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Thursday, November 1, 2012

भ्रम की पीड़ा

प्रकृति ही जड़-चैतन्य स्वरूप में है तथा जड़-प्रकृति ही चैतन्य प्रकृति में संक्रमित होता है।  चैतन्य प्रकृति जब   तक जीने की आशा से सीमित रहती है, तब तक जीवनी क्रम के रूप में ही प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों का आंशिक प्रयोग करते हुए जीवनी क्रम की परम्पराओं को बनाये रखने के रूप में साक्षित है।  यही भ्रम का पहला चरण है।  इस चरण में भ्रम की पीड़ा या बंधन की पीड़ा प्रमाणित नहीं होती।

मानव शरीर रचना अन्य जीव परंपरा में से निष्पन्न होने के पश्चात मानव-परंपरा सहज शरीर रचनाएँ वंशानुक्रम विधि से स्थापित हुई।  मानव परंपरा में भ्रम की पीड़ा प्रमाणित हुई।  भ्रमात्मक क्रियाकलाप जीवन से ही निष्पन्न होता है।  मानव के भ्रमात्मक क्रियाकलाप से अव्यवस्था हुई और अव्यवस्था से पीड़ा हुई।  इस पीड़ा को जीवन ही स्वीकारता है।

जीवन जागृति-क्रम में भ्रम-बंधन को व्यक्त करता है, पीड़ित होता है - फलस्वरूप जागृत होने की आवश्यकता बनती है।  भ्रम-बंधन की पराकाष्ठा में कितनी पीड़ा हो सकती है - ऐसी सभी विधाओं से पीड़ित व्यक्ति को यह देखने को मिलता है - इस पीड़ा से मुक्ति का उपाय अतिआवश्यक है।   इसके लिए यत्न, प्रयत्न, अनुसंधान करने का फल ही है - जागृति का मार्ग प्रशस्त होना।

आशा, विचार, इच्छा बंधन को जागृति-क्रम में व्यक्त होना अति-आवश्यक रहा है, क्योंकि इनके परिणाम में पीड़ाओं का आंकलन होना आवश्यक रहा है।  अस्तित्व और नियति के अनुसार इतनी लम्बी मानव परंपरा को दिशा देने के लिए अथवा दिशा प्रेरित करने के लिए धरती का असंतुलन अवश्यम्भावी था, प्रदूषण की पीड़ा अवश्यम्भावी थी।  जनसंख्या की अधिकता का दबाव और पीड़ा बढ़ना ही था।  मानव में प्रलोभन की पराकाष्ठा का होना आवश्यक था।  भ्रम और बंधन की पीड़ा की पराकाष्ठा किसी न किसी व्यक्ति को होना आवश्यक था।  यह नियतिक्रम में विधिवत घटित हो ही जाता है - क्योंकि अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में परम लक्ष्य और स्थिति निश्चित और स्थिर है।  क्योंकि अस्तित्व स्थिर है और जागृति निश्चित है।

- अनुभवात्मक अध्यात्मवाद से।


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