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Friday, October 12, 2012

एक संवाद



मानव कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता के चलते सच्चाई को तो चाहता ही है.  “सच्चाई” नाम तो पता है, साथ ही कहीं न कहीं सच्चाई का भास-आभास होना भी मानव के लिए सहज है.  इस आधार पर अध्ययन करने की प्रवृत्ति बनती है.

अध्ययन के लिए सूचना है – “सत्य है.  समाधान है.  न्याय है.”  यही तीन मुद्दे हैं अस्तित्व में.  इन प्रधान मुद्दों के आधार पर सारी सूचनाएं हैं. इन सूचनाओं से सत्य, समाधान और न्याय को लेकर भास-आभास होकर अनुमान बनता है. यहाँ प्रतिपादित कर रहे हैं – “सह-अस्तित्व ही परम सत्य है.”  सह-अस्तित्व होने के आधार पर मानव द्वारा उसके अध्ययन करने की संभावना बन गयी.

सह-अस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में है.  सत्ता स्थितिपूर्ण है. स्थितिपूर्ण सत्ता में स्थितिशील प्रकृति संपृक्त है.  पूर्णता के अर्थ में संपृक्त है.  भौतिक-रासायनिक वस्तुएं अपनी स्थिति में “एक” होती हैं.  चाहे परमाणु अंश हो, परमाणु हो, अणु हो, अणु रचित रचना हो, प्राणकोषा हो, प्राण सूत्र हो – ये सभी “एक” की संज्ञा में आते हैं.  प्रत्येक “एक” अपने वातावरण सहित “सम्पूर्ण” है. इसका प्रमाण है – त्व सहित व्यवस्था होना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना.  प्रत्येक एक अपनी स्थिति में सम्पूर्णता सहित ही होता है.  कार्य और कारण अविभाज्य है, और फल-परिणाम निश्चित है. 

पदार्थावस्था से ही प्राणावस्था प्रकट होता है, प्राणावस्था से ही जीवावस्था प्रकट होता है, जीवावस्था से ही ज्ञानावस्था प्रकट होता है. पदार्थावस्था में ही प्राणावस्था का भ्रूण तैयार हुआ.  प्राणावस्था में जीवावस्था का भ्रूण तैयार हुआ.  जीवावस्था में ज्ञानावस्था का भ्रूण तैयार हुआ.  पिछली स्थिति में अगली स्थिति के लिए जो तैयारी होती है, उसको हम “भ्रूण” कह रहे हैं.  मानव प्रकट होने के बाद उसने चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित स्वरूप में जीने के लिए प्रयास नहीं किया, उसके विपरीत चारों अवस्थाओं को अपने भोग की वस्तु मान लिया.  भोगने के लिए संघर्ष भावी हो गया.  इस तरह संघर्ष के चलते हम सत्य को समझने में असमर्थ रहे. 

इस प्रस्ताव के आधार पर पता चला, मानव के इस प्रकार संघर्ष करने का मूल कारण उसका जीव-चेतना में जीना रहा.  साथ ही यह पता चला – मानव चेतना में मानव भ्रम मुक्त हो सकता है, अपराध मुक्त हो सकता है, अपना-पराये की दीवारों से मुक्त हो सकता है.  इस तरह मानव जाति अच्छी तरह सब बातों को समझने की जगह में आ गए, जो एक सौभाग्य है. 

यह जो हम समझते जा रहे हैं, उसे न भौतिकवादी विधि से समझा जा सकता था, न ईश्वरवादी विधि से समझा जा सकता था.  व्यापक सत्ता में संपृक्त प्रकृति बताने से न भौतिक तत्व की अवहेलना हुई, न ईश्वरीय तत्व की अवहेलना हुई.  इस तरह इस प्रस्ताव के आधार पर भौतिकवादी जो भूल किये, उसका सुधार हो सकता है.  ईश्वरवादी जिस बात को भुलावा दे कर चले, उससे होने वाला अनर्थ भी सुधर सकता है.  ईश्वरवाद एकांत या भक्ति-विरक्ति के लिए उपदेश दिया.  अध्ययन नहीं करा पाए.  उपदेश का मतलब है – “हम जो कहते हैं, उसको सुनो और करो!”  दूसरे शब्दों में – “करके समझो!”  भौतिकवादी भी “करके समझो” वाली जगह में ही हैं.  सह-अस्तित्ववादी विधि से हम “समझ के करने” वाली जगह में आ सकते हैं. 

ईश्वरवादी विधि में “जीवन मुक्ति” को लेकर जो लिखा है, वह गलत सिद्ध हो गया है.  जीवन का समाप्ति होता नहीं है.  आत्मा के रूप में ईश्वर जीवन में बंधक नहीं है.  ईश्वर (व्यापक वस्तु) में संपृक्त होने के आधार पर ऊर्जा-सम्पन्नता है और ज्ञान-सम्पन्नता है.  इस समझ के आधार पर “भ्रम मुक्त” होने की बात है.  भ्रम मुक्त होने की पहचान है – अपराध मुक्ति और अपने-पराये से मुक्ति.  भ्रम मुक्ति ही “मोक्ष” है.  इस समझ के साथ हम न्याय पूर्वक जीने में संलग्न हो सकते हैं.  स्वयं स्फूर्त विधि से!  जब पदार्थावस्था स्वयं-स्फूर्त विधि से काम कर सकता है, तो मानव को स्वयं-स्फूर्त विधि से काम करने में क्या तकलीफ है?  तकलीफ का कारण खोजने जाते हैं तो पता चलता है – मानव अपराध में फंस गया है.  अपराध में फंसाया है – भौतिकवाद और आदर्शवाद ने. 

प्रश्न: “स्वयं-स्फूर्तता” को कैसे समझें?

उत्तर:  जैसे आपने मोबाइल का एक डिजाईन बनाया.  उसके बाद मोबाइल बनाने का दूसरा डिजाईन आप में से अपने-आप उभर आता है.  मनाकार को साकार करने के पक्ष में मानव ने स्वयं-स्फूर्तता को प्रमाणित किया है.  मनःस्वस्थता के पक्ष में स्वयं-स्फूर्तता को प्रमाणित नहीं कर पाया है, जिससे अपराध में फंस गया है.

प्रश्न: मनाकार को साकार करना क्या “अपराध” है?

उत्तर: नहीं!  मनाकार को साकार करना कोई अपराध नहीं है.  मनाकार को साकार करना मानव का स्वयंस्फूर्त वैभव है.  मनाकार को साकार करने पर प्राप्त वस्तुओं के साथ व्यापार करने में अपराध है.  दूसरे, मनाकार को साकार करने के लिए जो कच्चामाल प्राप्त करते हैं, उसको प्राप्त करने में अपराध प्रवृत्ति है. 

प्रश्न: मनः स्वस्थता क्या है?

उत्तर: समझदारी से समाधान होता है.  सर्वतोमुखी समाधान (अभ्युदय) ही मनः स्वस्थता का प्रमाण है.
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-  श्री ए. नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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