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Friday, May 6, 2011

अनुसंधान, अध्ययन, प्रमाण



अध्ययन करने वाला तुलन, साक्षात्कार और बोध विधि से देखता (समझता) है। अध्ययन कराने वाला अनुभव मूलक विधि से प्रस्तुत होता है। अनुभव की रोशनी में ही सब देखा (समझा) जा सकता है। अनुभव की रोशनी अध्यापन करने वाले के पास रहता है। कल्पनाशीलता जब अनुभव को स्वीकारती है तब वह तदाकार हो जाती है। अध्ययन की प्रक्रिया तो यही है।

सह-अस्तित्व विधि से समझदारी अस्तित्व में है। उसको समझना है, अनुभव करना है, प्रमाणित करना है - इतना ही बात है।

शब्द से अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचानने के लिए मन को लगाना पड़ता है। शब्द से इंगित अस्तित्व में वस्तु को स्वीकारना होता है, तब तदाकार होने की बात आती है। यदि शब्द से कोई वस्तु अस्तित्व में इंगित नहीं होती तो वह शब्द सार्थक नहीं है। वस्तु को स्वीकारते नहीं हैं तो तदाकार नहीं हो पाते। तदाकार होने पर तद्रूप होते ही हैं। उसके लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है - वह परमार्थ ही है।

तदाकार होना ही अध्ययन है। तद्रूप होना ही अनुभव है। तद्रूप होने पर प्रमाण होता ही है, उसके लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। प्रमाण तो व्यक्त होता ही है. जैसे – आप जो पूछते हो, उसका उत्तर मेरे पास रहता ही है। अनुभव-मूलक विधि से व्यक्त होने वाला अध्ययन कराएगा। अनुभव की रोशनी में ही अध्ययन करने वाले का विश्वास होता है। विश्वास के आधार पर ही वस्तु का बोध होता है। वस्तु का बोध होने पर तदाकार हुआ।


प्रश्न:- जीवन-विद्या परिचय-शिविर में सुने प्रस्तावों पर अपनी कल्पनाशीलता को लगाना अनुभव तक पहुँचने के लिए पर्याप्त है, या वांग्मय का अध्ययन करना भी आवश्यक है?

उत्तर: - अध्ययन करना आवश्यक है। अध्ययन पूर्वक ही अनुभव होता है।

प्रश्न:- तो क्या अध्ययन करने के लिए क्या पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है?

उत्तर: - नहीं। समझने की अर्हता सबके पास है, कल्पनाशीलता के आधार पर – चाहे पढ़े-लिखे हों, या न हों। समझाने वाला पढ़े-लिखे को भी समझा सकता है, बिना पढ़े-लिखे को भी समझा सकता है। जो पढ़ा-लिखा नहीं है, वह सुन तो सकता ही है। पढ़ना भी सुनना ही है – उससे अधिक नहीं है। सुनने-पढ़ने के आधार पर हम तर्क करते हैं। तर्क संतुष्ट होने के बाद समझने की इच्छा होती है। समझने के बाद व्यवहार में प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं।

कितने भी तरीके से हम सोचें, लक्ष्य समझदारी का व्यवहार में प्रमाणित होना ही है। इस लक्ष्य को छोड़ कर हम केवल बातों में अपनी बहादुरी को बता सकते हैं। बातों में बहादुरी बताने से मानव तरा नहीं। बातों में बहादुरी दिखाने की वेद-मूर्ती परंपरा से मैं स्वयं निकला था। वेद-मूर्तियों से ज्यादा बोलने वाला संसार में कोई नहीं है। लेकिन उससे कोई प्रयोजन निकला नहीं।

प्रश्न:- जब तक हम अध्ययन के इस वातावरण में रहते हैं, तब तक हमारा मन लगा रहता है. जब यहाँ से दूर जाते हैं – तो ऐसा लगता है जैसे उल्टा ही गियर लग गया हो! ऐसा क्यों है, इसके निदान के लिए क्या करें?
उत्तर: - सुनना और पढ़ना समझना नहीं है। जब तक हमारा ध्यान सुनने और पढ़ने में ज्यादा रहता है, “समझने” में कम रहता है – तब तक ऐसा होता है। सुनने और पढ़ने के साथ-साथ “समझने” का भी प्रयास किया जाए। समझ में आने पर वह भूलता नहीं है, फिर उस समझ को जीना ही होता है। समझने से पहले मानव जीव-चेतना में ही जीता है।


प्रश्न:- अभी तक जो “धर्म-संस्थापक” के नाम से महापुरुष हुए – जैसे बुद्ध, महावीर, यीशु, पैगम्बर मुहम्मद – वे मानव थे, देव-मानव थे, दिव्य-मानव थे, या भ्रमित थे?
उत्तर: - “धर्म-स्थापना” की कल्पना है। धर्म कहाँ “स्थापित” हुआ? धर्म स्थापित हुआ होता तो संसार को बिगाड़ते कैसे? अपनी कल्पनाशीलता की बदौलत “धर्म” शब्द को हम पाए जरूर हैं – लेकिन “धर्म” शब्द के अर्थ में हम जीते नहीं हैं।

प्रश्न:- आपको जो दर्शन हुआ, वह भूतकाल में इस धरती पर किसी को हुआ या नहीं?

