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Thursday, January 27, 2011

"मैं" का आशय

भ्रमित स्थिति में जीवन की साढ़े चार क्रियाएं ही प्रभावी होती हैं, शेष साढ़े पांच क्रियाएं सुप्त रहती हैं। साढ़े चार क्रिया में जिसको मनुष्य "मैं" कहता है, वह शरीर ही है।

अनुभव मूलक विधि से जीवन की दसों क्रियाएं प्रगट होती हैं। अनुभव-मूलक विधि से मनुष्य जिसको "मैं" कहता है, वह शुद्धतः जीवन होता है। जीवन में भी "मैं" से आत्मा इंगित होता है।

प्रश्न: अध्ययन करते हुए मनुष्य जिसको "मैं" कहता है - वह किस स्तर से है?

अध्ययन करने की स्थिति में यही कहना बनता है - "मैं अनुभव के लिए अध्ययन कर रहा हूँ।" अध्ययन करते हुए "शरीर जीवन है" यह पूर्व-स्मृति भी रहती है, तथा साथ ही जीवन की दसों क्रियाओं का स्वरूप भी भास्-आभास में रहता है। इन दोनों को जोड़ कर आप "मैं" कहते हो।

जीवन की क्रियाओं को जीवन ही समझता है। मन को समझने वाला वृत्ति है। वृत्ति को समझने वाला चित्त है। चित्त को समझने वाला बुद्धि है। बुद्धि को समझने वाला आत्मा है। साथ ही, शरीर को समझने वाला मन है। समझने वाला ही मूल्याङ्कन करता है। "मन शरीर का मूल्यांकन करता है।" - यहाँ से अध्ययन की शुरुआत है।

मन वृत्ति में, वृत्ति चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में, और आत्मा अस्तित्व में अनुभव करता है। अनुभव मूलक विधि से जीवन की दसों क्रियाएं व्यक्त होती हैं। जिससे स्वयं पर विश्वास करना बनता है। स्वयं पर विश्वास करने से अच्छे ढंग से जीना बनता है। अच्छे ढंग से जीने की फिर परंपरा बनती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अक्टूबर २००८, चकारसी)

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