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Sunday, January 23, 2011

प्राणावस्था से जीवावस्था और ज्ञानावस्था तक प्रगटन


प्राण-सूत्रों में निहित रचना-विधि में विकास होते-होते जीव-शरीर को तैयार कर दिया. दूसरी ओर, गठन-पूर्ण परमाणु के स्वरूप में चैतन्य-प्रकृति शुरू हुआ. गठन-पूर्ण परमाणु अपने में एक कार्य-गति पथ बना कर रखता है – जो अपने में एक आकार होता है. उस आकार की शरीर-रचना प्राण-कोशिकाएं तैयार कर देते हैं. सह-अस्तित्व विधि से यह होता है. यह मनुष्य-कृत नहीं है.

एक तरफ जीवन एक आकार का कार्य-गति-पथ बनाता है, दूसरी तरफ प्राण-कोशिकाएं उसी आकार की शरीर-रचना तैयार कर देते हैं. इसको सह-अस्तित्व कहा जाए या नहीं कहा जाए? यहाँ से गठरी सब खुलता है. चैतन्य-परमाणु को जितनी आवश्यकता शरीर की है, शरीर को उतनी आवश्यकता चैतन्य-परमाणु की है. ऐसा कैसे? आकार के आधार पर. चैतन्य-प्रकृति के पुन्जाकार के अनुरूप शरीर का आकार होने पर दोनों का संयोग होता है. इसमें आकार को छोटा-बड़ा करने की अर्हता जीवन में रहती है, शरीर में नहीं. गर्भ में शिशु छोटे आकार का होता है, तो जीवन उसके अनुरूप छोटे आकार का हो जाता है. समृद्ध मेधस-तंत्र संपन्न शरीर को जीवन चलाना शुरू करता है. मेधस-तंत्र के बिना जीवन शरीर को चला नहीं पाता. गर्भ में किसी अवधि के बाद शिशु का मेधस-रचना पूरा होता है. मेधस-रचना पूरा होने के बाद जीवन उस शिशु-शरीर को गर्भ से ही संचालित करना शुरू कर देता है. मेधस-रचना पूरा होने से पहले जीवन उसे नहीं चलाता है. माँ के गर्भ में जब तक शिशु-शरीर को जीवन चलाना शुरू नहीं करता – तब तक उसमें हिल-डुल नहीं होता. माँ के शरीर द्वारा ही शिशु-शरीर का पोषण होता रहता है. जब तक शिशु-शरीर में ज्ञान-वाही तंत्र तैयार नहीं हो जाता तब तक माँ का जीवन ही शिशु के शरीर को जिन्दा रखता है. शिशु में ज्ञान-वाही तंत्र तैयार होने के बाद जीवन के बिना शिशु-शरीर जिन्दा नहीं रहता है.

प्रश्न: जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने का क्या अर्थ है?

प्राण-कोशिकाओं के ताना-बाना से शरीर बनता है. इन ताना-बाना के बीच में छिद्र होता है, जिनमे से जीवन घूमता रहता है, जिससे शरीर जीवंत बनता है. जहां प्राण-कोशायें मृत हो जाती हैं, वहाँ से जीवन घूमता नहीं है – शेष को जीवंत बना कर रखता है. ज्ञान-वाही तंत्र जब तक काम करता है तब तक जीवन जीवंत बनाने का काम करता है. जीव-शरीरों की प्राण-कोशिकाएं पेड़-पौधों की प्राण-कोशिकाओं से भिन्न तरह से काम करती हैं. पेड़-पौधों में जीवन द्वारा जीवंत बनाने की आवश्यकता और प्रावधान नहीं है. पेड़-पौधों से जीव-शरीरों तक प्राण-कोशिकाओं में मात्रात्मक-परिवर्तन के साथ-साथ गुणात्मक-परिवर्तन होता रहा.

प्रश्न: किसी जीव में जीवन है या नहीं – इसकी कैसे पहचान करेंगे?

सप्त-धातुओं से रचित शरीर हो, समृद्ध मेधस हो, और मानव के संकेतों को पहचानता हो – ऐसे सभी जीवों में जीवन है.

प्रश्न: एक गाय और एक घोड़े के शरीरों के चलाने वाले जीवनों में क्या अंतर है?

दोनों जीवन गठन-पूर्ण परमाणु हैं. उनके पुन्जाकार का ही अंतर है. घोड़े में वंश-अनुशंगीय विधि से विधि से जीवन घोड़े के अनुसार कार्य करता है. गाय में वंश-अनुशंगीय विधि से गाय के अनुसार कार्य करता है.

जीवन जीव-शरीरों को आशा-बंधन पूर्वक चलाने से शुरू करता है. आशा-बंधन पूर्वक जब तृप्ति नहीं मिलती है तब गुणात्मक-विकास विधि से मनुष्य-शरीर के आकार में स्वयं पुन्जाकार होता है. मनुष्य-शरीर सर्व-प्रथम किसी जीव-शरीर से ही पैदा होता है. उसके बाद प्रजनन विधि से उसका परंपरा बनता है.

मानव-परंपरा में समझ के अनुसार जीवन के शरीर को चलाने की बात होती है. मानव-परंपरा में समझ न होने के कारण भटक जाता है. मानव-परंपरा में यदि समझ होता तो वह क्यों भटकता?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २०१०, अमरकंटक)

2 comments:

Gopal Bairwa said...

Hi Rakesh,

What can possibly be the reason for this ?

"शिशु में ज्ञान-वाही तंत्र तैयार होने के बाद जीवन के बिना शिशु-शरीर जिन्दा नहीं रहता है." if it can be enlivened by mother's jeevan before gyan vahi tantra is ready, why not after ? if you have any clue , please share.


Regards,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

Dear Gopal,

co-existence is optimal and every stage prepares the ground for the next stage. When the neuro system in the body of to-be-born child becomes ready, that is the right stage for getting enlivened by a new jeevan, which is a step towards child's birth. The to-be-born child begins living before getting born.

regards,
Rakesh...