उत्तर: - मैं यह नहीं कह सकता। यदि हुआ भी हो तो उसका प्रमाण तो वर्तमान में नहीं है। “ मुझसे पहले किसी को अनुभव नहीं हुआ” – यह कहने का अधिकार मेरे पास नहीं है। परम्परा में प्रमाण नहीं हुआ – यह मैं कह सकता हूँ। प्रमाण के लिए ही मैंने अनुसंधान किया, प्रमाणित होने के लिए ही हम काम कर रहे हैं।

प्रश्न:- आपको जो दर्शन हुआ, वह भविष्य में किसी को होगा या नहीं?

उत्तर: - अध्ययन करने वाले सभी को यह अस्तित्व-दर्शन होगा। अध्ययन किये बिना किसी को अस्तित्व-दर्शन नहीं होगा।

प्रश्न: शरीर छोड़ने के बाद जीवन की भ्रम और जागृति को लेकर क्या स्थिति होती है?

उत्तर: - जीते समय जीवन जितना भ्रमित रहता है, उतना ही भ्रमित शरीर छोड़ने के बाद भी रहता है। जीते समय जीवन जितना जागृत रहता है, उतना ही जागृत शरीर छोड़ने के बाद भी रहता है। जीवन शरीर छोड़ते समय शरीर-यात्रा का समीक्षा करता है, इसमें जो भी वह गलती स्वीकारता है उसको भूल कर अगली शरीर-यात्रा शुरू करता है। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना में जीना जागृति है। जीव-चेतना में जीना भ्रम है। जीव-चेतना में न्याय पूर्वक जीना बनता नहीं है।

प्रश्न: एक जागृत-जीवन को अपनी अगली शरीर-यात्रा में क्या फिर अनुसंधान या अध्ययन करने की आवश्यकता है?
उत्तर: - जागृत-जीवन द्वारा भी शरीर छोड़ने के बाद दुबारा शरीर लेने पर समझना तो फिर से पड़ेगा ही। ऐसे जीवन द्वारा परंपरा में यदि जागृति होगा तो परंपरा से जल्दी समझना होगा, परपरा में जागृति नहीं होगा तो पुनः अनुसंधान करना होगा।

हर जीवन जागृति के लिए तृषित है। परंपरा से यदि जागृति नहीं मिलती है तो जो लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद मिलता है – उसी में जीना होता है। उससे जीवन को संतुष्टि होता नहीं है। जीवन-संतुष्टि का प्रावधान मानव-परंपरा में हो, उसके लिए मैंने यह प्रस्ताव मानव-जाति के सम्मुख रखा है।

समझना या अनुभव करना हर व्यक्ति के वश का है। परंपरा में समझदारी का प्रावधान न होने के कारण मानव भ्रम में रहने के लिए विवश है।

प्रश्न: एक बार मानव द्वारा अनुभव-संपन्न होने के बाद उसका दूसरी शरीर-यात्रा में फिर से अनुसंधान करना क्यों आवश्यक है?
उत्तर: - शरीर के साथ तदाकार हुए बिना संवेदनाएं व्यक्त होते नहीं हैं। दूसरी शरीर-यात्रा शुरू करने पर कल्पनाशीलता शरीर के साथ ही तदाकार होगी। ऐसे में जीवन द्वारा ज्ञान को स्वीकारने के लिए अनुसंधान या अध्ययन की आवश्यकता रहेगी ही।

अनुसन्धान तब आवश्यक है जब परंपरा में जागृति का प्रमाण पहुँचता नहीं है। परंपरा में जागृति का प्रमाण नहीं है तो अनुसंधान के अलावा और क्या रास्ता है? जैसे - मेरे द्वारा किये गए अनुसंधान की यदि परंपरा नहीं बनती है या इसको परंपरा में स्थापित करने के लिए मानव तैयार नहीं होते हैं, और मैं यदि इसी धरती पर मानव को मदद करना चाहूंगा, तो मैं अगली शरीर-यात्रा में पुनः अनुसंधान करूँगा ही। ऐसे में अनुभव स्वयं (जीवन) में बना रहेगा, पर उस अनुभव को कल्पनाशीलता द्वारा प्रकट करने के लिए अनुसंधान करना ही होगा। समाधि-संयम पूर्वक ही अनुसंधान होगा।

परंपरा में कमी होती है तभी अनुसंधान करने की बात होती है। जिस परंपरा में मैं जन्मा उसमें मुझे कमी लगी, उससे मैं पीड़ित हुआ, फलस्वरूप तीव्र-इच्छा से मैंने समाधान को चाहा, तभी मैंने अनुसंधान किया।

यदि परंपरा में जागृति का प्रमाण पहुँचता है तो हमको दुबारा अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में पुनः शरीर-यात्रा करते समय में जो परंपरा से प्रमाण मिलता है उसको अध्ययन और अभ्यास करने की आवश्यकता है।

प्रश्न:- आपने जो यह अनुसंधान किया उसको करने से पहले आप क्या पहले से अनुभव-संपन्न “थे” या “नहीं थे”?
उत्तर: - इस अनुसंधान को करने से पहले मैं अनुभव-संपन्न “था” या “नहीं था”, उसका कोई प्रमाण नहीं है। जिस परिवार-परंपरा में मैं पैदा हुआ उसमे भी किसी ने प्रमाण प्रस्तुत किया नहीं। इसी लिए मैं अपने प्रयास को “अनुसंधान” कहता हूँ। प्रमाण-विहीन कोई बात मैं कर नहीं सकता।

