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Saturday, September 30, 2017

समय. काल, वर्तमान



प्रश्न:  "समय" या "काल" वास्तव में क्या है?  एक तो हम घड़ी में जो टाइम देखते हैं उसको हम समय कहते हैं.  शास्त्रों में काल भगवान के बारे में लिखा है. इसकी वास्तविकता क्या है?

उत्तर:  काल को पहचानने की अभीप्सा मानव में रहा ही है.  काल सही मायनों में नित्य वर्तमान स्वरूपी अस्तित्व ही है.  क्रिया की अवधि में काल-खंड की पहचान है.  शास्त्रों में जो लिखा है "कालो जगत भक्षकः" - ऐसा कुछ नहीं है.

प्रश्न:  काल-खंड की पहचान मनुष्य द्वारा कैसे की गयी?

उत्तर:  मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए काल-खण्डों को पहचाना.  दूसरे ज्योतिषियों को काल-खंड को पहचानने की आवश्यकता निर्मित हुई.  ज्योतिषियों ने क्रिया की अवधि को 'काल' के रूप में पहचाना.  अर्ध-सूर्योदय से अर्ध-सूर्योदय तक धरती की (घूर्णन) क्रिया को उन्होंने 'एक दिन' नाम दिया.  'उदयात उदयम दिनम' - यह लिखा.  फिर एक दिन को २४ घंटों में भाग किया, एक घंटे को ६० मिनट भाग किया, एक मिनट को ६० सेकंड भाग किया, इस तरह ले गए.  किन्तु 'दिन' की परिकल्पना को उन्होंने बनाए रखा.

विज्ञान आने पर उन्होंने काल की परिकल्पना को धरती की क्रिया से अलग कर दिया.  काल-खंड का विभाजन करते चले गए, विखंडित करते करते कालखंड को इतना छोटा कर दिया कि वर्तमान है ही नहीं बता दिया.  काल को गणितीय संख्या मान लिया.  इस तरह गणितीय विधि से वर्तमान को शून्य कर दिया.  जबकि अस्तित्व वर्तमान ही है.

प्रश्न:  काल या वर्तमान का क्या स्वरूप है?

उत्तर:  काल को पहचानने के लिए वर्तमान को पहचानना होगा.  मात्रा और क्रिया के संयुक्त रूप में वर्तमान है.  वर्तने के मूल में मात्रा होता ही है.  वर्तना = स्थिति-गति.  हरेक मात्रा के साथ स्थिति-गति बनी रहती है.  चाहे इकाई का कितना भी परिवर्तन हो, परिणाम हो, विकास हो या ह्रास हो - इकाई की स्थिति-गति बनी ही रहती है.  यह वर्तमान का स्वरूप है.  निरंतर मात्रा सहित स्थिति-गति में होना ही वर्तमान है.  कोई ऐसा मात्रा नहीं है जो स्थिति-गति के रूप में वर्तमान न हो.

प्रश्न:  काल-खंड की गणना की तो व्यवहारिक उपयोगिता है.  गणितीय विधि से काल को पहचानने में क्या परेशानी है?

उत्तर: यदि हम काल का आधार दिन से दिन तक मानते हैं, तो उसका आधार धरती की घूर्णन क्रिया है जो निरंतर है.  उसके बाद दिन के खंड-खंड करते करते छोटे से छोटे टुकड़े तक पहुँच जाते हैं, क्रिया को भूल जाते हैं और गणित को पकड़ लेते हैं तो वह वस्तुविहीन काल हो जाता है, वर्तमान नहीं रह जाता है. वस्तु विहीन काल को ही हम कहते हैं -  वर्तमान को शून्य कर दिया. इस तरह गणित के अनुसार चलते हुए हम वस्तु विहीन जगह में पहुँच जाते हैं.  इस तरह गणित कोई बहुत भारी सत्य की गणना करता है - ऐसा मेरा नहीं कहना है.  गणित वस्तुओं की गणना करने के लिए उपयुक्त है.  वांछित काल की गणना करने के लिए गणित उपयुक्त है.  एक दिन, दो दिन, दस दिन, १०० वर्ष... इस तरह की गणना गणित कर सकता है.  काल की गणना गणित नहीं कर सकता.  काल की परिकल्पना मानव के पास है.

यदि हम काल की गणना करना भी चाहें तो भी क्रिया तो निरंतर रहता ही है.  जैसे - यह धरती ठोस है.  दूसरा धरती ठोस नहीं है.  कालान्तर में वह ठोस होता है.  ठोस होने पर भी वह वर्तमान की रेखा में ही होता है.  वर्तमान की रेखा को छोड़ करके वह ठोस हो जाए - ऐसा कोई तरीका नहीं है.  वर्तमान अभी भी है, कल भी है, उसके आगे भी है.  वर्तमान की निरंतरता है.  इसी तरह सारे परिणाम वर्तमान की रेखा में ही हैं.  अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है - इस आधार पर वर्तमान निरंतर है.

प्रश्न:  रासायनिक-भौतिक परिणितियां होने से हमको विगत और भविष्य का भास होता है, इस तरह हम भूतकाल और भविष्य काल को पहचानते हैं.  क्या रासायनिक-भौतिक परिणितियां होने से वर्तमान में कोई अंतर नहीं आता?

उत्तर:  क्रियाएं परिणित हो कर दूसरी क्रियाओं के रूप में ही होते हैं.  परिणिति से मात्रा का अभाव नहीं हो जाता.  जैसे - लोहा परिणित हो कर मिट्टी हो गया, तो मिट्टी का वर्तमान है ही.  मिट्टी परिणित हो कर पत्थर हो गया, तो पत्थर का वर्तमान है ही.  पत्थर परिणित हो कर मणि हो गया, तो मणि का वर्तमान है ही.  मणि परिणित हो कर धातु हो गया, तो धातु का वर्तमान है ही.  वर्तमान कभी भी समाप्त नहीं होता.

एक समय ठोस रूप में वर्तमान है, दुसरे समय विरल रूप में वर्तमान है - वर्तमान कहाँ पीछे छुटा?  वर्तमान कहाँ पीछे छूट सकता है?  वस्तु का तिरोभाव होता ही नहीं है.  भौतिक संसार और रासायनिक संसार में परिणितियां होती ही हैं.  ये दोनों परिणामवादी हैं ही.  इसी परिणामवादी भौतिक-रासायनिक संसार को ही जड़ प्रकृति कहते हैं.

परिणित होने के बाद भी वस्तु दुसरे स्वरूप में कार्य करता ही रहता है.  कार्य मुक्ति वस्तु का कभी होता ही नहीं है.  मात्रा का वर्तने का काम नित्य है - परिणित हो या यथास्थिति में हो.  कई वस्तुएं लम्बे समय तक यथास्थिति में रहते हैं, तो कई शीघ्र परिणाम को भी प्राप्त कर लेते हैं.  इसी क्रम में जीवन अपरिणामी हो जाता है.  जीवन के साथ परिणाम का सम्बन्ध छूट जाता है.  जीवन में गुणात्मक विकास होता है, जबकि भौतिक-रासायनिक संसार में मात्रात्मक विकास और ह्रास होता है.  भौतिक-रासायनिक संसार में विकास और ह्रास की गणना को ही 'परिणाम' कहते हैं.

परिणाम को यदि हम काल का आधार बनाने जाते हैं तो हम फंस जाते हैं.  काल का कोई निश्चित स्वरूप उससे नहीं बनता.

प्रश्न:  परिणाम से मुक्त वस्तु को क्या "काल" को पहचानने का आधार बनाया जा सकता है?

उत्तर: जीवन परिणाम से मुक्त है.  मानव जीवन ही काल को नित्य वर्तमान स्वरूप में अनुभव करता है.  जीवन के लिए तो कालखंड होता नहीं है.  शरीर चलाओ या न चलाओ, जीवन तो रहता ही है.  जीवन में परिणितियां होती ही नहीं हैं, उसमे काल का बाधा होता नहीं है.  काल की बाधा से मुक्त होने के साथ-साथ और भी बहुत सी बाधाओं से जीवन मुक्त है.  रासायनिक-भौतिक रचना (शरीर) की पुष्टि या असहयोग की बाधा से भी जीवन मुक्त है.  शरीर को छोड़ करके भी जीवन रहता ही है.  जीवन शरीर के साथ भी वैसे ही रहता है, शरीर के बाद भी वैसे ही रहता है.  इस आधार पर जीवन की निरंतरता है ही.  जीवन में गुणात्मक परिवर्तन (चेतना विकास) की बात हम प्रस्तुत किये.  जीवों में जीवन के कुछ गुण प्रमाणित हुए, मनुष्य में कुछ गुण अभी तक प्रमाणित हुए, इसके आगे और गुणों को प्रमाणित होने की आवश्यकता है - जिसे हम 'जागृति' नाम दे रहे हैं.  जीवन की यथास्थिति जागृति की हो तो उसकी निरंतरता सुखद होगी, सुंदर होगी, सौभाग्यमय होगी - यह हम अपने अनुभव और परिकल्पना में जोड़ कर चल रहे हैं.

इस तरह काल की सही व्याख्या वर्तमान ही है.  हर परिणाम की यथास्थिति वर्तमान की रेखा में ही है.  इस तरह वर्तमान की निरंतरता को हम अच्छी तरह से स्वीकार सकते हैं.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)


Thursday, September 28, 2017

इतिहास - मध्यस्थ दर्शन के दृष्टिकोण से



प्रश्न:  इतिहास के बारे में आपका क्या दृष्टिकोण है?  क्या इतिहास से हम कुछ सबक ले सकते हैं?  इतिहास का सही स्वरूप क्या है?

उत्तर:  अभी तक मानव परंपरा कैसा गुजरा, उसकी समीक्षा को स्मरण करने की विधि इतिहास है.  जो बीत चुका है उसको स्मरण में लाने की विधि इतिहास है.  इस इतिहास के अनेक आयाम हैं.  जैसे - आर्थिक विधा में हज़ार साल पहले मानव क्या समझा और किया?  राज्य को कैसे समझा?  हज़ार साल पहले किसको 'न्यायिक संविधान' समझा? उस समय अलंकार का क्या स्वरूप होता था?  कैसे नाचता रहा, गाता रहा, भाषा का प्रयोग करता रहा?

अभी इतिहास में केवल मार-काट किसने, कब और कैसे किया - यही याद करते हैं.  देवासुर संग्राम की कथाएँ तो शुरुआत से ही लिखी हैं.  वैदिक ऋचाओं में भी इनको बढ़िया से लिखा हुआ है.  किसने, कैसे, किसको मारा-काटा.  इससे हम क्या सीखें?  क्या समझें?  "मानव इतिहास" के लिए कोई प्रस्तुति यहाँ से मिलता नहीं है. 

मेरे अनुसार अभी तक "मानव" का इतिहास शुरू ही नहीं हुआ है.  सम्मानजनक भाषा प्रयोग करें तो यही कहना बनता है.  अमानवीयता के इतिहास को यदि आप मानव का इतिहास कहना चाहें तो हमको इसमें कोई तकलीफ नहीं है.  एक नारियल उसमे मैं भी चढ़ा दूंगा! 

मानवीयता का इतिहास इस धरती पर अभी तक शुरू नहीं हुआ है - यह तो बात सही है.  राक्षस मानव और पशु मानव के इतिहास को पढ़ करके कोई "मानव" तो होने वाला नहीं है.

अभी तक के घटना-क्रम से सार्थक यही है - उन्होंने मानव शरीर परंपरा को बनाए रखा.  अध्यात्मवाद ने हमको अच्छी भाषा/शब्दों को दिया, उसके लिए भी हम उनके कृतज्ञ हैं.  व्यापक कोई वस्तु होता है, यह सूचना दिया है.  देवी-देवता श्रेष्ठ होते हैं - यह सूचना दिया है.  तीसरे, मानव सदा से शुभ चाहते रहे - इसके लिए हम कृतज्ञ हैं.

प्रश्न:  तो क्या हम इतिहास को पढ़ाना बंद कर दें?

उत्तर:  नहीं, ऐसा कुछ नहीं कहा है मैंने.  हम पढ़ाएंगे - जंगल युग से पाषाण युग, पाषाण युग से धातु युग, धातु युग से कबीला युग, कबीला युग से ग्राम युग तक मानव किस बात को समझदारी (ज्ञान) मानता रहा?  उस समझदारी को आर्थिक आयाम में उसने कैसे प्रयोग किया?  मानव-मानव के बीच व्यवहार में कैसे प्रयोग किया?  जंगल-ज़मीन के साथ अपनी शक्तियों को कैसे उपयोग किया? और उसका परिणाम क्या निकला?  इसी के अंतर्गत राज्य, संस्कृति, कला, अलंकार आदि आ जाता है.  उसके बाद राज युग में क्या आश्वासन मिला, यह आश्वासन कितना सार्थक हुआ?  युद्ध और मार-काट को हम नहीं पढ़ायेंगे.  हम यह पढ़ाएंगे - जंगल युग से राज युग तक प्रगति की क्या कड़ियाँ बनी?  राक्षस मानव और पशु मानव के संघर्ष में मानव कैसा परेशान हुआ?  यहाँ से आज मानवीयता के इतिहास को शुरू करने तक कैसे आ गया?  यह हम पढ़ाएंगे.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

Monday, September 11, 2017

दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा संस्कार


तीसरे सोपान (ग्राम) में शिक्षा संस्कार

शिक्षा-संस्कार की मूल वस्तु अक्षर आरंभ से चलकर  सहअस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान सम्पन्न होने तक क्रमिक शिक्षा पद्धति रहेगी। हर गाँव में प्राथमिक शिक्षा का प्रावधान बना ही रहेगा। गाँव के हर नर-नारी समझदार होने के आधार पर स्वयं स्फूर्त विधि से प्राथमिक शिक्षा को सभी शिशुओ में अन्तस्थ करने का कार्य कोई भी कर पायेंगे। इस विधि से प्राथमिक शिक्षा के कार्य के लिए कोई अलग से वेतन या मानदेय की आवश्यकता नहीं रहती है। गाँव के हर नर-नारी शिक्षित करने का अधिकार सम्पन्न होगें।

दूसरे विधि से हर गाँव में प्राथमिक शिक्षा शाला के साथ हर अध्यापक के लिए एक निवास साथ में ग्राम शिल्प का एक कार्यशाला, हर अध्यापक के लिए 5-5 एकड़ की जमीन और 5-5 गाय की व्यवस्था रहेगी यह पूरे गाँव के संयोजन से सम्पन्न होगा। यह शाला, अभिभावक विद्याशाला के रूप में कार्यरत रहेगी। इस दोनो विधि से शिक्षा-संस्कार कार्य को पूरे गॉव में उज्जवल बनाने का कार्यक्रम सम्पन्न होगा। मानवीय शिक्षा मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्व वाद पर आधारित रहेगी। शिक्षा  सहअस्तित्व दर्शन जीवन ज्ञान के रूप में प्रतिपादित होगी। इस प्रकार हम एक अच्छी स्थिति को पायेंगे। जिससे सहअस्तित्ववादी मानसिकता बचपन से ही स्थापित होने की व्यवस्था रहेगी।
(अध्याय:7, पेज नंबर:113-114)

चौथे सोपान में शिक्षा संस्कार (ग्राम समूह परिवार सभा, ग्राम के लिए शिक्षा)

इसमें दस गाँव के लिए शिक्षा संस्था रहेगी। पहले की तरह से दो विधियों से इसे क्रियान्वयन करना बन जाता है। स्वायत्त परिवार में से विद्वान नर नारी को भागीदारी करने का अवसर बना रहेगा। इसमें सामर्थ्यता की पहचान है। पढ़ाई लिखाई रहेगी समझदारी भी रहेगी और प्रतिभा की छ: महिमाएँ प्रमाणित रहेगी। ऐसे कोई भी व्यक्ति के किये स्वयं स्फूर्त विधि से शिक्षा संस्था में उपकार के मानसिकता से कार्य करने के लिए अवसर रहेगा। दूसरे विधि से हर दस गाँव से अर्थात 1000-1000 परिवार के श्रम सहयोग से अथवा योगदान से अभिभावक विद्याशाला बनी रहेगी।
इस विद्या शाला में दस गाँव से विद्यार्थियों को पहँुचने के  गतिशील साधन को ग्राम समूह सभा बनाए रखेगा। इन साधनो का उपार्जन 1000 परिवार के योगदान से बना रहेगा। हर परिवार उपने श्रम नियोजन के फलस्वरूप उपार्जित किये (धन) गये में से प्रस्तुत किये गये अंशदान के फलस्वरूप विद्यालय सभी प्रकार से सम्पन्न हो पाता है। इसी ग्राम समूह परिवार से संचालित शिक्षा संस्थान में जो भागीदारी करते हैं यह अध्यापक, विद्वान, संस्कार कार्यों को, समारोहो को, उत्सवो को सम्पादित करने का कार्य करेंगे। जैसे जन्म उत्सव, नामकरण उत्सव, अक्षराभ्यास उत्सव, विवाह उत्सव आदि संस्कार कार्यो  को सम्पन्न करायेंगे। जहाँ स्वतंत्र उत्सव, मूल्यांकन उत्सव, कार्यक्रम उत्सव को ग्राम परिवार सभा, ग्राम समूह परिवार सभा संचालित करेंगे। हर उत्सव में विद्यार्थियों और अध्यापको के प्रेरणादायी वक्तव्यों को प्रस्तुत करायेंगे। प्रेरणा का आधार समझदार होने, समझदारी के अनुसार ईमानदारी, ईमानदारी के अनुसार जिम्मेदारी रहेगी। जिम्मेदारी के अनुसार भागीदारी रहेगी। इसी मंतव्य को व्यक्त करने के लिए साहित्य का प्रस्तुतिकरण रहेगा। स्वास्थ्य संयम प्रेरणादायी प्रस्तुतियाँ स्वागतीय रहेगी। शोध अनुसंधान का स्वागत और मूल्यांकन करता  रहेगा। (अध्याय:7, पेज नंबर:117-118)

पांचवे सोपान (ग्राम क्षेत्र) में शिक्षा संस्कार

इसकी भी प्रथम कड़ी शिक्षा-संस्कार कार्यक्रम है। इन शिक्षा संस्कार कार्यो में यथावत एक विद्यालय रहेगा। इसके पहले की सीढ़ी में जो प्रौद्योगिकी बनी रहती है उसके योगदान पर उत्तर माध्यमिक शालाएँ और स्नातक शालाएँ क्रम विधि से कार्य करेगी। क्रम विधि का तात्पर्य हर इन्सान चाहे नारी हो, नर हो समझदार होने के लिए कार्य करेगा। समझदारी का किसी उँचाई इस क्षेत्र परिवार सभा के अन्तर्गत प्रमाणित होना स्वाभाविक है। ऐसे प्रमाण के लिए तमाम व्यक्ति प्रशिक्षित रहेंगे। इसी कारणवश स्नातक पूर्व और स्नातक विद्यालय किसी क्षेत्र सभा के अन्तर्गत संचालित रहेंगे। जिसमें मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद की रोशनी में ज्ञान, विज्ञान, विवेक सम्पन्न विधि से हर विद्यार्थी की मानसिकता में स्थापित करने का कार्य होगा।. (अध्याय:7, पेज नंबर:119)

 छठवें सोपान (मंडल) में शिक्षा संस्कार

शिक्षा-संस्कार कार्य स्नातक व स्नातकोत्तर रूप में प्रभावित रहेगी।  स्नातकोत्तर शिक्षा-संस्कार में जीवन ज्ञान सहअस्तित्व दर्शन में पारंगत बनाने की व्यवस्था रहेगी। इसी के साथ साथ अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का सम्पूर्ण तकनीकी विज्ञान विवेक कर्माभ्यास सम्पन्न कराना बना रहता है। ऐसी संस्था में कार्यरत सारे अध्यापक संस्कार कार्यो के लिए जहाँ-जहाँ जरूरत पड़े वहाँ-वहाँ पहुँचेगे और कार्य सम्पन्न कराने के दायी रहेंगे। उत्सव सभा मूल्याँकन प्रक्रिया सब ग्राम सभा सम्पन्न करेगी।
(अध्याय:7, पेज नंबर:120)

सातवें सोपान (मंडल समूह) में शिक्षा संस्कार

सभी प्रकार के कार्यकलापो को तथा पांचों कड़ियो के कार्यक्रमों को इस सातवीं सोपान में प्रमाणित करने का दायित्व रहेगा इसमें सम्पूर्ण मानव प्रयोजनो को स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया जाना कार्यक्रम रहेगा।

ऐसे मानव अधिकार परिवार सभा से ही प्रमाणरूप में वैभवित होते हुए शनै: शनै: पुष्ट होते हुए मंडल समूह परिवार सभा में मानव अधिकार का सम्पूर्ण वैभव स्पष्ट होने की व्यवस्था रहेगी। समान्यत: मानव अर्थात समझदार मानव शनै: शनै: दायित्व के साथ अपनी अर्हता की विशालता को प्रमाणित करता ही जाता है। अपनी पहचान का आधार होना हर व्यक्ति  पहचाने ही रहता है। समूचे अनुबंध समझदारी से व्यवस्था तक को प्रमाणित करने तक जुड़ा ही रहता है। प्रबंधन इन्हीं तथ्यो में, से, के लिए होना स्वाभाविक है। समझदारी में परिपक्व व्यक्तियों का समावेश मंडल समूह सभा में होना स्वाभाविक है। ऐसे देव मानव दिव्य मानवता को प्रमाणित करते हुए दृढ़ता सम्पन्न विधि से शिक्षा विधा में शिक्षा-संस्कार कार्य को सम्पादित करते है।

शिक्षा-संस्कार एक प्रथम कड़ी है इसमें अति सूक्ष्मतम अध्ययन, शोध प्रबंधो को तैयार करने की व्यवस्था रहेगी। शोध प्रबंधो का मूल उद्देश्य मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था को और मधुरिम सुलभ करना ही रहेगा। इसके लिए सारी सुविधाएँ जुटाने का कार्यक्रम मंडल समूह सभा बनाये रखेगा। इसका प्रबंधन मंडल सभा के जितने भी प्रौद्योगीकी रहेगी उसकी समृद्घि के आधार पर व्यवस्थित रहेगा। ऐसी व्यवस्था के तहत में और विशाल विशालतम रूप में व्यवस्था सूत्रोंं को सुगम बनाने का उपाय सदा-सदा शोध विधि से व्यवस्थापन रहेगा। ऐसे शोध कार्यो के लिए सामग्री में सातो सीढ़ियों की गतिविधियाँ रहेगी  इस प्रकार शोध प्रबंधन का स्रोत बनी रहेगी। ऐसे शोध प्रबंधन स्वाभाविक रूप में दसो सीढ़ी और पाँचों कड़ियो की समग्रता के साथ नजरिया बना रहेगा। इस विधि से मंडल समूह सभा की प्रथम कड़ी का लोक उपकारी और मानव उपकारी होने के रूप में प्रमाणित रहेगी।(अध्याय:7, पेज नंबर:121-122)

आठवें सोपान (मुख्य राज्य) में शिक्षा संस्कार

आठवीं सोपान में मुख्य राज्य सभा होगी। जिसके लिए मंडल समूह सभा से एक एक निर्वाचित सदस्य रहेंगे। जिनके आधार पर समूचे कार्यकलाप सम्पन्न होगे। जिसमें पहली कड़ी शिक्षा-संस्कार कार्य की गतिविधियों में सर्वोत्कृष्ट समाज गति, सर्वोत्कृष्ट उत्पादन कार्य, सर्वोत्कृष्ट न्याय-सुरक्षा कार्य, सर्वोत्कृष्ट उत्पादन कार्य, सर्वोत्कृष्ट विनिमय कार्य गति और सर्वोत्कृष्ट स्वास्थ्य-संयम का शोध संयुक्त रूप में होता रहेगा। ये सभी सोपानीय परिवार सभाओं के लिए प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत होती रहेगी। इस विधि से अपनी गरिमा सम्पन्न शिक्षण कार्य, कर्माभ्यास पूर्ण कार्यक्रम को सम्पन्न करता रहेगा।(अध्याय:7, पेज नंबर:123-124)

नवें सोपान (प्रधान राज्य) में शिक्षा संस्कार

इस सभा की पहली कड़ी शिक्षा-संस्कार ही रहेगी। प्रधान राज्य परिवार सभा से संचालित शिक्षा समूचे दसो मुख्य राज्यों की संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था की सार्थकता और समग्र व्यवस्था की सार्थकता के आँकलन पर आधारित श्रेष्ठता और श्रेष्ठता के लिए अनुसंधान, शोध, शिक्षण, प्रशिक्षण, कर्माभ्यासपूर्वक रहेगी। प्रौद्योगिकी विधा का कर्माभ्यास प्रधान रहेगा। व्यवहार अभ्यास प्रक्रिया में प्रमाणीकरण प्रधान रहेगा। इस प्रकार यह उन सभी जनप्रतिनिधियो के लिए प्रेरणादायी शिक्षा व्यवस्था रहेगी और लोकव्यापीकरण करने के नजरिये से चित्रित करने की प्रवृत्ति रहेगी। इसी मानवीय शिक्षा कार्यक्रम में साहित्य कला की श्रेष्ठता के संबंध में प्रयोजन के अर्थ में मूल्यांकन  रहेगी। श्रेष्ठता प्रबंध, निबंध, कला प्रदर्शन, साहित्य, मूर्ति कला, चित्रकलाओं के आधार पर मूल्यांकन और सम्मान करने की व्यवस्था रहेगी। (अध्याय:, पेज नंबर:124-125)

दसवें सोपान (मुख्य राज्य) में शिक्षा संस्कार


इस सभा की पहली कड़ी शिक्षा संस्कार कार्य रहेगी। शिक्षा संस्कार कार्य में प्राकृतिक संतुलन, (उद्योंग वन व खनिज) जीव संतुलन, मानव न्याय संतुलन का कार्य सम्पादित होगा। साथ में जलवायु संतुलन, ऋतु संतुलन, धरती का संतुलन, वन खनिज का संतुलन सम्बंधी अध्ययन करने की व्यवस्था रहेगी। ऐसे अध्ययन के लिए किसी भी सोपानीय सभा के सीमा में किसी भी व्यक्ति को भेज सकते हैं विद्वान बना सकते हैं और लोकव्यापीकरण के लिए प्रावधानित कर सकते है। (अध्याय:7, पेज नंबर:126)

स्त्रोत:  व्यवहारात्मक जनवाद (अध्याय:7, संस्करण:2009, मुद्रण- 2017)

Friday, September 8, 2017

अहंकार, प्रत्यावर्तन, आत्म-बोध


  • असत्य बोध जब तक है, तब तक ही बुद्धि की अहंकार संज्ञा है.  अहंकार का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। [पेज ५७]
  • अहंकार और असत्य बोध ये दोनों सत्यता के प्रति अनर्हता के द्योतक हैं.  [पेज ५७]
  • सत्य बोध अध्ययन की अंतिम उपलब्धि है तथा अनुभव का स्वभाव है.  [पेज ५७]
  • स्थूल शरीर और मन के बीच आशा, मन और वृत्ति के मध्य में विचार, वृत्ति और चित्त के बीच में इच्छा, चित्त व बुद्धि के मध्य में संकल्प तथा बुद्धि और आत्मा के मध्य में संकल्प के अस्तित्व की अपेक्षा रहती ही है तथा यह परावर्तन क्रिया है.  [पेज १८२]
  • स्थूल शरीर द्वारा आस्वादन और चयन के लिए मन में आशा, मन की इस आशा के समर्थन के लिए वृत्ति में विचार, वृत्ति के ऐसे विचार के समर्थन के लिए चित्त में इच्छा, चित्त की ऐसी इच्छा के समर्थन के लिए बुद्धि में संकल्प,तथा बुद्धि में ऐसे संकल्प के लिए आत्मा के समर्थन की कामना बनी ही रहती है.   [पेज १८२]
  • इस परस्परता में विषमता बनी ही रहती है.  कारण -  शरीर से मन, मन से वृत्ति, वृत्ति से चित्त, चित्त से बुद्धि, तथा बुद्धि से आत्मा विकसित इकाई सिद्ध है.
    • मन के अनुरूप ही स्थूल शरीर का संचालन है.  जिससे इनके बीच में आशा बनी ही रहती है.  वृत्ति अपने अनुसार मन और शरीर का उपयोग चाहती है.  इसी क्रम से वृत्ति, चित्त, बुद्धि तथा आत्मा में विषमता बनी ही रहती है.  यह विषमता ही श्रम की अनुभूति और विश्राम की तृषा के लिए कारण सिद्ध होती है.  [पेज १८३]
  •  निश्चयात्मक निरंतरता ही संकल्प है.  निश्चय सहित चित्रण ही योजना है तथा योजना सहित विचार ही अभिव्यक्ति है.  [पेज १८९]
  • पूर्वानुषन्गिक संकेत ग्रहण योग्यता का प्रादुर्भाव शक्ति की अंतर्नियामन प्रक्रिया से ही है.  यह व्यवहार का विचार में, विचार का इच्छा में, इच्छा का संकल्प में, संकल्प का आत्मा में अथवा मध्यस्थ क्रिया में प्रत्यावर्तन ही है.  [पेज १८९]
  • मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि की एकसूत्रता से (परानुक्रमता से) न्यायपूर्ण व्यवहार एवं धर्मपूर्ण विचार के लिए सत्य भासित होता है.  ऐसी स्थिति में 'अल्प बोध' होता है, जिसका विकल्प (बदलना) ही स्वभाव है.  इसी की अहंकार संज्ञा है.  [पेज १८९]
  • बुद्धि जब आत्मा का संकेत ग्रहण करने योग्य विकास को पाती है तब 'स्व बोध' होता है - जिसे 'आत्म-बोध' भी कहते हैं.  आत्म-बोध से सत्य संकल्प होता है.  सत्य संकल्प मात्र सत्य पूर्ण ही है.  [पेज १८९]
  • ज्ञानावस्था में बुद्धि तीन अवस्थाओं में परिलक्षित होती है: -
    1. अल्प-विकसित: - मन में इच्छा पूर्वक विचार व आशावादी प्रवृत्ति हो तो उसे अल्प-विकसित की संज्ञा दी जाती है.  इस दशा में मन और वृत्ति चित्त-तंत्रित होते हैं.
    2. अर्ध-विकसित: - आत्म-बोध रहित संकल्प पूर्वक इच्छा, विचार व आशा की प्रवृत्ति को अर्ध-विकसित की संज्ञा है.  इस दशा में मन, वृत्ति व चित्त बुद्धि-तंत्रित होते हैं.
    3. पूर्ण-विकसित: - आत्म-बोध सहित संकल्प पूर्वक इच्छा, विचार व आशा प्रवृत्ति को पूर्ण-विकसित की संज्ञा है.  इस दशा में मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि आत्मा द्वारा नियंत्रित व अनुशासित होते हैं.  [पेज १८४-१८५]
  • केवल वृत्ति और मन के संयोग की स्थिति में मनुष्य में निद्रा एवं स्वप्न का कार्य ही संपादित होता है. [पेज १८५]
  • आत्म-बोध पर्यंत मनुष्य के द्वारा जागृत, स्वप्न एवं सुषुप्ति अवस्था में कायिक, वाचिक तथा मानसिक साधनों से समस्त क्रियाकलाप के मूल में अहंकार ही है.  [पेज १८५]
  • असत्य बोध सहित जो बुद्धि है, उसे 'अहंकार' की संज्ञा है.  आत्म-बोध होने तक अहंकार का अभाव नहीं है. [पेज १८५]
  • अपराध के अभाव में आशा का प्रत्यावर्तन, अन्याय के अभाव में विचार का प्रत्यावर्तन, आसक्ति के अभाव में इच्छा का प्रत्यावर्तन, तथा अज्ञान के अभाव में संकल्प का प्रत्यावर्तन होता है.  
    • अतः अपराधहीन व्यवहार के लिए व्यवस्था का दबाव, अन्यायहीन विचार के लिए सामाजिक आचरण का दबाव, तथा अज्ञान रहित बुद्धि के लिए अंतर्नियामन अथवा ध्यान का दबाव आवश्यक है, जिससे ही प्रत्यावर्तन क्रिया सफल है अन्यथा असफल है.
    • अतः निष्कर्ष निकलता है कि मानवीयता पूर्ण व्यवस्था, सामाजिक आचरण, अध्ययन और संस्कार के साथ ही अंतर्नियामन आवश्यक है, जिससे चरम विकास की उपलब्धि संभव है.  [पेज १८९]
  • बौद्धिक पक्ष में मन, वृत्ति, चित्त तथा बुद्धि की क्रियाएं हैं.  मन, वृत्ति, चित्त तथा बुद्धि मनुष्य के प्रत्येक क्रियाकलाप के साथ हैं ही, फिर भी मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि द्वारा आशित कामना की पूर्ति देखने में नहीं आती.  अर्थात मन द्वारा सुख की, वृत्ति द्वारा शांति की, चित्त द्वारा संतोष की, और बुद्धि द्वारा आनंद की अनुभूति की सतत आशा है, फिर भी यह पूर्ण नहीं होती।  मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि की आशित कामना की अपूर्ति ही 'रहस्य' के रूप में प्रकट होती है, जो कि दुःख का कारण बनती है.  [पेज १९०-१९१]
  • इस रहस्य के मूल में अहंकार है.
    • बोध के अभाव में बुद्धि द्वारा लिए गए संकल्प में अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोष का रहना अनिवार्य है.  फलतः काल्पनिक आरोप संकल्प में होगा ही.  संकल्प में यह काल्पनिक आरोप जो होता है, उसी की 'अहंकार' संज्ञा है.  [पेज १९१]
  • आत्म-बोध ही आध्यात्मिक उपलब्धि है.
    • अंतर्नियामन प्रक्रिया द्वारा ही आत्म-बोध होता है, जो ध्यान की चरम उपलब्धि है.  यह ही पूर्ण विकास है.  ऐसे आत्म-बोध से पूर्ण विकसित इकाई को पूर्ण चैतन्य की संज्ञा है तथा इन्हें ही देवता की भी संज्ञा है.  [पेज १९१]
  • आत्मा की ओर बुद्धि का प्रत्यावर्तन होते ही आत्म-बोध तथा ब्रह्मानुभूति (व्यापक सत्ता की अनुभूति) एक साथ प्रभावशील होती है.  प्रभावित हो जाना ही उपलब्धि है.  ऐसी उपलब्धि बुद्धि को आप्लावित किये रखती है.  [पेज १९२]
  • स्व-स्वरूप (आत्मा या मध्यस्थ क्रिया) मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि से अधिक विकसित है.  फलस्वरूप ही आत्मा के प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित होने तक बुद्धि में आनंदानुभूति, चित्त में संतोषानुभूति, वृत्ति में शांति की अनुभूति तथा मन में सुखानुभूति नहीं है.  [पेज १९५]
  • बुद्धि एवं आत्मा के बीच में आत्मा का ही वातावरण पाया जाता है क्योंकि आत्मा मध्यस्थ है.  यह वातावरण दबावपूर्ण और प्रभावपूर्ण दोनों रहता है.  आत्मविमुख बुद्धि आत्माकृत वातावरण के दबाव में अनानंद तथा आत्माभिमुख बुद्धि आत्मकृत वातावरण के प्रभाव में आनंद की अनुभूति करती है.  [पेज १९८]
  • मन में आवेश, वृत्ति में हठ, चित्त में भ्रम तथा बुद्धि में अहंकार ही परावर्तन क्रिया है.  और मन में मित्र-आशा, वृत्ति में विचार, चित्त में इच्छा, और बुद्धि में संकल्प ही प्रत्यावर्तन क्रिया है.  [पेज १९८]
  • स्वशक्ति से दूसरे पर प्रभाव डालना परावर्तन है और ग्राहकता द्वारा वातावरण को प्रभावशील बनाना प्रत्यावर्तन क्रिया है.  [पेज १९८]
  • परावर्तन क्रिया में आत्म-सत्ता का बुद्धि में, बुद्धि सत्ता का चित्त में, चित्त सत्ता का वृत्ति में, तथा वृत्ति सत्ता का मन में पूर्णतया अवगाहन करने का प्रयास है.  चूँकि मन से वृत्ति, वृत्ति से चित्त, चित्त से बुद्धि, बुद्धि से आत्मा विकसित है, अतः भ्रम पर्यंत पूर्ण अवगाहन नहीं हो पाता, जो परावर्तन क्रम अनुसार अनानंद, असंतोष, अशांति और दुःख का कारण बनता है. [पेज १९९]
  • आत्मा मध्यस्थ क्रिया होने के कारण प्रभाव ही रहता है क्योंकि दबाव सम-विषम के मध्य में ही है.  प्रभाव मध्यस्थ होने के कारण शून्य है.  शून्य मात्र प्रभाव ही है.  दबाव केवल क्रिया में है.  [पेज १९९]
  • व्यापकता की अनुभूति आत्मा करती है तभी बुद्धि का प्रत्यावर्तन संभव होता है.  [पेज २१०]
  • प्रत्यावर्तन ही विकास का कारण है. [पेज २१०]
- मानव व्यवहार दर्शन (१९७८ संस्करण से)


  • स्वस्वरूप (आत्मा) स्वयं ही ज्ञाता है क्योंकि उसे अनवरत साम्य शक्ति अनवरत व्यवधान के रूप में प्राप्त है, इसीलिये उसके बोध मात्र से ही सम्पूर्ण संसार के सर्वस्व को समझने की क्षमता, योग्यता, पात्रता बुद्धि को स्वभावतः उत्पन्न होती है.  [ पेज ७३, मानव व्यव्हार दर्शन १९७२ संस्करण]

  • आत्मबोध ही सत्य जिज्ञासा का प्रधान लक्षण है.  इसलिए - अवधारणा ही अनुगमन तथा अनुशीलन के लिए प्रवृत्ति है, जो शिष्टता के रूप में प्रत्यक्ष होती है.  प्रगति के लिए अवधारणा अनिवार्य है.  जागृति के लिए अवधारणा एवं ह्रास के लिए आसक्ति प्रसिद्द है.  यही क्रम से निवृत्ति व प्रवृत्ति है.  अवधारणा ही सदविवेक है.  सदविवेक स्वयं में सत्यता की विवेचना है जो स्पष्ट है.  मूलतः यही शुभ एवं मांगल्य है.  अनुभव की अवधारणा सत्य बोध के रूप में; अवधारणा (सम्यक बोध) ही सत्य-संकल्प है.  यही परावर्तित हो कर शुभकर्म, उपासना, तथा आचरण के रूप में प्रत्यक्ष है.  इसी का परावर्तित मूल्य ही धीरता, वीरता, उदारता, दया,   कृपा और करुणा के रूप में प्रत्यक्ष है. [ पेज ७१, मानव कर्म  दर्शन, २००४  संस्करण]

Wednesday, September 6, 2017

श्रम-गति-परिणाम




सत्ता मूल ताकत है.  जो सभी वस्तुओं में पारगामी है.  सत्ता में भीगे होने के आधार पर हर वस्तु बल संपन्न है और कार्यशील होने के लिए प्रवृत्त है.  कार्यशील होने के लिए वस्तु में आकर्षण और प्रत्याकर्षण का योग होना आवश्यक है.

परमाणु में क्रिया का मतलब ही श्रम-गति-परिणाम है.  श्रम-गति-परिणाम पूर्वक प्रत्येक परमाणु में आकर्षण-प्रत्याकर्षण के योगफल में उत्सव होता ही रहता है.  हर इकाई के अंग-अवयवों के बीच ऐसा आकर्षण-प्रत्याकर्षण होता ही रहता है.  जैसे - आपके शरीर में आँख के साथ हाथ, हाथ के साथ पाँव - इनके बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण पूर्वक ही उनकी कार्य गति है.  जबकि आपका शरीर एक ही है.  उसी तरह परमाणु एक ही है, पर उसमें श्रम, गति और परिणाम - ये तीनो उसकी क्रिया की व्याख़्या करते हैं.  श्रम और गति के बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण होने पर कार्य-गति का स्वरूप (परिणाम) बनता है.  गति और परिणाम के बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण होने से कार्य-गति का स्वरूप (श्रम) बनता है.  श्रम और परिणाम के बीच आकर्षण-प्रत्याकर्षण होने से कार्य-गति का स्वरूप (गति) बनता है.  क्रिया नित्य अभिव्यक्ति है, नित्य प्रकाशमान है - यह कहीं रुकता ही नहीं है.  इसकी रुकी हुई जगह को कहीं/कभी पहचाना नहीं जा सकता।  यह निरंतर है.  परस्परता में ही गति की बात है.  परस्परता नहीं तो गति की कोई बात ही नहीं हो सकती।  विकासशील परमाणुओं में कम से कम दो अंशों का गठन है, जिनमे आकर्षण-प्रत्याकर्षण और उसके फलन में कम्पनात्मक गति और वर्तुलात्मक गति बना ही रहता है.  कम्पनात्मक गति और वर्तुलात्मक गति परमाणु की कार्यशीलता का ही स्वरूप है.  हर परमाणु कार्यरत है - ऊर्जा सम्पन्नता वश, बल सम्पन्नता वश, चुम्बकीय बल सम्पन्नता वश.  परमाणु में क्रियाशीलता के लिए स्वयं में ही प्रेरणा-विधि और कार्य-विधि बनी है.   जड़ परमाणुओं में श्रमशीलता भी है, गतिशीलता भी है, परिणामशीलता भी है.  ये तीनो - श्रमशीलता, गतिशीलता, परिणामशीलता - एक दूसरे के लिए प्रेरक हैं.

मात्रा (इकाई) की पहचान क्रिया सहित ही है.  क्रिया के बिना मात्रा की पहचान नहीं है.  कुछ भी निष्क्रिय मात्रा आप नहीं पाओगे.  क्रिया का व्याख्या जड़ संसार में श्रम-गति-परिणाम है.  चैतन्य संसार में भ्रम और जागृति स्वरूप में क्रिया है.  श्रम, गति, परिणाम स्वरूप में जड़-क्रिया और भ्रम-जागृति स्वरूप में चैतन्य क्रिया है.  और कुछ होता नहीं।  इस अनंत संसार की सम्पूर्ण क्रिया मूलतः इतना ही है.

क्रिया ऊर्जा-सम्पन्नता वश है.  सत्ता ऊर्जा है.  सत्ता पारगामी है.  सत्ता को अवरोध करने वाली एक भी वस्तु नहीं है.  पहले इस सत्य को अपनी अवधारणा में लाओ.  क्रिया एक-एक इकाइयों के रूप में है.  एक-एक होने से आशय है, उसके सभी ओर सत्ता है.  प्रत्येक एक के सभी ओर सत्ता का होना ही 'सीमा' है.  हरेक एक सीमित रूप में रचित है.  इकाई के सभी ओर  सत्ता का होना ही उस इकाई की नियंत्रण रेखा है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आंवरी आश्रम, सितम्बर १९९९)