ANNOUNCEMENTS



Monday, May 22, 2017

मानव के अध्ययन का आधार

मनुष्य जो कुछ भी करता है - उसके मूल में "अच्छा लगने" की इच्छा है। सबसे पहले मनुष्य को संवेदनाओं में ही अच्छा लगता है। यही मानव की कल्पना-शीलता और कर्म-स्वतंत्रता का पहला प्रभाव है। इसी आधार पर मानव को ज्ञान-अवस्था में कहा है। मनुष्य का सारा क्रिया-कलाप सुख की अपेक्षा में है - यहीं से मानव का अध्ययन शुरू होता है। इस विधि से जब हम मानव का अध्ययन करने जाते हैं - तो यह विगत के इतिहास में जो कुछ भी हुआ, उससे जुड़ता नहीं है। इसके साथ विगत का सारा screen ख़त्म।

मानव के अध्ययन का reference यह हुआ, न कि विगत का कोई अवशेष!

विगत से आपके पास मानव-शरीर है, और भाषा (शब्द-संसार) है। और विगत का कोई पुच्छल्ला इस प्रस्ताव के अध्ययन के लिए आपको नहीं चाहिए। शब्द/भाषा विगत से है - परिभाषाएं इस प्रस्ताव की हैं। परिभाषाएं ज्ञान के अर्थ में हैं।

यहाँ से आप अध्ययन शुरू करिए।

शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध इन्द्रियों का जो ज्ञान है - वह किसको होता है? शरीर को होता है, या शरीर के अलावा और किसी को होता है? विगत में ज्ञान, ज्ञाता, और ज्ञेय ब्रह्म को ही बताया। साथ ही ब्रह्म को अव्यक्त और अनिर्वचनीय बता दिया। उसके विकल्प में यहाँ प्रस्तावित है - ज्ञान व्यक्त है और ज्ञान वचनीय भी है। ज्ञान को हम समझ सकते हैं, और समझा भी सकते हैं। ज्ञान का मतलब ही यही है - जिसे हम समझ भी सकें, और समझा भी पाएं। ज्ञान शरीर को नहीं होता। ज्ञान जीवन को होता है। जीवन ही ज्ञाता है। इन्द्रियों से भी जो ज्ञान होता है वह जीवन को ही होता है। जीवन ही समझता है। जीवन ही जीवन को समझाता है।

यहाँ एक समीक्षा हो सकती है - विगत ने हमको क्या दिया फ़िर? विगत से आयी आदर्शवाद और भौतिकवाद (बनाम विज्ञान) ने हमको क्या दिया? आदर्शवाद ने हमको शब्द-ज्ञान दिया - जिसके लिए उसका धन्यवाद है। भौतिकवाद (विज्ञान) ने सभी तरह के time और space के नाप-तौल की विधियां दी, जिससे कार्य (work) को पहचाना गया - जिसके लिए उसका धन्यवाद है।

 इन दोनों से मनुष्य को जो ज्ञान हुआ वह पर्याप्त नहीं हुआ। कुछ और समझने की ज़रूरत बनी रही। इसकी गवाही है - धरती का बीमार होना।

धरती क्यों और कैसे बीमार हो गयी, और यह ठीक कैसे होगी - इसके लिए जो ज्ञान चाहिए वह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों के पास नहीं है।

यही मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का reference point है। तर्क-संगत होने के लिए, व्यवहार-संगत होने के लिए, अपने-आप का मूल्यांकन करने के लिए, और स्वयं का अध्ययन करने के लिए - यही reference point है। अध्ययन के लिए इस reference point को अपने में अच्छे से स्थिर बनाना चाहिए, वरना हम बारम्बार वही पुराने में गुड-गोबर करने लगते हैं।

इस तरह - इस विकल्प को सोचने के लिए, अध्ययन करने के लिए हमारे पास एक आधार-भूमि तैयार हुई।

(अगस्त २००६)

प्रश्न:  हम आपको कैसे सुनें?  किस तरह आपसे अपनी जिज्ञासा व्यक्त करें?  कैसे आपकी बात का मनन करें ताकि उसको हम पूर्णतया सही-सही ग्रहण कर सकें और किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकें?

उत्तर: जीने में इसको प्रमाणित करना चाहते हैं, तभी यह जिज्ञासा बनता है.  सुनने का तरीका, सोचने का तरीका, सोचने में कहीं रुकें तो प्रश्न करने का तरीका, प्रश्न के उत्तर को पुनः अपने विचार में ले जाने का तरीका, अंततोगत्वा निश्चयन तक पहुँचने का तरीका - ये सब इसमें शामिल है.  यह संवाद की अच्छी पृष्ठ-भूमि है, इस पर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है.

इसमें पहली बात है जो सुनते हैं उसी को सुनें, उसमें मिलावट करने का प्रयत्न न करें।  भाषा को न बदलें।  भाषा से इंगित होने वाली वस्तु को न बदलें।  अभी लोगों पर इस बात की गहरी मान्यता है कि "जिससे बात करनी है, उसी की भाषा में हमको बात करना पड़ेगा।"  जबकि उस भाषा के चलते ही वह सुविधा-संग्रह के चंगुल में पहुँचा है.  सुविधा-संग्रह को पूरा करने के उद्देश्य से ही उस सारी भाषा का प्रयोग है, जबकि वास्तविकता यह है कि सुविधा-संग्रह लक्ष्य पूरा होता नहीं है.  इस संसार में सुविधा-संग्रह से मुक्त कोई भाषा ही नहीं है.  चाहे १० शब्दों वाली भाषा हो या १० करोड़ शब्दों वाली भाषा हो.  इस बात को सम्प्रेषित करने के लिए भाषा को बदलना होगा (ऐसा मैंने निर्णय किया).  जिस भाषा से अर्थ बोध होता हो वह भाषा सही है.  जिस भाषा में अर्थ बोध ही नहीं होना है, सुविधा-संग्रह का चक्कर ही बना रहना है, उस भाषा में इसको बता के भी क्या होगा?  ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी तीन जात में सारे आदमी हैं.  ये तीनों जात के आदमी सुविधा-संग्रह के चक्कर में पड़े हैं.

तो मूल बात की भाषा को न बदला जाए, उससे इंगित वस्तु को न बदला जाए.  वस्तु (वास्तविकता) स्थिर है.  यदि भाषा के साथ तोड़-मरोड़ करते हैं तो अर्थ बदल जाएगा, अर्थ बदला तो उससे वस्तु इंगित नहीं होगा।

मैंने जब इस बात को रखा तो कुछ लोगों ने कहा - "आप ऐसा कहोगे तो हम कुछ भी अपना नहीं कर पाएंगे?"

मैंने उनसे पूछा - इस भाषा को छोड़ के, कुछ और भाषा जोड़के आप क्या कर लोगे?  सिवाय संसार को भय-प्रलोभन और सुविधा-संग्रह की ओर दौड़ाने के आप क्या कर लोगे?  मूल बात की भाषा को बदलोगे तो आपका कथन वही सुविधा-संग्रह में ही जाएगा।  धीरे-धीरे उनको समझ में आ गया कि जो कहा जा रहा है उसको उसी के अनुसार सुना जाए, समझा जाए और जी के प्रमाणित किया जाए.  जी के प्रमाणित करने में कमी मिले तो इसको बदला जाए.  जिए बिना कैसे इसको बदलोगे?  इसको जिए नहीं हैं, पहले से ही इसमें परिवर्तन करने लगें तो वह आपकी अपनी व्याख्या होगी, मूल बात नहीं होगी।

परिवर्तन के साथ घमंड होता ही है.  मूल बात का reference point छूट गया फिर.  reference point छोड़ के हम संसार को सच्चाई बताने गए तो सवाल आएगा ही - इसका आधार क्या है?  स्वयं अनुभव हुआ नहीं है तो क्या हालत होगी?

या तो इस घोषणा के साथ शुरू करो कि मैं अनुभव-संपन्न हूँ, प्रमाण हूँ.  नहीं तो reference point से शुरू करो.  अनुभव यदि हो भी गया तो किस आधार पर हुआ - यह प्रश्न आएगा।  उसके उत्तर में जाएंगे तो मूल बात का reference ही आएगा।

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

अस्तित्व को समझने के लिए आधार (reference) को मानव ही प्रस्तुत करेगा।  अभी तक जिनको भी आधार  (reference) मानते हैं, वे मानव द्वारा ही प्रस्तुत किये गए हैं। उन आधारों पर चलने से तथ्य कुछ मिला नहीं।  प्रचलित आधारों को छोड़ करके यह प्रस्ताव है।  मैं इस नए आधार (reference) का प्रणेता हूँ।   इसको जांचने की आवश्यकता है कि यह पूरा पड़ता है या नहीं।  जांचने का अधिकार सभी के पास है।

प्रश्न: अध्ययन का यह नया आधार क्यों आया?

उत्तर: परंपरागत आधारों पर चलने से अपराध-मुक्ति का कोई स्वरूप निकला नहीं.  परंपरागत आधार न्याय, धर्म, सत्य का लोकव्यापीकरण कर नहीं पाए.  न्याय, धर्म, सत्य के लोकव्यापीकरण और अपराध-मुक्ति के लिए यह अध्ययन का नया आधार आया है.

(अप्रैल २००८, अमरकंटक)

"चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" विधि से शिक्षा-तंत्र, संविधान-तंत्र, न्याय-तंत्र, उत्पादन-तंत्र, विनिमय-तंत्र, और स्वास्थ्य-संयम तंत्र के पक्ष में कार्य-व्यवहार के स्वरूप का प्रस्ताव प्रस्तुत हो चुका है। इन सभी मुद्दों पर मानव-परम्परा में पूर्णतया ध्यान देने की आवश्यकता है। इस मुद्दे पर अस्तित्व-मूलक मानव-केंद्रित चिंतन के मूल प्रबंधों (दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान, योजना) को प्रस्तुत किया जा चुका है। इन मुद्दों पर ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी के संतुष्ट होने के पश्चात मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद में इंगित अनेक मुद्दों पर प्रबंध, उप-प्रबंध, लघु-प्रबंध लिखा जा सकता है। जिनका आगे जो कक्षा १ से कक्षा १२ तक की पाठ्य-पुस्तकें बनेंगी - उनमें उपयोग होने का स्थान रहेगा।

मूल प्रबंध जो दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान के रूप में तैयार हुआ है - आरंभिक रूप में इसी के आधार पर पारंगत होने की आवश्यकता है। इसमें पारंगत व्यक्ति ही इन मूल प्रबंधों के आधार पर उप-प्रबंध, और लघु-प्रबंधों को प्रस्तुत करेगा। ऐसा प्रावधान आगे जो इस विचारधारा में प्रवेश चाहते हैं, उनके लिए सहायक होगा। मेरा विश्वास है - आगे आने वाले विद्वान, मनीषी, प्रतिभाशाली, विवेकी अपने स्वयं-स्फूर्त विधि से सर्व-शुभ के लिए ही अपने मंतव्यों को व्यक्त करेगा। इस विधि से उपकार होना स्वाभाविक है।

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

(अप्रैल २००६, अमरकंटक)

भाषा को बदलना विद्वता नहीं है। जो आपने सुना उसको दूसरे शब्दों में बदल दिया तो आप समझे कहाँ? जो मैंने कहा, उसको आपने बदल दिया – वहाँ भ्रान्ति होता ही है। बदली हुई भाषा से वह अर्थ इंगित ही नहीं होता है, तो भ्रान्ति के अलावा क्या होगा? मूल शब्द का छूटने को ही विद्वता मान लिया। जैसा भाषा है, उसको सुना जाए, उससे जो अर्थ इंगित है, उसको अपनाया जाए। इसमें किसको क्या तकलीफ है?

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

प्रश्न: आपकी भाषा शैली के बारे में कुछ बताइये.  हम दर्शन को दूसरी भाषाओँ में ले जाते समय किन बातों का ध्यान रखें?

भाषा अपने में स्वतन्त्र नहीं है, मानव द्वारा रचित शैली द्वारा नियंत्रित है.  शैली का एक आयाम है - कर्ता, कारण, कार्य, फल-परिणाम इनमे से किसको महत्त्व या प्राथमिकता देनी है उसको पहले रखना.
दर्शन में कारण को महत्त्व दिया है.  वाद में कर्ता को महत्त्व दिया है.  शास्त्र में कार्य को महत्त्व दिया है.  संविधान में फल-परिणाम को महत्त्व दिया है.

लिंग के आधार पर विभक्तियों को कम या समाप्त कर दिया.  इस प्रस्ताव को दूसरी भाषाओँ में ले जाते समय इस बात का ध्यान रहे.

प्रश्न:  शैली क्या समय के साथ बदलती है?

मूल वस्तु बदलता नहीं है, उसको बताने का तरीका समय के साथ बदल जाता है.

प्रश्न:  आपने अपनी समझ को बताने के लिए शब्दों का चुनाव कैसे किया?

उत्तर:  मैंने जब वस्तु को देखा तो उसको बताने के लिए नाम अपने आप से मुझ में आने लगा.  शब्द को मैंने बुलाया नहीं, शब्द अपने आप से आने लगा.  उसमें से एक शब्द को लगा दिया.

मैंने प्रयत्न पूर्वक इस दर्शन को व्यक्त किया, ऐसा नहीं है.  यह स्वाभाविक रूप में हुआ.  समझने के बाद सबको ऐसा ही होगा.  समझ के लिखा जाए तो लाभ होगा.

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

भविष्य में जब मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्व-वाद की परंपरा स्थापित होती है, तो क्या वैदिक विचार बना रहेगा या विलय हो जाएगा?

वैदिक विचार में की गयी शुभकामना स्वीकार होगा। शुभ-कामना के अनुरूप जो शिक्षा मिलनी चाहिए, वह मिलेगा। इसमें किसको क्या तकलीफ है? शुभ को प्रमाणित करने का स्वरूप मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद दिया है। यह किसी का विरोध नहीं है। विरोध करके हम आगे चल नहीं पायेंगे। मैंने किसी विरोधाभास को अपनाया नहीं है। यदि मेरी प्रस्तुति में कोई विरोधाभास है तो आप बताइये - मैं उसको ठीक कर दूंगा।

आदर्शवाद से हमे भाषा मिला। वे भी इसको "श्रुति" ही कहे हैं। भौतिकवाद से दूर-संचार मिला। ये दोनों (भाषा और दूर-संचार) मानव-जाति के लिए देन हैं - सटीक जीने के लिए। इनको परंपरा में बनाए रखने की आवश्यकता है।

भाषा जो हमे आदर्शवाद से मिला वह 'धातु' के आधार पर ध्वनित था। यहाँ मैंने ध्वनि के आधार पर परिभाषा दे दिया। इसकी आवश्यकता है या नहीं? - इसको आप विद्वान लोग सोचें!

आदर्शवाद से जो हमको प्रेरणा मिला, और भौतिकवाद से जो हमको प्रेरणा मिला - उसका विकल्प है यह! यह प्रस्ताव आदर्शवाद और भौतिकवाद के लक्ष्य से सम्बद्ध नहीं है। आदर्शवाद (रहस्यात्मक अध्यात्मवाद) में 'अस्तित्व-विहीन मोक्ष' के लक्ष्य की बात की गयी है। उससे मध्यस्थ दर्शन के प्रस्ताव सम्बद्ध नहीं है। यहाँ 'अस्तित्वपूर्ण मोक्ष' की बात है। क्या लक्ष्य चाहिए - आप ही सोच लो! हमको उससे कोई परेशानी नहीं है। 'अस्तित्व विहीन मोक्ष' चाहिए तो रहस्यात्मक अध्यात्मवाद के पास जाओ। आदर्शवाद रहस्यमूलक होने से 'अस्तित्व-पूर्ण मोक्ष' को बता नहीं पाया। 'अस्तित्व विहीन मोक्ष' से मनुष्य संतुष्ट हो नहीं सकता। रहस्य विधि से अध्ययन हो नहीं सकता। रहस्य-विधि से हम शुभकामना ही व्यक्त कर सकते हैं। वही आदर्शवाद किया। रहस्य-विधि से हम प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते। शुभकामना व्यक्त करने मात्र से प्रमाण कहाँ हुआ?

आदर्शवाद में ज्ञान को सर्वोच्च बताया। ज्ञान क्या है? पूछा तो बताया - ब्रह्म ही ज्ञान है। ब्रह्म क्या है? -पूछा तो बताया - दृष्टा, दृश्य, दर्शन ये तीनो ब्रह्म ही हैं। कार्य, कारण, कर्ता - ये तीनो ब्रह्म ही हैं। यदि केवल ब्रह्म ही है - तो आप-हम क्यों बने हैं? किस प्रयोजन के लिए आपका नाम अलग है, मेरा नाम अलग है - सबका नाम 'ब्रह्म' ही क्यों नहीं हुआ? रहस्य से हम पार नहीं पाए। आप पार पाते हों, तो बताते रहना। आप रहस्य से पार नहीं पाओगे - यह मैं क्यों कहूं? इसीलिये अपनी बात को विकल्प रूप में प्रस्तुत किया।

प्रमाण को प्रस्तुत करने के लिए विकल्प दिया। इस विकल्प से किस ज्ञानी, किस विज्ञानी, किस अज्ञानी को तकलीफ है? प्रमाण चाहिए तो अध्ययन करके देखो! अध्ययन पूर्वक प्रमाण होता है तो आप उसको अपनाओगे, नहीं तो आप उसको अपनाओगे नहीं।

 (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

यहाँ आने से पहले - मुझे विज्ञान विधि से तर्क ठीक है, यह स्वीकृत रहा। और वेद-वेदान्त का "मोक्ष" शब्द मुझको स्वीकृत रहा। मोक्ष तो होना चाहिए - पर मोक्ष सब कुछ को छोड़ कर होना चाहिए - यह मेरा स्वीकृति नहीं हुई। विरक्ति छोड़े बिना हो नहीं सकती। विरक्ति-विधि बिना साधना हो नहीं सकती। यह तो शास्त्रों में भी लिखा हुआ है। इसी आधार पर मैंने अपने आप को साधना के लिए setup किया। हर अवस्था में चल के देखा। चलकर यही हुआ - यंत्रणा हमको पहुँचा नहीं। दो-चार हाथ दूर से ही चला गया। समस्या हमको छुआ नहीं। संसार का तर्क हमको परास्त नहीं कर पाया। यह सब उपकार नियति-विधि से ही होती रही। इसके अलावा मैं कहाँ thanks pay करूँ - बताओ?

इस ढंग से चल कर के जो अंत में निकला - उसको मैंने मानव का पुण्य माना। अपनी साधना का फल मैंने नहीं माना। इसीलिये निर्णय किया - मानव को इसे पकडाया जाए। पकडाने में ही सारा चक्कर है - पापड बेल रहे हैं! आप सभी जो मेरे साथ इस टेबल पर बैठे हो - आप सभी के साथ ऐसा ही है। "हमारा विचार" कह कर अपनी बात रखते हो - तो मैं क्या तुमको बताऊँ? "आपका विचार" क्या हुआ? मानव का विचार यह है! देवमानव का विचार यह है! दिव्यमानव का विचार यह है! पशुमानव का विचार यह है! राक्षसमानव का विचार यह है! इन पाँच विचार शैलियों को पढ़ लो! यदि इच्छा हो तो! नहीं इच्छा हो तो बिल्कुल कृपा करो! यह जो विचारों को demarcate करने का अधिकार (मुझमें) आया - उसको अदभुत मानो! यह चेतना विधि से किया - जीवचेतना, मानवचेतना, देवचेतना, और दिव्यचेतना के अनुसार विचार हैं। अब उसमें आप कहते हो - तुम्हारा भाषा कठिन है! कैसे मैं इसका व्याख्या करूँ, बड़ा मुश्किल है! केवल आपका सम्मान करने के अलावा हम कुछ कर नहीं पाते हैं।

(अमरकंटक, अगस्त २००६)

बाबा श्री ए. नागराज के साथ संवाद के आधार पर

Thursday, May 18, 2017

तदाकार-तद्रूप

वस्तु का मतलब है - जो अपनी वास्तविकता को प्रकाशित करे। दो तरह की वस्तुएं हैं। इकाइयां या प्रकृति - जिनको हम गिन सकते हैं। और दूसरी व्यापक (Space or emptiness), जिसमें सभी इकाइयाँ डूबी-भीगी-घिरी हैं। इकाइयों की वास्तविकता चार आयामों में है - रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म। व्यापक (शून्य) की वास्तविकता तीन आयामों में है - पारगामियता, पारदर्शिता, और व्यापकता। व्यापक में संपृक्त प्रकृति ही अस्तित्व समग्र है। मध्यस्थ-दर्शन अस्तित्व के अध्ययन का प्रस्ताव है।

प्रस्ताव शब्दों में है। शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के मूल में अस्तित्व में वस्तु होता है। अध्ययन पूर्वक वस्तु का अर्थ व्यक्ति को बोध हो जाता है।

तत्-सान्निध्य - कोई भी वस्तु सान्निध्य (पास में होना) में ही दिखता है। शब्द से इंगित वस्तु का सान्निध्य हो जाना = तत्-सान्निध्य। जैसे - "यह खाली स्थली ही व्यापक वस्तु है", इस तरह अंगुली-न्यास हो जाना व्यापक का तत्-सान्निध्य है। "यह वस्तु पदार्थावस्था है", इस तरह अंगुली-न्यास हो जाना ही पदार्थावस्था से तत्-सान्निध्य है।

तदाकार - वस्तु पर ध्यान देने से वस्तु के आकार में जब हमारा ज्ञान होता है, तब हम वस्तु को समझे। यही तदाकार का मतलब है। तदाकार विधि से हम एक एक वस्तु को पहचानते हैं। अध्ययन विधि से जीवन एक-एक वस्तु में तदाकार होता है। प्रकृति की इकाइयों के साथ तदाकार होने का मतलब उनके रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म को समझना। रूप और गुण के साथ मनाकार होता है। स्व-भाव और धर्म का बोध और अनुभव होता है। व्यापक वस्तु का केवल अनुभव होता है।

तद्रूप - व्यापक और ज्ञान में भेद समाप्त हो जाना ही तद्रूप है। "व्यापक वस्तु ही जीवन में ज्ञान है" - यही अनुभव में आता है।

तदाकार विधि से अध्ययन के पूर्ण होने पर जीवन तद्रूपता में स्वयं को पाता है। तद्रूपता में ही प्रमाण है।

- (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

शब्द से अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में पहचानने के लिए मन को लगाना पड़ता है। शब्द से इंगित अस्तित्व में वस्तु को स्वीकारना होता है, तब तदाकार होने की बात आती है। यदि शब्द से कोई वस्तु अस्तित्व में इंगित नहीं होती तो वह शब्द सार्थक नहीं है। वस्तु को स्वीकारते नहीं हैं तो तदाकार नहीं हो पाते। तदाकार होने पर तद्रूप होते ही हैं। उसके लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है - वह परमार्थ ही है।

तदाकार होना ही अध्ययन है। तद्रूप होना ही अनुभव है। तद्रूप होने पर प्रमाण होता ही है, उसके लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। प्रमाण तो व्यक्त होता ही है. जैसे – आप जो पूछते हो, उसका उत्तर मेरे पास रहता ही है। अनुभव-मूलक विधि से व्यक्त होने वाला अध्ययन कराएगा। अनुभव की रोशनी में ही अध्ययन करने वाले का विश्वास होता है। विश्वास के आधार पर ही वस्तु का बोध होता है। वस्तु का बोध होने पर तदाकार हुआ।

(अक्टूबर २०१०, बांदा)

अनुसन्धान पूर्वक जो मुझे समझ आया उसकी सूचना मैंने प्रस्तुत की है। इस सूचना से तदाकार-तद्रूप होना आप सभी के लिए अनुकूल होगा, यह मान कर मैंने इस प्रस्तुत किया है। तदाकार-तद्रूप होने का भाग (कल्पनाशीलता के रूप में ) आप ही के पास है।

"सूचना और उसमें तदाकार-तद्रूप होना" - यह सिद्धांत है। अभी तक चाहे आबाद, बर्बाद, अच्छा, बुरा जैसे भी मनुष्य जिया हो - इसी सिद्धांत पर चला है। मानव जाति का यही स्वरूप है। अभी भी जो मानव-जाति चल रही है, वह तदाकार-तद्रूप विधि से ही चल रही है।

व्यवस्था में हम सभी जीना चाहते हैं। (मध्यस्थ-दर्शन द्वारा प्रस्तावित) व्यवस्था के स्वरूप को मान करके ही (इसके अध्ययन की) शुरुआत होती है। समझ के लिए जो सूचना आवश्यक है - वह पहले से ही उपलब्ध रहता है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है, तदाकार-तद्रूप होने का भाग आपका है।

जब मैंने शुरू किया था - तब "व्यवस्था के स्वरूप" को समझाने की कोई सूचना नहीं थी। न तदाकार-तद्रूप होने का कोई रास्ता था। उस कष्ट से सभी न गुजरें, इसलिए व्यवस्था के स्वरूप की सूचना प्रस्तुत की है, और उसमें तदाकार-तद्रूप होने की अध्ययन-विधि प्रस्तावित की है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है। उसमें तदाकार-तद्रूप आपको होना है।

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

हर मनुष्य में तदाकार-तद्रूप होने का माद्दा है। कल्पनाशीलता के आधार पर तदाकार होते हैं। जिसके फलन में अनुभव मूलक विधि से तद्रूपता को प्रमाणित करते हैं।

प्राप्त का अनुभव और प्राप्य का सान्निध्य होता है। सत्ता (व्यापक) हमको "प्राप्त" है - उसका हमको अनुभव करना है। सभी मनुष्य-सम्बन्ध और मनुष्येत्तर सम्बन्ध हमको "प्राप्य" हैं - उनको हम तदाकार विधि से समझते हैं, और तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। जैसे - आपकी माता के साथ आपका सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को आप तदाकार विधि से समझते हैं, और समझने के बाद इस सम्बन्ध में न्याय प्रमाणित करना है या नहीं करना है - उसका आप निर्णय लेते हैं। समझने के बाद "न्याय प्रमाणित करना है" - यही निर्णय करना बनता है। फ़िर उस सम्बन्ध को आप तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। उसी तरह व्यवस्था संबंधों को भी तदाकार-तद्रूपता विधि से प्रमाणित करते हैं। उसी तरह उपकार करने में भी तदाकार-तद्रूप विधि से प्रमाणित होते हैं। तदाकार-तद्रूप विधि के अलावा स्वयं को प्रमाणित करने का दूसरा कोई विधि हो ही नहीं सकता।

प्रश्न: तदाकार-तद्रूप नहीं हो पा रहे हैं - तो क्या करें?

उत्तर: उसके कारण को खोजना पड़ेगा। यदि अपनी कल्पनाशीलता को हम अमानवीय कृत्यों में जीव-चेतना विधि से प्रयोग करते हैं - तो उससे छूट नहीं पाते हैं। इस तरह सुविधा-संग्रह बलवती हो जाता है, समाधान-समृद्धि लक्ष्य की प्राथमिकता नीचे चली जाती है। यदि समाधान-समृद्धि लक्ष्य प्राथमिक बनता है, तो बाकी सब उसके नीचे चला जाता है। समाधान-समृद्धि में जब हम पारंगत हो जाते हैं, तो बाकी सब उसमें घुल जाता है। समस्याएं समाधान में विलय हो जाती हैं। उनका कोई अवशेष नहीं बचता। सारा अज्ञान ज्ञान में विलय हो जाता है।

ज्ञान के पक्ष में हम सभी हैं। ज्ञान क्या है - उसको स्वीकारने का माद्दा मनुष्य में है। जीव-चेतना को हम पकड़े रहे - और हमको ज्ञान हो जाए, यह हो नहीं सकता। मानव-चेतना में जीव-चेतना विलय होता है।

मनुष्य में जीवन-सहज विधि से तदाकार-तद्रूप होने की विधि है। जैसे अभी रूप, पद, धन, और बल के साथ तदाकार-तद्रूप है ही मनुष्य। सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप होना शेष रह गया। सच्चाई क्या है? - उसके लिए मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव आपके अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान परम-सत्य है। सह-अस्तित्व में जीवन-ज्ञान परम-सत्य है। सह-अस्तित्व में ही जीवन है। सह-अस्तित्व से परे कुछ भी नहीं है। जीवन ही ज्ञान का धारक-वाहक है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - ये तीनो के मिलने से ज्ञान हुआ।

सत्य हमको प्राप्त है। प्राप्त का हमको अनुभव करना है। अनुभव के लिए अध्ययन आवश्यक है।

तदाकार-तद्रूप होना ही अनुभव है। अनुभव उससे अलग नहीं है।

(दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

पढ़ना आ जाने या लिखना आ जाने मात्र से हम विद्वान नहीं हुए। समझ में आने पर या पारंगत होने पर ही अध्ययन हुआ। समझ में आने पर ही प्रमाणित होने की बात हुई. प्रमाणित होने का मतलब है – अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या में जी पाना। अध्ययन का मतलब है – शब्द के अर्थ में तदाकार-तद्रूप होना। आपके पास जो कल्पनाशीलता है, उसके साथ सह-अस्तित्व में तदाकार-तद्रूप हुआ जा सकता है। सह-अस्तित्व रहता ही है। सह-अस्तित्व न हो, ऐसा कोई क्षण नहीं है। कल्पनाशीलता न हो, ऐसा कोई मानव होता नहीं है। हर जीते हुए मानव में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है। अब तदाकार-तद्रूप होने में आप कहाँ अटके हैं, उसको पहचानने की आवश्यकता है।

आवश्यकता महसूस होता है तो तदाकार होता ही है, तद्रूप होता ही है। जब अनुसंधान विधि से तदाकार-तद्रूप होता है, तो अध्ययन-विधि से क्यों नहीं होगा भाई? तदाकार-तद्रूप विधि से ही तो मैं भी इसको पाया हूँ। आप किताब से या शब्द से प्रकृति में तदाकार-तद्रूप होने तक जाओगे। किताब केवल सूचना है। किताब में लिखे शब्द से इंगित अर्थ के साथ तदाकार-तद्रूप होने पर समझ में आता है।

जब समाधान, नियम, नियंत्रण, स्व-धन, स्व-नारी-स्व-पुरुष, दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार एक “आवश्यकता” के रूप में स्वीकार होता है, तभी तदाकार-तद्रूप होता है, अनुभव होता है। अन्यथा नहीं होता है। किसी की आवश्यकता बने बिना उसे समझाने के लिए जो हम प्रयास करते हैं, वह उपदेश ही होता है, सूचना तक ही पहुँचता है। अध्ययन से ही हर व्यक्ति पारंगत होता है। अध्ययन के बिना कोई पारंगत होता नहीं है। अनुभव मूलक विधि से ही हम प्रमाणित होते हैं। अनुभव के बिना हम प्रमाणित होते नहीं हैं। यह बात यदि समझ आता है तो अनुभव की आवश्यकता है या नहीं, आप देख लो! अनुभव की आवश्यकता आ गयी है तो अनुभव हो कर रहेगा। आवश्यकता के आधार पर ही हर व्यक्ति काम करता है। आपकी आवश्यकता बनने का कार्यक्रम आपमें स्वयं में ही होता है। दूसरा कोई आपकी आवश्यकता बना ही नहीं सकता. यही मुख्य बात है। हर व्यक्ति की जिम्मेदारी की बात वहीं है। अनुभव हर व्यक्ति की आवश्यकता है, ऐसा मान कर ही इस प्रस्ताव को प्रस्तुत किया है। अनुभव को व्यक्ति ही प्रमाणित करेगा. जानवर तो करेगा नहीं, पेड़-पौधे तो करेंगे नहीं, पत्थर तो करेंगे नहीं...

(सितम्बर २०११, अमरकंटक)

आपने हमको बताया: आपने साधना पूर्वक "समाधि" की स्थिति प्राप्त की। समाधि में आपने कहा - आपको ज्ञान नहीं हुआ। आपने फ़िर "संयम" करने का अपना डिजाईन बनाया। जिसके फलन में आपने एक परमाणु से लेकर मनुष्य तक अस्तित्व में व्यवस्था के स्वरूप को देखा, उसका अध्ययन किया। उसका आपने हमको वर्णन भी किया। क्या हम जो अध्ययन कर रहे हैं, उससे हमको वही सब दिखेगा?

उत्तर: मैंने जो देखा वह आपके पास सूचना है। सूचना होना भर आपके लिए पर्याप्त नहीं है। इस सूचना से आपको तदाकार होने तक जाना है। तदाकार होने पर आपको वही दिखेगा जो मुझे दिखा। अनुभव की रोशनी में स्मरण पूर्वक प्रयत्न करने से हम तदाकार होने की स्थिति में पहुँचते हैं।

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता हर व्यक्ति में पूंजी के रूप में रखा है। यह हर व्यक्ति में अध्ययन करने का स्त्रोत है। इससे ज्यादा क्या guarantee दी जाए?

मैंने एक मिट्टी से लेकर मानव तक त्व-सहित व्यवस्था में रहने के स्वरूप का अध्ययन किया। व्यवस्था में होने का प्रवृत्ति एक परमाणु-अंश में भी है, इस बात का मैं अध्ययन किया हूँ। तदाकार विधि से आप अध्ययन करेंगे तो आप को भी वैसे ही दिखेगा। इसके लिए कोई यंत्र काम नहीं आएगा, कोई किताब काम नहीं आएगा - केवल जीवन ही काम आएगा। जीवन की प्यास अस्तित्व सहज वास्तविकताओं में तदाकार होने पर ही बुझती है।

तदाकार होने तक पहुंचाना ही अध्ययन की मूल चेष्टा है।

शब्द से अर्थ की ओर ध्यान देने से अर्थ के मूल में अस्तित्व में जो वस्तु के साथ तदाकार होना बनता ही है। उसके बाद तद्रूप होना (प्रमाणित होना) स्वाभाविक है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में साक्षात्कार होने तक पुरुषार्थ है। उसके बाद बोध और अनुभव अपने आप होता है। साक्षात्कार के बाद बुद्धि में बोध, और आत्मा में अनुभव तुंरत ही होता है। उसमें देर नहीं लगती।

तदाकार होने की स्थिति में जब हम पहुँचते हैं - तो हमको स्पष्ट होता है:

वस्तु, वस्तु का प्रयोजन, और वस्तु के साथ हमारा सम्बन्ध।

यह हर वस्तु के साथ होना। इसमें कोई भी कड़ी छुटा तो वह केवल शब्द ही सुना है। इस association में जो सबसे प्रबल प्रस्ताव है, वह यही है।

तदाकार होने की स्थिति केवल अध्ययन से आता है। तद्रूप विधि से प्रमाण आता है - यह अनुभव के बाद होता है।

तदाकार-तद्रूप होने की स्थिति ही "दृष्टा-पद" है।

इससे पहले (मध्यस्थ-दर्शन के प्रकटन से पहले) भक्ति में तदाकार-तद्रूप की बात की गयी है। जैसे - नारद भक्ति सूत्र में। और कहीं तदाकार-तद्रूप की बात नहीं है। उसमें ईष्ट-देवता के साथ तदाकार-तद्रूप होने की बात कही गयी है। उसके लिए नवधा-भक्ति सूत्र दिया गया। कौन उन नौ सीढियों को पार कर पाया - उसका कोई प्रमाण परम्परा में आया नहीं।

यहाँ (मध्यस्थ-दर्शन में) कह रहे हैं - अस्तित्व में सभी वस्तुएं (वास्तविकताएं) हैं। वस्तु को पहचानना ज्ञान है। उसमें तदाकार होना भक्ति है। ज्ञान के बिना भक्ति होता नहीं है।

प्रश्न: क्या तदाकार-तद्रूप होने के लिए कोई discipline की आवश्यकता है?

उत्तर: जीने के लिए कोई "उपदेश" की ज़रूरत नहीं है। अस्तित्व सहज नियमो को पहचानने पर तदाकार-तद्रूप स्वरूप में जीने की अर्हता बन ही जाता है। समझदारी के लिए सूचना है। सूचना के बाद अध्ययन है। अध्ययन पूर्वक हम अनुभव मूलक विधि से जीने के लिए तैयार हो जाते हैं।

प्रश्न: समझने के क्रम में क्या discipline का कोई रोल नहीं है?

उत्तर: सही जीने का कोई मॉडल हो, उस ढंग से हम जीना शुरू कर देते हैं, तो उस ढंग से विचारने की ओर भी जाते हैं। सही जीने का मॉडल वही व्यक्ति होगा जो सही को समझा होगा। सही जीने का मॉडल है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। मॉडल का हम अनुकरण-अनुसरण करते हैं, उसके साथ शब्द को सुनते हैं, शब्द से अर्थ की ओर जाते हैं। अनुकरण-अनुसरण करना अध्ययन के लिए प्रेरणा है। अर्थ की ओर जाने पर उसके मूल में अस्तित्व में वस्तु से तदाकार होने का प्रवृत्ति जीवन में रहता ही है। तदाकार होने पर साक्षात्कार हो गया, बोध हो गया, अनुभव हो गया। अनुभव होने पर हम तद्रूप हो गए। तद्रूपता प्रमाण है।

प्रश्न: प्रमाण रूप में जीने का क्या अर्थ है?

उत्तर: प्रमाण रूप में जीना = हर मोड़-मुद्दे पर समाधानित जीना। श्रम पूर्वक अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन कर लेना। शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति इन तीन के अलावा भौतिक वस्तुओं का और कहीं नियोजन ही नहीं है। मानवीयता विधि से भौतिक वस्तुओं के सदुपयोग की सीमा यही तक है।

 (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

एक व्यक्ति जो समाधान पाया उसे हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इसका आधार है - कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। जो मैं बोलता हूँ, उसके अर्थ को समझने का अधिकार आपके पास कल्पनाशीलता के रूप में है। अर्थ में तदाकार-तद्रूप हो गया - मतलब समाधान हुआ। अनुभव हो गया, तो प्रमाण हो गया।

समझे हुए, प्रमाणित व्यक्ति के समझाने से समझ में आता है। जैसे - आप और मैं यहाँ बैठे हैं। मैं जो समझाता हूँ, वह आप के समझ में आता है - क्योंकि मैं समझा हुआ हूँ, प्रमाणित हूँ और आप समझना चाहते हैं। कल्पनाशीलता आपके पास भी है, मेरे पास भी है।

संयमकाल में मैंने अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से ही अध्ययन किया था। मैंने सीधे प्रकृति से अध्ययन किया था, आप मुझ से अध्ययन कर रहे हो।

समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप थी। या मेरी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चुप थी। संयम-काल में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता क्रियाशील हुई, तभी तो मैं अध्ययन कर पाया। संयम-काल में मैं सच्चाई के प्रति तदाकार-तद्रूप हुआ। ऐसे तदाकार-तद्रूप होना "ध्यान" देना हुआ कि नहीं? संयम-काल में मैंने आँखे खोल कर ध्यान किया। ऐसे तदाकार-तद्रूप होने का अधिकार आपके पास भी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है। कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता हर व्यक्ति में नियति प्रदत्त विधि से है, या सहअस्तित्व विधि से है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सब में समान रूप से है - चाहे अपने को "ज्ञानी" कहें, "विज्ञानी" कहें, या "अज्ञानी" कहें। इसीलिये मैं कहता हूँ - इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए सबको समान रूप से परिश्रम करना होगा।

