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Thursday, August 12, 2021

जीना मूल बात है



प्रश्न: मध्यस्थ दर्शन का आपका यह प्रस्ताव सुनने के बाद यह तो कहना नहीं बनता कि यह ठीक नहीं है, या हमको यह नहीं चाहिए.  थोड़ा और आगे चलने के बाद इसकी भाषा को बोलना भी हमसे बन जाता है.  फिर हममे यह बनता है कि जो मैं बोल रहा हूँ उसको मैं समझा हूँ या नहीं?  जो मैं बोल रहा हूँ, वैसा मैं जीता हूँ या नहीं?  यहाँ गाड़ी अटकी है!


उत्तर:  समझा हूँ और जीता हूँ - इस जगह में आना है.  जीता हूँ - तो वह ठोस हो गया!  केवल बोलता हूँ, पर जीता नहीं हूँ - तो वह खोखला हो गया!


प्रश्न: लेकिन बोलना भी आवश्यक था, क्योंकि बिना बोले यह बात आगे नहीं जाती.  न हम को सुनने को मिलती, न हमसे किसी को सुनने को मिलती.


उत्तर:  जीना मूल बात है.  कहने से भनक पड़ती है.  भनक पड़ते-पड़ते ही तो आज यहाँ तक पहुंचे हैं.  इससे लोगों में उत्साह जगा है, आशा जगा है - इसमें दो राय नहीं है.  कुछ लोगों में अध्ययन करने की प्रवृत्ति हुई है - यहाँ आ चुके हैं.  इसके बाद इस बात के लोकव्यापीकरण के लिए चेतना विकास, मूल्य शिक्षा और तकनीकी का संयुक्त सिलेबस बनाने की बात किये हैं.  वह एक ऐतिहासिक काम होगा.  इस तरह इस अनुसंधान की सूचना सब तक पहुंचेगी.  सभी भाषाओँ में यह सूचना पहुंचेगी.  इसमें इन्टरनेट और प्रचार माध्यमो का उपयोग भी होगा.  सूचना प्रसारण का यह सारा कार्यक्रम अनुसन्धान के स्त्रोत और परिभाषा विधि से सम्बद्ध रहेगा.   


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)


Tuesday, August 10, 2021

सच्ची बात



प्रश्न:  आप पूरी धरती पर सभी मानवों को समझदार बनाने की बात करते हैं, जबकि अभी अनुभव संपन्न व्यक्तियों की गिनती एक से आगे बढ़ी नहीं है.  इसको आप कैसे देखते हैं?


उत्तर:  इस तरह आपका कहना ज्यादती है.  एक से अधिक लोग अभी सत्यापित नहीं किये हैं - ऐसा रखो!  ज्यादा सम्मान इसी में है.  अनुभव को घोषित करने में अनुभव से ज्यादा हिम्मत की ज़रूरत होती है.  प्रमाणित करने के क्रम में ही अनुभव की घोषणा करने का हिम्मत बनता है.  उसी क्रम में सब चल ही रहे हैं.  पहले मेरी बात कोई सुनता नहीं रहा, फिर सुनने वाले बहुत लोग मिल गए, फिर सुनकर उत्साहित होने और सहमत होने वाले मिल गए.  जितना किया उसके आधार पर यहाँ तक पहुंचे.  इसके आगे का रास्ता खुला हुआ है.  उस पर चल कर पहुंचेंगे. 


प्रश्न: आपके दिखाए हुए इस रास्ते पर चलते हुए हमारे आपस में टकराहट न हो, इसके लिए क्या करें?


उत्तर: दूसरा जो कर रहा है, उसकी निंदा करने में मत जाओ.  दूसरा जितना अच्छा किया उसको appreciate करके उससे ज्यादा अच्छा यदि आप प्रस्तुत करते हो तो उससे आपको कौन रोकता है?  ठीक क्या है - वह रखो!  फिर  जरूरत पड़े तो कहना क्या ठीक नहीं है.  ठीक क्या है - वो रखने के बाद सब अपना मूल्यांकन कर ही लेते हैं.  अलग से क्या ठीक नहीं है, यह कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती.  कुल मिलाकर बात इतना ही है.  यही तर्क सम्मत और निष्पक्ष आवाज है.  इस तरह किसी के साथ मुठभेड़ वाला बात आता ही नहीं है.  


प्रश्न:  यह तो देखा है - जैसे ही हम अपने में किसी भी प्रकार का विरोध या शिकायत लाते हैं, हम अपना ही मार्ग अवरोध कर लेते हैं.


उत्तर: सच्ची बात है यह!  उपनिषद वाक्य है यह!


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

विश्लेषण पूर्वक मूल्यों की स्वीकृति


प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से सच्चाई का विश्लेषण नहीं हो पाता.  इस तरह जीव चेतना में बिना विश्लेषण किये संवेदनाओं की तृप्ति हेतु व्यक्ति दौड़ता है.  विश्लेषण पूर्वक ही हम मूल्यों को स्वीकारते हैं.  विश्लेषण के स्पष्ट अथवा सार रूप में मूल्य स्वीकृत होता है.  मूल्यों को स्वीकारने पर मानव चेतना होता है.  विश्लेषण पूर्वक मूल्यों का साक्षात्कार चित्त में होता है.  उसके बाद बोध और अनुभव में वह पूरा होता है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

भय और प्रलोभन पूर्वक सच्चाई का बोध नहीं होता


ब्रह्मवादी/आदर्शवादी सब कुछ भय और प्रलोभन के आधार पर ही बताये हैं.  जितने भी आदर्शवादी शास्त्र और कथाएँ मिलते हैं - वे सब भय और प्रलोभन के आधार पर हैं.  वे ये मान लिए हैं कि भय और प्रलोभन पूर्वक ही मानव को सच्चाई बोध होगा.  सच्चाई के प्रति प्रलोभन होगा और झूठ के प्रति भय होगा तो आदमी सच्चाई की तरफ जाएगा - ऐसा सोचकर सब बात किया है.  वह सफल नहीं हुआ.  इस तरह कोई भी सच्चाई को वो बोध नहीं करा पाए.  उससे इन्द्रिय सन्निकर्ष और विषयों की सीमा में जो होना था, वही हुआ.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Monday, August 9, 2021

विज्ञान के अराजक होने का कारण

 हर वस्तु अनंत कोण संपन्न है.

हर वस्तु प्रकाशमान है.

हर वस्तु दूसरे वस्तु को पहचानता है.


ये तीन बातें अभी विज्ञान में नहीं पढ़ाते हैं.  बुनियादी तौर पर विज्ञान के अराजक होने का कारण यह बना.


प्रकाशमानता एक दूसरे की पहचान का सूत्र है.  एक दूसरे को पहचानने की विधि की शुरुआत परमाणु अंश से हुई.  एक परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंश को पहचानता है, इसलिए परमाणु गठित होता है.  परमाणु गठित होने का प्रयोजन है - व्यवस्था को प्रमाणित करना.  परमाणु व्यवस्था का मूल स्वरूप है.  विज्ञान इसको बोध नहीं करा पाता.


अनेक (जड़) परमाणुओं से मिलकर मानव शरीर है.  जीवन अपने स्वरूप में एक परमाणु है ही.  इस तरह जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में व्यवस्था में जीने की बात अभी तक अध्ययन नहीं कर पाए.  व्यवस्था की अपेक्षा में ही एक परमाणु अंश से लेकर मानव तक अध्ययन हो पाता है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Wednesday, August 4, 2021

व्यक्ति में पूर्णता -क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता

 *व्यक्ति में पूर्णता -क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता* 


मानवीयता में क्रियापूर्णता रहता ही है.  अर्थात अनुभव सम्पन्नता (क्रिया पूर्णता) के उपरान्त समाधान पूर्वक जीना बनता ही है, न्याय पूर्वक जीना बनता ही है, नियंत्रण पूर्वक जीना बनता ही है, नियम पूर्वक जीना बनता ही है.  इसके बाद शेष रहता है - अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में जीना या "सत्य" स्वरूप में जीना.  सत्य को लेकर बताया - सहअस्तित्व ही परम सत्य है.  सहअस्तित्व सूत्र-व्याख्या में ही हम अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में जी पाते हैं.


अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था से सूत्रित न हो, ऐसे हम समाधान पूर्वक जी ही नहीं सकते.  हमारा सम्पूर्ण समाधान अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था से सूत्रित होगा और व्याख्यायित होगा.  यह बहुत महत्त्वपूर्ण है.


प्रश्न:  क्या आप ऐसा कह रहे हैं कि जब तक अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था नहीं हो जाता तब तक व्यक्ति समाधान पूर्वक जी ही नहीं पायेगा?


उत्तर: नहीं!  मैं कह रहा हूँ - व्यक्ति के समाधान पूर्वक जीने से वह अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र होगा, जिसकी व्याख्या होती रहेगी.  इस तरह वो multiply होगा.  हम समाधानित होने पर अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या में ही जीते हैं.  इसी लिए वह multiply होता है.  यही मानवीयता है.  मानवीयता पूर्वक जिए बिना multiply होने की बात ही नहीं है.  दूसरे को हम समाधान पूर्वक जीने योग्य बनाते हैं तब हमने जीने दिया.  इसके बिना हम जी ही नहीं सकते.  समझने के बाद प्रमाणित होने का विधि यही है.  


इस तरह एक व्यक्ति जागृत होता है तो वह अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था के लिए स्त्रोत बन जाता है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सत्संग, २००५)