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Monday, February 25, 2013

अनुभव शिविर 2013


हर मानव के जीने में चार भाग रहता है - अनुभव, विचार, व्यवहार और कार्य (व्यवसाय).  इसमें से अनुभव के बारे में मैं आप सबसे यहाँ इस "अनुभव शिविर" में सुनना चाहता हूँ।  अनुभव के बिना कोई प्रमाण होता नहीं है।  अनुभव के बिना कोई व्यक्ति प्रमाणित होगा नहीं।  कोई व्यक्ति यदि कहता है कि वह "प्रमाणित" है, तो उसके अनुभव को सुनो।

प्रश्न:  अनुभव कैसे सुना जाता है?

उत्तर:  अनुभव प्रमाणों के रूप में सुना जाता है।  पहला प्रमाण है - "अनुभव प्रमाण"।  सहअस्तित्व में अनुभव  होता है।  सहअस्तित्व (सत्ता में संपृक्त जड़ चैतन्य प्रकृति) अनुभव में आये बिना प्रमाण होता भी नहीं है।  इसको मैंने देखा है - इस आधार पर इतने मजबूती से मैं कह रहा हूँ।  जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान का प्रमाण मानव के रूप में हम देख पायेंगे। अनुभव को हम (इन्द्रियों से) देख नहीं पायेंगे।  अनुभव मूलक प्रमाण को देख पायेंगे। अनुभव को समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व स्वरूप में प्रमाणित करते हुए मानव को हम देख पायेंगे।  मानव के बोलने, सोचने और जीने में संगीत (तालमेल) होने से सहअस्तित्व में अनुभव के प्रमाण का पता चलता है।  सहअस्तित्व में अनुभव का प्रमाण चारों अवस्थाओं के साथ जीने में ही पता चलता है।  जीने में ही समस्या और समाधान का पता चलता है।


अभी तक मानव "विचार" करने तक पहुंचा है।  विचार में ही "सुख"-"दुःख" को मान लेता है।  "सुख"-"दुःख" (अच्छा लगना, बुरा लगना) के विचार को अनुभव मान लेता है - पर वह बोध-अनुभव नहीं है।  वह समाधान नहीं हो पाता है।  सहअस्तित्व में अनुभव पूर्वक ही समाधान हो पाता है।  समाधान होने के बाद, श्रम के आधार पर समृद्धि होता है।  समाधान के बाद ही समृद्धि का अनुभव होता है, उसके पहले होने वाला नहीं है।  सर्वमानव के लिए समाधान, सभी परिवारों के लिए समृद्धि और उसके अर्थ में सार्वभौम व्यवस्था और संस्कृति को प्रस्तावित करना  "उचित" है  या "अनुचित" है - आप सोच करके बताइये।  अनुभव को देखना है या नहीं?  और किसी विधि से सर्वशुभ हो सकता है या नहीं?  जिनको केवल बात करनी है, जीना नहीं है - उनको इस बात से तकलीफ ही तकलीफ है।


प्रश्न:  आपके हिसाब से, हम लोग आगे बढ़ रहे हैं या वहीं के वहीं अटके हैं?

उत्तर: - आगे बढ़ रहे हैं, तभी तो मैं पीछे पड़ा हूँ!  इस ९४ वर्ष की आयु में भी!!

१५ वर्ष पहले जब अनुभव शिविर लगाते थे तो लोग अपना ऐसा उदगार व्यक्त करते थे - "आपके संपर्क में हम कैसे आ पाए?"  कुछ वर्षों से यह सुनने में आने लगा - "हम समझ चुके हैं, प्रमाणित होना शेष है।" अनुभव के बिना प्रमाण नहीं होता।  अनुभव के बिना कोई प्रमाण होता हो तो आप कर लेना!  "हम समझ चुके हैं, प्रमाणित होना शेष है।" - ऐसा सुनने के बाद, अब अनुभव कितने लोगों को हुआ है, उसको देखना है।  आप बताइये - अनुभव को जांचना शुरू करना चाहिए कि नहीं?

मैं बचपन में जब किसी लायक नहीं था, कुछ समझा नहीं था, तब से ही उपदेश देता था।  उपदेश के अनुसार मेरा जीना नहीं बना।  इसी कष्ट को मिटाने के लिए तो मैंने साधना ही किया।  साधना विधि से जो प्राप्त हुआ उसको बता रहे हैं।  अनुभव मूलक विधि से सब ठीक होता है, अन्यथा कुछ ठीक होता नहीं।  अनुभव का अनुकरण करो या स्वयं अनुभव करो!  (सब समय दूसरे व्यक्ति का) अनुकरण करना बनता नहीं है।  स्वयं अनुभव करना आवश्यक है।  इसीलिये अनुभव शिविर को लगाते हैं।

- अनुभव शिविर, अमरकंटक - जनवरी २०१३ 

Wednesday, February 20, 2013

आत्मा की संतुष्टि


प्रश्न:  आत्मा क्या पहले से ही क्रियाशील रहती है या अध्ययन पूर्ण होने के बाद क्रियाशील होगी?

उत्तर: आत्मा क्रियाशील रहती ही है, अधिकार संपन्न रहता है - किन्तु प्रमाणित होने की योग्यता और पात्रता नहीं रहता। अभी मानव परंपरा में भ्रम और अपराध ही प्रचलित है या मानव कल्पना में मान्य है।  आत्मा और बुद्धि  भ्रम या अपराध को स्वीकारता नहीं है।  इसलिए संतुष्ट होता नहीं है।  भ्रमित रहते तक तदाकार-तद्रूप प्रक्रिया होता नहीं है।  भ्रमित रहते तक मानव अपराध को ही सही मानता है।  उससे आत्मा का संतुष्टि होता नहीं है।

आत्मा की संतुष्टि के लिए अध्ययन है।  अध्ययन में पहले सही बात को "विकल्प स्वरूप में" सुनना होता है।   अभी तक के जिए हुए से जोड़ कर सुनते हैं तो नहीं बनता।  अध्ययन = संस्कार संपन्न होना।  संस्कार है - पूर्णता के अर्थ में स्वीकृति।  पूर्णता है - गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता।  गठनपूर्णता नियति विधि से हो चुकी है।  क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता ज्ञान के अर्थ में हैं।

हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है। बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा  के अनुसार रहता है।  हर मानव संतान में यह बात समान है।  उसमें कोई परेशानी नहीं है।  उसके बाद बच्चा परंपरा के अनुसार ढलता है।  अपराधिक परंपरा के अनुसार ढलता है तो अपराध करता है।  मानवीय परंपरा में यदि जन्म लेता है तो अध्ययन और अभ्यास पूर्वक संस्कार को ग्रहण करता है।  बच्चों में पायी जाने वाली कामना के अनुसार यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।

प्रश्न:  "बच्चा जो पैदा होता है, उसका कामना आत्मा  के अनुसार रहता है।"  क्या सभी बच्चों की क्षमता जन्म के समय एक जैसी होती है?

उत्तर: हाँ।  सारी मानव जाति के साथ ऐसा "अधिकार" है।

प्रश्न: यदि जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो आपमें जो जिज्ञासा उदय हुई, दूसरों में क्यों नहीं होती दिखती?

उत्तर: उसका कारण है, मैं जहाँ जन्मा था - वहाँ की परम्परा में तीन बात लेकर चले थे - घोर परिश्रम, घोर सेवा और घोर विद्वता।  उस विद्वता को लेकर मैं राजी नहीं हुआ, बाकी दो बातों में राजी हो गया।


मैं उस "विद्वता" से इसलिए राजी नहीं हो पाया क्योंकि मैंने देखा कि जैसा मेरे परिवार में "कहते" हैं, वैसा वे "जीते" नहीं हैं।  यही  मेरी जिज्ञासा का आधार हुआ।  "कहने" और "करने" में साम्यता कैसे हो? - यह जिज्ञासा हुई।  यही "पात्रता" है।    पात्रता के आधार पर ही समझ हासिल होता है।


प्रश्न:  जन्म के समय सबकी क्षमता एक जैसी होती है तो - आपके भाई-बंधु तो उस विद्वता से राजी हो गए, फिर आप क्यों राजी नहीं हो पाए?

