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Friday, January 21, 2011

कार्य-ऊर्जा

सत्ता में संपृक्त प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है, बल-संपन्न है, क्रियाशील है. मानव-प्रकृति सत्ता में संपृक्तता वश ज्ञान-संपन्न है. मानव-प्रकृति ज्ञान के अनुसार कार्य-व्यवहार करती है. जड़-प्रकृति साम्य-ऊर्जा के आधार पर क्रियाशील है. जड़-परमाणुओं में इस तरह क्रियाशील होने का क्या प्रयोजन निकला? परमाणुओं में संतुलन का प्रयोजन निकला. संतुलित रूप में क्रियाशीलता वश या कार्य करने से जड़-प्रकृति में कार्य-ऊर्जा पैदा होता है. यह जड़-प्रकृति में कार्य-ऊर्जा का स्वरूप है - ताप, ध्वनि, और विद्युत. कार्य-ऊर्जा का यह प्रकटन व्यवस्था के अर्थ में है. कार्य करने की योग्यता सभी प्रजातियों के परमाणुओं में साम्य है. कार्य-ऊर्जा की frequency हर प्रजाति की अलग-अलग है. हर जड़-परमाणु का ताप, ध्वनि, और विद्युत को प्रकट करने का frequency अलग-अलग है. यह उनमें होने वाली मात्रा के आधार पर है.

प्रश्न: परमाणु में ताप का क्या स्वरूप है?


परमाणु की क्रियाशीलता को रोक सकने वाला ऐसा शून्य-ताप नहीं है. परमाणु स्वयं में व्यवस्था में रहने के लिए जितने ताप की आवश्यकता है, उसको परमाणु स्वयं बनाए रखता है. परमाणु अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक ताप को अपनी क्रियाशीलता द्वारा उत्पन्न करता है. विकीर्नीय या अजीर्ण परमाणुओं में परिवेशीय अंशों की वर्तुलात्मक गति से उत्पन्न ताप का नाभिक पर स्वाभाविक रूप में अंतर्नियोजन होता रहता है. भूखे परमाणुओं में ताप का स्वाभाविक रूप में बहिर्नियोजन होता रहता है. यह आपको प्रचलित-विज्ञान में नहीं पढ़ाते हैं. इस ओर विज्ञान गया ही नहीं है. सकल कुकर्म का आधार यही बना. अजीर्ण परमाणुओं में स्वाभाविक रूप से होने वाले ताप के अंतर्नियोजन से विकीर्नीय प्रभाव बनता है. नाभिक पर आघात करने से परिवेशीय अंशों द्वारा ताप का अंतर्नियोजन निरस्त हो जाता है, ताप बहिर्गत हो जाता है.

प्रश्न: परमाणु में विद्युत कैसे तैयार होता है?

जैसे डायनमो में चुम्बकीय धाराओं के armature के घूर्णन गति द्वारा विखंडन पूर्वक विद्युत तैयार होता है – वैसे ही परमाणु में परिवेशीय अंशों के वर्तुलात्मक गति से उत्पन्न चुम्बकीय प्रभाव का मध्यांशों के घूर्णन से विखंडन पूर्वक विद्युत तैयार होता है. व्यापक में संपृक्त रहने के फल में यह सब होता है.

प्रश्न: जड़ प्रकृति में जो कार्य-ऊर्जा प्रकट होती है, क्या मनुष्य उसको घटा-बढ़ा सकता है?

उसको घटना-बढ़ाना कुछ नहीं होता है, उपयोग करना होता है.

प्रश्न: एक पतीले में रखी दाल को हमने लकड़ी जला कर गर्म किया तो क्या इस प्रक्रिया में कार्य-ऊर्जा बढ़ी या वही रही?

कार्य-ऊर्जा बढ़ी नहीं. कार्य-ऊर्जा का हमने उपयोग किया. कुल वस्तु उतना ही रहा. परिवर्तन हुआ – लकड़ी राख बनी और दाल पक गयी. पर कुल कार्य-ऊर्जा वही रही.

प्रश्न: किसी धरती के विकसित होने में, उस पर क्रमशः अवस्थाओं के प्रगटन होने में क्या उसकी कार्य-ऊर्जा बढ़ती नहीं है?

धरती की कुल कार्य-ऊर्जा यथावत रहती है. कोई भी चीज न बढ़ती है, न घटती है. ह्रास-परम स्थिति में भी वस्तु उतना ही है. विकास-परम स्थिति में भी वस्तु उतना ही है. अस्तित्व में ऊर्जाएं यथावत रहते हैं, मात्राएं यथावत रहते हैं. परिवर्तन होता रहता है. परिवर्तन नहीं होता तो विकास होना ही नहीं था. परिवर्तन दो तरह का है – मात्रात्मक परिवर्तन और गुणात्मक परिवर्तन. इसमें मनुष्येत्तर प्रकृति में जो मात्रात्मक और गुणात्मक परिवर्तन हुआ है – वह व्यवस्था के अर्थ में हुआ है. मानव के प्रगटन में मात्रात्मक-परिवर्तन जो हुआ (शरीर-परंपरा के स्थापित होने में) – वह व्यवस्था के अर्थ में हुआ. पर गुणात्मक-परिवर्तन जो होना था, उसमें मानव पीछे है. यह बात तर्क-सम्मत है, व्यवहारिक है, और आवश्यक है.

प्रश्न: चैतन्य-प्रकृति का मानव जड़-प्रकृति की कार्य-ऊर्जा को कैसे उपयोग करता है?

चैतन्य-प्रकृति में चेतना ही कार्य-ऊर्जा है. जड़-प्रकृति में प्रगट होने वाले कार्य-ऊर्जा को मनुष्य उपयोग करता है. अब मानव को इन्हें “आबाद होने” या व्यवस्था के अर्थ में उपयोग करना है. अभी तक सभी मानवों ने – चाहे ज्ञानी हों, अज्ञानी हों, विज्ञानी हों - जड़-प्रकृति को बर्बाद करते हुए उपयोग किया कि नहीं? जड़-प्रकृति में तीनो ऊर्जाओं (ध्वनि, ताप, और विद्युत) को प्रकट करना ही उनका प्रयोजन है. जड़-प्रकृति की कार्य-ऊर्जा का प्रयोजन है अगली स्थितियों (रसायन-संसार, वनस्पति-संसार, जीव-संसार, और आगे मानव-संसार) के लिए उपयोगी होना. मानव को इन ऊर्जाओं का उपयोग करना है, उपलब्धियां पाना है, उनके स्त्रोत को बनाए रखते हुए, तथा जिससे प्रदूषण न हो. तथा इन ऊर्जाओं का मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना पूर्वक जीने में प्रयोग करना है.

“साम्य-ऊर्जा समस्त जड़-चैतन्य वस्तुओं को प्राप्त है.” आज प्रचलित-विज्ञान इस मुद्दे को पढ़ाने योग्य नहीं है. पहले कदम पर ही आज का विज्ञान गलत है – तो उसके आगे सही होने का रास्ता कहाँ है? मूल में ही हम भटके हैं तो सही होने की जगह कहाँ है? इस तरह चल कर गलतियों का मानव ने अंत-विहीन तरीके से अनुसंधान किया है. सहीपन के लिए कितने लोगों ने अपना सर लगाया?

कार्य-ऊर्जा की उपयोगिता को लेकर मानव ने जो भी काम किया वह साहसिक है. पर स्त्रोत को मिटा कर कार्य-ऊर्जा का उपयोग करना गलत हो गया, अपराधिक हो गया. जिसके फलस्वरूप ही प्रदूषण आना आदि हो गया. ऊर्जा तो मनुष्य को चाहिए. मानव ही अस्तित्व में सभी वस्तुओं के उपयोग और दुरूपयोग करने के अधिकार से संपन्न है. सदुपयोग पूर्वक विकास होता है. दुरूपयोग पूर्वक ह्रास होता है. अभी तक मानव में दुरूपयोग किया. सदुपयोग करने के लिए सद-बुद्धि चाहिए. मानव-चेतना से सद-बुद्धि की शुरुआत है.

सभी मनुष्य अपनी उपयोगिता प्रमाणित होने की इच्छा में ही जीना चाहते हैं. प्रयोजन पता नहीं होने पर परेशान होते ही हैं. उस परेशानी को दूर करने के लिए हम प्रस्ताव रखे हैं. जड़-प्रकृति साम्य-ऊर्जा में किस तरह संपृक्त है, और कार्य-ऊर्जा के रूप में किस प्रकार काम करता है, उसको स्पष्ट करने का कोशिश किया है. साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता वश क्रियाशीलता, क्रियाशीलता वश कार्य-ऊर्जा तैयार हुई. यह क्रियाशीलता संतुलन के अर्थ में है. मानव के अलावा शेष प्रकृति संतुलन के अर्थ में ही क्रियाशील है. मानव संतुलन और असंतुलन दोनों अर्थों में क्रियाशील दिखाई देता है. अस्तित्व में स्वयं असंतुलित रह कर असंतुलन फैलाने वाला मानव ही है. संतुलित रह कर नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य को प्रमाणित करने वाला भी केवल मानव ही है. मानव का संतुलित क्रियाकलाप मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना है. जो चाहते हैं, वही अपनाएं.

1. समझदारी से समाधान
2. श्रम से समृद्धि
3. अखंड-समाज से अभय
4. सार्वभौम-व्यवस्था से सह-अस्तित्व

इन चारों को प्रमाणित करने वाला केवल मानव है. इनको न जानवर प्रमाणित करेगा, न झाड करेगा, न मिट्टी-पत्थर करेगा.

-बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

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