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Tuesday, July 27, 2021

व्यापक - ज्ञान - चेतना

 अनुभव होने पर "ज्ञान व्यापक है" - यह पता चलता है.

"चेतना और ज्ञान एक है" - यह दिव्य चेतना में प्रमाणित होने पर पूरा होता है.


- श्रद्धेय बाबा नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

जीने की आशा

गठनपूर्णता नियति विधि से हुआ.  गठनपूर्ण परमाणु अणुबंधन और भारबंधन से मुक्त तथा आशा बंधन से युक्त होकर शुरुआत करता है.  आशा बंधन पूर्वक या जीने की आशा के आधार पर जीवन अपने कार्य गति पथ को बनाने योग्य हुआ.  कार्य गति पथ अपने में एक आकार होता है.  उस आकार के शरीर रचना का प्रकटन भी नियति विधि से होता है.  


जीने की आशा को व्यक्त करने के लिए एक ही आकार नहीं बनता है.  अनेक प्रकार के आकार बन गए.  हर जीवन अपना कार्य गति पथ बनाया.  गठनपूर्णता के साथ कार्य गति पथ बना ही रहता है.  ऐसा कोई जीवन नहीं है जो अपना कार्य गति पथ नहीं बनाया हो.  यह कार्य गति पथ बदलना बहुत जटिल है.  गुणात्मक परिवर्तन विधि से कार्य गति पथ का बदलना बनता है.  जैसे - मनुष्य के आकार के कार्य गति पथ वाला जीवन बारम्बार मनुष्य शरीर को ही चलाता है.  बाघ के आकार के कार्य गति पथ वाला जीवन बारम्बार बाघ के शरीर को ही चलाता है.  


जीवन मनोगति से काम करता है.  जीव शरीरों को चलाने वाले जीवनों की और मानव शरीरों को चलाने वाले जीवनों की मनोगति एक ही होती है.  शरीर के साथ जीवन जब काम करता है तो वह काम करने की गति अलग अलग हो जाती है.  जीवन की मनोगति एक ही रहता है.  गाय के काम करने. बाघ के काम करने और मानव के काम करने की गति अलग अलग है - शरीर रचना के आधार पर.  जीवन में स्वत्व रूप में मनोगति एक ही है, शरीर के साथ व्यक्त होने में गति अलग अलग है.


जीवों में जीवन वंशानुषन्गीयता पूर्वक काम करता है.  बाघ के शरीर को चलाने वाला जीवन बाघ शरीर को क्या चाहिए - इसको पहचानने योग्य हो जाता है.  शरीर को चलाने के साथ ही यह बन जाता है.  जीवन जिस वंश के जीव के गर्भ में रहता है, उसके कार्यक्रम को तदाकार-तद्रूप होकर स्वीकार लेता है.  तद्रूप-तदाकार होने की व्यवस्था जीवन में बना रहता है.  इसी आधार पर बाघ का बच्चा बाघ का ही काम करता है, हाथी का बच्चा हाथी का ही काम करता है.


प्रश्न:  किसी बाघ शरीर को चलाने वाले जीवन द्वारा आगे मानव शरीर को चलाने की बात कैसे होती है?


उत्तर: बाघ का मानव के साथ संसर्ग होने पर, बाघ मरते समय वह जीवन मनुष्याकार को स्वीकार ले, तब वह गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बन जाती है.  मरते समय सुरूप-कुरूप, सुख-दुःख को स्वीकारते हुए जीवन शरीर को छोड़ता है.  


प्रश्न: मानव भी शरीर और जीवन का संयुक्त स्वरूप है, तो वह जीवों से भिन्न कैसे है?


उत्तर: मानव शरीर रचना ऐसा हुआ कि जीवन कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त कर सका.  जीव शरीरों में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने का प्रावधान नहीं है.  मानव शरीर में समृद्धि-पूर्ण मेधस है, जिससे जीवन द्वारा कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हो सके. 


जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने से संवेदनाएं प्रकट हुई.  जीवों में संवेदनाएं चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) में समीक्षित हो जाती हैं.  मानव ने भी शुरुआत चार विषयों की सीमा में जीते हुए किया.  फिर चार विषयों में प्रवृत्त रहते हुए संवेदनाओं को राजी करने के पक्ष में काम करना शुरू कर दिया.  जैसे - ठंडी-गर्मी से बचने का प्रयास करना.  यह मानव जीवन में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने के आधार पर हुआ.  इस तरह मानव ने जीवों से भिन्न जीना शुरू कर दिया.


कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने के साथ उसके तृप्ति-बिंदु की तलाश जीवन में रहता ही है.  कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु को मानव ने सुविधा-संग्रह में ढूँढा तो वो मिला नहीं.  ज्ञान का शुरुआत कल्पनाशीलता है.  कल्पनाशीलता के आधार पर ही कर्म-स्वतंत्रता है.  अनुभव ज्ञान में कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु है.  उस तृप्ति के आधार पर व्यवस्था में जी कर प्रमाणित होना कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिंदु है.  प्रमाणित होने का स्वरूप है - समाधान समृद्धि.  एक व्यक्ति ऐसे जी कर प्रमाणित हो सकता है तो सभी व्यक्ति प्रमाणित हो सकते हैं.


प्रश्न: मानव जीवन में भ्रम का क्या कारण है?


उत्तर: जीवन ज्ञान के अभाव में मानव जीवन संवेदनाओं को ही जीवन मान लेता है.  फिर जो कुछ भी मानव करता है उसी सीमा में करता है.  यही भ्रम है.  अभी अच्छे से अच्छे और खराब से खराब आदमी का हालत उतना ही है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

अनुभव एक साथ होता है. साक्षात्कार क्रमिक होता है. बोध सम्पूर्णता का होता है

प्रश्न: क्या अनुभव क्रमिक होता है या एक साथ होता है?


अनुभव एक साथ होता है.  साक्षात्कार क्रमिक होता है.  बोध सम्पूर्णता का होता है.  सम्पूर्णता जब समझ में आता है तो बोध होता है.  बोध के तुरंत बाद अनुभव होता है.  अभी आदमी सुनता है, बोध हो गया मानता है - पर बोध हुआ नहीं रहता.  क्रमिकता साक्षात्कार में है.  सारा अध्ययन साक्षात्कार है.  उसके बाद बोध, बोध के बाद अनुभव.  अनुभव जानने-मानने का तृप्ति बिंदु है.  प्रमाण विधि से अनुभव की पुष्टि होती रहती है.  इस ढंग से मानव में तृप्ति की निरंतरता बनी रहती है.


 एक साथ सभी कुछ समझ में आ जाना किसी भी विधि से नहीं होगा.  मेरी विधि (साधना-समाधि-संयम विधि) में भी नहीं !  एक दिन अचानक मुझे अनुभव हो गया हो, ऐसा कुछ भी नहीं है.  दो वर्ष मैंने संयम में अध्ययन किया है.  वह क्रमिक ही था.  इसी आधार पर मैं कह रहा हूँ, हर व्यक्ति अध्ययन कर सकता है.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००८, अमरकंटक)

Wednesday, July 14, 2021

जीवन मूल्य

प्रश्न: सुख-शान्ति-संतोष-आनंद को "जीवन मूल्य" कहने का क्या आशय है?


उत्तर: मन और वृत्ति के मध्य में सुख होता है - या मन और वृत्ति के संयोजन में सुख की बात होती है.  वृत्ति और चित्त के संयोजन में शान्ति की बात होती है.  चित्त और बुद्धि के संयोजन में संतोष की बात होती है.  बुद्धि और आत्मा के संयोजन में आनंद की बात होती है.  अनुभव मूलक विधि से यह संयोजन होता है.  मन वृत्ति में अनुभव किया - जिससे सुख हुआ.  वृत्ति चित्त में अनुभव किया - जिससे शान्ति हुआ.  चित्त बुद्धि में अनुभव किया - जिससे संतोष हुआ.  बुद्धि आत्मा में अनुभव किया - जिससे आनंद हुआ.  इस तरह जीवन में जीवन का अनुभव करने से सुख-शांति-संतोष-आनंद होता है -  इसी लिए इनको "जीवन मूल्य" कहा है.


आत्मा सहअस्तित्व में अनुभव करने को परमानंद कहा है.  परमानंद की ही अभिव्यक्ति है - सुख, शान्ति, संतोष और आनंद.  परमानंद व्यक्त होता नहीं है, पर सुख-शान्ति-संतोष-आनंद - ये चारों व्यव्हार में व्यक्त हो जाते हैं.


सुख व्यवहार में व्यक्त होता है - समाधान स्वरूप में (व्यक्ति स्तर पर).

शान्ति व्यव्हार में व्यक्त होता है - समृद्धि स्वरूप में (परिवार स्तर पर).

संतोष व्यव्हार में व्यक्त होता है - अभय स्वरूप में (समाज स्तर पर)

आनंद व्यव्हार में व्यक्त होता है - परम्परा में प्रमाणित करने के स्वरूप में, दूसरे को बोध कराने के स्वरूप में (व्यवस्था स्तर पर) 


सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य के अलावा किसी बात का बोध न होता है, न करा सकते हैं.  जीवन का ढांचा ही ऐसा बना है.


- श्रद्धेय बाबा नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Monday, July 12, 2021

शुभ का रास्ता


"शुभ को चाहते रहे, पर कर नहीं पाए"

"शुभ को चाहते रहे, करने की जगह में अभी आये नहीं हैं, पर शुभ के लिए सहमत हैं"

"शुभ को चाहते हैं, शुभ का रास्ता खोज रहे हैं" 


आप इसमें से कहीं खड़े हैं.


आप ऐसे व्यक्ति के सम्मुख बैठे हो जो शुभ का रास्ता पा गया है.  


मानव शुभ को चाहता है, मेरे अनुसार!  शुभ के लिए निश्चित मार्ग नहीं था, वह अब आ गया है.  मानव का इसे स्वीकार होना स्वाभाविक है.  इस ढंग से मानव चेतना के स्थापित होने की सम्भावना है.  मानव चेतना के बिना मानव का व्यवस्था में जीना बनता ही नहीं है.  हर मानव समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना चाहता है, यह जीव चेतना में पूरा होगा ही नहीं.  मानव चेतना में यह पूरा होता है.


- श्रद्धेय बाबा नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)