उत्तर: "राजी हो पाने" या "राजी नहीं हो पाने" की बात जन्म के बाद, शरीर यात्रा के साथ शुरू होती है।  यह हर शरीर यात्रा (हर व्यक्ति) के साथ भिन्न-भिन्न होता है - क्योंकि हर शरीर भिन्न है।  जन्म के समय सबकी क्षमता समान होने का कारण है - (जन्म के समय) जीवन की समान क्षमता व्यक्त होती है।  उसके अनुकूल वातावरण मिलता नहीं है, क्योंकि अभी तक मानव शरीर के आधार पर जिया है, जीवन के आधार पर जिया नहीं है।  जीवन शरीर के साथ तदाकार होकर स्वयं को शरीर ही मान लेता है।  इस कारण जन्म के समय क्षमता एक जैसी होते हुए भी अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग स्वीकृतियाँ हो जाती हैं।  प्रधान रूप में जिस परिवार में जन्म लेते हैं, उसके अनुसार स्वीकृतियाँ होती हैं।  बच्चा परिवार को मानने, परिवार के कार्यक्रम को मानने और परिवार के फल-परिणाम को मानने से शुरू करता है।

प्रश्न:  क्या आप अपने बचपन में जैसा "कहते" थे, वैसा "जीते" थे? 

उत्तर: नहीं।  मैं भी जैसा कहता था, वैसा जीता नहीं था।  "जीना" अभी आया - यह समझ हासिल होने के बाद।   जैसा "कहते" हैं वैसा "जीते" नहीं हैं - यह गलत है, ऐसा मुझे स्वीकार हुआ।  सही क्या है - यह तब पता नहीं था।  साधना के बाद "सही" का पता चला।  अब अध्ययन विधि से सबको "सही" का पता चलेगा, ऐसा स्वीकार के इस प्रस्ताव को मानव जाति के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।

- अनुभव शिविर, जनवरी २०१३, अमरकंटक (श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित)

"कहने" और "जीने" में सामंजस्य बैठाना

प्रश्न:  अध्ययन के मार्ग पर चलते हुए, "न्याय" को जीने में भय लगता है।  इसका कारण क्या है?  इस भय का निवारण क्या है?

उत्तर: भय का कारण है, आपकी पूर्व स्मृतियाँ।  पूर्व स्मृतियाँ सभी भ्रम हैं, अपराधिक हैं।  यह प्रस्ताव भ्रम और अपराध के समर्थन में नहीं है।  पहले का स्मरण आपको आगे बढ़ने नहीं देगा।  अपराधिक कर्मों का स्मरण हमको पीड़ा देता है।  भ्रमवश हम ही अपराध किये रहते हैं, हम ही फंसे रहते हैं।  हमारा ही करतूत हमको फंसाता है।

इसका निवारण है - अपने "कहने" और "जीने" में सामंजस्य बैठाना। मैं तो इसी विधि से पार पाया हूँ।  "जैसा कहते हैं, वैसा जीना चाहिए" - ऐसा मैंने शुरू किया।

"कहने" और "जीने" में सामंजस्य के लिए प्रतिपादित किया है - "समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि"।  समझदारी के प्रस्ताव को विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत किया है।  श्रम से समृद्ध होने के ६ आयाम हैं - आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन।

प्रश्न: "श्रम से समृद्धि" को क्यों अपनाएं?

उत्तर:  सच्चाई की प्रेरणा देने के लिए, सच्चाई को प्रमाणित करने के लिये।  प्रेरणा पाना और प्रमाणित करना  हर मानव का अधिकार है।  कोई ऐसा मानव नहीं है, जो शरीर के साथ न हो।  शरीर के साथ ही मानव प्रेरणा पाता है, शरीर के साथ ही मानव जीता है।  शरीर पोषण, शरीर संरक्षण और समाज गति के लिए "श्रम से समृद्धि" को अपनाएँ।

- अनुभव शिविर, जनवरी २०१३, अमरकंटक (श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित)