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Sunday, November 21, 2021

समझदार होने के प्रति ईमानदारी


 


समझदारी के प्रस्ताव को समझ के फिर जाँचना होता है.  बिना समझे जाँचने का कोई मतलब नहीं निकलता.  विगत की विचारधाराओं को जांचने से कुछ निकलेगा नहीं.  किसी भी विधा से दौड़ के आओ उनसे अपराध ही निकलना है.  राज्य विधा से अपराध, धर्म विधा से विरोध, शिक्षा विधा से अपराध, व्यापार विधा से अपराध ही निकलता है.  अपराधिक शिक्षा, अपराधिक राज्य, अपराधिक व्यापार, अपराधिक धर्म, अपराधिक व्यवस्था - इतना ही है.  आदमी के अभी अपराध से बचने का जगह कहाँ है, आप बताओ?  इतना सब होने के बावजूद, इन सबसे छूट के समझदारी पूर्वक जीने का एक प्रस्ताव है.  समाधानित व्यक्ति, समाधान-समृद्धि संपन्न परिवार, समाधान समृद्धि अभय संपन्न समाज, समाधान समृद्धि अभय सहअस्तित्व प्रमाण परम्परा स्वरूपी व्यवस्था.  सुधरा हुआ का स्वरूप इतना ही है. आपकी जरूरत होगी तो इसको समझना आपकी झकमारी है.  इसमें किसी दूसरे का कोई दोष नहीं है.


 इससे अधिक की चाहत मानव के पास नहीं है.  यह चाहिए या नहीं, आप देख लो!  इसके अलावा जो अपराधिक चाहतें हैं, मानव में - उनका प्रभाव समझदारी के आगे पहले ही निरस्त हो जाता है.  जैसे अँधेरी खोली में दिया जलाने से तत्काल प्रकाश हो जाता है, यह उसी प्रकार है.  करोड़ों वर्षों से अन्धकार से भरी खोली क्यों न हो, एक माचिस की तीली से सारा अन्धकार ख़तम!  मानव समझदार होने के प्रति कितना ईमानदारी से संलग्न हो सकता है, उतना ही इसमें देरी है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Thursday, November 18, 2021

समझदारी या मजामारी

अब दो ही रास्ते हैं आदमी के पास - समझदारी या मजामारी.  मजामारी में सभी अपराध वैध हैं.  समझदारी में वैध बात अलग है, अवैध बात अलग है.  जैसे - गुड़ और गोबर.  गुड़ एक अलग चीज़ है, गोबर एक अलग चीज़ है.  इसमें मानव के मन पर एक प्रहार भी है, एक सुझाव भी है.  विगत से जुड़ी हुई सूत्रों पर प्रहार है, भविष्य में सुधरने के लिए प्रस्ताव है.  जैसा बने,वैसा करो अब!  

प्रश्न: आप हर समय यह भ्रम और जाग्रति का विश्लेषण क्यों करते हैं?

उत्तर: अभी संक्रमित होने के लिए, परिवर्तित होने के लिए इस विश्लेषण को करने की आवश्यकता है.  जैसे - लाभ समझ में आने के लिए हानि समझ में आना भी आवश्यक है.  हानि किसमें है यह स्पष्ट किये बिना आप लाभ को बता ही नहीं सकते.

इस तरह भ्रम और जाग्रति का नीर-क्षीर विश्लेषण किया.  अब सर्वेक्षण में आया कि हर मानव जाग्रति को चाहता है.  लेकिन अभी मानव जहाँ है, उसको अपने मन की जाग्रति चाहिए!  वो होता नहीं है.  इसीलिये जीव-चेतना और मानव-चेतना के बीच की लक्ष्मण-रेखा को स्पष्ट कर दिया.  मानव चेतना में मानव समझदारी से जीता है.  जीव चेतना में सकल अपराध को समझदारी मानता है.  भ्रमित मानव में जागृत होने की अपेक्षा है, उस अपेक्षा को पूरा करने के लिए तमीज चाहिए.  उस तमीज के लिए यह प्रस्ताव है.  यह पर्याप्त है या नहीं उसको पहले जांचो, उसके बाद बात करो!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Wednesday, November 17, 2021

सहअस्तित्व सूत्र अविभाज्यता ही है



प्रत्येक एक की परस्परता में जो खाली स्थली है - वही व्यापक वस्तु है.  दो आदमी के बीच, दो झाड के बीच, दो जानवर के बीच, दो फलों के बीच, दो परमाणुओं के बीच - हर परस्परता में दूरियाँ बनी रहती है.  जैसे - हमारी आँख, कान, नाक इनके बीच भी दूरियाँ बनी रहती हैं.  जैसे - हमारी आँख, कान, नाक के बीच भी दूरियाँ बनी रहती हैं, सम्बन्ध बना रहता है.  हमारा आँख अलग दिखता है, हाथ अलग दिखता है, मूंह अलग दिखता है - किन्तु इन सभी में सम्बन्ध बना रहता है.  जैसे - एक शरीर के सभी अंग-अवयवों में सम्बन्ध है, वैसे ही एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति में सम्बन्ध है.  सम्बन्ध में निश्चित दूरियाँ हैं ही.  यह दूरी स्वयं में सत्ता है.  इससे डूबे रहने, घिरे रहने का स्वरूप स्पष्ट होता है.  


अब सत्ता में भीगे रहने को समझने की बात है.  इसके लिए बताया - सत्ता में भीगे रहने से जड़ प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है, चैतन्य प्रकृति चेतना संपन्न और ज्ञान संपन्न है.  जड़ भीगा रहता है - इसलिए ऊर्जा.  चैतन्य भीगा रहता है - इसलिए चेतना.  इस ढंग से व्यापक वस्तु में एक-एक वस्तु अविभाज्य होना पता चलता है.  अविभाज्यता स्वयं में सहअस्तित्व का सूत्र है.  सहअस्तित्व सूत्र अविभाज्यता ही है.  


इस तरह सम्पूर्ण के साथ हमारा सम्बन्ध भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ हमारा ज्ञान भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ कर्तव्य भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक जीना भी पता चलता है, सम्पूर्ण के साथ समाधानित होना बनता है, सम्पूर्ण के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित करना बनता है.  यह कुल मिला कर चेतना और ज्ञान का मतलब है.  


यह सब बातों को समझ के, आदमी स्वयम में विचार करके जैसे जीना है, वैसे जियेगा.  समझाते तक हम संकल्पित हैं, जीना हर व्यक्ति का स्वतंत्रता है.  नासमझी से आदमी सभी गलती करता है.  समझदारी से सभी सही करता है.  आदमी का कुंडली ही ऐसा है!  समझदारी को सर्वमानव चाहता ही है.  किसी आयु के बाद सभी अपने को समझदार मानते ही हैं.  ये दो बातें सर्वेक्षण में आता है.  हर मानव समझदारी को चाहता है तो समझदारी के लिए रास्ता बनाया जाए.  उसके लिए शिक्षा में समझदारी का समावेश किया जाए - यह निकला.  उसके लिए हम प्रयासरत हैं.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ सम्वाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Tuesday, November 16, 2021

क्रिया-प्रतिक्रिया और प्रभाव-परिपाक

कोई भी क्रिया की प्रतिक्रिया में ह्रास होता है या विकास होता है.  जैसे - ठंडी होने की प्रतिक्रिया में हम कुछ करते हैं.  किसी के भाषा द्वारा कुछ कहने की प्रतिक्रिया में हम कुछ करते हैं.  किसी किताब में कुछ पढ़ कर उस सोच की प्रतिक्रिया में हम कुछ करते हैं.  इस तरह, अपने में हुई प्रतिक्रिया के आधार पर कुछ भी किया जाता है तो वह पुनः क्रिया ही होगा.  लेकिन अनुभव मूलक गुणों का जब प्रभाव पड़ता है तो उसके आधार पर हमारे विचारों में निश्चयन होता है.  विचारों में निश्चयन होने के आधार पर अनुभव परिपाक होता है.  क्रिया के उपक्रम की परिणिति को "परिपाक" कहा है.  जैसे - खेत को जोता, उसमे धान लगाया, उसको सींचा, सुरक्षा किया - फिर एक दिन धान पक के तैयार हो गया.  वह तैयार हो जाना परिपाक है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

पूर्ण कला

 प्रश्न:  आपने लिखा है - "सत्य निरूपण कला की 'पूर्ण कला' तथा इससे भिन्न कला की 'अपूर्ण कला' संज्ञा है."  निरूपण से क्या आशय है?


उत्तर: निरूपण का मतलब है - विश्लेषण.  सत्य को अभिव्यक्त, संप्रेषित, प्रकाशित कर सकना ही पूर्ण कला है.  कला का और कोई प्रयोजन नहीं है.  अभी कला के नाम से जो लोग चिल्ला रहे हैं, उनका ध्यान दिलाने के लिए यह कहा है.  किसी भी चीज़ को कला बता करके पवित्र शब्दों को अपवित्र कामों से जोड़ने का काम कर रहे हैं.