प्रश्न: इसका मतलब क्या यह है – परंपरा यदि जागृत न हो तो चाहे उसमे अनुभव-संपन्न व्यक्ति हो या न हो, पुनः अनुसंधान करने की आवश्यकता होगी?
उत्तर: - हाँ। व्यक्ति कोई जागृत हुआ या नहीं हुआ – इसको तब तक कहा नहीं जा सकता जब तक परंपरा में प्रमाण न हो। अनुसंधान करना एक हिम्मत की बात है। हर कोई व्यक्ति अनुसंधान करेगा नहीं। अध्ययन सभी के लिए एक सुलभ मार्ग है। इसी आधार पर अब हम ईमानदारी के साथ बात कर सकते हैं। इस आधार के बिना ईमानदारी के साथ बात करने का कोई तरीका ही नहीं बनता।

- बाबा श्री नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २०१०, बांदा)

Tuesday, May 3, 2011

अनुभव और प्रमाण

प्रमाण के बिना अनुभव का कोई प्रयोजन नहीं है। यदि हम कहते हैं, हमको अनुभव हो गया पर उसका प्रमाण नहीं है – तो उसका कोई प्रयोजन नहीं है। अनुभव होता है, तो प्रमाण होता ही है। प्रमाण नहीं होता, तो अनुभव होता ही नहीं है। अनुभव होने में ही गलती हो गयी है, तभी प्रमाण नहीं हुआ। अनुभव ही एक ऐसी बात है जिसको झाड पर चढ कर चिल्ला सकते हैं, बहुत दूर-दूर तक हम चोंगा-पोंगा लगा करके बात कर सकते हैं, उसका कोई भय नहीं होता। अभी तक की सारी परंपराओं के विपरीत मैं बात कर रहा हूँ – फिर भी मैं कहाँ भयभीत हूँ? जो अनुभव होता है, उससे अधिक की संभावनाएं बने रहते हैं। क्योंकि मानव में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता अनुभव से जुड़ती है। अनुभव मूलक विधि से न्याय पूर्वक जीना बनता है। न्याय-पूर्वक जीना बनता है तो समाधान (धर्म) पूर्वक जीना बनता है। न्याय और धर्म पूर्वक जीना बनता है तो सत्य पूर्वक जीना बनता है। दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। ७०० करोड आदमी मिल कर दूसरा कोई रास्ता या विधि को बना ही नहीं पायेंगे।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था

दस व्यक्तियों के समझदार परिवार में समाधान-समृद्धि का वैभव होता है। ऐसे दस समझदार परिवार एक-एक व्यक्ति को अपने में से निर्वाचित करते हैं, जो परिवार-समूह सभा को गठित करता है। ऐसे दसों व्यक्तियों का अधिकार समान होगा, उसका कोई एक मुखिया होगा ऐसा नहीं है। इन दसों परिवारों के जीने के पाँचों आयामों – शिक्षा-संस्कार कार्य, न्याय-सुरक्षा कार्य, स्वास्थ्य-संयम कार्य, उत्पादन कार्य, विनिमय-कोष कार्य – में जब भी कोई काम आया उसको पूरा करना, इनका काम रहेगा। जैसे सभी दस परिवार शिक्षा-संस्कार में पारंगत हैं या नहीं, उसमे जो कमी है उसको पूरा करना। सभी दस परिवार न्याय पूर्वक जी पा रहे हैं, यदि नहीं जी पा रहे हैं तो उसको पूरा करना। सभी दस परिवार उत्पादन कार्य में प्रवीण हैं या नहीं, आवश्यक उत्पादन कर पा रहे हैं या नहीं – इसका परिशीलन करना, और उसकी कमियों को पूरा करना। सभी स्वास्थ्य को लेकर स्वायत्त हैं या नहीं इसका परिशीलन करना और उसकी कमियों को पूरा करना। व्यवस्था के अर्थ में ही कमियों का आंकलन होता है, और उसको पूरा करने के लिए प्रयास होता है।

इस तरह एक परिवार से एक परिवार-समूह तक पहुँचते हैं। ऐसे दस परिवार-समूह मिल कर एक ग्राम परिवार-सभा को तैयार करते हैं। ग्राम-परिवार सभा में भी यही पाँचों आयाम – शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, स्वास्थ्य-संयम, उत्पादन, और विनिमय - काम करते हैं। इन सौ परिवारों के बीच ही विनिमय-कोष कार्य पूरा होता है, संतुलित होता है।

इसके आगे ग्राम-समूह परिवार-सभा में दस ग्राम परिवार-सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर पहुँचते हैं। इस प्रकार उत्पादन के दस गावों तक पहुँचने की व्यवस्था बनती है। इस तरह हज़ार परिवारों के बीच संतुलन की व्यवस्था बनती है।

इसके आगे दस ग्राम-समूह सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर मंडल परिवार-सभा तक पहुँचते हैं। इस तरह दस-हज़ार परिवारों के बीच पाँचों आयामों में संतुलन की व्यवस्था बनती है।