मनुष्य ने जीव-चेतना में जीते हुए जीवों से अच्छा जीने के अर्थ में अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया। इसमें मनुष्य सफल भी हुआ। इस तरह मनुष्य आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरश्रवण, और दूरदर्शन सम्बन्धी सभी वस्तुओं को प्राप्त करने में सफल भी हो गया। इन सब को करने में कल्पनाशीलता का तृप्तिबिंदु न होने से मनुष्य "भोग कार्य" में लग गया। चाहे पढ़े-लिखे हों, या अनपढ़ हों - सब भोगवाद में परस्त हैं।

समाधान पूर्वक जिस दिन से जीना शुरू करते हैं, उस दिन से "मानव चेतना" की शुरुआत है।  इसको "गुणात्मक परिवर्तन" या "चेतना विकास" नाम दिया।

कल्पनाशीलता हर व्यक्ति के पास है। अनुभव करने का आधार वही है। कल्पनाशीलता जीवन में है, शरीर में नहीं है। इसी लिए "जीवन जागृति" की बात की है। जीवन जागृति का बिंदु "अनुभव" है। इतने दिन मनुष्य-जाति जो कुछ भी करता रहा, पर यह नहीं किया। मनुष्य के पास पांच विभूतियाँ हैं - रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि। मनुष्य ने इनमें से चार - रूप, बल, पद, और धन - का प्रयोग अपनी कर्मस्वतंत्रता के रहते करके देख किया। "बुद्धि" का प्रयोग अभी तक नहीं किया। बुद्धि का प्रयोग कल्पनाशीलता की तदाकार-तद्रूप विधि को छोड़ कर होगा नहीं। समझदारी के साथ हमको तदाकार-तद्रूप होना है। अभी तक जीव-चेतना में अवैध को वैध मानते हुए सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ तदाकार-तद्रूप रहे। अब एक ही उपाय है - मानव-चेतना को पाया जाए, और उसमें तदाकार-तद्रूपता को पाया जाए।

प्रश्न: आपने जब अध्ययन किया तो आपके पास कोई पूर्व-स्मृतियाँ नहीं थी, सब कुछ clean slate था। जबकि हम जो अध्ययन कर रहे हैं तो हमारे साथ तो बहुत पूर्व-स्मृतियाँ हैं जो इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं, फिर हम आपके जैसे अध्ययन कर सकते हैं, अनुभव तक पहुँच सकते हैं - इस बात पर कैसे विश्वास करें?

उत्तर: आपके पास जो "जिज्ञासा" है - वह समाधि की clean slate से कहीं बड़ी चीज है। जिज्ञासा, समझने की गति, और जीने की निष्ठा - इन तीनो को जोड़ने से उपलब्धि तक पहुँच सकते हैं। जीने की निष्ठा इच्छा शक्ति की बात है। जीने की निष्ठा में कमी के मूल में आपके पूर्वाग्रह ही हैं।

(दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

प्रश्न:  व्यापक वस्तु में तदाकार होने के लिए क्या करें?

उत्तर-  व्यापक वस्तु की महिमा समझ में आने पर ही उसमें तदाकार होना बनता है.  "व्यापक" शब्द सुनने मात्र से तदाकार नहीं होगा।  उसका महिमा ज्ञान होना आवश्यक है.  क्या महिमा?  साम्य ऊर्जा की व्यापकता, पारगामीयिता और पारदर्शीयता स्पष्ट होना।

स्वयं में ज्ञान और ऊर्जा संपन्नता के आधार पर व्यापक वस्तु का पारगामी होना समझ में आता है.  हर वस्तु ऊर्जा सम्पन्न है, इसलिए ऊर्जा का पारगामी होना समझ में आता है.   इसको अपने में ही ज्ञान करना पड़ता है.  विवेचना करना पड़ेगा, उसको अनुभव करना पड़ेगा।  यहीं से अनुभव शुरू होता है.

"सत्ता में सम्पृक्तता" के आधार को स्वीकारने के बाद अभी जो शरीर को जीवन मान कर जीते थे, उससे हम एक कदम आगे हो गए.  उसके बाद आगे अध्ययन  क्रम में ये चारों भाग आ गए - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति।

इस तरह इन चारों अवस्थाओं के संबंध में हम निर्भ्रम हो गए. जागृति के बारे में निर्भ्रम हो गए.  इसका नाम है ज्ञान संपन्नता। ऐसे ज्ञान संपन्न होने के बाद हम साम्य ऊर्जा (व्यापक वस्तु) में तदाकार होते हैं.

पहले ऊर्जा में तदाकार होगा, ऐसा होगा नहीं है.  विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम और जागृति का समझ अध्ययन से आता है.  आकर के इसमें हम यदि जागृति को प्रमाणित करना शुरू किए तो "ज्ञान व्यापक है" ये पता लगता है.  तब मानव को अनुभव होता है कि ऊर्जा में, ज्ञान में हम तदाकार हैं ही!  मानव को साम्य ऊर्जा ज्ञान स्वरूप में प्राप्त है.  साम्य ऊर्जा में ही सब कुछ है, ज्ञान में ही सब कुछ है.  मानव को स्पष्ट होता है कि उसका सब कुछ ज्ञान के अंतर्गत है.

अध्ययन पूर्वक तीनों अवस्थाओं का दृष्टा होना, और जागृति में तद्रूप होना।

ज्ञान में तदाकार हो गए तो फलस्वरूप ज्ञान के बारे में सोचा, ज्ञान व्यापक है और ऊर्जा भी व्यापक है.  इसलिए ऊर्जा ही ज्ञान रूप में प्राप्त है.  "ज्ञान व्यापक है" ये समझ में आया. "ऊर्जा व्यापक है" ये समझ में आया.
ये दोनों एक ही वस्तु है या अलग अलग है, इसका विवेचना होती है.  विवेचना होकर निष्कर्ष निकलता है - व्यापक वस्तु ही मानव को ज्ञान रूप में प्राप्त है.
- दिसंबर २००८, अमरकंटक

सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने के बाद ही हम उसको अपनाते हैं। अभी तक जितना आप अपनाए हो, उसी विधि से अपनाए हो। आगे जो अपनाओगे, उसी विधि से अपनाओगे। अध्ययन विधि में पहले सूचना है। सूचना तक पठन है। सूचना से इंगित अर्थ में जाते हैं, तो अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना होता है। तदाकार होने के बाद कोई प्रश्न ही नहीं है।

कल्पनाशीलता द्वारा सच्चाई रुपी अर्थ को स्वीकार लेना ही "तदाकार होना" है। अर्थ को समझते हैं, तो शरीर गौण हो गया - जीवन प्राथमिक हो गया। तदाकार होने के बाद ही बोध होता है। अस्तित्व चार अवस्थाओं के स्वरूप में है। इनके साथ अपने "सही से जीने" के स्वरूप को स्वीकारना ही बोध है। बोध होने के बाद ही अनुभव होता है। अनुभव सच्चाई का प्रमाण होता है। अनुभव पूर्वक यह निश्चयन होता है कि - "पूरी बात को मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। इसको अनुभव-मूलक बोध कहा। जिसके फलस्वरूप चित्त में चिंतन होता है। जिसका फिर चित्रण होता है। चित्रण पुनः वृत्ति और मन द्वारा शरीर के साथ जुड़ता है - संबंधों में जागृति को प्रमाणित करने के लिए। इस तरह - अनुभव जीवन में, प्रमाण मनुष्य में।

अध्ययन है - शब्द (सूचना) के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु को पहचानना। अध्ययन भाषा से शुरू होता है, अर्थ में अंत होता है।

पहले सूचना के लिए जिज्ञासा है। फिर सूचना से इंगित अर्थ के लिए जिज्ञासा है। फिर अर्थ में तदाकार होने के लिए जिज्ञासा है। उसके बाद प्रमाणित होने के लिए जिज्ञासा है। जिज्ञासा के ये चार स्तर हैं।

समझाने वाला समझा-हुआ होना और समझाने के तरीके से संपन्न होना ; और समझने वाले के पास सुनने से लेकर साक्षात्कार करने तक की जिज्ञासा होना - इन दो बातों की आवश्यकता है। इन दोनों के बिना संवाद सफल नहीं होता।

आपका "लक्ष्य" क्या है, और आपके पास उस लक्ष्य को पाने के लिए "पूंजी" क्या है - ये दोनों पहले स्पष्ट होना आवश्यक है।

यदि आपको स्वीकार होता है कि आपका लक्ष्य "सार्वभौम व्यवस्था" है और उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके पास "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता" पूंजी रूप में है - तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए यह पूरा प्रस्ताव ठीक है या नहीं, उसको शोध करना! आपको अपने लक्ष्य के लिए इस प्रस्ताव की आवश्यकता है या नहीं - यह तय करना। फिर उस लक्ष्य के अर्थ में जब आप जीने लगते हैं, तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती जाती हैं।

सार्वभौम-व्यवस्था के लिए जीने का हम रास्ता बनाते हैं, तो सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सोचने का रास्ता बन जाता है।

-  (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

Monday, May 15, 2017

सहज अपेक्षा

जीवन में "शुभ का चाहत" बना हुआ है। जीवन सहज रूप में शुभ को ही चाहता है।

प्रश्न: जीवन सहज रूप में "शुभ" को ही क्यों चाहता है?

उत्तर: क्योंकि जीवन की गम्य-स्थली "शुभ" है।

प्रश्न: जीवन को (या मुझे) पता कैसे चला कि उसका गम्य-स्थली "शुभ" है?

उत्तर: जीवन को पता नहीं है, पर ऐसा है! अभी जो लोग कहते हैं, हम "सुखी" हैं या "दुखी" हैं - उनको पता ही नहीं है - सुख क्या है? अभी तक केवल संवेदनाओं का ज्ञान है। संवेदनाएं जब तक राजी रहती हैं, तब तक अपने को "सुखी" मान लेते हैं। संवेदनाएं जब राजी नहीं रहती तो अपने को "दुखी" मान लेते हैं। जंगल-युग में क्रूर जीव-जानवरों से दुखी होने की बात होती थी। आज अमानवीयता से दुखी होने की बात है, जिसको हम "शोषण" कह रहे हैं। सुखी होने की अपेक्षा में ही मनुष्य आज तक दुखी होता आया है।

प्रश्न: सुखी होने की अपेक्षा मनुष्य में आ कैसे गयी?

उत्तर: संवेदनाओं की सीमा में जीने से मनुष्य को सुख भासता है (या सुख जैसा लगता है) - पर वह सुख होता नहीं है। सुख के इस भास् के टूटने से मनुष्य दुखी होता है। "दुःख नहीं चाहिए" - यह मनुष्य को पता चलता है। पर "सुख" क्या है - यह पता नहीं चलता। "दुःख नहीं चाहिए" - इस बात का ज्ञान मनुष्य को जंगल-युग से ही है। ऐसी स्थिति जिसमें "दुःख नहीं हो" - उसको मनुष्य ने "सुख" नाम दे दिया। इस तरह "सुख चाहिए" - यह बात मनुष्य के पकड़ में आयी। "सुख" नाम पकड़ में आया। लेकिन "सुखी" कैसे होना है - यह मनुष्य के पकड़ में नहीं आया। मनुष्य की यह स्थिति जंगल युग से आज के अत्याधुनिक-युग तक बनी हुई है। अत्याधुनिक-युग में मनुष्य ने बहुत शेखी मारा - ऐसा कर देंगे, तैसा कर देंगे! पर उसका सुखी होना भर बना नहीं!

अब क्या किया जाए? यही पुनर्विचार की स्थिति है।

उसी क्रम में यह अनुसंधान हुआ है। अनुसंधान पूर्वक पता चला - मानव-चेतना पूर्वक सर्व-मानव का सुखी होना बनता है।

अभी तक मनुष्य जीव-चेतना में जिया है। जीवों से अच्छा जीने का कोशिश किया है - यह भी है। पर इसी क्रम में धरती बीमार हो गया।

 (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

मनुष्य जब धरती पर सबसे पहले प्रकट हुआ तो जीव जानवरों की तरह ही जिया। जीव-चेतना में मनुष्य जिया - पर जीवों से अच्छा जीना चाहा। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - इसी लिए वह जीवों से अच्छा जीना चाहा। यह "अच्छा चाहना" मनुष्य में गुणात्मक परिवर्तन की सहज-अपेक्षा का ही प्रदर्शन है।

मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता के चलते आहार, आवास, अलंकार, दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन की सभी वस्तुओं का इन्तेज़ाम कर लिया। "अच्छा चाहने" के अर्थ में वस्तुओं का तो इन्तेजाम कर लिया पर अपनी आवश्यकता का निर्णय नहीं होने से वस्तुओं के पीछे पागलपन बढ़ता गया। भौतिकवाद व्यवहारिक नहीं हुआ।

कल्पनाशीलता को दूसरे ओर मनुष्य ने "रहस्य" के लिए भी invest किया। "अच्छा चाहने" के लिए ही यह किया, इसमें दो राय नहीं है। रहस्यवाद व्यवहारिक नहीं हुआ।

इस तरह दोनों तरह से मनुष्य को स्थिरता -निश्चयता की जगह नहीं मिली। इसलिए मनुष्य आवारा हो गया। आवारा हुआ तो मनमानी करता ही है। मनमानी करने के परिणाम हमारे सामने आ ही गए हैं। धरती बीमार होने से मनुष्य की गलती उजागर हो गयी। अब विकल्प की आवश्यकता बन गयी।

मानव इतिहास को मैं ऐसे पहचानता हूँ। अभी मानव-इतिहास को ऐसे कोई पहचानता नहीं है। घटना-क्रम को इतिहास बताते हैं। यह घटना हुई, फ़िर दूसरी घटना हुई - इसको अभी इतिहास बताते हैं। मानव में गुणात्मक-परिवर्तन की सहज-अपेक्षा यदि नहीं होती तो मानव-चेतना के इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने की जगह ही नहीं होती। धरती का बीमार होना भी मानव-चेतना में संक्रमित होने की आवश्यकता को ही इंगित करता है। अपेक्षा और आवश्यकता के साथ अब सम्भावना का भी उदय हो गया है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान पूर्वक मानव जाति की जागृति की सम्भावना उदय हो चुकी है। यह एक ऐतिहासिक घटना है।


(अप्रैल २००८, अमरकंटक)

जीवचेतना में जीते हुए मनुष्य में भी न्याय, समाधान, और सत्य (व्यवस्था) की सहज-अपेक्षा है।

अध्ययन क्रम में : -
न्याय सहज अपेक्षा के आधार पर "मूल्य" स्पष्ट हो जाता है।
समाधान सहज अपेक्षा के आधार पर "चरित्र" स्पष्ट हो जाता है।
सत्य (व्यवस्था) सहज अपेक्षा के आधार पर "नैतिकता" स्पष्ट हो जाता है।

मानव में "चाहत" ग़लत नहीं है। "चाहत" के अनुरूप "घटना" घटित नहीं हुआ। उसके विपरीत अपराधिक घटनाएं घटता चला गया। अपराधिक घटनाओं के फलन में ही धरती बीमार हो गयी। इसलिए "पुनर्विचार" की आवश्यकता आ गयी। धरती पर आदमी को बने रहना है तो पुनर्विचार करेगा, नहीं रहना है तो नहीं करेगा।

मानव परम्परा जो ईश्वरवादी और भौतिकवादी तरीकों से सोचा है, उनका इस ओर ध्यान ही नहीं गया। या अनुसंधान नहीं किया। इसी को यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रस्तावित किया जा रहा है।

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

भ्रमित-मनुष्य में भी वृत्ति में न्याय, धर्म, और सत्य की "सहज-अपेक्षा" रहती है।

न्याय, धर्म, और सत्य का मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव शब्द के रूप में विचार में पहुँचता है। इससे वृत्ति में जो पहले से "अपेक्षा" थी उसकी पुष्टि हुई।

सह-अस्तित्व के प्रस्ताव की सूचना का परिशीलन करने के लिए चित्त में गए। चित्त में परिशीलन करने से सह-अस्तित्व साक्षात्कार हुआ।

चित्त में सह-अस्तित्व साक्षात्कार होने पर तुंरत ही बुद्धि में न्याय, धर्म, और सत्य का बोध होता है।

बुद्धि में जब बोध होता है तो स्वतः आत्मा में अनुभव हो जाता है।

आत्मा में अनुभव होने पर बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध होता है। इससे अनुभव को प्रमाणित करने का संकल्प बनता है। अनुभव-प्रमाण बोध के आधार पर चिंतन हुआ। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक चित्रण हुआ। वृत्ति अनुभव-प्रमाण विधि से संतुष्ट हो गयी। फल-स्वरूप अनुभव-मूलक विश्लेषण हुआ। इस विश्लेषण के अनुरूप मन में मूल्यों का आस्वादन हुआ - जिसके लिए आदि-काल से मनुष्य प्यासा रहा। मन तृप्त हुआ, फलस्वरूप अपनी तृप्ति को प्रमाणित करने के लिए चयन शुरू किया - जिसमें समाधान निहित हुआ, सत्य निहित हुआ, न्याय निहित हुआ। इस तरह न्याय, धर्म, और सत्य तीनो प्रमाणित होने लगे!

बुद्धि में अनुभव-मूलक संकल्प और मन में अनुभव-मूलक चयन - इन दोनों के योगफल में प्रमाण मानव-परम्परा में प्रवाहित होता है। अनुभव होने के बाद प्रमाणित होने का हमारा जो प्रवृत्ति बनता है, उसके अनुसार हमारा आचरण मानवीयता पूर्ण बनता है। मानवीयता पूर्ण आचरण बनता है, तो उसके आधार पर मानवीय संविधान बनता है। मानवीय संविधान बनता है तो मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है। मानवीय शिक्षा का स्वरूप निकलता है तो मानवीय व्यवस्था का स्वरूप निकलता है। इस तरह अनुभव फैलता चला जाता है।

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

प्रश्न: “सहज” शब्द से क्या आशय है?

उत्तर: सहज से आशय है – मानव को जिसे बनाना नहीं है.  सभी व्यवस्था सहज है.  नियम सहज है.  जीवन सहज है.  शरीर सहज है.  क्या सहज है, यह समझे बिना मानव ने अपने को “बनाने वाला” मान कर ही तो सब कुछ को बर्बाद किया है.  मानव ही सारी कृत्रिमता का आधार है, और कोई भी नहीं है.  मानव सहजता का आधार अभी तक बना नहीं.  मानव को सहज को पहचानने की आवश्यकता है.  सहजता विधि से मानव के बने रहने की व्यवस्था है.  कृत्रिमता विधि से कहीं न कहीं कुंठित होता है.  सहज की ही निरंतरता होती है.  अक्षुण्णता की अपेक्षा मानव सदा से ही रखे हुए है.  उस अपेक्षा के अनुसार काम नहीं किया तो क्या वह झूठ नहीं हो गया?


(अप्रैल २००८, अमरकंटक)

कुल मिला कर - मनुष्य में जागृति की सहज-अपेक्षा पर मध्यस्थ-दर्शन का सारा तर्क जुड़ा हुआ है। जागृति की अपेक्षा मनुष्य में आदि-काल से है। "हर व्यक्ति समझदार हो सकता है।" - यहाँ से यह बात शुरू है। यही इस प्रस्तुति का आधार है।

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधियों से जितने भी कर्म करता आया, और आगे करने वाला है - उन सबके फलन में मनुष्य "सुखी" होना चाहता है, या मनः स्वस्थता प्रमाणित करना चाहता है।

कल्पनाशीलता में ही सुखी होने की आशा, अथवा अपेक्षा, अथवा इच्छा समाई है।

आशा, अपेक्षा, और इच्छा जीवन-सहज प्रक्रिया है। इसी के साथ जीवन में स्मृतियाँ प्रभावित रहती ही हैं। हर मानव में विगत से स्मृतियाँ, वर्तमान में प्रमाण, और भविष्य के लिए अपेक्षा होना स्पष्ट होता है। "सुख" प्रमाण स्वरूप में वर्तमान में ही होता है। वर्तमान में आशा, अपेक्षा, और इच्छा के तृप्त न होने के फलस्वरूप ही मनुष्य भूत और भविष्य में अपने स्मरण को दौडाए रहता है। भूत और भविष्य "सुख" का आधार न होने के फलस्वरूप मनुष्य "मनमानी" करता है।

अपराध-मुक्त मानव-परम्परा के लिए हर व्यक्ति समाधान-संपन्न होना, और हर परिवार समाधान-समृद्धि संपन्न होना और उपकार करना आवश्यक है। उसके लिए मनुष्य में "चेतना विकास" ही प्रधान मुद्दा है। मानव-चेतना में जीवन-सहज आशा, अपेक्षा, और इच्छा "वर्तमान" में ही तृप्त रहती हैं। "मनमानी" को रोकने के लिए फ़िर "भय", "प्रलोभन", और "आस्था" पर आधारित तंत्रों की आवश्यकता नहीं रहती।

(अप्रैल २००६, अमरकंटक)

"सुख-शान्ति पूर्वक जीना" - सामान्य व्यक्ति में यह सहज-अपेक्षा पायी जाती है। इस अपेक्षा के लिए स्मृति के साथ कल्पनाशीलता को जोड़ कर मानव-जाति सोचता आया, प्रयोग करता आया। इससे यह हमको पता चलता है - हर मानव सोचने वाला है, हर मानव में सोच-विचार की आवश्यकता बनी हुई है। साथ ही - सोच-विचार में "सुख-शान्ति पूर्वक जीना" की स्थिति-गति को पहचानने की आवश्यकता बनी हुई है। मानव कल्पनाशील है, विचारशील है, और इस कल्पना और विचार का मुद्दा है - सुख-शान्ति पूर्वक जीना।

मानव के अध्ययन से पता चलता है - हर मानव समझने-समझाने वाला भी है। और शरीर द्वारा सोच-विचार को प्रस्तुत करता है। इस तरह से विचार मानव-परम्परा में "अनुकरणीय विधि से" पीढी से पीढी पहुँचता हुआ देखने को मिलता है। जो विचार नहीं पहुँच पाता है, उसके स्थान पर परिवर्तित रूप में और कोई चीज स्थापित हो जाती है।

(अप्रैल २००६ - अमरकंटक)

जीव चेतना में जीते हुए मानव में अपेक्षा 'मानव चेतना' की ही होती है.  संवाद करते समय दूसरे व्यक्ति की सही को लेकर अपेक्षा को स्वीकारने में कहीं भी कंजूसी न करें।   मानव के पास शुभ की ओर जाने का रास्ता चाहे संकीर्ण हो, पर सदा बना है.  इसी की गवाही में हर मानव स्वयं में शुभ की अपेक्षा को होना बताता है.

अब हम यहाँ जीव चेतना से मानव चेतना में संक्रमित होने की बात कर रहे हैं.  मानव चेतना का कोई भी बात जीव चेतना की किसी भी बात की वकालत नहीं करता - न जीव चेतना के संविधान की, न जीव चेतना की मानसिकता की, न जीव चेतना की शिक्षा की, न जीव चेतना की व्यवस्था की.

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

सर्वप्रथम मानव ने संवेदनाओं के आधार पर ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  इसके पहले शब्द होता है, स्पर्श होता है, गंध होता है, रस होता है, रूप होता है - यह उपयोग में था ही.  जैसे - जीव-जानवर अपने आहार को पहचानने के लिए गंध का उपयोग करते हैं, उससे पहले पेड़ पौधों की जड़ों में अपने पोषक तत्वों को पहचानने के लिए गंध का उपयोग है.  मानव ने संवेदनाओं को राजी रखने के लिए इनके ज्ञान को स्वीकारना शुरू किया।  क्यों? क्योंकि मानव में सुख की सहज अपेक्षा है.  इसी बिंदु से मानव का अध्ययन शुरू होता है.

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

भ्रमित-अवस्था में जीता हुआ आदमी गलतियां करने में विवश होता है पर गिरफ्त नहीं होता। क्योंकि सच्चाई के लिए खिड़की कहीं न कहीं हर व्यक्ति में खुली ही रहती है। सहीपन की अपेक्षा में ही हम गलती करते हैं। सहीपन की स्वयं में अपेक्षा ही अध्ययन का आधार है।

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

मानव सहज-अपेक्षा स्वतन्त्र रहने की है। जीव-चेतना में "मनमानी विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है। मानव-चेतना में "समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है।

"मनमानी विधि" से सम्पूर्ण प्रकार के गलती, अपराध, अनाचार, दुराचार, अत्याचार होना देखा जाता है। इस विधि से अपराधों का प्रचार, अपराध करने के लिए अध्ययन, और अपराध करने के लिए अवसर पैदा करने वाला व्यक्ति अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है, ऐसा देश अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है। "मनमानी विधि" से भिन्न रूप में यदि देखना चाहते हैं, तो "मानव की मानसिकता" पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

मानव की मानसिकता पर ध्यान देने पर पता चलता है - हर मानव सर्वाधिक भागों में "सहीपन" को, "सार्थकता" को, "सत्यता" को, और "समाधान" को चाहता है। लेकिन परम्पराएं - धर्म-परम्परा, शिक्षा-परम्परा, व्यापार-परम्परा - सभी एक से एक घोर विपदा की ओर गतिशील हैं। व्यक्ति को प्रचलित-परम्परा से जो मिलता है, वह उसका अनुसरण-अनुकरण करने के लिए विवश होना पाया जाता है।

दो प्रकार की विचारधाराएं (आदर्शवादी और भौतिकवादी) जो मानव-परम्परा में प्रभावित हुई - उनसे फल-परिणाम में सुख-शान्ति की स्थली में पहुँचने के विपरीत अशांति और समस्याओं से घिर गए। स्वतंत्रता की अपेक्षा मानव में सहज है। इसी अपेक्षा-क्रम में मानव समझदारी पूर्वक हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचान पाता है, फल-स्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है।

संबंधों में सामरस्यता ही स्वतंत्रता का स्वरूप है।

 (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

Sunday, May 7, 2017

पुरुषार्थ और परमार्थ

तर्क पुरुषार्थ के साथ है, वहाँ उसका प्रयोग होना भी चाहिए।  किन्तु पुरुषार्थ के बाद परमार्थ में तर्क का प्रयोग नहीं है.  परमार्थ में पुरुषार्थ विलय होता ही है. पुरुषार्थ परमार्थ में समावेश होता ही है.  पुरुषार्थ परमार्थ का समर्थन देता ही है.  यह नियम है, नियति-सम्मत है.

(दिसंबर २००९, अमरकंटक)

न्याय, धर्म, और सत्य का प्रयोजन आपको तर्क से समझ में आता है। यह अध्ययन विधि से पूरा हो जाता है। इसको 'पुरुषार्थ' नाम दिया। पुरुषार्थ तर्क के साथ है। उसके बाद साक्षात्कार, बोध, संकल्प, और अनुभव कोई पुरुषार्थ या तर्क नहीं है। वह जीवन की स्वयं-स्फूर्त प्यास से हो जाता है।

(जुलाई २०१०, अमरकंटक)

साक्षात्कार के लिए पुरुषार्थ है - जिसका नाम है "अध्ययन"। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव स्वयं-स्फूर्त है। उसमें मनुष्य का कोई पुरुषार्थ नहीं है। साक्षात्कार तक पहुंचना ही पुरुषार्थ का अन्तिम स्वरूप है।

(सितम्बर २००९, अमरकंटक)

मानव-चेतना की “आवश्यकता” को महसूस करने पर ही मानव अनुभव करेगा और मानव-चेतना को अपनाएगा। हर व्यक्ति में इस आवश्यकता बनने के लिए उसे अध्ययन रुपी पुरुषार्थ करना होगा। पूरा समझ में आना और प्रमाणित होना ही परमार्थ है, वही समाधान है। फिर पुरुषार्थ के साथ समृद्धि होता ही है. समाधान-समृद्धि होने पर अभय होता ही है। समाधान-समृद्धि और अभय होने पर सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाणित होता है। ऐसा व्यवस्था बना हुआ है।

(सितम्बर २०११, अमरकंटक)

समाधि के बाद संयम किया। जिसके फलस्वरूप मैंने सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का अध्ययन किया - और वह मुझे समझ में आया। समझने के बाद मुझे पता चला यह मानव-जाति के पुण्य से मुझे समझ में आया है, इसको मानव को अर्पित किया जाए। उसी क्रम में मैं आज आप तक पहुँचा हूँ। मुझे आप से एक कौडी की भी ज़रूरत नहीं है। मैं अपने आप में संतुष्ट हूँ। अपने पुरुषार्थ से मैं जो वस्तु उपार्जित करता हूँ, उससे संतुष्ट हूँ। इस तरह - अपने पुरुषार्थ और परमार्थ दोनों से मैं संतुष्ट हूँ।

(अक्टूबर २००६, कानपुर)

समझने की तीन स्थितियां हैं - साक्षात्कार, बोध, और अनुभव। साक्षात्कार, बोध, और अनुभव के बीच कोई दूरी नहीं है, कोई अवधि नहीं है। यह तत्काल ही होता है। साक्षात्कार में पहुँचा तो वह तुंरत बोध और अनुभव होता है। पुरुषार्थ का ज़ोर साक्षात्कार तक पहुँचने के लिए है। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव के लिए कोई पुरुषार्थ का ज़ोर नहीं है। जब कभी भी हम साक्षात्कार तक पहुँचते हैं, बोध और अनुभव तत्काल होता ही है।

 (जनवरी २००७, अमरकंटक)

जागृति के लिए पुरुषार्थ ( पुरुषार्थ = जागृति के लिए हम जो भी प्रयास करते हैं। )
जागृति पूर्वक परमार्थ (परमार्थ = जीने में प्रमाण प्रस्तुत करना। )

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

साक्षात्कार पूर्वक अर्थ बोध होना, अर्थ-बोध होने के बाद अनुभव होना, फिर अनुभव-प्रमाण बोध होना, फिर प्रमाण को संप्रेषित करना - यह परमार्थ है। पुरुषार्थ साक्षात्कार तक ही है।

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

मन को बुद्धि के अनुरूप होने के लिए जो प्रयास है, अभ्यास है, वही पुरुषार्थ है, वही साधना है, वही अध्ययन है.

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

अध्ययन अस्तित्व की यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता को “जानने” की विधि है। “जानने” के बाद “मानना” होता ही है। अध्ययन विधि में “मानने” से शुरू करते हैं। “ मानने” के बाद “जानना” आवश्यक हो जाता है। “ मानने” से यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता का भास-आभास होता है। फिर उसको अनुभव करने के लिए प्राथमिकता यदि बन जाता है तो प्रतीति होता ही है। प्रतीति होता है तो अनुभूति होता ही है। प्रतीति के बाद अनुभूति के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं है, वह अपने-आप से होता है। प्रतीति तक पुरुषार्थ है, अर्थात श्रम पूर्वक प्रयास है, तर्क का कुछ दूरी तक प्रयोग है। अनुभूति परमार्थ है. फल-स्वरूप मानव परमार्थ विधि से सोचना, कार्य करना शुरू कर देता है।

(अक्टूबर २०१०, अमरकंटक)

इस सारी प्रक्रिया में 'स्वयं-स्फूर्त' के विरुद्ध जो कदम है - वह है, "मानना"। अभी तक जो पहले मान कर, समझ कर हम चले हैं, 'सह-अस्तित्व को मानना' उससे भिन्न है - इसलिए उसमें श्रम लगता है। अध्ययन के लिए पहला चरण 'मानना' ही है। फिर थोडा सुनने के बाद, उसका महत्त्व थोडा समझ आने के बाद उसमें रूचि बनता है। रूचि बनने के बाद उसको स्वत्व बनाने के लिए हम स्वयम को लगाते हैं। स्वयं को लगाते हैं तो तदाकार होते हैं। तदाकार होने पर हम समझ जाते हैं। तद्रूप होने पर हम प्रमाणित होते हैं। तदाकार होते तक पुरुषार्थ है। उसके बाद परमार्थ है, जो स्वयं-स्फूर्त होता है।

(जुलाई २०१०, अमरकंटक)

कर्म-अभ्यास को अनुभव से न जोड़ा जाए! कर्म-अभ्यास पुरुषार्थ की सीमा में है। मैंने अनुभव किया है, पर मैं सभी आयामों में कर्म-अभ्यास संपन्न हूँ - ऐसा नहीं है। मैं जिन आयामों में कर्म-अभ्यास करना चाहता हूँ, वह कर सकता हूँ - ऐसा अधिकार बना है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर यह अधिकार बना है।

(अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

अवधारणा प्राप्त होने, साक्षात्कार होने तक ही मनुष्य का पुरुषार्थ है। अवधारणा प्राप्त होने के बाद, साक्षात्कार होने के बाद परमार्थ ही है।

 (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

दृष्टा-पद प्रतिष्ठा तक पहुँचने के लिए पुरुषार्थ है। उसके बाद परमार्थ है। पुरुषार्थ के साथ तर्क जुड़ा है। परमार्थ के साथ तर्क नहीं है। परमार्थ में तर्क पहुँचता ही नहीं है। परमार्थ में हर क्यों और कैसे का उत्तर ही है फिर। परमार्थ में जीना ही जागृति का स्वरूप है।

(अनुभव शिविर २०१०, अमरकंटक)

तदाकार होने तक पहुंचाना ही अध्ययन की मूल चेष्टा है।  शब्द से अर्थ की ओर ध्यान देने से अर्थ के मूल में अस्तित्व में जो वस्तु के साथ तदाकार होना बनता ही है। उसके बाद तद्रूप होना (प्रमाणित होना) स्वाभाविक है। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में साक्षात्कार होने तक पुरुषार्थ है। उसके बाद बोध और अनुभव अपने आप होता है। साक्षात्कार के बाद बुद्धि में बोध, और आत्मा में अनुभव तुंरत ही होता है। उसमें देर नहीं लगती।

 (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

तर्क एक बौद्धिक साधन है। साधन साध्य नहीं होता है।

प्रश्न: मानव के पास तर्क का साधन कहाँ से आ गया?

उत्तर: तर्क का साधन मनुष्य के पास कल्पनाशीलता वश आ गया। मनुष्य के पास कुछ बौद्धिक साधन हैं, और कुछ भौतिक साधन हैं। शब्द विधि से बौद्धिक साधन हैं - जो कल्पनाशीलता वश आए। भौतिक वस्तुओं के स्वरूप में जो साधन हैं - वे मनुष्य के प्रयत्न या पुरुषार्थ से आए।

(दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Saturday, May 6, 2017

"ज्ञान व्यापार" और "धर्म व्यापार" हम नहीं करेंगे

समझदारी के इस लोकव्यापीकरण कार्यक्रम में हर व्यक्ति "स्वेच्छा" से भागीदार हो सकता हैं।

यह कोई "उपदेश" नहीं है।

मैं स्वयं एक वेदमूर्ति परिवार से हूँ। उपदेश देने में मैं माहिर हूँ। उपदेश की विधि है - "जो न मैं समझा हों, और न आप समझोगे - उसको मैं आपको बताऊँ, फ़िर आप मुझे कुछ दे कर खुश हों, मैं आप से वह ले कर खुश होऊं!" इस तरीके को मैंने छोड़ दिया - क्योंकि यह निरर्थक है, इससे कोई प्रयोजन नहीं निकलता। प्रयोजन जिससे निकलता है, उसको अनुसन्धान करने में मैंने २५ वर्ष लगाया, फ़िर और २५ वर्ष लगाया उसको संसार को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने के लिए, फ़िर १० वर्ष से इस बात को लोगों के सम्मुख रखने योग्य हुए। आज इस बात को करीब २००० लोग अध्ययन कर रहे हैं। आगे और लोग इसको अध्ययन करेंगे - यह आशा किया जा सकता है। जो चाहें, वे अध्ययन करने में भागीदारी कर सकते हैं।

अध्ययन कराने को लेकर हम प्रतिज्ञा किए हैं - "ज्ञान व्यापार" और "धर्म व्यापार" हम नहीं करेंगे। अध्ययन के लिए कोई दक्षिणा उगाहने की बात नहीं है। अध्ययन के लिए कोई शुल्क नहीं रखा है। ज्ञान जीवन सहज-अपेक्षा है। ज्ञान को टुकडा करके बेचा नहीं जा सकता। अभी जो "बुद्धि-जीवी" कहलाये जाते हैं - वे अपने ज्ञान को "बेच" रहे हैं। उनसे पूछने पर - "ज्ञान को कैसे बेचोगे? 'ज्ञान' को तुम क्या जानते हो?" - उनसे कोई उत्तर मिलता नहीं है। इस बात का कोई उत्तर देने वाला हो तो मैं उसको फूल माला पहना करके सुनूंगा! ज्ञान को "बेचने की विधि" को मुझे बताने वाला आज तक मिला नहीं है। अभी ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार में कितने लोग लगे हैं, उसका आंकडा रखा ही है। सारी दरिद्रता, सारी अपराध-प्रवृत्ति धर्म-व्यापार और ज्ञान-व्यापार से ही है।

समझदार होने के बाद हम धर्म-व्यापार करेंगे नहीं, ज्ञान-व्यापार करेंगे नहीं। मैं यदि "धर्म" को समझता हूँ तो मैं अपने बच्चे को उसके योग्य बनाऊं, अपने अडोस-पड़ोस के व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं, अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को उसके योग्य बनाऊं - यही बनता है। मैं वही कर रहा हूँ। मेरे संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के बीच मैं काम कर रहा हूँ। व्यापार से मुक्त - धर्म और ज्ञान का बोध कराने की मैंने व्यवस्था कर दिया।

धर्म-आचार्यों से मैंने इस बारे में (ज्ञान-व्यापार और धर्म-व्यापार को लेकर) बात-चीत किया। इस बात को छेड़ने से आचार्य-लोग बहुत नाराज होते हैं। मैं उन आचार्यों की बात कर रहा हूँ जो शंकराचार्य पद पर बैठे हैं। एक आचार्य नाराज नहीं हुए। वे थे - श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य! वे अमरकंटक आए थे, उसके बाद उनसे सत्संग हुआ, उन्होंने मेरी बात को अध्ययन करने के बाद बताया - "तुमने एक महत कार्य किया है। हम तो धर्म के लक्षणों को बताकर शिष्टानुमोदन करते हैं, तुमने धर्म का अध्ययन कराने का व्यवस्था किया है।" ऐसा एक ही ऐसे व्यक्ति ने कहा। दूसरा ऐसे व्यक्ति ने अभी तक कहा नहीं है। इन सब बातों से जो मुझे संतोष मिलना था, मिलता रहा। मैं आगे-आगे बढ़ता गया, और इस प्रकार चलते-चलते आज आप लोगों के सान्निध्य में आ गया।

- बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित (४ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)