना होता है.  चुम्बकीयता के आधार पर ही सभी पदार्थ किसी न किसी अंश में विद्युत्-ग्राही होते हैं. 

परमाणु में जो वर्तुलात्मक और घूर्णन गति है - उसके आधार पर शब्द (ध्वनि) भी प्रकट होता है, ताप भी प्रकट होता है, विद्युत् भी प्रकट होता है.  गतिशीलता के आधार पर ये तीनो शक्तियां प्रकट हो जाती हैं. 

गति हो पर ताप-ध्वनि-विद्युत् न हो - ऐसा हो नहीं सकता.  गति न हो - ऐसा कोई वस्तु नहीं है.  पत्थर जो रखा है, वह भी गतिशील है.  उसके परमाण्विक स्वरूप में वह गतिशील है ही.  अगली स्थिति को प्रकट करने के लिए जो ताप-ध्वनि-विद्युत् चाहिए - उस सब से संपन्न रहते ही हैं, तभी आगे की स्थिति प्रकट होती है.  परमाणुओं के संगठित स्वरूप में यह धरती है, जो शून्याकर्षण में गतिशील बना रहता है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)


प्रमाण की ही परंपरा होती है


मेरे गुरु जी (रमण मह्रिषी और आचार्य चंद्रशेखर भारती) ने मुझे कुछ कहा (साधना के लिए मार्गदर्शन दिया) - उस प्रभाव को मैंने स्वीकार कर लिया.  उस स्वीकृति के आधार पर (साधना पूर्वक) मैं प्रमाण-सिद्ध हो गया.  उसके बाद उनका प्रभाव कहाँ ख़त्म होगा?  यदि मैं प्रमाण-सिद्ध नहीं होता तो वह प्रभाव ख़त्म होता ही!  एक दूसरे के साथ होने वाली चीज़ है - प्रमाण.  प्रमाण की ही परंपरा होती है. 

जैसे - आपको मैंने कुछ समझाया, या आपने जो अध्ययन किया - यदि वह आपके जीवन में प्रमाणित हो गया तो वह अक्षय हो गया कि नहीं?  सदा के लिए हो गया तो अक्षय हो गया.  आप इसी को किसी दूसरे को समझा पाए - इस ढंग से परंपरा पूर्वक यह अक्षय होता है.  परंपरा में जो सकारात्मकता प्रवाहित होती है - वह अक्षय होती है.  नकारात्मकता कहीं न कहीं जा कर ख़त्म हो जाती है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Monday, April 15, 2019

क्रिया से क्रिया की तृप्ति संभव नहीं है

प्रश्न:  आपने मानव व्यव्हार दर्शन में लिखा है - "विषयासक्त मानव क्रिया से क्रिया की तृप्ति चाहता है, जो संभव नहीं है.  संवेदन क्रिया से ह्रास व विकास ही संभव है".  इसको समझाइये.

उत्तर:  जैसे - शरीर क्रिया (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) से शरीर क्रिया की तृप्ति पाने का प्रयास करना.  वह संभव नहीं है.  तृप्ति मन में होती है - जो शरीर क्रिया से नहीं होती.  संवेदन क्रिया शरीर से सम्बद्ध है - जो जड़ है.  जड़ विकासक्रम में है.  तृप्ति विकास (जीवन जागृति) के साथ होती है - जो एषणात्रय स्वरूप में जीने से होता है, जहाँ संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Thursday, April 11, 2019

तर्क सच्चाई तक पहुँचने का सेतु है

तर्क सच्चाई (तात्विकता) तक पहुँचने का एक सेतु है.  कारण, कार्य, फल-परिणाम में सामंजस्यता करते हुए तर्क है.  तर्क साधन है, साध्य नहीं है.  तर्क को साध्य मान लेने से आदमी बतंगड़ बन जाता है.  उसका तर्क ख़त्म ही नहीं होता है!  इसी को वितंडावाद कहा है.  विज्ञान ने तर्क-सम्मत होने से शुरुआत की, किन्तु उसमे भूल यहाँ हो गयी जब उसने यह मान लिया कि आदमी सिद्धांत (नियम) बनाता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)

समझदारी से सोचा जाए!

संसार में मानव परंपरा है.  मानव परंपरा ज्ञान-अवस्था में है.  इसके प्रमाण में मानव ने अपना भाषा विकसित किया.  भाषा को ज्ञान के स्वरूप में ही माना.  इस "ज्ञान" को फिर न्याय में लगाया.  फिर रहस्यमयी स्वर्ग-नर्क में लगाया.  इसमें काफी समय लगाया.  इस से समाधान नहीं निकला, बल्कि समस्या निकला - और फिर विज्ञान का प्रकटन हुआ.  विज्ञान धरती के साथ भक्कम अपराध करने में टूट पड़ा, जिससे धरती बीमार हो गयी.  यहाँ तक हम पहुँच गए.  अब क्या किया जाए?  समझदारी से सोचा जाए!  समझदारी से मानव का परिभाषा मिला - "मनाकार को साकार करने वाला और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने वाला".  यहाँ पता चला मनाकार को साकार करना तो प्रकारांतर से होता रहा है, पर मनः स्वस्थता का खाका वीरान पड़ा है.  उसको भरा जाये!  इसको भरने के लिए चेतना विकास - मूल्य शिक्षा बताया.  जीव चेतना से मानव चेतना श्रेष्ठ, मानव चेतना से देव चेतना श्रेष्ठतर, देव चेतना से दिव्य चेतना श्रेष्ठतम.  इन तीनो को अध्ययन कराने की व्यवस्था दे दी.  चेतना विकसित होने पर मूल्यों का प्रकटन सहज होता है.  जिससे धरती को अखंड राष्ट्र, सर्व मानव को एक जाति, एक धर्म स्वरूप में पहचानना बन जाता है.  इस आधार पर सार्वभौम व्यवस्था होती है.  सहअस्तित्व विधि से व्यवस्था ही होता है, शासन नहीं होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मई २००७, अमरकंटक)