-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Sunday, November 14, 2021

विश्वास

विश्वास का क्रम है - पहले, आत्म-विश्वास.  दूसरे, स्वयं में विश्वास.  तीसरे, संबंधों में विश्वास 


आत्म-विश्वास का मतलब है - अनुभव में विश्वास.

स्वयं में विश्वास का मतलब है - मानव के शरीर और जीवन के संयुक्त स्वरूप में होने पर विश्वास.

संबंधों में विश्वास का मतलब है - मूल्यों के निर्वाह में विश्वास.


आत्म-विश्वास के बिना स्वयं में विश्वास होना ही नहीं है.  स्वयं में विश्वास के बिना संसार के साथ संबंधों में विश्वास होना ही नहीं है.


आत्म-विश्वास समझदारी से आता है.  


समझदारी व ज्ञान को लेकर जो आदर्शवाद में बताया गया उससे आत्म-विश्वास का प्रमाण नहीं हुआ.  वह शिक्षा में, आचरण में, संविधान में, और व्यवस्था में आया नहीं.  भौतिकवाद में विश्वास की आवश्यकता को ही नहीं पहचाना गया.  वह केवल सुविधा-संग्रह की हविस तक पहुंचाया.  उससे कोई आत्म-विश्वास होना नहीं है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Monday, October 25, 2021

कान्ति - अनुभव प्रकाश

कान्ति अनुभव प्रकाश ही है.  जीवन में अनुभव प्रकाश ही कान्ति स्वरूप में काम करता है.  अनुभव का प्रतिबिम्बन बुद्धि पर, बुद्धि से चित्त पर, चित्त से वृत्ति पर, वृत्ति से मन पर, मन से व्यवहार पर होता है.  यही अनुभव प्रकाश और कान्ति का मतलब है.  


प्रश्न: आपने जो लिखा है, "जीवन प्रकाश में सम्पूर्ण रूप दिखते हैं."  - इससे क्या आशय है?


उत्तर: अनुभव प्रकाश में जब जीवन प्रकाशित होता है, उस प्रकाश में यह पता चलता है कि प्रत्येक वस्तु प्रकाशमान है.  अभी के विज्ञान के अनुसार बाहरी प्रकाश से (जैसे सूर्य के प्रकाश से) वस्तुएं प्रकाशित हैं.  ईश्वरवादियों के अनुसार, ईश्वरीय इच्छा से सब प्रकाशित है, यह बताया.  यहाँ कह रहे हैं - सबमे प्रकाशमानता है, यह जीवन जाग्रति सहज प्रकाश से स्पष्ट होता है.  ज्ञानगोचर विधि यही है.  


प्रश्न: 'कान्ति' की परावर्तन क्रिया को 'रूप' कहने का क्या आशय है?


उत्तर: कान्ति का परावर्तन पहले रूप पर होता है, फिर गुण पर, फिर स्वभाव पर, फिर धर्म पर होता है.  हरेक इकाई में रूप-गुण-स्वभाव-धर्म अविभाज्य होता है, इसीलिये कान्ति की परावर्तन क्रिया को 'रूप' कह दिया.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Tuesday, October 19, 2021

सदुपयोग से शुरू करते हैं, श्रम से उपार्जन तक पहुँचते हैं

 समझदारी के प्रस्ताव की जांच जीने में ही होती है.  जिए बिना जांचने में मज़ा तो आता है, पर समझ नहीं आता!  जीने में जांचने में गंभीरता से सोचना बनता है.  जीने में जांचने से समझदारी को पूरा करने में आपको देरी नहीं लगेगी.  


जीने में जांचने के लिए स्वावलंबन का डिजाईन चाहिए, और उसके अनुसार lifestyle बदलने की बात जुड़ी है.  यह करने में आपको कोई संकट न हो, इसको आप अच्छे से सुनिश्चित करो.  किसी को संकटग्रस्त बनाने का हमारा इरादा नहीं है.  स्वयंस्वीकृत विधि से, स्वयंस्फूर्त विधि से ही हम पार पा सकते हैं.


साधना के लिए हर हालत को झेलने के लिए मेरी मानसिक तैयारी थी, इसलिए हमको संकट हुआ ही नहीं.  हालात परास्त हो गए, पर हम परास्त नहीं हुए.  ऐसे सबकुछ झेल जाने का यह मनोबल सभी में तैयार हो जाएगा, इस पर मेरा विश्वास नहीं है.  किसी में भी वह साहस नहीं होगा - ऐसा मैं नहीं कहता हूँ.  पर सबमे ऐसा साहस नहीं है.  मैं जितना झेला, उतना सबको झेलना पड़े तो वह common model भी नहीं होगा.  


छोड़ने-पकड़ने की बात मैं नहीं कर रहा हूँ.  समझने की बात कर रहा हूँ.  समझने के बाद छोड़ना-पकड़ना आप स्वयं तय करो.  समझाने के लिए मैं तैयार बैठा हूँ.  मैं जब साधना के लिए निकला तो यह आश्वासन मेरे पास नहीं था.  भक्ति-विरक्ति विधि में जो पास है, सबको लुटाकर आगे बढ़ने की बात होती है.  अब इस अनुसन्धान को अपना स्वत्व बनाने के लिए सब कुछ लुटा कर बढ़ने की बात नहीं है.  जो हम प्राप्त किये हैं, उसको सदुपयोग में लगा कर बढ़ते हैं, फिर थोडा सा परिश्रम से जीना बन जाता है.  इतने को हर व्यक्ति कर सकता है.  समाधान-समृद्धि पूर्वक जी कर अपनी उपयोगिता सिद्ध करना - लक्ष्य वही है.  इसमें छोड़ने-पकड़ने की बात नहीं है.  सदुपयोग से शुरू करते हैं, श्रम से उपार्जन तक पहुँचते हैं.


-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Monday, October 18, 2021

स्वयंस्फूर्त विधि से ही सर्वशुभ का कार्यक्रम चल सकता है.

मानव को विधिवत अर्थोपार्जन भी करना चाहिए और विधिवत अर्थ का सदुपयोग भी करना चाहिए.


आज की स्थिति में विधिवत अर्थोपार्जन का स्वरूप परम्परा में है ही नहीं.  लेकिन आज की स्थिति में आप उचित/अनुचित जैसे भी अर्थोपार्जन किये, उसको सदुपयोग करना आपके अधिकार में है.  आगे चल के विधिवत उपार्जन की बात भी सोचा जाए, किया जाए.  दोनों को एक साथ नहीं कर सकते, इसलिए यह मध्यम मार्ग निकल गया.  प्राप्त अर्थ का दुरूपयोग के स्थान पर आप सदुपयोग कर सकते हैं.  परिवार के जो आपके दायित्व हैं, उनको पूरा करते हुए घायल विहीन विधि से हमे चलना है.  इसमें परिवार में किसी बच्चे, बूढ़े, पत्नी, पति की उपेक्षा की बात कहीं आता ही नहीं है.  सर्वसम्मति से पूरे परिवार की सम्मति से ही गति है.  परिवार की ही सहमति न हो तो गति कहाँ है?  नारी को पीछे छोड़ के जो राजा बनने निकले, वो सब कचड़ा हो गए.  यह काफी सोचने का मुद्दा है.


जाग्रति के कार्यक्रम में कहीं भी घायल हो कर कोई काम नहीं करेगा.  स्वयं स्वीकृत विधि से, स्वयम स्फूर्त विधि से, स्वयं उत्साह विधि से हर व्यक्ति जाग्रति के कार्यक्रम को करेगा.  स्वयंस्फूर्त होने पर किसी से शिकायत करने का कोई आधार ही नहीं है.  मैं भी इसी विधि से चला हूँ, इसीलिये इतना ठोस विधि से मैं बात करता हूँ.  स्वयंस्फूर्त विधि से ही सर्वशुभ का कार्यक्रम चल सकता है.  लदाऊ-फंसाऊ विधि से सर्वशुभ हो ही नहीं सकता.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Sunday, October 3, 2021

निरंतरता अनुभव के साथ ही होगा


 

मानव शरीर चलाते हुए जीवन में कम से कम आशा, विचार, इच्छा या साढ़े चार क्रियाएं कार्यरत रहता है.  शरीर छोड़ने के बाद भी ऐसे जीवन की साढ़े चार क्रियाएं काम करता रहता है.  उसके बाद यदि उत्थान होता है तो दस क्रियाओं का क्रियाशील होना होता है.  जीवन के ये दो ही स्टेशन हैं - भ्रम और जाग्रति - उसके बीच में कुछ नहीं है.  शरीर यात्रा में जो आंशिक समझ में आया उसकी निरंतरता नहीं बनती.  निरंतरता अनुभव के साथ ही होगा.  


अनुभव संपन्न जीवन में शरीर छोड़ने के बाद भी अनुभव बना ही रहता है.  भ्रमित जीवन शरीर छोड़ने के बाद भी भ्रमित ही रहता है.  


प्रश्न: अनुभव संपन्न जीवन जब नयी शरीर यात्रा शुरू करता है, तब क्या होता है?


उत्तर: तब यदि जाग्रति की परम्परा होगी तो ऐसे जीवन को जल्दी समझ में आएगा, मेरे अनुसार.  यदि जाग्रति की परम्परा नहीं हो ऐसे जीवन को पुनः अनुसन्धान ही करना होगा.  यदि जाग्रति की परम्परा नहीं है तो अनुसन्धान पूर्वक उसको परम्परा में स्थापित करने का प्रवृत्ति बीज रूप में जीवन में रहता ही है.  जाग्रति की परम्परा होने के बाद माँ के गर्भ से ही, फिर जन्म से ही जीवन को ज्ञान का पोषण मिलना शुरू हो जाता है.  ऐसी स्थिति को हम पाना चाह रहे हैं.  इसी को हम सर्वशुभ कहते हैं.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Saturday, October 2, 2021

पूर्ण - पूर्णता - सम्पूर्णता

 





ज्ञान सत्ता है.  ज्ञाता प्रकृति है.  

सहअस्तित्व में ज्ञान और ज्ञाता दोनों हैं.  

ज्ञान भी व्यापक है, सत्ता भी व्यापक है - इसलिए ज्ञान के आधार पर जो व्यवस्था होती है उसको प्रभुसत्ता (प्रबुद्धता पूर्ण सत्ता) कहा.  सम्पूर्ण प्रकृति व्यापक वस्तु में समाहित है, इसीलिये प्रकृति व्यवस्था स्वरूप में रहता है.  

व्यापक वस्तु स्थितिपूर्ण है, अशेष प्रकृति स्थितिशील है.  पूर्ण में गर्भित होने के कारण प्रकृति में पूर्णता के प्रकटन होने की बात है.  पूर्णता का स्वरूप है - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता.  पूर्ण (सत्ता) का स्वरूप है - व्यापकता, पारगामीयता, पारदर्शीयता.  

पूर्णता प्रकृति में है, पूर्ण व्यापक है.  यह भेद समझ में आना चाहिए.  यह समझ में आने के बाद काफी सूत्र स्पष्ट हो जाते हैं.

पूर्ण में गर्भित होने का प्रयोजन सम्पूर्णता और पूर्णता है.  सम्पूर्णता भौतिक-रासायनिक प्रकृति में है.  पूर्णता चैतन्य प्रकृति (जीवन) में है.  पूर्ण में गर्भित होने से सम्पूर्णता और उसके बाद पूर्णता है.  बीज इतना ही है.  मेरे अनुसंधान का यही मूल मुद्दा है.  विकल्प होने का आधार यही है.  नहीं तो यह प्रस्ताव भौतिकवाद और आदर्शवाद से जुड़ा ही रहता.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Thursday, September 23, 2021

सम्पूर्णता को लेकर स्वीकृति



वस्तु (इकाई) रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के अविभाज्य स्वरूप में है.  वस्तु ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर है.  ज्ञानगोचर में इन्द्रियगोचर समाया रहता है.  इस आधार पर इन्द्रियों द्वारा हम सूचनाओं को ग्रहण करते हैं.  रूप इन्द्रियगोचर है.  सम और विषम गुण इन्द्रियगोचर हैं.  मध्यस्थ गुण (होना-रहना) ज्ञानगोचर है.  स्वभाव और धर्म केवल ज्ञानगोचर है.  स्वभाव और धर्म समझने पर इकाई की सम्पूर्णता को लेकर हमारा स्वीकृति हो जाता है.   यह स्पष्ट होता है कि इकाई + वातावरण = इकाई सम्पूर्ण.  स्वभाव और धर्म ही इकाई की सम्पूर्णता में उपयोगिता-पूरकता के स्वरूप में होता है.  इस तरह सम्पूर्णता के ज्ञान के साथ इकाई की प्रयोजनीयता, उपयोगिता व पूरकता स्पष्ट हो जाता है.  इस ढंग से सहअस्तित्व में जीने या प्रमाणित होने का सूत्र बनता है.  


मानव में वस्तु की पहचान इन्द्रियगोचर व ज्ञानगोचर विधि से होता है.  वस्तु के साथ प्रमाणित होना इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है.  


ज्ञानगोचर जिसको हुआ वह इन्द्रियों के माध्यम से संप्रेषित होता है, जिसको उसके सामने वाला जब सुनता है तो वह समझने के लिए अपने को ज्ञानगोचर तक पहुंचाता है.  तभी उसके वस्तु को पहचानने वाली बात आती है.  यही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक साक्षात्कार-बोध-अनुभव का रास्ता बनता है.  यह रास्ता जितना सुगम होता जाता है, संसार में उतना ही उपकार होता जाता है.  यह रास्ता जितना संकीर्ण होता है, या बंद हो जाता है, उतना ही भयभीत होने की जगह में आ जाते हैं.  अभी मानव भयभीत होने की जगह में पहुँच गया है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Wednesday, September 22, 2021

सर्वशुभ का स्वरूप


(अध्ययन विधि से) अस्तित्व में वस्तु का साक्षात्कार होता है.  सहअस्तित्व स्वरूप में सम्पूर्णता का और उसके विस्तार में चारों अवस्थाओं का साक्षात्कार होता है.  इस तरह चारों अवस्थाओं के साथ हमारे सम्बन्ध की पहचान और इनके अंतर्संबंधों की पहचान होती है.  नियति विधि से "अंतर्संबंध" हैं, मानव के कार्य विधि से "सम्बन्ध" हैं.  मानव कार्य विधि से चारों अवस्थाओं के साथ अपने सम्बन्ध को पहचानता है और प्रमाणित करता है.  नियति विधि से पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक जो प्रकटन हुआ है, इसके शाश्वत अन्तर्सम्बन्धों की पहचान होती है.  इन शाश्वत अंतर्संबंधों के आधार पर अपने आचरण को fit कर देना - इसी का नाम है उपयोग, सदुपयोग और प्रयोजनशीलता.  


अध्ययन विधि से यह पहचान क्रम से होता है.  अनुक्रम से सम्पूर्णता समझ में आता है, अनुभव में आता है.  अनुक्रम का अर्थ है - मानव के साथ खनिज संसार, वनस्पति संसार, जीव संसार कैसा सम्बंधित है, एक दूसरे के साथ कैसा अनुप्राणित है.  इन सबके साथ हम जुड़े हैं, सम्बंधित हैं - शरीर से और जीवन से.  इन जुडी हुई कड़ियों को पहचानने की बात है.  यही तो सम्बन्ध है, और कौनसा सम्बन्ध है?  यह मार्मिक बात है.  ऐसे सम्बन्ध पहचानने से मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन प्रमाणित होगा और मानव प्रकृति के साथ न्याय, धर्म, सत्य प्रमाणित होगा.  फलस्वरूप मानव परम्परा संतुलित रहेगा.  मानव अपराध मुक्त हो कर, अपना-पराया से मुक्त हो कर अच्छे ढंग से जी पायेगा, धरती को तंग करने की आवश्यकता समाप्त होगी, धरती को अपने में सुधरने का अवसर बनेगा, फलस्वरूप शाश्वत रूप में मानव परम्परा के धरती पर रहने की सम्भावना बनेगी.  सर्वशुभ का स्वरूप यही है.  सर्वशुभ में स्वशुभ समाया है.  सर्वशुभ को काट कर स्वशुभ को आज तक कोई प्रमाणित नहीं किया.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Thursday, August 12, 2021

जीना मूल बात है



प्रश्न: मध्यस्थ दर्शन का आपका यह प्रस्ताव सुनने के बाद यह तो कहना नहीं बनता कि यह ठीक नहीं है, या हमको यह नहीं चाहिए.  थोड़ा और आगे चलने के बाद इसकी भाषा को बोलना भी हमसे बन जाता है.  फिर हममे यह बनता है कि जो मैं बोल रहा हूँ उसको मैं समझा हूँ या नहीं?  जो मैं बोल रहा हूँ, वैसा मैं जीता हूँ या नहीं?  यहाँ गाड़ी अटकी है!


उत्तर:  समझा हूँ और जीता हूँ - इस जगह में आना है.  जीता हूँ - तो वह ठोस हो गया!  केवल बोलता हूँ, पर जीता नहीं हूँ - तो वह खोखला हो गया!


प्रश्न: लेकिन बोलना भी आवश्यक था, क्योंकि बिना बोले यह बात आगे नहीं जाती.  न हम को सुनने को मिलती, न हमसे किसी को सुनने को मिलती.


उत्तर:  जीना मूल बात है.  कहने से भनक पड़ती है.  भनक पड़ते-पड़ते ही तो आज यहाँ तक पहुंचे हैं.  इससे लोगों में उत्साह जगा है, आशा जगा है - इसमें दो राय नहीं है.  कुछ लोगों में अध्ययन करने की प्रवृत्ति हुई है - यहाँ आ चुके हैं.  इसके बाद इस बात के लोकव्यापीकरण के लिए चेतना विकास, मूल्य शिक्षा और तकनीकी का संयुक्त सिलेबस बनाने की बात किये हैं.  वह एक ऐतिहासिक काम होगा.  इस तरह इस अनुसंधान की सूचना सब तक पहुंचेगी.  सभी भाषाओँ में यह सूचना पहुंचेगी.  इसमें इन्टरनेट और प्रचार माध्यमो का उपयोग भी होगा.  सूचना प्रसारण का यह सारा कार्यक्रम अनुसन्धान के स्त्रोत और परिभाषा विधि से सम्बद्ध रहेगा.   


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)


Tuesday, August 10, 2021

सच्ची बात



प्रश्न:  आप पूरी धरती पर सभी मानवों को समझदार बनाने की बात करते हैं, जबकि अभी अनुभव संपन्न व्यक्तियों की गिनती एक से आगे बढ़ी नहीं है.  इसको आप कैसे देखते हैं?


उत्तर:  इस तरह आपका कहना ज्यादती है.  एक से अधिक लोग अभी सत्यापित नहीं किये हैं - ऐसा रखो!  ज्यादा सम्मान इसी में है.  अनुभव को घोषित करने में अनुभव से ज्यादा हिम्मत की ज़रूरत होती है.  प्रमाणित करने के क्रम में ही अनुभव की घोषणा करने का हिम्मत बनता है.  उसी क्रम में सब चल ही रहे हैं.  पहले मेरी बात कोई सुनता नहीं रहा, फिर सुनने वाले बहुत लोग मिल गए, फिर सुनकर उत्साहित होने और सहमत होने वाले मिल गए.  जितना किया उसके आधार पर यहाँ तक पहुंचे.  इसके आगे का रास्ता खुला हुआ है.  उस पर चल कर पहुंचेंगे. 


प्रश्न: आपके दिखाए हुए इस रास्ते पर चलते हुए हमारे आपस में टकराहट न हो, इसके लिए क्या करें?


उत्तर: दूसरा जो कर रहा है, उसकी निंदा करने में मत जाओ.  दूसरा जितना अच्छा किया उसको appreciate करके उससे ज्यादा अच्छा यदि आप प्रस्तुत करते हो तो उससे आपको कौन रोकता है?  ठीक क्या है - वह रखो!  फिर  जरूरत पड़े तो कहना क्या ठीक नहीं है.  ठीक क्या है - वो रखने के बाद सब अपना मूल्यांकन कर ही लेते हैं.  अलग से क्या ठीक नहीं है, यह कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती.  कुल मिलाकर बात इतना ही है.  यही तर्क सम्मत और निष्पक्ष आवाज है.  इस तरह किसी के साथ मुठभेड़ वाला बात आता ही नहीं है.  


प्रश्न:  यह तो देखा है - जैसे ही हम अपने में किसी भी प्रकार का विरोध या शिकायत लाते हैं, हम अपना ही मार्ग अवरोध कर लेते हैं.


उत्तर: सच्ची बात है यह!  उपनिषद वाक्य है यह!


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

विश्लेषण पूर्वक मूल्यों की स्वीकृति


प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से सच्चाई का विश्लेषण नहीं हो पाता.  इस तरह जीव चेतना में बिना विश्लेषण किये संवेदनाओं की तृप्ति हेतु व्यक्ति दौड़ता है.  विश्लेषण पूर्वक ही हम मूल्यों को स्वीकारते हैं.  विश्लेषण के स्पष्ट अथवा सार रूप में मूल्य स्वीकृत होता है.  मूल्यों को स्वीकारने पर मानव चेतना होता है.  विश्लेषण पूर्वक मूल्यों का साक्षात्कार चित्त में होता है.  उसके बाद बोध और अनुभव में वह पूरा होता है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

भय और प्रलोभन पूर्वक सच्चाई का बोध नहीं होता


ब्रह्मवादी/आदर्शवादी सब कुछ भय और प्रलोभन के आधार पर ही बताये हैं.  जितने भी आदर्शवादी शास्त्र और कथाएँ मिलते हैं - वे सब भय और प्रलोभन के आधार पर हैं.  वे ये मान लिए हैं कि भय और प्रलोभन पूर्वक ही मानव को सच्चाई बोध होगा.  सच्चाई के प्रति प्रलोभन होगा और झूठ के प्रति भय होगा तो आदमी सच्चाई की तरफ जाएगा - ऐसा सोचकर सब बात किया है.  वह सफल नहीं हुआ.  इस तरह कोई भी सच्चाई को वो बोध नहीं करा पाए.  उससे इन्द्रिय सन्निकर्ष और विषयों की सीमा में जो होना था, वही हुआ.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Monday, August 9, 2021

विज्ञान के अराजक होने का कारण

 हर वस्तु अनंत कोण संपन्न है.

हर वस्तु प्रकाशमान है.

हर वस्तु दूसरे वस्तु को पहचानता है.


ये तीन बातें अभी विज्ञान में नहीं पढ़ाते हैं.  बुनियादी तौर पर विज्ञान के अराजक होने का कारण यह बना.


प्रकाशमानता एक दूसरे की पहचान का सूत्र है.  एक दूसरे को पहचानने की विधि की शुरुआत परमाणु अंश से हुई.  एक परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंश को पहचानता है, इसलिए परमाणु गठित होता है.  परमाणु गठित होने का प्रयोजन है - व्यवस्था को प्रमाणित करना.  परमाणु व्यवस्था का मूल स्वरूप है.  विज्ञान इसको बोध नहीं करा पाता.


अनेक (जड़) परमाणुओं से मिलकर मानव शरीर है.  जीवन अपने स्वरूप में एक परमाणु है ही.  इस तरह जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में व्यवस्था में जीने की बात अभी तक अध्ययन नहीं कर पाए.  व्यवस्था की अपेक्षा में ही एक परमाणु अंश से लेकर मानव तक अध्ययन हो पाता है.  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)

Wednesday, August 4, 2021

व्यक्ति में पूर्णता -क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता

 *व्यक्ति में पूर्णता -क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता* 


मानवीयता में क्रियापूर्णता रहता ही है.  अर्थात अनुभव सम्पन्नता (क्रिया पूर्णता) के उपरान्त समाधान पूर्वक जीना बनता ही है, न्याय पूर्वक जीना बनता ही है, नियंत्रण पूर्वक जीना बनता ही है, नियम पूर्वक जीना बनता ही है.  इसके बाद शेष रहता है - अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में जीना या "सत्य" स्वरूप में जीना.  सत्य को लेकर बताया - सहअस्तित्व ही परम सत्य है.  सहअस्तित्व सूत्र-व्याख्या में ही हम अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में जी पाते हैं.


अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था से सूत्रित न हो, ऐसे हम समाधान पूर्वक जी ही नहीं सकते.  हमारा सम्पूर्ण समाधान अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था से सूत्रित होगा और व्याख्यायित होगा.  यह बहुत महत्त्वपूर्ण है.


प्रश्न:  क्या आप ऐसा कह रहे हैं कि जब तक अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था नहीं हो जाता तब तक व्यक्ति समाधान पूर्वक जी ही नहीं पायेगा?


उत्तर: नहीं!  मैं कह रहा हूँ - व्यक्ति के समाधान पूर्वक जीने से वह अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र होगा, जिसकी व्याख्या होती रहेगी.  इस तरह वो multiply होगा.  हम समाधानित होने पर अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या में ही जीते हैं.  इसी लिए वह multiply होता है.  यही मानवीयता है.  मानवीयता पूर्वक जिए बिना multiply होने की बात ही नहीं है.  दूसरे को हम समाधान पूर्वक जीने योग्य बनाते हैं तब हमने जीने दिया.  इसके बिना हम जी ही नहीं सकते.  समझने के बाद प्रमाणित होने का विधि यही है.  


इस तरह एक व्यक्ति जागृत होता है तो वह अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था के लिए स्त्रोत बन जाता है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सत्संग, २००५)

Tuesday, July 27, 2021

व्यापक - ज्ञान - चेतना

 अनुभव होने पर "ज्ञान व्यापक है" - यह पता चलता है.

"चेतना और ज्ञान एक है" - यह दिव्य चेतना में प्रमाणित होने पर पूरा होता है.


- श्रद्धेय बाबा नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

जीने की आशा

गठनपूर्णता नियति विधि से हुआ.  गठनपूर्ण परमाणु अणुबंधन और भारबंधन से मुक्त तथा आशा बंधन से युक्त होकर शुरुआत करता है.  आशा बंधन पूर्वक या जीने की आशा के आधार पर जीवन अपने कार्य गति पथ को बनाने योग्य हुआ.  कार्य गति पथ अपने में एक आकार होता है.  उस आकार के शरीर रचना का प्रकटन भी नियति विधि से होता है.  


जीने की आशा को व्यक्त करने के लिए एक ही आकार नहीं बनता है.  अनेक प्रकार के आकार बन गए.  हर जीवन अपना कार्य गति पथ बनाया.  गठनपूर्णता के साथ कार्य गति पथ बना ही रहता है.  ऐसा कोई जीवन नहीं है जो अपना कार्य गति पथ नहीं बनाया हो.  यह कार्य गति पथ बदलना बहुत जटिल है.  गुणात्मक परिवर्तन विधि से कार्य गति पथ का बदलना बनता है.  जैसे - मनुष्य के आकार के कार्य गति पथ वाला जीवन बारम्बार मनुष्य शरीर को ही चलाता है.  बाघ के आकार के कार्य गति पथ वाला जीवन बारम्बार बाघ के शरीर को ही चलाता है.  


जीवन मनोगति से काम करता है.  जीव शरीरों को चलाने वाले जीवनों की और मानव शरीरों को चलाने वाले जीवनों की मनोगति एक ही होती है.  शरीर के साथ जीवन जब काम करता है तो वह काम करने की गति अलग अलग हो जाती है.  जीवन की मनोगति एक ही रहता है.  गाय के काम करने. बाघ के काम करने और मानव के काम करने की गति अलग अलग है - शरीर रचना के आधार पर.  जीवन में स्वत्व रूप में मनोगति एक ही है, शरीर के साथ व्यक्त होने में गति अलग अलग है.


जीवों में जीवन वंशानुषन्गीयता पूर्वक काम करता है.  बाघ के शरीर को चलाने वाला जीवन बाघ शरीर को क्या चाहिए - इसको पहचानने योग्य हो जाता है.  शरीर को चलाने के साथ ही यह बन जाता है.  जीवन जिस वंश के जीव के गर्भ में रहता है, उसके कार्यक्रम को तदाकार-तद्रूप होकर स्वीकार लेता है.  तद्रूप-तदाकार होने की व्यवस्था जीवन में बना रहता है.  इसी आधार पर बाघ का बच्चा बाघ का ही काम करता है, हाथी का बच्चा हाथी का ही काम करता है.


प्रश्न:  किसी बाघ शरीर को चलाने वाले जीवन द्वारा आगे मानव शरीर को चलाने की बात कैसे होती है?


उत्तर: बाघ का मानव के साथ संसर्ग होने पर, बाघ मरते समय वह जीवन मनुष्याकार को स्वीकार ले, तब वह गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बन जाती है.  मरते समय सुरूप-कुरूप, सुख-दुःख को स्वीकारते हुए जीवन शरीर को छोड़ता है.  


प्रश्न: मानव भी शरीर और जीवन का संयुक्त स्वरूप है, तो वह जीवों से भिन्न कैसे है?


उत्तर: मानव शरीर रचना ऐसा हुआ कि जीवन कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त कर सका.  जीव शरीरों में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने का प्रावधान नहीं है.  मानव शरीर में समृद्धि-पूर्ण मेधस है, जिससे जीवन द्वारा कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हो सके. 


जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने से संवेदनाएं प्रकट हुई.  जीवों में संवेदनाएं चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में समीक्षित हो जाती हैं.  मानव ने भी शुरुआत चार विषयों की सीमा में जीते हुए किया.  फिर चार विषयों में प्रवृत्त रहते हुए संवेदनाओं को राजी करने के पक्ष में काम करना शुरू कर दिया.  जैसे - ठंडी-गर्मी से बचने का प्रयास करना.  यह मानव जीवन में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने के आधार पर हुआ.  इस तरह मानव ने जीवों से भिन्न जीना शुरू कर दिया.


कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने के साथ उसके तृप्ति-बिंदु की तलाश जीवन में रहता ही है.  कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु को मानव ने सुविधा-संग्रह में ढूँढा तो वो मिला नहीं.  ज्ञान का शुरुआत कल्पनाशीलता है.  कल्पनाशीलता के आधार पर ही कर्म-स्वतंत्रता है.  अनुभव ज्ञान में कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु है.  उस तृप्ति के आधार पर व्यवस्था में जी कर प्रमाणित होना कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिंदु है.  प्रमाणित होने का स्वरूप है - समाधान समृद्धि.  एक व्यक्ति ऐसे जी कर प्रमाणित हो सकता है तो सभी व्यक्ति प्रमाणित हो सकते हैं.


प्रश्न: मानव जीवन में भ्रम का क्या कारण है?


उत्तर: जीवन ज्ञान के अभाव में मानव जीवन संवेदनाओं को ही जीवन मान लेता है.  फिर जो कुछ भी मानव करता है उसी सीमा में करता है.  यही भ्रम है.  अभी अच्छे से अच्छे और खराब से खराब आदमी का हालत उतना ही है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

अनुभव एक साथ होता है. साक्षात्कार क्रमिक होता है. बोध सम्पूर्णता का होता है

प्रश्न: क्या अनुभव क्रमिक होता है या एक साथ होता है?


अनुभव एक साथ होता है.  साक्षात्कार क्रमिक होता है.  बोध सम्पूर्णता का होता है.  सम्पूर्णता जब समझ में आता है तो बोध होता है.  बोध के तुरंत बाद अनुभव होता है.  अभी आदमी सुनता है, बोध हो गया मानता है - पर बोध हुआ नहीं रहता.  क्रमिकता साक्षात्कार में है.  सारा अध्ययन साक्षात्कार है.  उसके बाद बोध, बोध के बाद अनुभव.  अनुभव जानने-मानने का तृप्ति बिंदु है.  प्रमाण विधि से अनुभव की पुष्टि होती रहती है.  इस ढंग से मानव में तृप्ति की निरंतरता बनी रहती है.


 एक साथ सभी कुछ समझ में आ जाना किसी भी विधि से नहीं होगा.  मेरी विधि (साधना-समाधि-संयम विधि) में भी नहीं !  एक दिन अचानक मुझे अनुभव हो गया हो, ऐसा कुछ भी नहीं है.  दो वर्ष मैंने संयम में अध्ययन किया है.  वह क्रमिक ही था.  इसी आधार पर मैं कह रहा हूँ, हर व्यक्ति अध्ययन कर सकता है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००८, अमरकंटक)

Wednesday, July 14, 2021

जीवन मूल्य

प्रश्न: सुख-शान्ति-संतोष-आनंद को "जीवन मूल्य" कहने का क्या आशय है?


उत्तर: मन और वृत्ति के मध्य में सुख होता है - या मन और वृत्ति के संयोजन में सुख की बात होती है.  वृत्ति और चित्त के संयोजन में शान्ति की बात होती है.  चित्त और बुद्धि के संयोजन में संतोष की बात होती है.  बुद्धि और आत्मा के संयोजन में आनंद की बात होती है.  अनुभव मूलक विधि से यह संयोजन होता है.  मन वृत्ति में अनुभव किया - जिससे सुख हुआ.  वृत्ति चित्त में अनुभव किया - जिससे शान्ति हुआ.  चित्त बुद्धि में अनुभव किया - जिससे संतोष हुआ.  बुद्धि आत्मा में अनुभव किया - जिससे आनंद हुआ.  इस तरह जीवन में जीवन का अनुभव करने से सुख-शांति-संतोष-आनंद होता है -  इसी लिए इनको "जीवन मूल्य" कहा है.


आत्मा सहअस्तित्व में अनुभव करने को परमानंद कहा है.  परमानंद की ही अभिव्यक्ति है - सुख, शान्ति, संतोष और आनंद.  परमानंद व्यक्त होता नहीं है, पर सुख-शान्ति-संतोष-आनंद - ये चारों व्यव्हार में व्यक्त हो जाते हैं.


सुख व्यवहार में व्यक्त होता है - समाधान स्वरूप में (व्यक्ति स्तर पर).

शान्ति व्यव्हार में व्यक्त होता है - समृद्धि स्वरूप में (परिवार स्तर पर).

संतोष व्यव्हार में व्यक्त होता है - अभय स्वरूप में (समाज स्तर पर)

आनंद व्यव्हार में व्यक्त होता है - परम्परा में प्रमाणित करने के स्वरूप में, दूसरे को बोध कराने के स्वरूप में (व्यवस्था स्तर पर) 


सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य के अलावा किसी बात का बोध न होता है, न करा सकते हैं.  जीवन का ढांचा ही ऐसा बना है.


- श्रद्धेय बाबा नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Monday, July 12, 2021

शुभ का रास्ता


"शुभ को चाहते रहे, पर कर नहीं पाए"

"शुभ को चाहते रहे, करने की जगह में अभी आये नहीं हैं, पर शुभ के लिए सहमत हैं"

"शुभ को चाहते हैं, शुभ का रास्ता खोज रहे हैं" 


आप इसमें से कहीं खड़े हैं.


आप ऐसे व्यक्ति के सम्मुख बैठे हो जो शुभ का रास्ता पा गया है.  


मानव शुभ को चाहता है, मेरे अनुसार!  शुभ के लिए निश्चित मार्ग नहीं था, वह अब आ गया है.  मानव का इसे स्वीकार होना स्वाभाविक है.  इस ढंग से मानव चेतना के स्थापित होने की सम्भावना है.  मानव चेतना के बिना मानव का व्यवस्था में जीना बनता ही नहीं है.  हर मानव समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना चाहता है, यह जीव चेतना में पूरा होगा ही नहीं.  मानव चेतना में यह पूरा होता है.


- श्रद्धेय बाबा नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)

Thursday, March 18, 2021

क्रिया और योग

क्रिया तीन प्रकार की हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया और जीवन क्रिया.  


अभी विज्ञानी रासायनिक क्रिया और भौतिक क्रिया के अंतर को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं.  जबकि हम (मध्यस्थ दर्शन में) रासायनिक क्रिया को भौतिक क्रिया से भिन्न मानते हैं.  परमाणु की क्रियाशीलता दोनों में है, किन्तु रासायनिक क्रिया यौगिक विधि का फलन है.  यौगिक विधि में एक से अधिक प्रजाति के परमाणु मिलके अपने-अपने आचरणों को त्याग करके "सम्मिलित आचरण" को स्वीकार लेते हैं.  जैसे पानी... पानी में एक जलने वाला और एक जलाने वाला वस्तु है.  ये दोनों प्रजाति के परमाणु अपने-अपने आचरण को त्याग कर प्यास बुझाने वाले स्वरूप में आ गए.  जलने वाली वस्तु में भी प्यास बुझाने का गुण नहीं है, जलाने वाली वस्तु में भी प्यास बुझाने का गुण नहीं है - दोनों ने सम्मिलित रूप में जो आचरण को प्रस्तुत किया वह प्यास बुझाने वाला हो गया.  यौगिक विधि से अपने आचरण में गुणात्मक परिवर्तन लाने की बात हुई.  परस्पर मिलन से यह उपलब्धि हुई.


प्रचलित-विज्ञान योग को इस प्रकार से समझाने में sincere नहीं है.  इस तरह विज्ञान अपनी प्रस्तुति को व्यव्हार और प्रयोजन से जोड़ नहीं पाया.


आदर्शवादी विधि से मानव परम्परा में "योग" की कब से बात हो रही है?  पर क्या उस योग से मानव में कोई गुणात्मक परिवर्तन हुआ?  


प्रश्न:  आप स्वयं आदर्शवादी विधि से समाधि तक पहुंचे थे.  उस मार्ग के बारे में कुछ बताइये...


पतंजलि ने (योग दर्शन में) योग की परिभाषा दिया - "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" (अध्याय १, सूत्र २) अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध होने का नाम योग है.  


योग के तीन चरण बताया - धारणा, ध्यान, और समाधि.  


"धारणा" में किसी एक क्षेत्र में चित्त-वृत्ति निरोध होने की बात होती है.  जैसे किसी चित्र में, दीवार में, अपने स्वयं में... इसका सूत्र योग दर्शन में दिया है - "देशबन्धश्चित्तस्य धारणा"  (अध्याय ३, सूत्र १). इस तरह आशा, विचार, इच्छा एक जगह में arrest हो गए...


"ध्यान" का मतलब है - जिसमे धारणा हुई है, उसके निश्चित बिंदु में चित्त-वृत्ति निरोध होना.  इसका सूत्र योग दर्शन में दिया है - "तत्र प्रत्येकतान्ता ध्यानं" (अध्याय ३, सूत्र २).  धारणा क्षेत्र में अनेक बिन्दुएँ हैं, उनमे से किसी एक बिंदु में आशा-विचार-इच्छा का arrest हो जाना ध्यान है.  


फिर उसका अर्थ भर रह जाए, स्वरूप कुछ भी न रहे - उसका नाम "समाधि" है.  इसका सूत्र योग दर्शन में दिया है - "तदेवार्थमात्रनिर्भासम स्वरूपशून्यमिव समाधिः" (अध्याय ३, सूत्र ३).  


इस स्थिति तक पहुँचने में कितना परिश्रम लगा होगा - ज़रा सोच के देखो!  बहुत पसीना निकला है यहाँ तक पहुँचने में, आप ऐसा मानो!  


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Wednesday, February 17, 2021

सहअस्तित्ववादी भाषा की अवधारणा, भाषाई शिष्टतायें एवं विशेषताएं - साधन भट्टाचार्य

 

सहअस्तित्ववादी भाषा की अवधारणा, भाषाई शिष्टतायें एवं विशेषताएं

-    साधन भट्टाचार्य

सभी को नमस्ते!

आरम्भ करने से पहले मैं मध्यस्थ दर्शन के प्रणेता पूज्य नागराज जी को नमन करता हूँ, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, इसके पश्चात इस कार्यक्रम में उपस्थित सभी वक्ताओं का अभिवादन करता हूँ.  सहअस्तित्ववादी भाषा को लेकर जो मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसे मैं पूरी तरह मध्यस्थ दर्शन के आधार पर ही बोलने का प्रयास करूंगा.

परिभाषा संहिता में “भाषा” शब्द की परिभाषा है:

(१) सत्य भास होने के लिए शब्द या शब्द समूह

(२) भास, आभास, प्रतीति को स्थापित करने हेतु प्रयुक्त सार्थक शब्द समूह

भाषा का प्रयोजन है – अर्थ भास जाए.  अर्थ सत्य स्वरूप है.  भाषा शब्द या शब्द समूह है.  भाषा से कम से कम भास होना ही चाहिए.  भास के साथ आभास, प्रतीति तक की सम्भावना भाषा द्वारा स्वीकारी जा रही है.

तो भाषा के द्वारा भास कराया जा सकता है, आभास कराया जा सकता है, प्रतीति कराया जा सकता है.  दो व्यक्तियों के बीच व्यवहार में भाषा के प्रयोग से भास हो सकता है, आभास हो सकता है, प्रतीति हो सकता है.  इस सम्भावना को दर्शन में स्वीकारा गया है.

“भास” की परिभाषा दी गयी है: -

(१) परम सत्य स्वरूपी सहअस्तित्व कल्पना में होना, वाचन में होना व श्रवण भाषा के अर्थ के रूप में स्वीकार होना

(२) सहअस्तित्व होने की सम्भावना सहज सूचना

(३)  भाषा ध्वनि के आधार पर सत्य को स्वीकारना

ध्वनियों से ही भाषा बनती है.  ध्वनि से ही हम भाषा तक पहुँचते हैं.  इसका एक उदाहरण मैं प्रस्तुत करता हूँ.  एक बार पूज्य बाबाजी ने “राष्ट्र” शब्द की परिभाषा बनाया.  उसको उन्होंने मुझे व अन्य अध्ययनशील लोगों को बताया, एक संस्कृत के विद्वान् को भी बताया.  संस्कृत के विद्वान् बहुत खुश हुए.  उन्होंने मुझसे भी पूछा – कैसा है?  क्योंकि मुझे भाषा की इतनी समझ ही नहीं थी, ज्यादा सूचना भी नहीं थी... इसलिए “अच्छा है, बहुत अच्छा है” – इसके अलावा मेरे पास कहने को कुछ था नहीं...इस बीच कुछ किसान लोग भी उनसे मिलने आये, तो बाबाजी ने उनको भी वह परिभाषा बताया और उनका फीडबैक लिया.  बाद में मैंने उनसे पूछा – आप विद्वानों से पूछते हैं वो तो मुझे समझ में आता है कि विद्वानों का वक्तव्य महत्त्वपूर्ण है.  मेरे जैसे जो लोग समझना चाह रहे हैं, अध्ययन करना चाह रहे हैं – उनके वक्तव्य को भी मैं बहुत महत्त्वपूर्ण मान सकता हूँ...  लेकिन जो बिलकुल किसान हैं, जिनको इस प्रकार की भाषा से ज्यादा सारोकार नहीं है – आप उन लोगों का मंतव्य क्यों पूछते हो?  तब उन्होंने कहा कि जो ध्वनि है, उस ध्वनि को सुन कर क्या “भास” हो रहा है, उसको मैं पहचानने की कोशिश करता हूँ.  तो एक-एक परिभाषा को बनाने के लिए उन्होंने काफी मेहनत किया है.  शब्दों को रख कर एक विन्यास बनाया है.  आगे और पीछे के क्रम को ध्यान रखा है. एक शब्द के अनेक पर्यायवाची होते हैं, इस प्रकार कई बार प्रयास करके, शब्दों को, वाक्यों को आगे-पीछे करके वाक्य संरचना में परिवर्तन किया ताकि उसकी निश्चित ध्वनि भी आये.  तो मुझे यह समझ में आता है कि उन्होंने परिभाषा में बहुत परिश्रम किया है और ध्वनि-संयोजन पर भी उन्होंने कुछ गहरा काम किया हुआ है. 

तो “सत्य भास हो जाए” – उसके लिए यहाँ भाषा को बोला जा रहा है.  जिससे भाषा का अर्थ जो सहअस्तित्व के रूप में है, वो सुनने वाले की कल्पना में आ जाए. 

भाषा पर जो पूज्य बाबाजी ने काम किया है, उन्होंने परिभाषा विधि से परम्परा के शब्दों को ही परिभाषित किया है.  शब्दों के मुख्य रूप से स्त्रोत वेद ही हैं.  इसके अलावा कुछ शब्दों को फारसी/अरबी से भी लिया है – जैसे, समझदारी, ईमानदारी...  उन्होंने किसी परम्परा विशेष से दूरी बना के रखने का काम नहीं किया.  जो प्रचलित भाषा है उससे उन्होंने शब्द लिए, लेकिन प्रधानतः संस्कृत से लिए हुए शब्द हैं.  जैसे – मन, वृत्ति, चित्त, विचार, इच्छा, शरीर – ये शब्द वेद से आये हुए हैं.  फिर परम्परा में जो प्रचलित शब्द हैं, उनको उन्होंने लिया और परिभाषा विधि से उनके अर्थ को दिया.  परिभाषा विधि इसमें बहुत प्रमुख है.  शब्द परम्परा के ही हैं. परिभाषा विधि में अलग-अलग सन्दर्भों में कई परिभाषा भी दिखती है.  जैसे आप “न्याय” शब्द को देखेंगे तो उसकी कई सन्दर्भों में उसकी परिभाषाएं मिलेंगी.  तो सन्दर्भों को समझाने के लिए भी उन्होंने यह प्रयास किया.

परिभाषाओं को लेकर जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो जब कहा जाता था बॉयल का नियम लिखो – तो यह हमको स्पष्ट बताया जाता था कि परिभाषा में एक भी शब्द आगे-पीछे होता है तो आपको शून्य नंबर मिलेंगे! इस तरह modern education में परिभाषा को बनाए रखना अनिवार्य माना है.   आदर्शवादी या पुरातन या वैदिक शिक्षा में भी भाषा और परिभाषा को बनाए रखना एक बहुत बड़ा काम माना जाता है.  परिभाषा को लेकर इस परम्परागत मान्यता और आधुनिक मान्यता का समर्थन पूज्य बाबा जी ने भी किया है.  तो एक बात मैं निवेदन करना चाहता हूँ – परिभाषा विधि और परिभाषा विधि की पवित्रता को बनाए रखना मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के अध्ययन में एक बहुत अनिवार्य काम है.

दूसरी बात, भाषा को लेकर कुछ चीजों को बाबाजी ने परम्परा से भिन्न भी लिखा है.  परम्परा में कई व्याकरणाचार्यों ने कहा है – “शब्द में अर्थ होता है”.  इस बात से बाबाजी असहमत थे.  उन्होंने कहा कि “अस्तित्व में वस्तु है और वस्तु ही अर्थ है”.  तो वस्तु में अर्थ होता है, और उस वस्तु को इंगित कराने के लिए शब्दों का चुनाव किया गया है.  जिसमे वास्तविकता है, वही वस्तु है.  तो इकाई भी वस्तु है और व्यापक भी वस्तु है. व्यापक को वस्तु होना स्वीकारा – उसके लिए शब्दों को दिया.  और इकाइयों को भी वस्तु होना स्वीकारा, और उसके लिए भी शब्दों को दिया.  एक नयी चीज़ जो मध्यस्थ दर्शन में आयी कि इकाई वस्तु जहाँ है, उसी स्थान पर व्यापक वस्तु भी है.  जहाँ इकाई नहीं है, वहाँ व्यापक है ही और जहाँ इकाई है, वहाँ भी व्यापक है.  इस बात को समझाने के लिए उन्होंने कहा – “इकाई में व्यापक पारगामी है”.  और जब इकाई की ओर से देख कर कहा – “इकाई व्यापक में भीगी है”.  भीगी के साथ डूबी और घिरी भी है.  डूबी, भीगी, घिरी होने को उन्होंने “सम्पृक्त्ता” शब्द से इंगित कराने का प्रयास किया.  “सम्पृक्त्ता” परम्परा से एक शब्द है – लेकिन जितना मेरी सूचना है, उसका अर्थ “भीगा हुआ होना” परम्परा में स्वीकार नहीं किया गया है. भीगा होने का अर्थ बनता है – जहाँ पर इकाई है वहीं पर व्यापक वस्तु भी है.  दोनों साथ-साथ हैं, ऐसे भीगा होने के कारण सहअस्तित्व बन रहा है, नहीं तो सहअस्तित्व नहीं बनेगा.  सहअस्तित्व का मूल है – इकाई और व्यापक का साथ-साथ होना.  व्यापक हर समय, हर स्थान पर है – इसलिए व्यापक को “स्थितिपूर्ण” कहा, क्योंकि इसकी स्थिति में पूर्णता है, कहीं कमी नहीं है, उसकी स्थिति में परिवर्तन नहीं है.  लेकिन इकाई की स्थिति में पूर्णता नहीं है.  कई स्थान हैं जहाँ इकाई की स्थिति नहीं है, केवल व्यापक की स्थिति है.  और कई ऐसे स्थान हैं जहाँ इकाई की भी स्थिति है और व्यापक की भी स्थिति है.  इसलिए व्यापक को “स्थितिपूर्ण” कहा और इकाई को “स्थितिशील” कहा. तो “स्थिति” के दो जगह हैं – व्यापक वस्तु में भी स्थिति है, इकाई में भी स्थिति है.  जहाँ पर इकाई की स्थिति है, वहाँ व्यापक की स्थिति है ही.  तो व्यापक की स्थिति कभी समाप्त नहीं हो रही है.  इकाई की स्थिति भी निरंतर बनी हुई है, लेकिन जहाँ इकाई है – वहाँ!  और इकाई में स्थिति के साथ गति भी पाई जाती है.  व्यापक में केवल स्थिति पाई जा रही है, गति नहीं पाई जा रही है.  इस प्रकार स्थिति दो प्रकार से दिखता है – व्यापक की स्थितिपूर्णता के स्वरूप में और प्रकृति की स्थितिशीलता के स्वरूप में. इसी को “स्थिति” कह रहे हैं.  इकाई में जो अपने आप में “स्थितिशीलता” है, उसके साथ “गतिशीलता” भी है.  यह मध्यस्थ दर्शन की मान्यता है कि इकाई स्थिति-गति के साथ ही है.  स्थिति और गति अविभाज्य है.  इसी को आगे बढाते हैं तो यह श्रम-गति-परिणाम स्वरूप में है, जिसमे परमाणु के स्वरूप की व्याख्या है.  इसको आगे बढाते हैं तो रूप-गुण-स्वभाव-धर्म ये चार शब्दों को जोड़ा गया है – प्रकृति की चार अवस्थाओं को समझाने के लिए... और आगे, मानव के स्वरूप की व्याख्या के क्रम में स्वभाव-धर्म के साथ न्याय, धर्म और सत्य शब्दों को जोड़ा गया.  इस तरह पांच स्तर पर मध्यस्थ दर्शन में शब्द-अनुशासन को बना के रखा गया है.



मध्यस्थ दर्शन में प्रतिपादित है - “सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है”.  यहाँ मूलतः व्यापक और इकाई में सहअस्तित्व निर्देशित है.  व्यापक और इकाई में सहअस्तित्व होने के कारण हर इकाई में भी सहअस्तित्व है और इकाइयों की परस्परता में भी सहअस्तित्व है – जिसको “व्यवस्था” शब्द से इंगित कराया गया है.  चूँकि हर इकाई में सहअस्तित्व है, इसलिए मानव में भी सहअस्तित्व है.  मानव में सहअस्तित्व होते हुए भी मानव अपनी अजागृति या भ्रम के कारण इसको नहीं पहचान पाता, प्रमाणित नहीं कर पाता.  पहचान नहीं पाने की स्थिति को “अन्याय” कह रहे हैं.  पहचान पाने की स्थिति को “न्याय” कह रहे हैं.  दो मानवों के बीच सहअस्तित्व को भी “न्याय” शब्द से निर्देशित किया है.

 

परम्परा में जो भाषा है और मध्यस्थ दर्शन में जो भाषा है, उनमे कुछ मौलिक भिन्नताएं दिखाई देती हैं.  उनमे से कुछ इस प्रकार हैं.

[१] परम्परागत हिंदी व्याकरण से मध्यस्थ दर्शन की भाषा में भिन्नता दिखती है.  प्रचलित हिंदी व्याकरण में कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान आदि को निम्न प्रकार से बताया गया है.

इसमें कर्ता को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है और क्रिया को करने वाले को कर्ता कहा गया है.  क्रिया के मूल शब्द को धातु कहा है.  जिसके ऊपर क्रिया की जाती है, उसको कर्म कहा है.  जैसे – “राम ने रावण को धनुष-बाण से मारा.” इस वाक्य में राम = कर्ता, रावण = कर्म, मारा = क्रिया, धनुष-बाण = करण.  यह परम्परागत हिंदी भाषा का basic structure है.  भाषा आदर्शवाद की देन है.  आदर्शवादी विधि में ईश्वर को “कर्ता” माना है. व्याकरण में ईश्वर को कर्ता मान कर भाषा का रचना किया है. 

मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के अनुसार ईश्वर कर्ता नहीं है.  ईश्वर अधिकरण स्वरूप में निर्देशित हुआ है.  जैसे – “ईश्वर में प्रकृति संपृक्त है”, “व्यापक में इकाइयां हैं” तो व्यापक वस्तु, चेतना, ज्ञान, ऊर्जा को बताने के लिए भाषा में कर्ता के स्थान पर अधिकरण का प्रयोग है. आदर्शवादी भाषा से मध्यस्थ दर्शन की भाषा की इस बहुत बड़ी भिन्नता को हमे पहचानना चाहिए.  खासकर जब हम कोई लिखित पुस्तक बना रहे हैं, छोटे बच्चों के लिए पुस्तकें लिख रहे हैं, तो इसमें इस बात का ध्यान रखें – यह निवेदन है.

[२] कर्म के बारे में मध्यस्थ दर्शन और आदर्शवाद में एक मौलिक अंतर है.  क्रिया और कर्म को यहाँ पहले से भिन्न बताया गया है.  सभी इकाइयां क्रियाशील हैं.  व्यापक क्रियाशून्य है.  इकाइयों में जहाँ से मानव आया वहाँ से “कर्म” की शुरुआत है, क्योंकि वहीं से कर्म-स्वतंत्रता है.  जीवावस्था, प्राणावस्था, पदार्थावस्था में कर्मस्वतंत्रता नहीं है – वहाँ क्रिया है, कर्म नहीं है.  ज्ञानावस्था (मानव) में क्रिया भी है, कर्म भी है.  मानव क्रियाशील है और कर्म भी करता है.  कर्म को हम “इच्छा” से जोड़ रहे हैं.  जहाँ से इच्छा है, वहाँ से कल्पनाशीलता व कर्मस्वतंत्रता है.  प्रत्येक मानव में कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता है, जिससे वह समझने की क्षमता से संपन्न है.  इसीलिये किसी भी मानव की कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता को रोक देना न्याय नहीं होगा.  दया पूर्ण कार्य व्यवहार या जीने देने से आशय है – किसी के कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता को नहीं रोकना.  कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता में परिमार्जन करना भाषा की मर्यादा होती है, कार्यक्रम होता है, उद्देश्य होता है.  किसी भी सामाजिक या बौद्धिक कार्यक्रम का उद्देश्य होता है – प्रत्येक मनुष्य में जो कल्पनाशीलता-कर्मस्वतंत्रता है, वह व्यवस्था के अर्थ से सूत्रित हो जाए. 

[३] परम्परा में जो काव्य के ९ रस बताये गए हैं (जैसे – श्रृंगार रस, भक्ति रस, वीभत्स रस आदि) – और मध्यस्थ दर्शन में जो ९ मूल्य बताये गए हैं, ये दोनों एक नहीं हैं.  मध्यस्थ दर्शन के अनुसार वीभत्स, घृणा आदि कोई रस नहीं हैं.  यहाँ मूल्य और भाव की बात की गयी है.  भाव को स्थिति-गति में स्थापित मूल्य और शिष्ट मूल्य के स्वरूप में बताया है. 

[४] परम्परा में अलंकार और उपमा को दे पाना भाषाई लालित्य या कौशल मानते हैं.  इस तरह की भाषा के प्रयोग से यदि वास्तविकता छिप जाए तो भाषा का उद्देश्य पूरा नहीं होगा.  वास्तविकता को अच्छे से व्यक्त करने के लिए अलंकार और उपमा का कितना महत्त्व है – यह शोध का विषय होगा.  आजकल आधुनिक विज्ञान और शिक्षा में अलंकार का उपयोग कम से कम हो गया है.  सीधी-सपाट भाषा का ज्यादा प्रयोग अब होता है.

[५] आदर्शवादी परम्परा में “मैं कर रहा हूँ” – इस प्रकार की भाषा के प्रयोग को अहंकार माना गया और अहंकार को बहुत ही बुरी चीज़ माना गया.  यहाँ तक कहा गया कि यदि कोई कहता है कि “मैं जानता हूँ” तो वह अहंकारी है, मिथ्यावादी है.  इसलिए जिम्मेदारी रहित भाषा एक तरह बनती गयी – क्योंकि आदर्शवाद में मूलतः ईश्वर को ही जिम्मेदार माना गया है.  मध्यस्थ दर्शन में कहा गया – अनुभव ही एक ऐसी चीज़ है जिसको सबसे ज्यादा ठोक-बजा कर बोला जा सकता है.  अनुभव ही पूर्णतः व्यक्त हो सकता है.  जिस व्यक्ति को अनुभव हुआ वो कह सकता है कि मैंने यह किया.  इस तरह अहंकार की भाषा और प्रामाणिकता की भाषा के भेद को हमे पहचानना होगा.  व्यक्तिवादी भाषा और प्रामाणिकतावादी भाषा के अंतर को स्पष्ट कर सके – यह भाषा की मर्यादा होनी चाहिए.

अंत में मैं मानव व्यव्हार दर्शन के पृष्ठ ३४ पर दिए सूत्र को उद्धृत करना चाहता हूँ.

“भाषा के मूल में भाव, भाव के मूल में मौलिकता, मौलिकता के मूल में मूल्यांकन, मूल्यांकन में मूल में दर्शन, दर्हन के मूल में दर्शक, दर्शक के मूल में क्षमता-योग्यता-पात्रता, क्षमता-योग्यता-पात्रता के मूल में सत्य भास-आभास-प्रतीति, सत्य भास-आभास-प्रतीति के मूल में भाषा.”

तो भास, आभास, प्रतीति सहित यदि कुछ बोला जाता है, तभी दूसरे को भास होगा.

मुझे आपने अवसर दिया, इसके लिए धन्यवाद!

 

Sunday, January 3, 2021

अध्ययन तर्क से आगे है.


अध्ययन के लिए जिज्ञासा और निष्ठा पैदा होने तक तर्क है.  अध्ययन में तर्क नहीं है.  साक्षात्कार में तर्क नहीं है.  (अनुभवगामी) बोध में तर्क नहीं है.  अनुभव में तर्क नहीं है.  अनुभव प्रमाण बोध में तर्क नहीं है.  फिर चिंतन में भी तर्क नहीं है.  जब दूसरे को समझाने जाते हैं तो उसके लिए चित्रण करने के लिए पुनः तर्क आता है, क्योंकि चित्रण किये बिना समझाना बनता नहीं है.  चित्रण जहाँ है, वहाँ तर्क है.  यह demarcation अपने में बना कर रखना.  

अध्ययन तर्क से आगे है.  अध्ययन है - अस्तित्व में वस्तु को पहचानना, वह समझ में आना.  न्याय, धर्म, सत्य, नियम, नियंत्रण, संतुलन समझ में आना है.  चार अवस्थाओं का स्वभाव-धर्म समझ में आना है.  

"अस्तित्व में ही सब वस्तु है" - यह बात आदर्शवादी स्पष्ट नहीं कर पाए.  भौतिकवादी तरीके में यह स्पष्ट करना कोई ज़रुरत नहीं रहा, उनका तर्क-संगत विधि चित्रण तक ही रहा और वह चित्रण पांच संवेदनाओं को राजी रखने में संलग्न रहा.

भौतिकवादी और आदर्शवादी दोनों पठन तक ही पहुंचे.  भौतिकवादी पठन के साथ प्रयोग में चले गए.  आदर्शवादी पठन के साथ उपदेश में चले गए.  धीरे-धीरे उपदेश वाले कमज़ोर पड़ गए, प्रयोग वालों का बोलबाला हो गया.  उसके चलते यह धरती ही बीमार हो गयी.  इस लिए पुनर्विचार की ज़रूरत आ गयी.  तब जाकर अध्ययन की बात स्थापित हुई.  

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मार्च २००८, अमरकंटक)