इसके आगे दस मंडल-सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर मंडल-समूह परिवार-सभा तक पहुँचते हैं। दस मंडल-समूह सभा से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित हो कर मुख्य-राज्य परिवार-सभा बनता है। इसी विधि से आगे प्रधान-राज्य परिवार सभा और विश्व परिवार-सभा के होने का प्रावधान है। इस तरह “दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था” का स्वरूप निकलता है – जिससे विश्व स्तर तक शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, स्वास्थ्य-संयम, उत्पादन और विनिमय-कोष कार्यों को व्यवस्था के अर्थ में संपादित किया जाता है, उनमे कमियों को पूरा किया जाता है। व्यवस्था का काम यह है, न कि आदमी को फांसी पर लटकाना, बन्दूक दिखा कर बस में रखना। शक्ति केंद्रित शासन मानव को स्वीकार नहीं है। व्यवस्था ही मानव को स्वीकार होती है. सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सह-अस्तित्ववादी ज्ञान, विवेक, विज्ञान में पारंगत होने की आवश्यकता बनती है। पारंगत होने के लिए शिक्षा-विधि ही है। उसके लिए हम छत्तीसगढ़ में कुछ प्रयास कर रहे हैं, आगे चल कर सभी जगह पहुंचेंगे।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

Monday, May 2, 2011

मानव-जाति की छाती के पीपल

आदि-काल से अभी तक हर समुदाय में नर-नारियों में असमानता – ऊपर-नीचे की बात, श्रेष्ठ और नेष्ट की बात, ज्यादा और कम की बात - बना ही रहा है। यह किसी एक समुदाय विशेष की बात नहीं है। हर समुदाय में ऐसा ही रहा है. ‘नर-नारियों में असमानता’ और ‘गरीबी-अमीरी में असंतुलन’ आदि काल से मानव-जाति की “छाती के पीपल” बने हुए है। नारी को असमान बनाए रखने के लिए और गरीब को गरीब ही बनाए रखने की विधियों को लेकर के आदमी अभी तक चला है। हर मानव में ये दो जंजाल बने हुए है। यह है भ्रम का विस्तार! यह सोचने का मुद्दा है। विकल्पात्मक विधि से इस पर सोचने से निकला – समाधान को यदि हम अध्ययन पूर्वक पाते हैं तो नर-नारियों में समानता आती है। नर और नारी में समानता रूप विधा से आ नहीं सकती, बल विधा से आ नहीं सकती, धन विधा से आ नहीं सकती, पद विधा से आ नहीं सकती। बुद्धि विधा से अर्थात समझदार होने पर ही नर-नारी में समानता का स्वरूप निकलता है।

यदि हर परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना बन जाता है तो गरीबी-अमीरी में संतुलन होता है। हर परिवार – जिसे चाहे हम आज “गरीब” कहते हों, “अमीर” कहते हों, या “सामान्य” कहते हों – यदि ‘समझदारी से समाधान’ और ‘श्रम से समृद्धि’ को प्रमाणित करते हैं तो गरीबी-अमीरी में संतुलन सिद्ध होता है। परिवार में संबंधों को व्यवस्था के अर्थ में पहचानना और व्यवस्था के अर्थ में जीने पर समाधान-समृद्धि का अनुभव होता है। उसके पहले प्रमाण होने वाला नहीं है. इसकी आवश्यकता है या नहीं – यह भी सोचा जाए।

इस धरती पर जितने भी देश हैं, जिसकी सीमाओं पर सेनाएं तैनात हैं – उन सभी के अपने-अपने संविधान हैं। वे सभी एक-एक परम्पराएं हैं। इस तरह मानव कितनी विधियों से जियेगा? इस तरह मानव छतरिया गया है। छतरिया करके कहीं भी टिक नहीं पा रहा है। सर्व-देश में एक ही तरीके से उपयोगी हो, ऐसा मानव बन नहीं पा रहा है। हम सभी देशों में अपने उपयोगी हो पाने के बारे में चाहते अवश्य हैं, पर उस तरह से हम सोच नहीं पाते हैं, प्रमाणित नहीं हो पाते हैं। व्यापार-विधि से मानव सर्व-देश तक पहुंचा है। व्यापार का मतलब है – दूसरे को बुद्धू बना कर, ज्यादा लेना और कम देना। व्यापार को सर्व-देशीय बनाने की कोशिश हुई है। उस तरह जिसके पास ज्यादा धन है - वह ज्यादा शोषण करता है, जिसके पास कम धन है – वह कम शोषण करता है।

व्यापार “कृत्रिम अभाव” के आधार पर होता है. इसमें हर उत्पादक द्वारा किये गए सारे उत्पादन को एक जगह इकठ्ठा करके मनचाहे लाभ के अनुसार बेचने की बात रहती है। अभी हमारे ही देश में जो उत्पादक हैं, कृषक हैं – वे अपने घर की दीवारों पर सफेदी करवा नहीं पाते हैं। और जो व्यापारी हैं – वे चमकते घरों में रहते हैं। क्यों होता है ऐसा करिश्मा!? यह सोचने का मुद्दा है या नहीं? गरीबी और अमीरी में संतुलन आये बिना इस स्थिति का समाधान होगा ही नहीं। गरीबी और अमीरी में संतुलन कैसे होगा? गरीबी और अमीरी का संतुलन समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की विधि से ही होगा। गरीब के पास भी समाधान का अभाव है। अमीर के पास भी समाधान का अभाव है। समाधान के बिना समृद्धि का अनुभव होता ही नहीं है। समाधान के बाद ही समृद्धि का अनुभव होता है। हर व्यक्ति यदि समझदारी से समाधान प्राप्त करता है तो वह श्रम से समृद्धि को प्राप्त कर ही सकता है। हर व्यक्ति में समाधान का एक ही स्वरूप होता है। हर परिवार में समृद्धि का अपना-अपना स्वरूप होता है। किसी का दो रोटी से पेट भरता है, किसी का चार से पेट भरता है। उसके लिए कोई एक वस्तु का एक मात्रा में उत्पादन करता है, दूर किसी दूरी वस्तु का दूसरी मात्रा में उत्पादन करता है। दोनों समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं। समाधान पूर्वक सभी समृद्धि का अनुभव कर सकते है। यदि दस व्यक्तियों के एक परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का अभ्यास होता है – उससे फिर एक से अनेक परिवार का ऐसे ही जीना बनता है। हम यदि न्याय पूर्वक जियें, समाधान पूर्वक जियें, सुख पूर्वक जियें, समृद्धि पूर्वक जियें – तो हर व्यक्ति ऐसा चाहता है या नहीं, इसका परीक्षण किया जा सकता है।

सह-अस्तित्व विधि से हम अध्ययन कर पाते हैं तो समाधान-समृद्धि हाथ लगता है। प्रचलित-विज्ञान की विधि से हम अध्ययन करते हैं तो अस्थिरता-अनिश्चयता ही हाथ लगता है, उससे सिवाय अपराध करने के दूसरा कोई प्रवृत्ति बनता ही नहीं है। भक्ति-विरक्ति विधि से हम चलते हैं तो भौतिकता को नकारते रहते हैं, जबकि जीने में भौतिकता को ही स्वीकारे रहते हैं। इस तरह भक्ति-विरक्ति विधि से हमारे शिक्षा में, जीने में, और व्यवहार में कहाँ संतुलन होता है? इस तरह संतुलन न भक्ति-विरक्ति विधि से हुआ, न अत्याधुनिक-विज्ञान विधि से हुआ। अत्याधुनिक-विज्ञान यंत्र को सर्वोपरि प्रमाण मानने तक पहुंचा है – मानव को प्रमाण नहीं माना. भक्ति-विरक्ति शास्त्र को सर्वोपरि प्रमाण मानने तक पहुंचा है – मानव को प्रमाण नहीं माना। यही मुख्य बात है. सह-अस्तित्व वादी विधि से शिक्षा व्यवस्था में जीने के अर्थ में है। स्थिरता और निश्चयता के आधार पर है. हम स्थिरता-अनिश्चयता चाहते हैं या अस्थिरता-अनिश्चयता? – इसका भी अपने में परिशीलन करिये. हम यदि स्थिरता-निश्चयता चाहते हैं तो क्या उसे हम पाए हैं या नहीं – इसका भी अपने में परिशीलन करिये। यदि स्थिरता-निश्चयता को पा गए हैं तो उसमे प्रमाणित हैं या नहीं – इसको सोचिये। इस तरह हम सोचते हैं तो अभी तक की शिक्षा की समीक्षा होती है, उसका मूल्यांकन होता है, और हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि - अभी तक की शिक्षा निरर्थक है, अपराधिक है, अनिश्चित है, अस्थिर है। इसमें कोई शंका हो, कोई जिज्ञासा हो, कोई प्रश्न हो तो उसको आप सभी मुझसे पूछ सकते है।

आपका कोई प्रश्न नहीं है – उसका मतलब मैं यह नहीं मानता कि आपको यह बात स्वीकार हो गयी है। आप इस बात में पारंगत हो गए – ऐसा मैं नहीं मानता हूँ। स्वीकार होने पर प्रमाण ही होता है। आप इस बात से सहमत हुए हैं, ऐसा मैं मानता हूँ।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

प्रचलित-शिक्षा का विकल्प

अभी की प्रचलित-शिक्षा कामोंमादी, भोगोंमादी, और लाभोंमादी है। जबकि हर अभिभावक - चाहे डाकू हों, दरिद्र हों, समर्थ हों, असमर्थ हों - चाहते हैं उनके बच्चे नैतिकता पूर्ण बने, चरित्रवान बनें। आप स्वयं सोचिये – इन तीनो उन्मादों को पाते हुए क्या बच्चे नैतिक बन सकते हैं, चरित्रवान बन सकते हैं? इस ढंग से हम अभी तक क्या किये, किस बात के लिए भागीदारी किये – इसका मूल्याँकन होने लगता है। इस मूल्याँकन के होने के बाद हम विकल्पात्मक स्वरूप में जीने के लिए तैयार होते हैं। विकल्पात्मक स्वरूप है – सह-अस्तित्व में जीना. विकल्पात्मक शिक्षा के स्वरूप के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।

सह-अस्तित्व में स्वयम जीने के स्वरूप को लेकर विकल्पात्मक-शिक्षा की शुरुआत करते हैं। सह-अस्तित्व में स्वयं जीने के लिए जब पारंगत हो जाते हैं, तो उसके सत्यापन को हम इस विकल्पात्मक-शिक्षा की पूर्णता मानते हैं। इसके उपरान्त समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने, अन्य लोगों की सहायता करने, और उपकार करने की शुरुआत होती है। आगे पीढ़ी में पिछली पीढ़ी से और अच्छा करने तथा अच्छा प्रस्तुत होने की कल्पना रहता ही है। अभी की अपराध-परंपरा में भी इस को देखा जा सकता है। मानव ने अपराध की शुरुआत जंगल को विनाश करने और हिंसक पशुओं का वध करने के रूप में की। उनकी संतान और ज्यादा विनाश करने, और ज्यादा वध करने की ओर गयी। यह चलते-चलते लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद तक पहुँच गया। अभी प्रचलित व्यापार-शिक्षा में लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद ही मिलता है। इसके अलावा दूसरा कुछ उसमे पा ही नहीं सकते। इसके अलावा उस शिक्षा में कोई ध्वनि ही नहीं है, सूत्र ही नहीं है, न व्याख्या है। यहाँ बैठे कुछ लोग नौकरी करते हुए भी हैं, व्यापार करते हुए भी हैं। वे सभी सोच सकते हैं, ऐसा ही है या नहीं? यदि मैं जो कह रहा हूँ वास्तविकता उससे भिन्न कुछ है तो उसको आप मुझे सुझाव के रूप में दे सकते हैं, आग्रह के रूप में दे सकते हैं – कैसे भी दीजिए, वह सब स्वागतीय है।

अभी मानव बहु-रुपिये जैसा जीता है. समझदारी पूर्वक मानव एक निश्चित आचरण (मानवीयता पूर्ण आचरण) के साथ जीता है। क्या इस बात से किसी का विरोध है, असहमति है? यह जीव-चेतना और मानव-चेतना का विश्लेषण है। इस विश्लेषण के आधार पर मनुष्य पुनर्विचार करने का अधिकार प्राप्त करता है। पुनर्विचार कि – अपराध-मुक्ति कैसे हो? गलतियों से मुक्ति कैसे हो? भ्रम से मुक्ति कैसे हो? दरिद्रता से मुक्ति कैसे हो? पुनर्विचार के लिए सुझाव है – सह-अस्तित्व-वादी विधि से इन सभी मुद्दों का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। जिससे अपराध-मुक्त हो सकते हैं, गलतियों से मुक्त हो सकते हैं, भ्रम से मुक्त हो सकते हैं, दरिद्रता से मुक्त हो सकते हैं।

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित

Sunday, May 1, 2011

शिक्षा में विकल्प

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

मैं स्वयं को अपने बंधुओं के बीच पा कर प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। आप हम जो यहाँ मिले हैं यह एक संयोग और सद्-बुद्धि की बात है। सद्-बुद्धि के पक्ष में आगे बढ़ने का यहाँ प्रस्ताव है। सद्-बुद्धि चाहने वाले यहाँ सब बैठे हैं – ऐसा मेरा स्वीकृति है। कल आपके साथ बात हुई थी – विकल्प कैसे आया, क्यों आया, और यह किस बात का विकल्प है? उसमे बताया था – यह आदर्शवाद और भौतिकवाद का विकल्प है, और समाधि-संयम विधि से निष्पन्न हुआ है। अब आगे इसका शिक्षा में क्या स्वरूप होगा, उसको मुझे प्रस्तुत करने को कहा गया है। उसको मैं स्वीकारा हूँ, उचित समझा हूँ। लोग भी उसको उचित समझते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।

वेद-विचार में ३० वर्ष तक जो मैं पला-बढा, उसमे सुनने-सुनाने को “श्रुति” नाम दिया। मैं भी उसको मान कर वेदिक ऋचाओं को उच्चारण करते रहा। मुझको जो लोग सुनते रहे वे मेरी प्रशंसा करते रहे, उससे मुझे अभिमान होता रहा। जब वेद-विचार के अर्थ में गए तो मैंने उसे निरर्थक पाया। पहले - ब्रह्म को ही सत्य और अनंत बताया। दूसरे – ब्रह्म से ही जीव-जगत पैदा हुआ, यह बताया। तीसरे लाइन में लिखा – ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है। सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो गया? इस प्रश्न से मुझको पीड़ा हुई, जिसके निराकरण के लिए मैंने स्वयं-स्फूर्त विधि से अनुसंधान किया। उसके फल में मैंने जो पाया वह मुझे सम्पूर्ण मानव-जाति की सम्पदा लगा – इसलिए उसे मानव-जाति को पकडाने के लिए मैंने प्रयास शुरू किया। यहाँ उपदेश-विधि को छोड़ करके शिक्षा-विधि से इसको प्रस्तुत किया। शिक्षा में उसके स्वरूप को बताने के लिए मैं यहाँ प्रस्तुत हूँ।

शिष्टता से संपन्न होने के लिए शिक्षा है। उसके लिए प्रक्रिया है – अध्ययन। अनुभव के प्रकाश में स्मरण पूर्वक किया गया क्रिया-कलाप अध्ययन है। अध्यापन करने वाला अनुभव का प्रकाश देता है। अनुभव का प्रकाश लोहे के पास रहेगा, जानवर के पास रहेगा, या मानव के पास रहेगा? मैंने यह निर्णय लिया – “अनुभव का प्रकाश मानव के पास ही रहेगा।” अनुभव का प्रकाश न लोहे के पास रहेगा, न जानवर के पास रहेगा। इसको आप सभी शोध करने योग्य हैं। सभी को शोध करना चाहिए, निर्णय लेना चाहिए। अभी अत्याधुनिक लोग सोचते हैं – लोहा आदमी को सिखायेगा! मेरी कंप्यूटर के बड़े वैज्ञानिक से एक बार अमरकंटक में बात-चीत हुई। उनसे मैंने पूछा – “तुम लोहे को जो समझाते हो, उसको मनुष्य समझेगा या लोहा समझेगा?” उन्होंने कहा – “मनुष्य समझेगा।” उसके बाद पूछा – “मनुष्य को मनुष्य समझायेगा या लोहा समझायेगा?” तो उन्होंने कहा – “मनुष्य समझायेगा।” ये सब बातों का अंतिम निष्कर्ष यही निकलता है – मनुष्य ही मनुष्य को समझायेगा। न जानवर समझायेगा, न लोहा समझायेगा, न पत्थर समझायेगा, न मणि समझायेगा। इसमें यदि आप सहमत नहीं होते हैं, तो आप मुझसे प्रश्न कर सकते हैं, पूछ सकते हैं। आपकी सहमति से मेरे इस निर्णय की पुष्टि हुई।

समझने और समझाने के लिए पाँच ही सूत्र हैं। पहला है – “सह-अस्तित्व को समझना और समझाने योग्य होना।” सह-अस्तित्व में अनुभव करने पर सह-अस्तित्व समझ में आता है। उससे पहले किसी को सह-अस्तित्व समझ में नहीं आएगा। सह-अस्तित्व में अनुभव किये बिना हम सह-अस्तित्व को समझा नहीं पायेंगे। मानव-परंपरा अनुभव-मूलक विधि से जिन्दा रह सकता है। मानव का सारी मानव-जाति के साथ सह-अस्तित्व, सारी जीव-जाति के साथ सह-अस्तित्व, सारी वनस्पति-जाति के साथ सह-अस्तित्व, सारी पदार्थ-जाति के साथ सह-अस्तित्व पूर्वक जीने की बात होती है। मानव का इस पहले सूत्र से यह निकलता है। इस धरती पर ही आप-हम बैठे हैं, हवा को लेते ही हैं, पानी को पीते ही हैं, वनस्पतियों और जीवों का उपयोग करते ही हैं। अब मानव का मानव को समझदारी के अर्थ में प्रबोधित करना, न्याय पूर्वक, समाधान पूर्वक और समृद्धि पूर्वक जी सकने की बात है। इसको मैंने स्वयं जी कर प्रमाणित हूँ। मैं स्वयं सह-अस्तित्व को समझा हूँ, सह-अस्तित्व में जीता हूँ. मैं किसी को घायल नहीं करता हूँ। किन्तु घायल करने वाले धरती पर हैं. जैसे यह प्रकाश जो इस बल्ब से है, जो बिजली है, वह धरती को घायल किये बिना आया नहीं है। धरती सूर्य को ताप को अपने में पचाने के लिए पहले कोयला बनाया, उसके बाद धरती अपने को अभी के संसार के जीने योग्य हवा आदि नैसर्गिकता को बनाया। उसके बाद ही जीव-संसार प्रकट हुआ, मनुष्य-संसार प्रकट हुआ। मानव जब से धरती पर प्रकट हुआ, अरण्य-युग से जंगल को बर्बाद करने में लगा ही है। अत्याधुनिक विज्ञान के साथ मानव खनिज-संसार पर टूट पड़ा। खनिज-तेल, खनिज-कोयला, और विकीर्नीय धातुओं के अपहरण करने से ही यह धरती बीमार हुई। इनके ईंधन-अवशेष से ही धरती ताप-ग्रस्त हो गयी है। अब धरती और कितने दिन बची रहेगी उसके लिए विज्ञानी लोग अपनी-अपनी भविष्यवाणियां कर रहे हैं। ये सब सुनने-बोलने के लिए हमारा कोई विरोध नहीं है। हमारा अनुरोध इतना ही है – हमारे बोलने-सुनने से प्रयोजन सिद्ध होना चाहिए। प्रयोजन है – मानव का व्यवस्था में जीना। व्यवस्था में जीने का मतलब है – मानव का अपराध-मुक्त होना, भ्रम-मुक्त होना। सकारात्मक भाषा में – नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीना। दूसरे तरह से कहें – समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व पूर्वक जीना। मानव का मानवत्व पूर्वक जीना, अर्थात मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना पूर्वक जीना। शिक्षा में ये सभी सार्थकता का अध्ययन है। इसी के आधार पर आप इसका श्रवण करेंगे, इसकी औचित्यता का निर्णय करेंगे, उसमे कोई शंका हो तो हमसे पूछेंगे – उसका समाधान हमारे पास है।

अभयता

अभयता का मतलब है – विश्वास। मानव ही मानव के लिए भय का स्वरूप है, तथा मानव ही मानव के लिए विश्वास का स्वरूप है। परस्परता में विश्वास सबको स्वीकार होता है – ऐसा मेरा स्वीकृति है। मैंने डाकुओं, अपराधियों, व्यभिचारियों से भी इस बारे में बात किया – वे भी विश्वास के प्रति ही सहमत होते हैं। साधू, संत, यति-सती, योग्य, बुद्धिमान लोग तो विश्वास के प्रति पहले से ही सहमत है। मानव-जाति के साथ संपर्क से मैंने ऐसा पाया।

अत्याधुनिक-विचार हो या अर्वाचीन विचार हो – उसमे नाश करने की प्रवृत्ति बनी हुई है। पहले ऐसे सोचा गया था – यदि आपके पास में पत्थर हो तो दूसरा आप पर अपनी चलाएगा नहीं। पत्थर चल गया तो फिर सोचा गया - जिसके आपके पास डंडा हो, दूसरा आप पर अपनी चलाएगा नहीं। दूसरे ने डंडा चला दिया, तो फिर बन्दूक आ गया। फिर तोप आया, मिसाइल आया। ये सब कहाँ अंत होगा? समाधान पूर्वक जीने से ही नाश की प्रवृत्ति का अंत होता है। हमारे जैसे समाधान सबको हो सकता है। इसीलिये शिक्षा से समाधान की बात किया।

हमारे अनुसार - हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक, और सत्य-वक्ता होता है। जबकि अत्याधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार बच्चे जन्म से ही कामुक होते हैं। हम आदमी हैं, जानवर हैं, या भूत-प्रेत हैं? हम क्या सीख रहे हैं, क्या कर रहे हैं, क्या बोल रहे हैं? यह एक-दूसरे के लिए भ्रम फ़ैलाने की बात है या नहीं? यह एक सोचने का मुद्दा है।

शिष्टता पूर्वक जीने के लिए शिक्षा है। समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व पूर्वक जीना ही शिष्टता है। समाधान समझदारी से आता है. समझदारी सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति को समझने से होती है. इन पाँच सूत्रों को समझाने के लिए ४ दर्शन, ३ वाद, ३ शास्त्रों, और संविधान को लिखा. यह कुल ३६०० पेज हैं। इससे ज्यादा मुझे कुछ लिखना नहीं है। यही शिक्षा/अध्ययन की वस्तु है। लोकव्यापीकरण होने पर जीने की जगह इन पाँच सूत्रों में ही है। उसका व्यवहार रूप बहुत विस्तार में है। अभी हम बहुत ज्यादा भाषा का प्रयोग करते हैं, थोडा समझा पाते हैं। लोकव्यापीकरण क्रम में आगे चल कर थोड़ी भाषा में ज्यादा समझाना बन जाएगा। ये भविष्य के लिए आशा है।

पूरा इसको लिखने के बाद मैंने यह निर्णय किया – जो इसको समझना चाहते हैं, उनके पास इसको जाना चाहिए। उससे समझने वालों को खोजना शुरू किया। धीरे-धीरे लोगों की इसमें स्वीकृति और प्रयासों से शिक्षा के इस स्वरूप पर हमारा विश्वास हुआ। अखंड-समाज होने के लिए इस शिक्षा का सारे विश्व में लोकव्यापीकरण होना होगा। एक गाँव में हर परिवार यदि समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता है तो यह व्यवस्था का एक प्रारूप बनता है। गाँव में ऐसे सबको बनाने का दायित्व अध्यापकों का है. हर गाँव में अध्यापक होंगे ही। हर गाँव में अध्यापक बच्चों को पढायेंगे, और बड़ों को समझायेंगे। यह ज़रूरत है या नहीं? गाँव में सभी समझदार होने पर ग्राम-स्वराज्य व्यवस्था की शुरुआत होती है। हर परिवार में इस तरह सभ्यता और संस्कृति का धारक-वाहकता होता है। और परिवार-सभा में विधि और व्यवस्था की धारक-वाहकता होती है। परिवार और परिवार-सभा में इस तरह पूरकता का अंतर-सम्बन्ध है। हर नर-नारी यदि समझदार होते हैं, तो परिवार में ही न्याय होता है। परिवार-सभा में श्रम-विनिमय के सामान्यीकरण की व्यवस्था होती है।

अकेले परिवार में ही आधा मानव-लक्ष्य (समाधान और समृद्धि) प्रमाणित हो जाता है। इसको आप वर सकते हैं, प्रयोग कर सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं। तुरंत प्रमाणित करने का क्षेत्र परिवार ही है. धीरे-धीरे प्रमाणित करने वाली जगह अखंड-समाज है। अखंड-समाज होता है तो सार्वभौम-व्यवस्था होती ही है। सर्व-देश में यदि समझदारी आती है तो सार्वभौम-व्यवस्था होती है। सार्वभौम-व्यवस्था होना ही अंतिम मंजिल है। इस ढंग से हम एक अच्छी बात के लिए तुल सकते हैं, अच्छी बात के लिए जोर लगा सकते हैं, अच्छी बात के लिए समर्पित हो सकते हैं, हम स्वयं को प्रमाणित कर सकते हैं।

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित